श्री कृष्ण स्मृति भाग 14

 "भगवान श्री, हम पूर्णतया सहमत हैं, कृष्ण के संबंध में हमें जानने की कोई आवश्यकता नहीं है कि वह कब पैदा हुए, कब उनका मरण हुआ। हमारा मतलब इससे है कि कृष्ण कैसे जिए, उन्होंने क्या कहा, उनके जीवन की कथा का क्या रहस्य है? अभी-अभी थोड़ा पहले आपने कहा कि धर्म इतिहास नहीं है, धर्म सनातन है। फिर जब कृष्ण गीता के अध्याय तीन और श्लोक पैंतीस में कहते हैं कि दूसरे के धर्म से अपना गुणरहित धर्म भी अति उत्तम है; अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है, दूसरे का धर्म भयावह है, तो कृष्ण का आशय किस धर्म से है? उस धर्म से जो रूढ़िगत है, जो व्यक्तिगत है; अथवा, उस धर्म से जो शाश्वत है, और सनातन है और सबका है? धर्म को अच्छा और बुरा, अपना और पराया कहने की क्या जरूरत थी कृष्ण को?'


बहुत जरूरत थी। कृष्ण जब कहते हैं कि स्वयं के धर्म में मर जाना भी श्रेयस्कर है--"स्वधर्मे निधनम् श्रेयः', और दूसरे के धर्म में मरना बहुत भयावह है, तो दोत्तीन बातें समझ लेनी जरूरी हैं।

एक तो यह कि यहां धर्म से अर्थ हिंदू, ईसाई, मुसलमान, जैन का नहीं है। यहां जो धर्म का फैसला वे कर रहे हैं, वह "स्व' और "पर' का है। वह स्व कौन है, हिंदू है, मुसलमान है, ईसाई है, इससे कोई प्रयोजन नहीं है। यहां जो सवाल है वह "निजता' और "परता' का है। यहां वे यह कह रहे हैं कि तुम नकल में मत पड़ना, तुम किसी और के रास्ते पर मत चलने लगना। तुम किसी और को "इंटिमीटेट' मत करने लगना, तुम किसी और का अनुकरण मत करने लगना। तुम किसी और के अनुयायी मत हो जाना। तुम किसी को गुरु मत बना देना। तुम अपने गुरु रहना। तुम अपनी निजता को किसी से आच्छादित मत हो जाने देना। तुम किसी के पीछे मत चल पड़ना। क्योंकि कोई कहीं जा रहा है, हो सकता है वह उसकी निजता हो और तुम्हारे लिए परतंत्रता बन जाए--और बनेगी ही। महावीर के लिए जो निजता है, वह किसी दूसरे के लिए निजता नहीं हो सकती। क्राइस्ट के लिए जो मार्ग है, वह किसी दूसरे के लिए मार्ग नहीं हो सकता।

उसके कारण हैं।

हम कहीं भी जाएंगे तो हम स्वयं होकर ही जा सकते हैं। पहुंचकर खो जाएगा स्व, लेकिन अभी है। और जिस दिन स्व खो जाएगा, उस दिन पर भी खो जाएगा। उस दिन जो धर्म उपलब्ध होगा, वह धर्म शाश्वत है, सनातन है। लेकिन अभी हम सागर की तरह नहीं हैं, नदियों की तरह हैं। अभी हर नदी को अपने रास्ते से जाना होगा सागर तक। सागर में पहुंचकर नदियां भी खो जाएंगी, रास्ते भी खो जाएंगे। लेकिन यह बात नदियों से की जा रही है। कृष्ण नदी से कहते हैं, अपना मार्ग छोड़कर दूसरी नदी के मार्ग पर मत पड़ जाना। दूसरी नदी का अपना मार्ग है, अपनी गति है, अपनी दिशा है। वह अपने मार्ग, अपनी गति, अपनी दिशा से सागर तक पहुंचेगी। और तू भी नदी है। तू अपना मार्ग, अपनी गति, अपना रास्ता बनाना और सागर तक पहुंच जाना। नदी है तो सागर तक पहुंच ही जाएगी। कोई नदी बंधे-बंधाए रास्तों पर नहीं चलती। कोई जीवन बंधे-बंधाए रास्तों पर नहीं चल सकता। और जब भी हम दूसरे का अनुकरण करेंगे तब हमारे लिए बंधा-बंधाया रास्ता "रेडीमेड' मिल जाता है। तब हम आत्मघाती होने शुरू हो जाते हैं। तब हम अपने को मारने लगते हैं और दूसरे को ओढ़ने लगते हैं। अगर कोई मेरे पीछे चलेगा, तो वह अपने को मारेगा। उसे ध्यान मुझ पर रखना पड़ेगा। जो मैं करता हूं, वैसा वह करे। जैसा मैं जीता हूं, वैसा वह जिए। जैसा मैं उठता हूं, वैसा वह उठे। वह अपने को मारेगा, मुझे ओढ़ेगा। और मुझे कितना ही ओढ़ ले, तो भी मैं उसके लिए वस्त्र से ज्यादा नहीं हो सकता। मैं वस्त्र ही रहूंगा। गहरे-गहरे में तो वह वही रहेगा जो है। गहरे में तो वह वही रहेगा जिसने ओढ़ा है। वह वह नहीं हो सकता जो ओढ़ा गया है। वह ओढ़ने वाला तो भीतर अलग ही खड़ा रहेगा।

तो कृष्ण जब कहते हैं--"स्वधर्मे निधनम् श्रेयः', तो वह यह कहते हैं कि अपने ढंग से मर जाना भी श्रेयस्कर है, दूसरे के ढंग से जीना भी श्रेयस्कर नहीं। क्योंकि दूसरे के ढंग से जीने का मतलब ही जिये हुए मरना है। अपने ढंग से मरने का अर्थ भी नए जीवन को खोज लेना है। अगर मैं अपने ढंग से मर सकता हूं, और मरने में भी निजता रख सकता हूं, तो मेरी मौत भी "ऑथेंटिक' हो जाएगी, प्रामाणिक हो जाएगी। मेरी मौत है। मैं मर रहा हूं। लेकिन हमने अपनी जिंदगी को भी उधार और "बारोड' कर लिया है, वह भी "ऑथेंटिक' नहीं है। तो कृष्ण कहते हैं, जीवन में तो प्रामाणिक होना। और प्रामाणिक होने का एक ही अर्थ है कि निजता को बचाना। चारों तरफ से हमले होंगे, चारों तरफ से लोग होंगे जो चाहेंगे कि आओ, मेरे पीछे आ जाओ। असल में अगर कोई और मेरे पीछे चले तो मेरे अहंकार को बड़ी तृप्ति मिलती है। अगर एक चले तो, दो चलें तो, दस चलें तो, लाख चलें तो बड़ी तृप्ति मिलती है। तब मुझे लगता है कि मैं कुछ ऐसा हूं जिसके पीछे चलना पड़ता है। मैं कुछ हूं। और जो भी मेरे पीछे चलेगा, उसे मैं गुलाम बनाना चाहूंगा। उसे मैं पूरी तरह गुलाम बनाना चाहूंगा। उस पर मैं अपनी आज्ञा, अपना अनुशासन पूरा थोप देना चाहूंगा। मैं उसकी स्वतंत्रता जरा-सी भी बचने न देना चाहूंगा। क्योंकि उसकी स्वतंत्रता मेरे अहंकार को चुनौती होगी। तो मैं चाहूंगा वह मिट जाए। मैं ही उस पर आरोपित हो जाऊं। सभी गुरु यही करेंगे।

और जब कृष्ण यह कह रहे हैं तब बहुत अदभुत बात कह रहे हैं, जो कि गुरु कहने की हिम्मत नहीं कर सकता, सिर्फ मित्र कर सकता है। इसलिए ध्यान रहे, कृष्ण अर्जुन के गुरु नहीं हैं। सिर्फ सखा हैं। और कभी भी गुरु की जगह खड़े नहीं होते, सिर्फ मित्र की जगह खड़े होते हैं। गुरु सारथी बनकर नहीं बैठ सकता था। गुरु कहता मैं बैठूंगा रथ में, तू सारथी बन। गुरु कहता मैं और लगाम पकडूं! और घोड़ा चलाऊं! मैं बैठूंगा रथ में, तू घोड़ा बन, तू लगाम बन। कृष्ण बैठ सके सारथी बनकर, यह बहुत अदभुत घटना है। घटना यह कहती है कि नाता मित्रता का है। मित्रता में नीचे और ऊपर कोई नहीं होता। जब कृष्ण अर्जुन से यह कह रहे हैं कि तू स्व को खोज, तू निजता को खोज, वह जो तेरी "इंडिविजुऍलिटी' है, वह जो तेरा होना है, उसको प्रामाणिक रूप से पहचान और वही तू बन, तू उससे भिन्न मत करना, किस कारण से उस क्षण उन्हें यह कहना पड़ा?

अर्जुन की पूरी अंतरात्मा क्षत्रिय की है। वह एक लड़ाके की, एक "फाइटर' की है। उसका रोआं-रोआं लड़नेवाले का है। वह एक सैनिक है। बातें वह संन्यासी की कर रहा है। बातें वह कर रहा है संन्यासी की। बातें वह भगोड़े की कर रहा है, योद्धा की नहीं। है वह लड़ने वाला। अगर वह जंगल में भी संन्यास लेकर बैठ जाएगा और उसे सिंह दिखाई पड़ेगा, तो भजन नहीं करेगा, जूझ जाएगा। वह आदमी न तो ब्राह्मण है, न वह आदमी वैश्य है, न वह आदमी शूद्र है। न वह श्रम करके आनंद पा सकता है, न वह ज्ञान की चर्चा करके आनंद पा सकता है, न वह धन कमा कर आनंद पा सकता है। उसका आनंद चुनौती में है। उसका आनंद कहीं जूझ जाने में है। वह किसी अभियान में ही अपने को पा सकता है, किसी "एडवेंचर' में ही अपने को पा सकता है। लेकिन बातें वह दूसरी कर रहा है। वह "स्वधर्म' से च्युत हो रहा है। तो कृष्ण उससे कहते हैं कि तू लड़ाका है, तू "एस्केपिस्ट' नहीं है, तू भगोड़ा नहीं है, तू बातें पलायनवादी की कर रहा है। तू कहता है कि ये मर जाएंगे, कि मैं मर जाऊंगा, कि मर जाने से बड़ा बुरा हो जाएगा, यह क्षत्रिय ने मरने-मारने की बात कब की है। तू कहीं किसी और को तो नहीं ओढ़ रहा है? कहीं तूने सुनी-सुनाई बातें तो नहीं अपने ऊपर ओढ़ लीं? क्योंकि सुनी-सुनाई बातें ओढ़कर तू कुछ कर न पाएगा, तू भटक जाएगा। तू जो है, उसकी खोज कर। अगर तू ब्राह्मण ही है तो कृष्ण न कहेंगे उसको कि तू लड़। कृष्ण कहेंगे, अगर तू ब्राह्मण ही है तो जा।

वह अर्जुन भी कहने की हिम्मत नहीं जुटा सकता कि वह ब्राह्मण है। वह ब्राह्मण है ही नहीं। उसके सारे व्यक्तित्व की जो धार है, वह तलवार की है। उसके हाथ में तलवार हो तो ही वह निखरेगा। युद्ध के गहरे क्षण में ही वह अपनी आत्मा को खोज पाएगा। उसे अपनी आत्मा और कहीं मिलनेवाली नहीं है। इसलिए वह उससे कहते हैं कि अपने धर्म में मर जाना भी बेहतर है। तू क्षत्रिय होकर मर जा। अगर तुझे मारना भी न जंचता हो, तो मरना तो जंच ही सकता है। तू लड़ और मर जा, लेकिन लड़ने से मत भाग। क्योंकि उससे भागकर तू जियेगा जरूर, लेकिन वह मरा हुआ जीना होगा, वह "डेड लाइफ' होगी। और "डेड लाइफ' से "लिविंग डेथ' बेहतर है।

धर्म से वहां प्रयोजन हिंदू, मुसलमान, ईसाई से नहीं है। धर्म से वहां प्रयोजन निजताओं से है। और इस मुल्क ने निजताओं को चार बड़े विभागों में बांटा है। जिनको हम वर्ण कहते रहे हैं, वह मोटे विभाजन हैं निजताओं के। ऐसा नहीं है कि दो ब्राह्मण एक-जैसे होते हैं, या दो क्षत्रिय एक-जैसे होते हैं। नहीं, दो क्षत्रिय भी दो-जैसे होते हैं। लेकिन फिर भी क्षत्रिय होने की एक समानता, एक "सिमिलेरिटी' उनमें होती है। और मनुष्य को बहुत खोज-बीन करके चार हिस्सों में बांटा है। कोई है, जो सेवा किए बिना रस न पा सकेगा। ऐसा नहीं है कि वह नीचा है। वहां भूल हो गई। वहां जिन्होंने जाना था, वह उनके ऊपर जो नहीं जानते थे उन्होंने नियम ठहरा दिए। जिन्होंने जाना था, उनका कहना कुल इतना था कि कोई है जो सेवा करके ही कुछ आनंद पा सकेगा। उससे उसकी सेवा छीन ली जाए, वह आनंदरिक्त हो जाएगा, उसकी आत्मा खो जाएगी। अब कोई स्त्री मेरे पास आती है, वह कहती है, दो क्षण मुझे पैर दाब लेने दें। न मैंने उससे कहा, न मैंने उससे आग्रह किया, न इस पैर दाबने से उसे कुछ मिलेगा, लेकिन उसे क्या हो रहा है? वह पैर दाबकर जरूर कुछ पाएगी। मुझसे कुछ मिलेगा नहीं, अपनी आत्मा पाएगी। मुझसे कुछ नहीं मिल सकता। लेकिन अगर सेवा उसका रस है तो वह अपनी आत्मा पाएगी, वह अपनी निजता पाएगी।

कोई है, जो सब धन छोड़ सकता है ज्ञान के लिए। भूखा मर सकता, भीख मांग सकता, घर-द्वार छोड़ सकता है। हमें बड़ी हैरानी होगी। एक वैज्ञानिक है, वह एक जहर को अपनी जीभ पर रख सकता है इस बात का पता लगाने के लिए कि आदमी इससे मर जाता है? मरेगा, लेकिन ब्राह्मण है वह, ज्ञान की उसकी खोज है। वह अपनी आत्मा को पा लेगा, जहर को जीभ पर रख कर जान लेगा कि हां, इससे आदमी मर जाता है। इसको शायद कहने को भी न बचे वह, या हो सकता है कह पाए किसी तरह। या कुछ जहर तो ऐसे हैं, जिनको वह कह न पाएगा, लेकिन उसका मर जाना ही कह देगा। इससे भी वह तृप्त होगा। इससे भी वह अपनी आत्मा को पा लेगा। हमें बड़ी हैरानी होगी कि पागल है यह आदमी! हजार सुख थे इस दुनिया में, उन्हें छोड़कर जहर की जांच करने गया! कोई और रास्ता न था? कुछ और जांच नहीं कर सकता था? जांच ही कर लेनी थी तो कुछ और कर लेता! इसे क्या हो गया? इसके चित्त की जो धारा है, वह जानने की है। इसे सेवा से कोई रस न मिलेगा। इसे कोई कितना ही कहे कि पैर दबाने से किसी के मुझे बहुत रस आता है, यह कहता है कि अगर तुम्हें आता हो, तुम मेरे पैर दबा दो। बाकी मैं तो नहीं दबाता। मुझे कुछ नहीं आता। इसकी समझ के बाहर पड़ेगा।

कोई है जो किसी युद्ध के क्षण में--वह युद्ध चाहे किसी भांति का हो--उस युद्ध के क्षण में ही वह अपनी पूरी चमक को पा लेता है। उसकी पूरी चमक युद्ध के क्षण में ही निखरती है। वह एक क्षण को उस जगह पहुंच जाए जहां सब दांव पर लग जाता है! वह जुआरी है, वह बिना दांव पर लगाए नहीं जी सकता। छोटे-मोटे दांव से उसका काम नहीं होगा कि वह रुपये दांव पर लगा दे। इससे उसे कोई तृप्ति न मिलेगी। वह जब तक अपने पूरे जीवन को दांव पर न लगा दे, जहां कि पल-पल तय करना मुश्किल हो जाए कि जिंदगी कि मौत, उस क्षण में ही उसके भीतर जो छिपा है वह प्रगट होगा और फूल बन जाएगा। वह क्षत्रिय है।

कोई है--कोई राकफेलर, कोई मार्गन--और बड़े मजे की बात है कि मार्गन से किसी दिन मजाक में एक सेक्रेटरी ने कहा कि जब मैं आपको नहीं जानता था, तब तो मैं सोचता , सपने देखता था कि कभी मैं भी मार्गन हो जाऊं, लेकिन जब आपके निकट आया और निजी सेक्रेटरी की तरह रहा, तो अब मैं आपसे कहना चाहता हूं कि अगर भगवान मुझे फिर से मौका दे, तो मैं मार्गन तो कभी न होना चाहूंगा। मार्गन से तो मार्गन का सेक्रेटरी ही बेहतर है, सेक्रेटरी ने कहा। मार्गन ने कहा, तुम्हें मुझमें ऐसी क्या तकलीफ दिखाई पड़ती है? तो उस सेक्रेटरी ने कहा, मैं बड़ा हैरान हूं, आपके दफ्तर के चपरासी साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुंचते हैं; दस बजे क्लर्क पहुंचते हैं, साढ़े दस बजे सेक्रेटरीज पहुंचते हैं, बारह बजे डाइरेक्टर्स पहुंचते हैं; तीन बजे डाइरेक्टर्स चले जाते हैं, चार बजे सेक्रेटरीज चले जाते हैं, पांच बजे क्लर्क चले जाते हैं, साढ़े पांच बजे चपरासी चले जाते हैं, आप दफ्तर सुबह सात बजे पहुंच जाते हैं और शाम को सात बजे जाते हैं! तो मैं तो आपका चपरासी भी होऊं तो भी ठीक है। आप यह क्या कर रहे हैं?

मार्गन को वह आदमी न समझ सकेगा। मार्गन के पास वैश्य का चित्त है। वह तृप्त हो रहा है, वह अपनी आत्मा को खोज रहा है। वह हंसता है, वह कहता है, चपरासी होकर साढ़े नौ बजे आने में कहां वह आनंद है, जो मालिक होकर सुबह सात बजे आने में है। माना कि डाइरेक्टर तीन बजे चले जाते हैं, लेकिन डाइरेक्टर ही हैं बेचारे, चले ही जाएंगे। मैं मालिक हूं। अब यह व्यक्ति किसी गहरी मालकियत में ही तृप्त हो सकता है।

इस मुल्क ने हजारों-लाखों व्यक्तियों का हजारों साल के अध्ययन के बाद यह तय किया था कि आदमी चार मोटे विभाजन में बांटे जा सकते हैं। इस विभाजन में कोई नीचे-ऊपर न था, कोई "हायरेरिकी' न थी। लेकिन बहुत जल्दी, जो नहीं जानते थे उन्होंने "हायरेरिकी' तय कर दी कि कौन नीचे, कौन ऊपर। उससे कष्ट खड़ा हो गया। वर्ण की तो  अपनी वैज्ञानिकता है, लेकिन वर्ण-व्यवस्था का अपना दंश है। वर्ण को व्यवस्था बनाने की जरूरत नहीं है। वह एक "इनसाइट' है, एक अंतर्दृष्टि है मनुष्य के व्यक्तित्वों में। और व्यक्तित्व ऐसे हैं।

तो कृष्ण अर्जुन से यह कह रहे हैं कि तू ठीक से पहचान ले तू है कौन! और तू जो है, उसी में मर। और तू जो नहीं है, उसमें जीने का पागलपन मत कर। और इस स्व के होने में वर्ण ही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि वर्ण बहुत मोटे विभाजन हैं। दो व्यक्ति भी एक-जैसे नहीं हैं, एक-एक व्यक्ति अपने ही जैसा है, "युनीक' है, बेजोड़ है। असल में परमात्मा कोई "मेकेनिक', कोई यंत्रविद नहीं है, एक "क्रिएटर' है, एक स्रष्टा है। अगर रवींद्रनाथ से कोई कहे कि एक कविता जो आपने लिखी थी वैसी ही दूसरी लिख दो, तो रवींद्रनाथ कहेंगे, तुमने क्या मुझे चुका हुआ समझा है? खत्म हुआ समझा है? क्या मैं मर गया? जो कविता मैंने एक दफा लिख दी, लिख दी, बात खत्म हो गई। अब दुबारा मैं वही लिखूं तो मतलब हुआ कि मेरा कवि मर चुका। अब मैं दूसरी कविता लिख सकता हूं। कोई चित्रकार दुबारा वही चित्र नहीं बना सकता है।

एक दफे बहुत मजे की घटना घटी। पिकासो का एक चित्र तीन या चार लाख रुपये में बिका। जिसने खरीदा था वह पिकासो के पास दिखाने लाया और उसने कहा, यह "ऑथेंटिक' तो है न, प्रामाणिक तो है न? आपका ही है न बनाया हुआ? कोई नकल तो नहीं है? पिकासो ने कहा, "ऑथेंटिक' नहीं है, नकल है। तूने मुफ्त पैसा खराब किया। उस आदमी ने कहा, क्या कह रहे हैं आप? लेकिन आपकी पत्नी ने गवाही दी है कि आपने ही बनाया है। पिकासो की पत्नी आ गई और उसने कहा, यह बात तो आप गलत कह रहे हैं। यह चित्र तो आपका बनाया हुआ है, मैंने आपको बनाते देखा है, ये दस्तखत आपके हैं, यह नकल नहीं है। पिकासो ने कहा, यह मैंने कब कहा कि मैंने नहीं बनाया, यह मैंने नहीं कहा। इसका पिकासो से क्या लेना-देना है! इसको कोई दूसरा चित्रकार भी उतार सकता था। इसको बनाते वक्त मैं "क्रिएटर' नहीं था। इसको बनाते वक्त मैं सिर्फ "इमीटेटर' था। बस "इमीटेट' कर दिया हूं। तो मैं यह नहीं कह सकता कि यह प्रामाणिक है। पिकासो का बनाया हुआ मैं नहीं कह सकता। पिकासो का उतारा हुआ! किसी पिछले पिकासो की नकल है यह। वह जो पहला चित्र था, "ऑथेंटिक' था, वह मैंने बनाया था, वह मैंने उतारा नहीं था।

परमात्मा सृजन कर रहा है। वह एक-सा दूसरा पत्ता नहीं बनाता, एक-सा दूसरा फूल नहीं बनाता; एक-सा दूसरा कंकड़ नहीं बनाता, एक-सा दूसरा आदमी नहीं बनाता। और चुक नहीं गया है। जिस दिन चुक जाएगा उस दिन वह "रिपीट' करना शुरू कर देगा। वह "नान-ऑथेंटिक' आदमी बनाने लगेगा। अभी वह महावीर एक दफे बनाता है, कृष्ण एक दफे बनाता है, बुद्ध एक दफा, आपको भी एक ही दफा बनाता है। आपको भी दुबारा नहीं दोहराया था। यह बड़ी गरिमा की बात है, बड़े गौरव की। आप एक दफे ही बनाए गए हैं--न पहले, न पीछे, न आगे। अब आप नहीं दोहराए जाएंगे।

तो जो आप हैं, उसकी निजता को आप नकल में मत गंवा देना, क्योंकि परमात्मा तक ने नकल नहीं की, उसने आपको नया बनाया। और आप कहीं उसको नकली मत कर देना। इसलिए कृष्ण कहते हैं--"स्वधर्मे निधनम् श्रेयः'... अपने ही धर्म में मर जाना बेहतर है... "परधर्मो भयावहः'... दूसरे का धर्म बहुत भय का है। उससे बचना, उससे सावधान रहना। उससे भयभीत रहना। भूलकर भी दूसरे के रास्ते मत जाना, भूलकर भी दूसरा बनने की कोशिश मत करना। स्वयं बनने की चेष्टा ही धर्म है--नदी के लिए। सागर के लिए तो न कोई स्वयं है, न कोई पर है। लेकिन वह सिद्धि की बात है। वह आखिरी जगह है जहां हम पहुंचते हैं। जहां से हम चलते हैं, वह वह जगह नहीं है। जहां से हम चलते हैं वहां से हमें व्यक्ति की तरह चलना होगा। जहां हम पहुंचते हैं वहां हम अव्यक्ति हो जाते हैं। वहां न कोई स्व है, न कोई पर है। लेकिन उस जगह पहुंचेंगे आप स्व की तरह, पर की तरह वहां आप कभी न पहुंचेंगे। उसको ध्यान में रखकर वह बात कही गई है।

ओशो रजनीश




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