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श्री कृष्ण स्मृति भाग 134

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  भगवान श्री कृष्ण को सही ढंग से कितने और कब आत्मसात किया? हमें उनको आत्मसात करना हो तो क्या करें? कृष्ण को आत्मसात कर मनुष्य—सभ्यता और संस्कृति जिन आयामों में प्रवेश कर पायेगी उसकी रूपरेखा प्रस्तुत करने की कृपा करें। कोई किसी दूसरे को आत्मसात कैसे कर सकता है? करे भी क्यों! दायित्व भी वैसा नहीं है। मैं अपने को ही आत्मसात करूंगा, कृष्ण को कैसे करूंगा? और जब कृष्ण खुद को आत्मसात करते हैं, तो कृष्ण को कोई दूसरा आत्मसात करने क्यों जाये? नहीं, दूसरे को आत्मासात करना व्यभिचार है। दूसरे को आत्मसात करना अपने साथ अन्याय है। दूसरे को आत्मसात करने की बात ही गलत है। मेरी अपनी आत्मा है। वह खिलनी चाहिये। अगर मैं दूसरे को आत्मसात करूं तो मेरी आत्मा का क्या होगा? हां, दूसरा मुझपर हावी हो जायेगा, दूसरा मुझपर चढ़ जायेगा, दूसरे को मैं ओढ़ लूंगा, मेरा क्या होगा? मेरा दायित्व मेरे होने के प्रति है। नहीं, कृष्ण को समझना काफी है, आत्मसात करने की कोई भी जरूरत नहीं है। समझना पर्याप्त है। और समझना इसलिये नहीं कि पीछे जाना है, आत्मसात करना है, एक हो जाना है कृष्ण से। समझना इसलिये कि कृष्ण जैसा व्यक्ति जब खिलता है

श्री कृष्ण स्मृति भाग 133

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  ‘’भगवान श्री कृष्ण के संदर्भ में जीसस पर चर्चा करते समय एक बार आपने कहा कि जीसस के ’क्रॉस' से जिस सभ्यता का आरम्भ हुआ उसका अंत आधुनिक स्थिति में एटम बम पर जाकर हुआ। और आधुनिक सभ्यता को अभी वर्तमान स्थिति में’क्रॉस या वंशी के बीच चुनाव करना है। कृपया इस बात को फिर स्पष्ट करें। तथा जिस प्रकार’क्रॉस' की संस्कृति का अंत एटम बन पर हुआ है अभी उसी प्रकार वंशी से जो जीवनधारा चली उसका भी तो अंत सुदर्शनचक्र और महाभारत पर हुआ था। मैं यह पूछना चाहूंगा कि आप’क्रॉस’ और एटम बम का जोड़ बुनेगे कि वंशी और महाभारत का जोड़ भारत के लिये चुनेगे?’’ क्रॉस’ मृत्यु का सूचक है। कब्र पर लगता है तो उसका अर्थ है, और जब जीवन पर लग जाता है तो खतरनाक है। लेकिन, बहुत सारे तथाकथित धार्मिक लोगों ने मनुष्य के शरीर को कब्र ही समझा है। उनकी इस समझ का परिणाम खतरनाक होने वाला है। और अगर मनुष्य की छाती पर’क्रॉस लटका दिया जाये, जैसे  क़ब्र पर ’क्रॉस' लगा होता है, तो हम जीवन को स्वीकार नहीं करते, अस्वीकार की घोषणा करते हैं। हम जीवन को वरदान नहीं मानते हैं, अभिशाप मानते हैं। ईसाइयत — जीसस का नाम नहीं कह रहा हूं — ईसाइ

श्री कृष्ण स्मृति भाग 132

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 "सेक्स' के संबंध में श्रीकृष्ण के विद्रोही और क्रांतिकारी अनुदान पर सविस्तार प्रकाश डालने की कृपा करें। दो पूरक प्रश्न भी हैं।' * बोलो-बोलो, पहले बोलो। "श्रीकृष्ण के प्रति स्त्रियों के अति आकर्षित होने में क्या कारण थे? हजारों-लाखों गोपियां उनके पीछे दीवानी थीं, और उनके सहवास से ही उन्हें तृप्ति मिलती थी, ऐसा क्यों होता था? यदि प्रेमपूर्णता से कामशून्यता आती है, तो कामशून्यता की उपलब्धि के बाद कैसे बच्चे पैदा होंगे? अर्थात कामशून्यता में संभोग कैसे घटित होगा? क्या आत्म-समाधि, ब्रह्म-समाधि और निर्वाण-समाधि के बाद संभोग संभव है? क्योंकि संभोग के लिए प्राणों की चंचलता आवश्यक है न?' * इस संबंध में बहुत-सी बात तो हो गई है, इसलिए कुछ थोड़ी-सी बातें और खयाल में ले लेनी चाहिए। कृष्ण के प्रति आकर्षण लाखों स्त्रियों का ठीक ऐसा ही है जैसे पहाड़ से पानी भागता है नीचे की तरफ और झील में इकट्ठा हो जाता है? अगर हम पूछेंगे तो उत्तर यही होगा कि क्योंकि झील झील है। गङ्ढा है, पानी गङ्ढे में भर जाता है। गिरता है पर्वत के शिखर पर, भरता है झील में। पर्वत के शिखर पानी को नहीं रोक पाते हैं

श्री कृष्ण स्मृति भाग 131

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 "भगवान श्री, स्थितप्रज्ञ और भक्त में क्या समानता है और क्या भिन्नता है, यह भी प्रश्न के पिछले अंश में था।' स्थितप्रज्ञ और भक्त में क्या भेद या समानता है? स्थितप्रज्ञ का अर्थ है, जो अब भक्त नहीं रहा, भगवान हो गया। भक्त का अर्थ है, जो भगवान होने की यात्रा पर है। भक्त रास्ते में है, स्थितप्रज्ञ पहुंच गया है। रास्ता वही है, पहुंचना वहीं है। लेकिन यह मुकाम पर पहुंचे हुए आदमी का नाम है, स्थितप्रज्ञ। और भक्त यात्री का नाम है जो चल रहा है। समानता होगी ही, क्योंकि रास्ता और मंजिल जुड़े होते हैं--अन्यथा रास्ता मंजिल तक कैसे पहुंचेगा। समानता होगी ही, क्योंकि मंजिल सिर्फ रास्ते की पूर्णता है। जहां रास्ता पूरा हो जाता है, वहां मंजिल आ जाती है। समानता होगी ही, क्योंकि जो रास्ते पर है वह एक अर्थ में मंजिल पर ही है, थोड़ा फासला है, बस। "डिस्टेंस' का फासला है। अंतर जो है, वह पहुंचने का और पहुंचते होने का है। भक्त चल रहा है, स्थितप्रज्ञ बैठ गया, पहुंच गया। इसलिए भक्त के लिए वे सारी अपेक्षाएं हैं, जो स्थितप्रज्ञ की उपलब्धि बनेंगी। क्योंकि तभी वह वहां तक पहुंच सकेगा। भक्त की आखिरी मंजिल उ

श्री कृष्ण स्मृति भाग 130

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  "भगवान श्री, अभी आपने कृष्ण के अचुनाव के संबंध में कहा। परंतु गीता में उल्लेख है कि उत्तरायण का सूर्य हो तब जिसका अंत हो तो मोक्ष होता है। यदि दक्षिणायण का सूर्य हो तो क्या कोई तकलीफ पड़ती है? और स्थितप्रज्ञ और भक्त के विषय में गीता में जो बात कही है, इन दोनों में क्या समानता या भिन्नता है? स्थितप्रज्ञ मनुष्य सुख में अनुद्विग्न रहेगा और दुख में भी अनुद्विग्न रहेगा, तो ऐसी मुसीबत खड़ी होने की शक्यता नहीं कि सुख-दुख दोनों में उसकी संवेदनशीलता, "सेंसिटिविटी' "ब्लंट' हो जाए? अगर सुख को सुख की भांति और कष्ट को कष्ट की भांति न ले, तो उसकी संवेदना को "हयूमन' कैसे कहेंगे हम?' यह सूत्र बहुत बहुमूल्य है। कृष्ण का यह कहना कि सुख और दुख में अनुद्विग्न रहे, वही स्थितप्रज्ञ है। यह प्रश्न बहुत अच्छा है, अर्थपूर्ण है कि यदि सुख में कोई सुखी न हो और दुख में कोई दुखी न हो, तो क्या उसकी संवेदनशीलता, उसकी "सेंसिटिविटी' मर नहीं जाएगी? दो उपाय हैं सुख और दुख में अनुद्विग्न होने के। एक उपाय यही है जो प्रश्न में उठाया गया है। एक उपाय यही है कि अगर संवेदनशीलता मार ड

श्री कृष्ण स्मृति भाग 129

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 "भगवान श्री, महावीर की वीतरागता, क्राइस्ट की "होली इनडिफरेंस', बुद्ध की उपेक्षा, कृष्ण की अनासक्ति, इनमें क्या सूक्ष्म समानता व भिन्नता है? इस पर प्रकाश डालें।' क्राइस्ट की तटस्थता, बुद्ध की उपेक्षा, महावीर की वीतरागता और कृष्ण की अनासक्ति, इनमें बहुत-सी समानताएं हैं, लेकिन बुनियादी भेद भी हैं। समानता अंत पर है, उपलब्धि पर है, भेद मार्ग में हैं। अंतिम क्षण में ये चारों बातें एक ही जगह पहुंचा देती हैं। लेकिन चारों के रास्ते बड़े अलग-अलग हैं। जीसस जिसे तटस्थता कहते हैं, बुद्ध जिसे उपेक्षा कहते हैं, इनमें बड़ी गहरी समानता है। यह जगत जैसा है, इस जगत की धाराएं जैसी हैं, इस जगत के अंतर्द्वंद्व जैसे हैं, इस जगत के भेद और विरोध जैसे हैं, उनके प्रति कोई तटस्थ हो सकता है। लेकिन तटस्थता कभी भी प्रसन्नता नहीं हो सकती। तटस्थता बहुत गहरे में उदासी बन जाएगी। इसलिए जीसस उदास हैं। और अगर वे किसी आनंद को भी पाते हैं, तो वह इस उदासी के रास्ते से ही उन्हें उपलब्ध होता है। लेकिन उनका पूरा रास्ता उदास है। वे इस जीवन के पथ पर गीत गाते हुए नहीं निकलते। तटस्थता उदासी बन ही जाएगी। और जीसस की तट