श्री कृष्ण स्मृति भाग 11
"भगवान श्री, कृष्ण का जन्म आज से कितने वर्ष पहले हुआ था? इस संबंध में आज तक क्या शोध हुई है? आपका अपना निर्णय क्या है? और क्या समाधिस्थ व्यक्ति इसका ठीक उत्तर नहीं दे सकता है?'
कृष्ण कब जन्मे, कब मरे, इसका कोई हिसाब नहीं रखा गया है। न रखने का कारण है।
जिन्हें हम सोचते हैं कि जो कभी जन्मते नहीं और कभी मरते नहीं, उनका हिसाब रखना हमने उचित नहीं माना। हिसाब उनका रखना है, जो कभी जन्मते हैं और मरते हैं। उनका हिसाब रखने का क्या अर्थ है, जो कभी जन्मते ही नहीं और मरते ही नहीं। ऐसा नहीं है कि हिसाब हम नहीं रख सकते थे। इसमें कोई कठिनाई न थी। लेकिन वैसा हिसाब कृष्ण के व्यक्तित्व के बिलकुल ही खिलाफ पड़ता है। हमने कोई तिथि-वार का हिसाब कभी नहीं रखा।
पूरब के मुल्कों ने अपने महापुरुषों के जन्म और मृत्यु का कोई हिसाब रखने की कोशिश नहीं की, पश्चिम के मुल्कों ने ही कोशिश की है। उसका कारण है। और जब से पश्चिम का प्रभाव पूरब पर पड़ा है, तब से हमने भी फिकिर की है। उसका भी कारण है। पश्चिम की एक "धारणा' है, सभी उन धर्मों की जो यहूदी-परंपरा में पैदा हुए--चाहे ईसाइयत, चाहे इस्लाम--उनकी धारणा है एक ही जन्म की। एक जन्म और मृत्यु के बीच में सब समाप्त हो जाता है। न उसके पीछे कुछ, न उसके आगे कुछ। फिर कोई जन्म नहीं है।
स्वभावतः, जिनकी ऐसी धारणा हो कि एक जन्म-तिथि और मृत्यु-तिथि के बीच जीवन पूरा हो जाता है, न उसके पीछे, न उसके आगे जीवन की कोई यात्रा है, उन्हें जन्म और मृत्यु की तिथि को अगर रखने का बहुत मोह रहा हो तो आकस्मिक नहीं है। लेकिन जिन्होंने ऐसे जाना हो कि जन्म बहुत बार होता है, बहुत बार आता है और जाता है, अनंत बार आना होता है, अनंत बार जाना होता है, वह हिसाब भी रखें तो कितना हिसाब रखें? कैसे हिसाब रखें? उनका हिसाब रखना उनके अपने ही विचार को झुठलाना होगा। इसलिए उन्होंने हिसाब नहीं रखा।
जानकर ही यह हुआ है, सोचकर यह हुआ है, समझ कर यह हुआ है। हिसाब नहीं रख सकते थे, ऐसी कोई कमी के कारण नहीं हुआ है। संवत-सन् नहीं थे हमारे पास, ऐसा नहीं हैं। दुनिया में सबसे पुराना संवत हमने ही पैदा किया है। लेकिन जानकर हमने यह बात छोड़ दी।
दूसरी बात पूछी है कि क्या समाधिस्थ व्यक्ति यह नहीं बता सकता कि ठीक तारीख क्या है, जब कृष्ण पैदा हुए?
गैर-समाधिस्थ बता भी दे, समाधिस्थ बिलकुल नहीं बता सकता। क्योंकि समाधि का समय से कोई संबंध नहीं है। समाधि जहां शुरू होती है वहां समय समाप्त हो जाता है। समाधि "नॉनटेंपोरल' है, समय का उससे कोई वास्ता नहीं है। वह कालातीत है। समाधि का अर्थ ही है, समय के बाहर हो जाना। जहां घड़ी-पल मिट जाते हैं, जहां परिवर्तन खो जाता है। जहां वही रह जाता है जो सदा से है। जहां अतीत नहीं होता, जहां भविष्य नहीं होता, जहां सिर्फ वर्तमान रह जाता है। जहां घड़ी के कांटे एकदम ठहर जाते हैं और नहीं चलते। समाधि क्षण में घटित नहीं होती, क्षण के बाहर घटित होती है।
तो समाधिस्थ तो बिलकुल नहीं बता सकेगा। कृष्ण कब पैदा हुए और मरे, यह तो बता नहीं सकेगा, समाधिस्थ यह भी बता नहीं सकेगा कि मैं कब पैदा हुआ और कब समाप्त हो जाऊंगा। समाधिस्थ इतना ही कह सकेगा, कैसा पैदा होना, कैसा मरना। न मैं कभी पैदा हुआ, न मैं कभी मरूंगा। अगर समाधिस्थ से हम पूछें कि यह जो समय की धारा बह रही है, यह जो क्षण आते हैं और जाते हैं, यह कुछ आता है, व्यतीत हो जाता है; कुछ आता है, आ रहा है; कुछ अतीत हो गया है, कुछ भविष्य है; इसके संबंध में क्या खयाल है? समाधिस्थ कहेगा, न कुछ आता है, न कुछ जाता है। जो यहां है, वहीं है। सब वहीं ठहरा है। जाने और आने का खयाल, समय की धारणा, गैर-समाधिस्थ मन की धारणा है--"टाइम एज़ सच'। समय मन की ही उत्पत्ति है। जैसे ही हम मन के बाहर गए, वहां कोई समय नहीं है। इसे दोत्तीन बातों में समझने की कोशिश करें--
समय मन की उत्पत्ति है जब हम कहते हैं, तो बहुत कारणों से कहते हैं। पहला कारण तो यह है कि अगर आप सुख में हैं तो समय सिकुड़ जाता है। अगर आप दुख में हैं तो समय फैल जाता है। अगर आप किसी प्रियजन से मिल रहे हैं तो घड़ियां जल्दी भागती मालूम पड़ती हैं, और किसी शत्रु से मिलते हैं तो बड़ी मुश्किल से गुजरती मालूम पड़ती हैं। घड़ी अपने ढंग से कांटे घुमाए चली जाती है, लेकिन मन! अगर रात घर में कोई मर रहा है, मरणशैया पर पड़ा है, तो रात कटती हुई मालूम नहीं होती। रात बहुत लंबी हो जाती है। ऐसा लगता है कि अब यह रात शुरू हुई तो समाप्त होगी कि नहीं होगी। घड़ी अपने ढंग से घूमती है। लेकिन ऐसा लगता है, आज घड़ी घूम रही है या नहीं घूम रही है? कांटे धीमे चल रहे हैं? लेकिन कोई प्रियजन आ गया है, रात ऐसे बीत जाती है जैसे क्षण में बीत गई। और डर लगता है कि अब बीती, अब बीती, जल्दी बीत रही है, घड़ी जल्दी क्यों चल रही है? घड़ी जल्दी नहीं चलती है, घड़ी अपने ढंग से चलती रहती है, लेकिन मन की स्थितियों पर समय का माप निर्भर करता है।
आइंस्टीन से लोग पूछा करते थे कि तुम्हारी यह "रिलेटिविटी' की, तुम्हारी यह जो सापेक्षता की धारणा है, यह हमें समझाओ। तो आइंस्टीन कहता था, यह बड़ा कठिन है। और शायद जमीन पर दस-बारह आदमी हैं जिनसे मैं बात कर सकता हूं इस संबंध में, सभी से बात नहीं कर सकता। लेकिन फिर भी तुम्हारे समझ में आ सके, ऐसा मैं तुम्हें उदाहरण देता हूं...आइंस्टीन इसे समझाने को एक छोटा-सा उदाहरण दिया करता करता था। वह कहता था, अगर किसी आदमी को गर्म स्टोव के पास बिठा दिया जाए, तो समय और तरह से बीतता है। उसे अपनी प्रेयसी के पास बिठा दिया जाए तो समय और तरह से बीतता है। हमारा सुख, हमारा दुख हमारे समय की लंबाई को तय करता है।
समाधि सुख और दुख के बाहर है। समाधि आनंद की अवस्था है। वहां कोई लंबाई ही नहीं रह जाती। वहां समय बचता ही नहीं। समाधि के क्षण में तो कोई नहीं कह सकता है कि कृष्ण कब पैदा हुए, कब विदा हुए, समाधि के क्षण में तो कोई कहेगा कि कृष्ण हैं ही। उनका होना शाश्वत है। और कृष्ण का होना ही शाश्वत नहीं है, होना तो हमारा भी शाश्वत है। सब होना शाश्वत है।
रात आप स्वप्न देखते हैं, शायद कभी खयाल न किया हो कि स्वप्न में समय की स्थिति बिलकुल बदल जाती है जागने से। एक आदमी ने झपकी ली है क्षण-भर की और वह सपना देखता है इतना बड़ा जिसे देखने में वर्ष-भर लग जाए। वह देखता है उसका विवाह हो गया, उसके बच्चे हो गए, वह बच्चों की शादियां कर रहा है--वर्षों लग जाएं। क्षण-भर झपकी लगी है और आंख खुली है, वह हमें कहता है, इतना लंबा सपना देखा। हम उससे कहेंगे, पागल हो गए हो? इतना लंबा सपना क्षण-भर में कैसे देखोगे? अभी तो तुम जागते थे, अभी तुम जरा-सी झपकी लिए, आंख लगी ही थी और खुल गई, इस पलक झपने में तुम इतना लंबा सपना देख कैसे सकोगे? वह कहेगा, देख कैसे सकूंगा नहीं, मैंने देखा।
स्वप्न में मन बदल जाता है इसलिए समय की धारणा बदल जाती है। गहरी नींद में, सुषुप्ति में समय नहीं रह जाता। इसलिए आप जब बताते हैं कि रात बहुत गहरी नींद आई, तब भी आप जो समय का पता लगाते हैं वह समय का पता गहरी नींद से नहीं लगता, वह कब आप सोए, और कब आप जागे, इन दो छोरों के बीच में जो गुजर गया उसका हिसाब आप रख लेते हैं। लेकिन अगर आपसे कोई पूछे कि आपको बताया न जाए कि कब आप सोए कब आप जागे, तो आप कितनी देर सोए? आप बता न सकेंगे। मैं एक स्त्री को देखने गया, वह नौ महीनों से बेहोश है, और चिकित्सक कहते हैं वह तीन साल तक बेहोश रहेगी, और शायद बेहोशी में ही मरेगी। संभावना कम है कि उसका होश वापस आए। अगर तीन साल बाद वह स्त्री होश में आई, तो क्या बता सकेगी कि वह तीन साल तक बेहोश थी? इधर घड़ी हजारों बार घूम गई होगी, इधर कैलेंडर हजारों बार कट गया होगा, लेकिन वह स्त्री कुछ न बता सकेगी कि वह तीन साल बेहोश थी।
सुषुप्ति में चित्त सो जाता है, इसलिए वहां भी समय का कोई बोध नहीं रह जाता। समाधि में चित्त खो जाता है, समाप्त हो जाता है, रहता ही नहीं। समाधि अ-चित्त, "नो माइंड' की अवस्था है।
समाधि से कोई पता नहीं चलेगा कि कृष्ण कब हुए और कब नहीं हुए।
एक झेन फकीर हुआ है, रिंझाई। उसने एक दिन सुबह अपने वक्तव्य में कहा कि पागलो, कौन कहता है कि बुद्ध हुए? तो उसके सुननेवालों ने कहा, आपका दिमाग तो ठीक है न? आप और कहते हैं, कौन कहता है बुद्ध हुए? बुद्ध के ही मंदिर में रहता है वह फकीर। बुद्ध की ही मूर्ति पर चढ़ाता है फूल! बुद्ध की मूर्ति के सामने नाच लेता है। बुद्ध का प्रेमी है। और एक दिन सुबह कहता है, कौन कहता है कि बुद्ध हुए? तो लोगों ने कहा, आप पागल तो नहीं हो गए? और उस रिंझाई ने कहा, पागल मैं था। क्योंकि हो तो वही सकता है जो एक दिन न भी हो जाए। लेकिन जो सदा है, उसके होने का क्या अर्थ! आज मैं तुमसे कहता हूं, बुद्ध कभी नहीं हुए, ये सब झूठी कहानियां हैं। लोगों ने कहा, शास्त्र कहते हैं कि हुए, चले इस पृथ्वी पर, उठे-बैठे, बोले, गवाहियां हैं इस बात की, चश्मदीद गवाह हैं। और उस फकीर ने कहा, छाया चली होगी, छाया उठी होगी, छाया रही होगी। बुद्ध कभी उठते, कभी बैठते, कभी चलते! "दि शैडो'।
जो पैदा होता है, जो मरता है, वह हमारी छाया से ज्यादा नहीं है, वह हम नहीं हैं। इसलिए जानकर हिसाब नहीं रखा गया, सोचकर हिसाब नहीं रखा गया। धर्म इतिहास नहीं है। इतिहास होता है उसका जो आता है, जाता है--इति वृत्त--शुरू होता है, समाप्त होता है; आदि होता है, अंत होता है। धर्म इतिहास नहीं है। धर्म सनातन है। सनातन का अर्थ होता है, जो सदा है। उसमें कोई तिथियों का हिसाब नहीं रखा गया। इसलिए कोई समाधिस्थ व्यक्ति न कह सकेगा कब पैदा हुए, कब न हुए। कहने की कोई जरूरत भी नहीं है। कहने का कोई अर्थ भी नहीं है। कहना सिर्फ नासमझी से निकलता है। हम ही कब हुए हैं और कब नहीं हो जाएंगे! सदा से हैं, "इटर्निटी', शाश्वतता है।
लेकिन हमें तो समय का हिसाब है पूरे वक्त। सुबह होती है, सांझ होती है; घड़ियां बीतती हैं, गुजरती हैं; हमें समय का खयाल है। हम समय से ही सब नापते चलते हैं। हमारे पास एक गज है समय का, हम उससे ही नापते हैं। हमारा नापना स्वाभाविक है, सत्य नहीं। हमारी समझ जैसी है वैसा हमारा नाप है। हमारा नाप वैसा ही है जैसे कुएं के मेढक ने सागर से आए मेढक से कहा था कि तेरा सागर कितना बड़ा है? कुएं में छलांग लगाई--आधे कुएं में--और कहा, इतना बड़ा? सागर से आए मेढक ने कहा, माफ कर, तेरे कुएं से कोई हिसाब न बैठेगा! तो उसने कहा, और क्या बड़ा होगा! उसने पूरी छलांग लगाई, कुएं के एक कोने से दूसरे कोने तक पूरी छलांग लगाई, कहा, इतना बड़ा? लेकिन जब सागर के मेढक की आंखों में फिर भी संदेह देखा तो उस कुएं के मेढक ने कहा, तेरा दिमाग खराब मालूम होता है, कुएं से बड़ी कोई जगह है! एक और रास्ता है, उसने कहा, आखिरी माप तुझे बताए देता हूं। उसने कुएं का पूरा गोल चक्कर लगाया और उसने कहा, इतना बड़ा? सागर के मेढक ने कहा कि भाई, तेरे कुएं से हम सागर को नापेंगे तो बहुत मुश्किल में पड़ जाएंगे। यह कोई इकाई ही नहीं बनती। कुएं के मेढक ने कहा, बाहर हो जाओ कुएं के! कुएं से बड़ी कोई चीज कभी देखी है? आकाश भी कुएं बराबर ही देखा है। जब भी उस कुएं के मेढक ने ऊपर देखा तो आकाश भी कुएं के बराबर ही दिखाई पड़ा था। उसने कहा, आकाश, जो सबसे बड़ी चीज है, वह भी कुएं से बड़ी नहीं है। सागर क्या तुम्हारा आकाश से भी बड़ा हो जाएगा।
हम समय के कुएं में जीते हैं। सब चीजें आती हैं, जाती हैं। सब चीजें बंटी हैं। कुछ है जो अतीत हो गया, कुछ है जो भविष्य है, और बड़ा छोटा-सा क्षण वर्तमान का है--जो आता भी नहीं कि चला जाता है। हम पूछते हैं कि किस क्षण में कौन हुआ? हम किसी भी क्षण में अपने को अनुभव करते हैं, किसी कुएं में कैद, इसलिए हम पूछते हैं कि वे किस कुएं में थे? किस क्षण की सीमा में थे?
नहीं, न जीसस, न बुद्ध, न महावीर, न कृष्ण, कोई समय की सीमा में नहीं बांधे जा सकते। हम बांधते हैं, वह हमारी सीमाओं का आग्रह है। जिस दिन पश्चिम की समझ और थोड़ी बढ़ेगी, उस दिन वह क्राइस्ट के जन्म-दिन और मृत्यु-दिन को भूल जाएगा, छोड़ देगा। पूरब की समझ इस मामले में बहुत गहरी रही है। इसके कारण कई अजीब घटनाएं घट गई हैं। इसलिए हमारे जो सोचने के ढंग हैं और कहने के ढंग हैं, वह दुनिया नहीं समझ पाती।
अगर हम तीर्थंकरों की उम्र की बात पूछने जाएं तो कोई लाखों वर्षों जीता है, कोई करोड़ों वर्ष जीता है। अब यह कोई कैसे मानेगा! यह नहीं हो सकता है! यह कोई मानेगा नहीं। मानने की बात भी नहीं है। समझने की बात है। अगर कुएं के बराबर होगा; और क्या कहेगा! लाख कुएं के बराबर होगा, करोड़ कुएं के बराबर होगा। कोई संख्या तो होनी ही चाहिए, कुएं से ही नापा जाना चाहिए सागर। तो जो अनादि हैं, जो सनातन हैं, उनको हम कहेंगे, करोड़ वर्ष है उनकी उम्र। लेकिन वर्ष तो मौजूद रहेगा ही, उससे ही हम नापेंगे। जिनका ओर-छोर नहीं, तो हम कहेंगे, जमीन पर उनके पैर होते हैं, सिर आकाश को छूता है, लेकिन फिर भी गज और फीट से नाप चलेगा। जो जानते थे, उन्होंने ये सब नाप, सब मापदंड तोड़ दिए। उन्होंने कहा, हम यह हिसाब ही छोड़ दें। हम यह हिसाब रखते ही नहीं। बिना हिसाब के कृष्ण हैं। समाधिस्थ इस संबंध में इतना ही कहेगा, वे सदा हैं।
ओशो रजनीश
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