श्री कृष्ण स्मृति भाग 16
"आपने कहा कि कृष्ण अर्जुन के गुरु नहीं मित्र हैं, और इसलिए वे अर्जुन की लंबी शंकाओं का धैर्यपूर्वक स्वागत करते हैं। लेकिन, गीता में ही वे अन्यत्र अर्जुन को कहते हैं--"संशयात्मा विनश्यति'। ऐसा वे अर्जुन के मन में बार-बार उठते संशय को देखकर ही कहते थे। लेकिन संशयात्मा अर्जुन नष्ट नहीं हुआ, उलटे कौरव नष्ट हो गए। कृपया इसे समझाएं।'
संशयात्मा विनष्ट हो जाते हैं, यह बड़ा सत्य है। लेकिन संशय के अर्थ समझने में भूल हो जाती है। संशय का अर्थ संदेह नहीं है। संशय का अर्थ "डाउट' नहीं है। संशय का अर्थ "इनडिसीसिवनेस' है। संशय का अर्थ है, अनिर्णय की स्थिति।
संदेह तो बड़े निर्णय की स्थिति है, संदेह अनिर्णय नहीं है। संदेह भी निर्णय है, श्रद्धा भी निर्णय है। संदेह नकारात्मक निर्णय है, श्रद्धा विधायक निर्णय है। एक आदमी कहता है, ईश्वर है, ऐसी मेरी श्रद्धा है। यह एक निर्णय है, एक "डिसीजन' है। एक आदमी कहता है, ईश्वर नहीं है, ऐसा मेरा संदेह है। यह भी एक निर्णय है। यह "निगेटिव डिसीजन' है। एक आदमी कहता है कि पता नहीं ईश्वर है, पता नहीं ईश्वर नहीं है। यह "इनडिसीसिवनेस' है। यह संशय है। संशय विनाश कर देता है, क्योंकि वह अनिर्णय में छोड़ देता है।
अर्जुन को जब कृष्ण कहते हैं कि तू संशय में मत पड़, निर्णायक हो, निश्चयात्मक हो, "डिसीसिव' हो; निश्चयात्मक बुद्धि को उपलब्ध हो, तू निश्चय कर कि तू कौन है, तू संशय में मत पड़ कि मैं क्षत्रिय हूं कि मैं ब्राह्मण हूं कि संन्यास लेने को हूं, तू निर्णय कर; तू स्पष्ट निर्णय को उपलब्ध हो अन्यथा तू विनष्ट हो जाएगा। "इनडिसीजन' विनाश कर देगा, तू भटक जाएगा, तू खंड-खंड हो जाएगा। तू अपने ही भीतर विभाजित हो जाएगा और लड़ जाएगा और टूटकर नष्ट हो जाएगा। "डिसइंटिग्रेटेड' हो जाएगा।
संशय को अक्सर ही संदेह समझा गया है और वहां भूल हो गई है। मैं संदेह का पक्षपाती हूं और संशय का पक्षपाती मैं भी नहीं हूं। मैं भी कहता हूं, संदेह बहुत उचित है और संदेह के लिए कृष्ण जरा-भी इनकार नहीं करते। संदेह के लिए तो वह बिलकुल राजी हैं कि तू पूछ! पूछ का मतलब ही संदेह है। तू और पूछ। पूछने का मतलब ही संदेह है। लेकिन वह यह कहते हैं कि तू भीतर संशय से मत भर जाना। "कन्फ्यूज्ड' मत हो जाना। संभ्रम से मत भर जाना। ऐसा न हो कि तू तय करने में असमर्थ हो जाए कि क्या करणीय है, क्या न-करणीय है; क्या करूं, क्या न करूं! "ईदर-ऑर' में मत पड़ जाना। या यह या वह, ऐसे मत पड़ जाना।
एक विचारक हुआ है, सोरेन कीर्कगार्द। उसने एक किताब लिखी--"ईदर ऑर'। किताब का नाम है--"यह या वह?' किताब ही लिखी होती, ऐसा नहीं था, उसका व्यक्तित्व भी ऐसा ही था--यह या वह? उसके गांव में, कोपनहेगन में उसका नाम ही लोग भूल गए और "ईदर-ऑर' उसका नाम हो गया। और जब वह गलियों से निकलता, तो लोग चिल्लाते, "ईदर ऑर' जा रहा है। क्योंकि वह चौरस्तों पर भी खड़ा होकर सोचता है कि इस रास्ते जाऊं कि उस रास्ते से! ताले में चाबी डालकर सोचता है--इस तरफ घुमाऊं कि उस तरफ! एक स्त्री को प्रेम करता था, रोजीना को। फिर उस स्त्री ने विवाह का निवेदन किया तो जीवन-भर निर्णय न कर पाया--करूं, कि न करूं! यह "डाउट' नहीं है, यह "इनडिसीसिवनेस' है।
तो कृष्ण जो अर्जुन से कहते हैं, वह कहते हैं तू संशय में पड़ेगा तो नष्ट हो जाएगा। संशय में जो भी पड़े वे नष्ट हो गए, क्योंकि संशय खंडित कर देगा। तू ही विरोधी हिस्सों में बंट जाएगा। खंड-खंड होकर टूटेगा, तुझे अखंड होना चाहिए। और निर्णय से आदमी अखंड हो जाता है। अगर आपने जिंदगी में कभी भी कोई "डिसीजन' लिया है, कभी भी कोई निर्णय किया है, तो उस निर्णय में आप कम-से-कम क्षण-भर को तो तत्काल अखंड हो जाते हैं। जितना बड़ा निर्णय, उतनी बड़ी अखंडता आती है। अगर कोई समग्ररूपेण एक निर्णय कर ले जीवन में तो उसके भीतर "विल', संकल्प पैदा हो जाता है। वह एक हो जाता है, एकजुट, योग को उपलब्ध हो जाता है।
तो कृष्ण की पूरी चेष्टा संशय मिटाने की--संदेह मिटाने की नहीं, क्योंकि संदेह तो तू पूरा कर, संशय को मिटा। और, मैं संदेह का पक्षपाती हूं। मैं कहता हूं, संदेह जरूर करें। संदेह करने का मतलब है, उस समय तक संदेह की छेनी का उपयोग करें, जब तक श्रद्धा की मूर्ति निखर न आए। तो तोड़ते जाएं, तोड़ते जाएं, आखिर तक लड़ें, संदेह करें, किसी को मान न लें। तोड़ते जाएं, लड़ते जाएं, तोड़ते जाएं, एक दिन वह घड़ी आ जाएगी कि मूर्ति निखर आएगी; तोड़ने को कुछ बचेगा नहीं। अब तोड़ना अपने को ही तोड़ना होगा। अब कुछ तोड़ने को न बचा। मूर्ति पूरी प्रगट हो गई है, अब व्यर्थ पत्थर अलग हो गए हैं, अब श्रद्धा उत्पन्न होगी।
संदेह की अंतिम उपलब्धि श्रद्धा है और संशय की अंतिम उपलब्धि विक्षिप्तता है। पागल हो जाएगा आदमी, कहीं का न रह जाएगा, सब खो जाएगा। उस अर्थ में समझेंगे तो खयाल में बात आ सकती है।
ओशो रजनीश
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