श्री कृष्ण स्मृति भाग 15

 "भगवान श्री, मुझे लगता है, "स्वधर्मे निधनम् श्रेयः' समझाते हुए कृष्ण ने अर्जुन को दबाया। वह अपने क्षत्रियत्व को लांघ कर शायद ब्राह्मण बनना चाहता था। जब उसे विषाद हुआ, कारुण्य हुआ, तब वह स्वधर्म में जाता था, कृष्ण ने रोककर उसको फिर क्षत्रियत्व में लाने का प्रयास किया।

और दूसरी बात यह भी है कि आपने कहा कृष्ण अर्जुन को स्वतंत्र करते हैं, दबाते नहीं। किंतु, गीता का जब प्रारंभ होता है तब अर्जुन शिष्य बनकर कृष्ण को कहता है--"शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्'। बाद में गीता की सारी धारा गुजरती है और उसकी पूर्णाहुति पर अर्जुन का ऐसा वचन मिलता है--"करिष्ये वचनं तव'। क्या इससे यह भनक नहीं आती कि कृष्ण ने अर्जुन पर "गुरुडम' स्थापित की, जिसके प्रभाव या दबाव में ही अर्जुन को कहना पड़ा--"करिष्ये वचनं तव'?'



इसमें दोत्तीन बातें समझनी चाहिए।

एक, कि अर्जुन के व्यक्तित्व को थोड़ा भी समझेंगे, तो यह नहीं कहा जा सकता कि क्षत्रिय होना उसकी निजता नहीं है। वह क्षत्रिय ही है। और जब विषाद उसे पकड़ता है, तब वह विषाद क्षण-भर को आई हुई घटना है। अर्जुन को विषाद पकड़ने का कारण भी कोई मर जाएगा, यह नहीं है, अर्जुन को विषाद पकड़ने का कारण है--अपने लोग मर जाएंगे। अगर अर्जुन के सामने युद्ध के मैदान में सगे-संबंधी न होते तो अर्जुन बिलकुल मूलियों की तरह उन्हें काट सकता था।

अर्जुन को विषाद हिंसा के कारण नहीं पकड़ रहा है, ममत्व के कारण पकड़ रहा है। अर्जुन को ऐसा नहीं लग रहा है कि मारना बुरा है यह तो फिर वह "रेशनलाइजेशंस' खोज रहा है। असली बुनियादी विषाद तो यह है कि अपने ही प्रियजन हैं। कोई सगे बंधु हैं, कोई रिश्तेदार हैं। गुरु सामने खड़े हैं, जिनसे सब सीखा, वह द्रोण हैं। पितामह भीष्म हैं। कौरव भी सब भाई हैं, जिनके साथ बचपन में खेले और बड़े हुए। जिनको कभी सोचा नहीं कि मारना पड़ेगा। विषाद का कारण अगर हिंसा होती, अर्जुन अगर यह कहता कि मारना बुरा है, मुझे विषाद पकड़ता है मारने से--तो मारता तो वह बहुत पहले से रहा था, यह कोई मारने से कोई भय उसे न लगता था। भय लग रहा है अपनों को मारने में। एक ममत्व उसे पकड़ रहा है। इसलिए ब्राह्मण होने की बात नहीं है, क्योंकि ब्राह्मण होने का मतलब ही है कि ममत्व छूटे।

सच तो यह है कि कृष्ण जो कह रहे हैं वह ममत्व छोड़ने को कह रहे हैं। अगर अर्जुन यह कहता कि मारना ही मेरे मन में नहीं उठता, तो कृष्ण ने ये बातें न कही होतीं जो कही हैं। कृष्ण महावीर को नहीं समझा सकते थे। ऐसे महावीर भी क्षत्रिय के घर में जन्मे थे। व्यवस्था से क्षत्रिय थे। जैनियों के चौबीस तीर्थंकर ही क्षत्रिय हैं। उनमें से कोई एक भी दूसरे वर्ण में नहीं जन्मा है। बुद्ध भी क्षत्रिय हैं। बड़े आश्चर्य की बात है कि दुनिया में अहिंसा का विचार क्षत्रियों से पैदा हुआ। कारण है उसका। जहां हिंसा सघन थी, वहीं अहिंसा का खयाल भी पैदा हो सकता था। जहां चौबीस घंटे हिंसा-ही-हिंसा थी, वहीं अहिंसा का खयाल भी पैदा हो सकता था। इसलिए क्षत्रियों से अहिंसा का खयाल जन्मा। महावीर को कृष्ण न समझा सकते थे। क्योंकि महावीर यह नहीं कह रहे थे कि ये मेरे हैं। वे यह नहीं कह रहे थे। उनका विषाद यह नहीं था कि मेरों को कैसे मारूं, मेरों को तो वह बिलकुल बिना विषाद के छोड़कर चले आए थे। मेरों को तो कोई सवाल न था। नहीं, उनका प्रश्न ही और था। वह प्रश्न यह था कि मारना ही क्यों? मारने का प्रयोजन ही क्या? मारने का अर्थ ही क्या? मारने में धर्म ही नहीं है, यह उनका सवाल होता। और अगर कृष्ण उनसे कहते कि "स्वधर्मे निधनम् श्रेयः', तो वह कहते, मेरा स्वधर्म यह है कि मैं न मारूं और मर जाऊं। वह कृष्ण से कहते कि तुम अपनी बात मुझे मत कहो। वह पर-धर्म हो जाएगा।

अगर ठीक यही गीता महावीर से कही होती, तो महावीर रथ से उतरते, नमस्कार करते और जंगल चले जाते। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। अर्जुन को ये बातें जंच गईं। जंच गईं, उसका कारण यह नहीं है कि कृष्ण जंचा सके। जंच गईं इसलिए कि था तो वह क्षत्रिय, "टेंप्रेरी फेज़' आ गई थी उसमें इन बातों की, कि ये मर जाएंगे, ये मेरे हैं, ये फलां हैं, ढिकां हैं। ये सारी-की-सारी बातें "टेंप्रेरी' थीं, इसलिए कि कृष्ण हटा सके। यह आकाश न था उसके मन का, आ गई बादल थे, जो हटाए जा सकते थे। अगर यह उसके मन का आकाश होता तो कृष्ण के हटाने का सवाल न उठता, और न हटाने की वे कोशिश करते। न हटाने के लिए वह समझाते। हटाने की बात ही नहीं उठती थी। गीता घटती ही नहीं, अगर यह कृष्ण के खयाल में होता कि यह आकाश है इसके मन का। लेकिन आकाश अचानक नहीं आता। उसकी पूरी जिंदगी अर्जुन की कहती है कि उसका आकाश तो क्षत्रिय का है। उसका पूरा जीवन कहता है। उसका आकाश नहीं है।

इसलिए कृष्ण जिसे हटाते हैं, वह "टेंप्रेरी फेज' है। और मैं मानता हूं कि अगर वह स्वधर्म होता, तो अर्जुन को हटाने की जरूरत क्या है? कृष्ण यही तो कह रहे हैं कि अपने स्वधर्म में मर जाना बेहतर है। अर्जुन कहता कि मेरा स्वधर्म है कि मैं मर जाऊं, अब आप मुझे क्षमा करें, अब मैं जाता हूं। बात खतम हो गई है। क्योंकि मेरा स्वधर्म है कि मैं मर जाऊं, अब आप मुझे क्षमा करें, अब मैं जाता हूं। बात खतम हो गई है। क्योंकि कृष्ण यह कहां कह रहे हैं कि तू परायी बात मान ले, वह यही तो कह रहे हैं कि जो तेरा स्वधर्म है उसे पहचान। सारी चेष्टा, पूरी गीता में, अर्जुन का जो स्व है उसे अर्जुन पहचाने, इसके लिए है। अर्जुन के ऊपर कोई चीज थोपने की आकांक्षा नहीं है।

दूसरी बात आप कहते हैं, वह भी सोचने जैसी है।

मैंने यह कहा कि कृष्ण गुरु नहीं हैं, सखा हैं। मैंने यह नहीं कहा कि अर्जुन शिष्य नहीं हैं। यह मैंने कहा नहीं। अर्जुन शिष्य हो सकता है, वह अर्जुन की तरफ से संबंध है। वह संबंध कृष्ण की तरफ से नहीं है। और अर्जुन शिष्य है। वह सीखना चाहता है। सीखना चाहता है, इसलिए पूछता है। प्रश्न शिष्य करते हैं, सीखना चाहते हैं इसलिए पूछते हैं। अर्जुन पूछता है, पूछने का अपना अनुशासन है। पूछना हो तो नीचे बैठना पड़ता है। वह पूछने का हिस्सा है। पूछना हो तो हाथ फैलाने पड़ते हैं। पूछना हो तो समझने की उत्सुकता दिखानी पड़ती है। पूछना हो तो विनम्रता से समझना पड़ता है। इसमें कृष्ण नहीं कह रहे हैं उसको कि वह विनम्र हो, इसमें वह यह नहीं कह रहे कि वह नीचे बैठे। वह गुरु नहीं हैं, उनकी तरफ से वह मित्र हैं। मित्र हैं इसलिए समझा रहे हैं। उनकी तरफ से मित्रता की ही बात है। इसलिए इतना ज्यादा समझा पाए। अगर गुरु होते तो बहुत जल्दी नाराज हो गए होते। कहते कि बस, अब बहुत हुआ। जो मैं कहता हूं, मान! संदेह करना ठीक नहीं, शक करना उचित नहीं, गुरु पर श्रद्धा रख! जब मैं कहता हूं लड़, तो लड़! समझाने की क्या जरूरत है! नहीं, इतनी लंबी गीता कृष्ण की तरफ से इस बात की सूचना है कि समझाने के लिए वह निरंतर तत्पर है। इसमें कहीं भी वे जल्दबाजी में नहीं हैं। अर्जुन बार-बार वही सवाल उठाता है। सवाल नए नहीं हैं। गीता में सब सवाल घूम-फिर कर फिर वहीं हैं। लेकिन कृष्ण उससे एक बार भी नहीं कहते कि तू फिर वही पूछ लेता है। तू फिर वही पूछ लेता है! (अब क्रियानंद पूछ रहे हैं, वह बार-बार वही पूछ रहे हैं...श्रोताओं का हास्य...लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।)

गुरु होगा तो नाराज होगा, कहेगा कि बस, तुम यह पूछे चुके, हम कह चुके, अब समझो और मानो। नहीं, यह कोई सवाल नहीं है। आप बार-बार पूछते हो, उसका मतलब यह है कि नहीं समझ में आया, फिर समझाने की कोशिश जारी रहेगी। तो इतनी लंबी गीता संभव हो पाई। यह गीता कृष्ण का दान नहीं है, अर्जुन की कृपा है। अर्जुन पूछे चला जा रहा है। अर्जुन पूछे चला जा रहा है। इसलिए कृष्ण को कहते जाना पड़ता है। और बाद में, जो हमें ऐसा लगता है कि कृष्ण ने करवा लिया--जो हमें ऐसा लगता है कि कृष्ण ने करवा लिया, अर्जुन तो भाग रहा था, इतना समझाकर कृष्ण ने युद्ध में अर्जुन को डाल दिया, यह हमें लग सकता है। यह हमें इसलिए लग सकता है कि अर्जुन भाग रहा था, फिर भागा नहीं। युद्ध किया। लेकिन कृष्ण पूरे समय अर्जुन को मुक्त ही कर रहे हैं, और वह जो हो सकता है, जो होने की उसकी क्षमता है, उसे प्रगट कर रहे हैं। उसे जाहिर कर रहे हैं। और अगर पूरी गीता सुनकर भी अर्जुन कहता है कि सुना सब, लेकिन मैं जाता हूं, तो कृष्ण उसे हाथ पकड़कर रोकनेवाले नहीं थे। कोई रोकने वाला नहीं था।

बड़े मजे की बात है कि कृष्ण ने युद्ध में भाग न लेने का निर्णय लिया था। खुद वह युद्ध में लड़ने वाले नहीं थे। युद्ध में लड़ने वाला अर्जुन को समझा रहा है कि युद्ध में लड़। खुद वह युद्ध के बाहर खड़े हैं। युद्ध में लड़ने वाला नहीं है। जरूर बड़ी महत्व की बात है। अर्जुन को भी अगर यह खयाल आ जाए कि कृष्ण अपने को मेरे ऊपर थोप रहे हैं...तो उचित तो यही होता कि कृष्ण समझाते कि भाग जा, क्योंकि मैं खुद ही लड़ नहीं रहा हूं। कृष्ण का एक नाम आपको पता है? वह है, रणछोड़दास--युद्ध से जो भाग खड़े हुए! यह रणछोड़दास समझा रहे हैं कि लड़। अगर अपने को ही थोपना हो कृष्ण को, तो कहना चाहिए बिलकुल ठीक, तू मेरा शिष्य हुआ, चलो हम दोनों भाग जाएं। नहीं, अपने को थोपने की बात जरा-भी नहीं दिखाई पड़ती है। क्योंकि कृष्ण सिर्फ इतना ही कह रहे हैं कि ऐसा मैं समझता हूं कि तू क्षत्रिय है। ऐसा मैं तुझे जानता हूं बहुत निकट से कि तू क्षत्रिय है। जितने निकट से तू भी अपने को नहीं जानता उतने निकट से मैं तुझे पहचानता हूं कि तू क्षत्रिय है। तुझे इतना खयाल दिला रहा हूं। यह पूरी गीता में इतना ही खयाल दिलाने की बात है कि तू कौन है। और फिर जब तुझे खयाल आ जाए, तुझे जो भला लगे तू कर। होता है वही जो कृष्ण समझा रहे हैं, इसलिए हमें यह खयाल आ सकता है कि उन्होंने वही करवा लिया जो वे चाहते थे।

लेकिन कृष्ण कुछ भी नहीं चाह रहे हैं। इस अचाह के कई अदभुत कारण हैं। कृष्ण खुद अकेले लड़ रहे हैं अर्जुन की तरफ से, उनकी सारी फौजें लड़ रही हैं दूसरी तरफ से। लड़ने वालों के ये ढंग नहीं हैं। कि खुद की फौजें दुश्मन की तरफ से लड़ें। कृष्ण लड़ रहे हैं पांडवों की तरफ से और कृष्ण की सारी फौजें--अकेले कृष्ण को छोड़कर--लड़ रही हैं कौरवों की तरफ से। लड़ने वालों के ये ढंग कभी सुने नहीं गए! अगर ये ढंग हैं लड़ने वालों के तो सब लड़ने वाले गलत हैं, यही आदमी लड़ने वाला ठीक है। हिटलर राजी हो सकता है कि फौजें लड़ें दुश्मन की तरफ से? राजी नहीं हो सकता। फौजें होती इसलिए हैं कि अपनी तरफ से लड़ें। लड़ने वाले का चित्त लड़ने का पूरा इंतजाम करता है। यह बड़ी अजीब लड़ाई चल रही है। इसमें एक आदमी है जो लड़ रहा है इस तरफ से, उसकी सारी फौजें लड़ रही हैं दुश्मन की तरफ से। यह आदमी कोई लड़ने में बहुत रसवाला नहीं है। लड़ने से इसे बहुत प्रयोजन नहीं है। लेकिन स्थिति लड़ने की है। और इसलिए अपने को भी दो हिस्सों में बांटा है उसने, कि बाद में आप उसको दोषारोपित न कर सकें, दोषारोपण न कर सकें।

कृष्ण की स्थिति बहुत ही अदभुत है। उनके सारे व्यक्तित्व की बनावट बहुत अदभुत है। और यह लड़ाई भी बड़े मजे की है! सांझ हो जाती है, युद्ध बंद हो जाता है, और सब एक-दूसरे के खेमों में गपशप करने चले जाते हैं। और एक-दूसरे से जाकर पूछने लगते हैं, आज कौन मर गया और कौन क्या हो गया? संवेदना भी प्रगट करने जाते हैं। सांझ को गपशप जमती है। बड़ी अजीब लड़ाई है! यह लड़ाई ऐसी नहीं लगती है कि दुश्मनों की है। दुश्मनी जैसे नाटक है, जैसे खेल है, जैसे अपरिहार्यता है। एक "इनइवीटेबिलिटी' है जो ऊपर आ गिर पड़ी है लेकिन कोई दुश्मनी नहीं मालूम पड़ती है। सांझ हो जाती है, बिगुल बज जाते हैं, युद्ध बंद हो गया है, और पता लगाना मुश्किल है कि कौन कहां है। सब एक-दूसरे के खेमों में चले गए हैं। और एक-दूसरे के खेमों में चर्चा चल रही है। दुख-संवेदना भी है कि कौन मर गया। अकेले कृष्ण का ही मामला ऐसा नहीं है, बहुत-से मामले ऐसे हैं कि कोई उस तरफ से लड़ रहा है, उसका कोई साथी इस तरफ से लड़ रहा है। और कैसे मजे की बात है कि युद्ध समाप्त हो जाता है और कृष्ण ही सलाह देते हैं पांडवों को कि वे भीष्म से जाकर शांति का पाठ ले लें। भीष्म से! जो उस तरफ से युद्ध का अग्रणी है। उस तरफ से युद्ध का सेनापति है। युद्ध का जो सेनापति है दुश्मन की तरफ से, उससे शांति का पाठ लेने के लिए है, शिष्य की तरह बैठ जाते हैं लोग जाकर। भीष्म का जो संदेश है वह "शांति पर्व' है। बहुत अजीब बात है! बड़ी "मिरेकुलस' है। दुश्मन से कभी कोई शांति का पाठ लेने गया है! दुश्मन से अशांति के पाठ लिए जाते हैं। और उसके पास जाने की जरूरत नहीं होती।

मरते हुए भीष्म से शांति का पाठ लिया जा रहा है! धर्म का राज समझा जा रहा है! युद्ध साधारण युद्ध नहीं है। युद्ध बहुत असाधारण है। और इस युद्ध के मैदान पर खड़े हो गए योद्धा साधारण लड़ाई में गए हुए सैनिक नहीं हैं। इसलिए इसे गीता धर्मयुद्ध कह पाती है। इस युद्ध को धर्मयुद्ध कहने का कारण है।

कृष्ण समझा-बुझाकर युद्ध नहीं करवा लेते हैं। कृष्ण समझा-बुझाकर अर्जुन के क्षत्रिय होने को प्रगट कर देते हैं। एक मूर्तिकार का मुझे स्मरण आता है। एक मूर्तिकार एक पत्थर में मूर्ति खोद रहा है। कोई आदमी देखने आया है उसके मूर्ति बनाने को। पत्थर छिदते जाते हैं, छेनी पत्थर काटती चली जाती है। फिर मूर्ति उघड़ने लगती है। फिर पूरी मूर्ति उघड़ जाती है। और फिर वह जो देखने आया है, वह कहता है, तुम अदभुत कारीगर हो। तुमने जैसी मूर्ति को बनाई ऐसी मैंने किसी को बनाते नहीं देखा। वह कहता है, माफ करना, तुम कुछ गलत समझे। मैं मूर्ति को बनाने वाला नहीं हूं, सिर्फ उघाड़ने वाला हूं। इधर से निकलता था, इस पत्थर में मुझे मूर्ति दिखाई पड़ी, तो जो गैरजरूरी पत्थर थे वे भर मैंने अलग किए हैं। इधर से गुजरता था, मूर्ति मुझे दिखाई पड़ी इस पत्थर में कि अरे, इस पत्थर में एक मूर्ति छिपी है। मैंने सिर्फ गैरजरूरी पत्थर अलग कर दिए हैं और मूर्ति जो छिपी थी वह प्रगट हो गई है। मैं बनाने वाला नहीं हूं, सिर्फ उघाड़ने वाला हूं।

अर्जुन को कृष्ण सिर्फ उघाड़ते हैं, बनाते नहीं। वह जो था वह उघाड़ देते हैं। उनकी छेनी सिर्फ गैरजरूरी पत्थर अलग कर देती है। बाद में जो अर्जुन होता है, वह अर्जुन का होना है, उसकी निजता है। ऐसा वह आदमी था। पर हमें तो लगेगा कि मूर्ति बनाई है। यह आदमी क्या कह रहा है कि बनाई नहीं है? हमने बनाते देखी है। हमने छेनी से पत्थर काटते देखा है। लेकिन यह एक मूर्तिकार का कहना नहीं है, बहुत मूर्तिकारों का कहना है कि उन्हें मूर्तियां पत्थरों में पहले दिखाई पड़ती हैं, फिर वे उन्हें उघाड़ते हैं; पत्थर बोलते हैं मूर्तिकार से कि आओ इधर, इधर कुछ छिपा है, इसे उघाड़ दो। सभी पत्थर काम नहीं आते, सभी पत्थर बेमानी हैं। किसी पत्थर में जहां छिपा होता है, उस निजता को उघाड़ा है। इसलिए पूरी गीता एक उघाड़ने की प्रक्रिया है। उसमें अर्जुन जैसा हो सकता था, वैसा प्रगट हुआ है।

ओशो रजनीश




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