श्री कृष्ण स्मृति भाग 131

 "भगवान श्री, स्थितप्रज्ञ और भक्त में क्या समानता है और क्या भिन्नता है, यह भी प्रश्न के पिछले अंश में था।'


स्थितप्रज्ञ और भक्त में क्या भेद या समानता है? स्थितप्रज्ञ का अर्थ है, जो अब भक्त नहीं रहा, भगवान हो गया। भक्त का अर्थ है, जो भगवान होने की यात्रा पर है। भक्त रास्ते में है, स्थितप्रज्ञ पहुंच गया है। रास्ता वही है, पहुंचना वहीं है। लेकिन यह मुकाम पर पहुंचे हुए आदमी का नाम है, स्थितप्रज्ञ। और भक्त यात्री का नाम है जो चल रहा है।

समानता होगी ही, क्योंकि रास्ता और मंजिल जुड़े होते हैं--अन्यथा रास्ता मंजिल तक कैसे पहुंचेगा। समानता होगी ही, क्योंकि मंजिल सिर्फ रास्ते की पूर्णता है। जहां रास्ता पूरा हो जाता है, वहां मंजिल आ जाती है। समानता होगी ही, क्योंकि जो रास्ते पर है वह एक अर्थ में मंजिल पर ही है, थोड़ा फासला है, बस। "डिस्टेंस' का फासला है। अंतर जो है, वह पहुंचने का और पहुंचते होने का है। भक्त चल रहा है, स्थितप्रज्ञ बैठ गया, पहुंच गया। इसलिए भक्त के लिए वे सारी अपेक्षाएं हैं, जो स्थितप्रज्ञ की उपलब्धि बनेंगी। क्योंकि तभी वह वहां तक पहुंच सकेगा।

भक्त की आखिरी मंजिल उसका भक्त होना मिट जाने की है। जब तक वह भगवान न हो जाए, तब तक तृप्ति नहीं हो सकती। भक्त कितना ही चिल्लाए और रोए परमात्मा के मिलन को और मिलन हो भी जाए और दोनों आलिंगनबद्ध खड़े भी हो जाएं, तो भी भक्त का चिल्लाना बंद नहीं होगा। क्योंकि आलिंगन कितने ही निकट हो फिर भी दूर है। और हम किसी को कितने ही छाती से लगा लें, फिर भी दोनों के बीच फासला है। अंतर तो पूर्ण तभी मिट सकता है जब एक ही हो जाएं। इंच भर का अंतर भी उतना ही है जितना लाख मील का अंतर है। अंतर में कोई फर्क नहीं पड़ता। इंच के हजारवें हिस्से का अंतर भी उतना ही अंतर है जितना कि लाख मील का अंतर है। तो भक्त की तृप्ति तब भी नहीं हो सकती जब भगवान की छाती से लगकर वह बैठ जाए, तब भी नहीं हो सकती। तब भी फासला है।

यह तकलीफ तो प्रेमी की है। प्रेमी का कष्ट यही है कि वह कितने ही पास आ जाए, तो भी दुखी रहेगा। प्रेमी को कितना ही पा ले तो भी दुखी रहेगा। अगर यह बात समझ में आ जाए तो उसका दुख असल में यह है कि जब तक वह प्रेमी ही न हो जाए तब तक दुखी रहेगा, और यह होना बड़ा मुश्किल है। प्रेम के तल पर तो होना मुश्किल है। बहुत मुश्किल है। कैसे यह होगा! कितने ही पास आते हैं, इसलिए प्रेमी जितने पास जाएंगे उतना ही कष्ट शुरू होने लगेगा। क्योंकि जितने पास आएंगे उतना "डिसइलूज़नमेंट' होगा। दूर थे तो यह खयाल था कि पास आने से सुख मिल जाएगा। फिर जब पास ही आ गए, अब कैसे सुख मिलेगा! अब और पास आने का कोई उपाय ही न रहा। और तब प्रेमी एक-दूसरे पर क्रोधित होना शुरू हो जाते हैं। शायद सोचते हैं कि दूसरा कुछ बाधा डाल रहा है; दूसरा कोई नुकसान पहुंचा रहा है, दूसरा शायद ठीक से प्रेम नहीं कर रहा है; दूसरा शायद धोखा दे गया, दूसरा शायद किसी और के प्रेम में पड़ गया है, यह प्रेमी की चिंता शुरू हो जाती है पास आने पर। असली कारण यह है कि प्रेमी तब तक तृप्त नहीं हो सकता जब तक कि वह इतने निकट न आ जाए कि दूरी ही न बचे। यह तो तभी हो सकता है जब वह एक हो जाए।

इसलिए जो भी प्रेमी हैं, वे आज नहीं कल भक्त बनने शुरू हो जाएंगे, क्योंकि तब फिर शरीरधारी व्यक्ति के इतने निकट आना असंभव है। तब अशरीरी परमात्मा के निकट ही इतना आया जा सकता है, जहां कि कोई फासला ही न बचे। तो सब प्रेमी आज नहीं कल भक्त बनेंगे और सब प्रेम-निवेदन आज नहीं कल प्रार्थना बन जाते हैं। अंततः बनने ही चाहिए। अन्यथा दुख देते रहेंगे। जो प्रेमी भक्त नहीं बन पाता, वह सदा दुखी रहेगा। क्योंकि आकांक्षा उसकी भक्त की है और मांग वह प्रेम से पूरी करना चाह रहा है। चाहता कुछ और है, कर कुछ और रहा है। चाहता वह यह है कि बिलकुल एक हो जाऊं, इतना फासला भी न रहे कि मैं और तू का फासला भी बचे, चाहता वह यह है। लेकिन जिससे वह यह करना चाह रहा है उससे यह नहीं हो सकता है। उससे मैं और तू का फासला बना ही रहेगा। दो व्यक्ति कभी इतने निकट नहीं आ सकते जहां कि मैं और तू का फासला गिर जाए, सिर्फ दो अव्यक्ति इतने निकट आ सकते हैं जहां मैं और तू का फासला मिट जाए। परमात्मा अव्यक्ति है। जिस दिन भक्त भी अव्यक्ति हो जाएगा, उस दिन उपलब्धि हो जाएगी। जब तक भक्त बचा है--परमात्मा तो है ही नहीं इस अर्थ में, जिस अर्थ में भक्त है। परमात्मा का तो होना न-होने जैसा है। उसकी उपस्थिति अनुपस्थिति जैसी है।

यह बड़े मजे की बात है। यह थोड़ा खयाल में लेना जरूरी है।

अगर हम निरंतर पूछते हैं--दुनिया में सारे भक्तों ने पूछा है--कि परमात्मा प्रगट क्यों नहीं होता? क्योंकि अगर परमात्मा प्रगट हो जाए तो उससे मिलन असंभव है। सिर्फ अप्रगट से ही पूर्ण मिलन हो सकता है। भक्तों ने निरंतर पूछा है कि तुम छिपे क्यों हो? सामने क्यों नहीं आते हो? अगर वह सामने आ जाए तो इतना बड़ा पर्दा गिर जाएगा कि फिर मिलन हो ही नहीं सकता है। वह छिपा है, इसलिए मिलने की संभावना है। वह अदृश्य है, इसलिए उसमें डूबा जा सकता है। वह दृश्य बन जाए तो दीवाल बन जाएगी और मिलन असंभव है।

एक बहुत अदभुत फकीर इकहार्ट ने कहा है, परमात्मा को धन्यवाद दिया है कि तेरी अनुकंपा अपार है कि तू दिखाई नहीं पड़ता। तेरी अनुकंपा अपार है कि तू पकड़ में नहीं आता। तेरी अनुकंपा अपार है कि तू खोजे से कहीं भी नहीं मिलता, कहीं भी नहीं पाते हैं तुझे। क्यों है तेरी अनुकंपा अपार? क्योंकि इस भांति तू हमें भी यह निरंतर सिखाए जाता है कि जब तक तुम भी ऐसे न हो जाओ कि खोजे से न मिलो, कि जब तक तुम भी ऐसे न हो जाओ कि दिखाई न पड़ो, जब तक तुम भी ऐसे न हो जाओ कि न-होने जैसे हो जाओ, तब तक मिलन असंभव है। भगवान तो अरूप है, जिस दिन भक्त भी अरूप हो जाता है उस दिन मिलन हो जाता है। इसलिए बाधा सिर्फ भक्त की तरफ से है, भगवान की तरफ से कोई बाधा नहीं है।

स्थितप्रज्ञ का अर्थ है, भक्त जो अरूप हो गया। अब वह भगवान को भी नहीं चिल्लाता, क्योंकि कौन चिल्लाए? अब वह प्रार्थना भी नहीं करता, क्योंकि कौन करे? किसकी करे? या अब हम ऐसा कह सकते हैं कि वह जो भी करता है वही प्रार्थना है। या अब वह जो भी चिल्लाता है या नहीं चिल्लाता है, वही भगवान के लिए निवेदन है। अब हम दोनों तरह से कह सकते हैं। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है कि मनुष्य भी वैसा हो गया जैसा परमात्मा है। भक्त का अर्थ है कि उसने यात्रा तो शुरू की परमात्मा की तरफ, लेकिन अभी वह मनुष्य है। और उसकी सब आकांक्षाएं, अपेक्षाएं मनुष्य की हैं। मीरा कितनी चिल्ला रही है। उसके गीत बड़े अदभुत हैं। इस अर्थ में अदभुत हैं कि वे बड़े मानवीय हैं। उसकी सारी चिल्लाहट एक प्रेमी की चिल्लाहट है। एक भक्त की। वह कहती है कि सेज सजा दी और तुम आ जाओ। अब मैं तुम्हारे लिए द्वार खोल कर प्रतीक्षा कर रही हूं। ये सब मानवीय प्रतीक्षाएं हैं।

भक्त का मतलब है, मनुष्य जो परमात्मा की तरफ चल पड़ा, लेकिन अभी मनुष्य है। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है, मनुष्य अब मनुष्य नहीं रहा, अब वह किसी की तरफ नहीं जा रहा है, अब जाने का कोई सवाल नहीं रहा, अब वह जहां है वहीं है और वहीं परमात्मा तो सदा था, सिर्फ हम अरूप हो जाते, हम अदृश्य हो जाते, हम न हो जाते। जीसस का वचन है, जो अपने को बचाएगा, वह खो देगा। और जो अपने को खो देता है, वह पा लेता है। स्थितप्रज्ञ ने अपने को खो दिया, इसलिए पा लेता है। भक्त अभी पाने चला है, और खुद है। अनुभव उसे धीरे-धीरे मिटाएगा। कबीर का वचन है कि खोजते-खोजते फिर मैं ही खो गया। और कोई उपाय न था। खोजने निकले थे किसी को। आखिर में पाया कि खोज ने खुद को ही छीन लिया। "हेरत हेरत हे सखी, गया कबीर हेराय'। खोजने निकले थे सखी, लेकिन आखिर ऐसा हुआ कि वह तो मिला नहीं, खुद ही खो गए। लेकिन जिस दिन खो गए, उस दिन खोज पूरी हो जाती है। उस दिन वह मिला ही हुआ है।

लाओत्से का बहुत अदभुत वचन है। लाओत्से कहता है, "सीक एंड यू विल नाट फाइंड' खोजो और तुम न पा सकोगे। "डू नाट सीक एंड फाइंड'। मत खोजो और पाओ। "बिकाज़ ही इज़ हियर एंड नाव'। वह अभी और यहीं है। खोज की वजह से तुम दूर निकल जाते हो। क्योंकि कोई भी यहीं और अभी नहीं खोजेगा। खोज का मतलब ही कहीं और है। तो खोजने कोई मक्का जाएगा, कोई मदीना जाएगा, कोई काशी जाएगा, कोई मानसरोवर जाएगा, कैलास जाएगा। खोजने कहीं जाएगा, ...हां-हां, कोई मनाली जाएगा।...और वह वहीं है, यहीं है, अभी है। इसलिए खोजने वाला उसे जब तक खोजता है तब तक खोता चला जाता है। जिस दिन खोजने वाला खोज-खोज कर थक जाता है और मिट जाता है और गिर जाता है, तब वह मनाली में गिरे, कि मक्का में, कि मदीना में, काशी में, कि कैलाश पर, वह कहीं भी गिर जाए, कहीं भी, वह जहां भी गिर जाए वहीं पाता है कि वह मौजूद है। वह सदा मौजूद है, हमारी मौजूदगी बाधा है। हम गैर-मौजूद हो जाएं।

भक्त अभी मौजूद है, स्थितप्रज्ञ गैर-मौजूद हो गया। भक्त की अभी "प्रेजेंस' है, स्थितप्रज्ञ की कोई "प्रेजेंस' नहीं है। वह "एब्सेंट' हो गया। वह अब है नहीं। यह भी समझ लेना जरूरी है कि जब तक भक्त "प्रेजेंट' है तब तक ईश्वर "एब्सेंट' रहेगा। जब तक भक्त मौजूद है, तब तक ईश्वर गैर-मौजूद है। और इसलिए भक्त ईश्वर को "प्रॉक्सी'(प्रतिनिधि) की तरकीब से मौजूद करता रहता है। कभी मूर्ति बनाकर रख लेता है, कभी मंदिर बना लेता है, यह "प्रॉक्सी' है। इससे कोई हल नहीं है। यह भक्त का ही बनाया हुआ खेल है। यह भी थोड़े दिन में ऊब जाएगा। अपने ही बनाए हुए भगवान से बहुत तृप्ति नहीं मिल सकती। कैसे मिलेगी, कब तक मिलेगी? "प्रॉक्सी' पकड़ में आ ही जाएगी। तब वह फेंक देगा मूर्तियों-वूर्तियों को। वह कहेगा मैं उसी को चाहता हूं, जो है। लेकिन वह तभी मिलता है जब मैं नहीं हूं, एक ही शर्त है उसकी। मेरा होना ही दीवाल है, मेरा न-होना द्वार बन जाता है। बस भक्त और स्थितप्रज्ञ में उतना ही फर्क है।

स्थितप्रज्ञ द्वार है, भक्त अभी दीवाल है। दीवाल हम भी हैं, लेकिन भक्त ऐसी दीवाल है जिसके भीतर चीख-पुकार शुरू हो गई, भक्त ऐसी दीवाल है जिसने दरवाजे होने की तरफ श्रम शुरू कर दिया। हम ऐसी दीवाल हैं जो आराम से विश्राम कर रहे हैं। जिनकी कोई यात्रा शुरू नहीं हुई है।

ओशो रजनीश



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