श्री कृष्ण स्मृति भाग 17

 "भगवान श्री, श्रीकृष्ण के जन्म के समय क्या सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक स्थितियां थीं, जिनके कारण कृष्ण जैसी आत्मा के अवतरण होने का आधार बना? कृपया इस पर प्रकाश डालें।'


कृष्ण जैसी चेतना के जन्म के लिए सभी समय, सभी काल, सभी परिस्थितियां काम की हो सकती हैं। कोई काल, कोई परिस्थिति कृष्ण जैसी चेतना के पैदा होने का कारण नहीं होती है। यह दूसरी बात है कि किसी विशेष परिस्थिति में वैसी चेतना को विशेष व्यवहार करना पड़े। लेकिन ऐसी चेतनाएं काल-निर्भर नहीं होतीं। सिर्फ सोए हुए लोगों के अतिरिक्त काल पर कोई भी निर्भर नहीं होता। जागा हुआ कोई भी व्यक्ति अपने समय से पैदा नहीं होता। बल्कि बात बिलकुल उलटी है--जागा हुआ व्यक्ति अपने समय को अपने अनुकूल ढाल लेता है। सोए हुए व्यक्ति समय के अनुकूल पैदा होते हैं।


लेकिन हम सदा ऐसा सोचते रहे हैं कि कृष्ण शायद इसलिए पैदा होते हैं कि युग बहुत बुरा है, इसलिए पैदा होते हैं कि बहुत दुर्दिन हैं। इस समझ में बुनियादी भूल है। इसका मतलब यह हुआ कि कृष्ण जैसे व्यक्ति एक "कॉज़ल चेन' में पैदा होते हैं, एक कार्य-कारण की शृंखला में पैदा होते हैं। इसका मतलब हुआ कि हमने कृष्ण के जन्म को भी "युटिलिटेरियन' कर लिया, हमने उपयोगिता में ढाल दिया। इसका यह भी मतलब हुआ कि कृष्ण जैसे व्यक्ति को भी हम अपनी सेवा के अर्थों में ही देख सकते हैं, और किसी अर्थों में नहीं देख सकते।

अगर रास्ते के किनारे फूल खिलें, तो राह से गुजरने वाला सोच सकता है कि मेरे लिए खिल रहा है। मेरे लिए सुगंध दे रहा है। हो सकता है अपनी डायरी में लिखे कि मैं जिस रास्ते से गुजरता हूं, मेरे कारण मेरे लिए फूल खिल जाते हैं। लेकिन फूल निर्जन रास्तों पर भी खिलते हैं। फूल किसी के लिए नहीं खिलते, फूल अपने लिए खिलते हैं। किसी दूसरे को सुगंध मिल जाती है, यह बात दूसरी है।

कृष्ण जैसे व्यक्ति किसी के लिए पैदा नहीं होते। अपने आनंद से ही जन्मते हैं। दूसरों को सुगंध मिल जाती है, यह बात दूसरी है। और ऐसा कौन-सा युग है, जिस में कृष्ण जैसा व्यक्ति पैदा हो तो हम उससे कोई उपयोग न लें सकेंगे? सभी युगों में ले लेंगे। सभी युगों में जरूरत है। सभी युग पीड़ित हैं, सभी युग दुखी हैं। तो कृष्ण जैसा व्यक्ति तो किसी भी क्षण में उपयोगी हो जाएगा। सुगंध ही चाह किस को नहीं है! किस के नासापुट सुगंध के लिए आतुर नहीं हैं! फूल किसी भी रास्ते पर खिले, और कोई भी गुजरे तो सुगंध ले लेगा। मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि कृष्ण जैसे व्यक्तियों को "युटिलिटेरियन', उपयोगिता की भाषा में सोचना ही गलत है।

लेकिन हमारी मजबूरी है। हम हर चीज को उपयोग में सोचते हैं, किस उपयोग में आएगी? निरुपयोगी का हमारे लिए कोई मूल्य ही नहीं है, "परपजलेस' का हमारे लिए कोई अर्थ नहीं है। आकाश में बादल चलते हैं तो सोचते हैं कि शायद हमारे खेतों में वर्षा करने के लिए चलते हैं। अगर घड़ियां आपके हाथों पर बंधी सोच सकें, तो वे शायद यही सोचेंगी कि हम बंध सकें, इसलिए यह आदमी पैदा हुआ है। निश्चित ही चश्मे अगर सोच सकें, तो वे सोचेंगे कि हम लग सकें, इसलिए ये आंखें पैदा हुई हैं। लेकिन वे सोच नहीं सकते, इसलिए मजबूरी है। आदमी सोच सकता है तो वह हर चीज को "इगोसेंट्रिक' कर लेता है। वह अपने अहंकार को केंद्र पर लेता है। वह कहता है, सब मेरे लिए है। कृष्ण जन्मते हैं तो मेरे लिए, बुद्ध जन्मते हैं तो मेरे लिए, फूल खिलते हैं तो मेरे लिए, चांदत्तारे चलते हैं तो मेरे लिए। आदमी के लिए सब चल रहा है। आकाश में चांदत्तारे चलते हैं वे भी हमारे लिए, सूरज निकलता है वह भी हमारे लिए है। यह दूसरी बात है कि सूरज के निकलने से हम रोशनी ले लेते हैं, लेकिन हमें रोशनी देने को सूरज नहीं निकलता है।

जिंदगी की धारा उपयोगिता की धारा नहीं है। उपयोगिता की भाषा में ही सोचना गलत है। जिंदगी में सब हो रहा है, किसी के लिए नहीं, होने के लिए ही। फूल खिल रहे हैं अपने आनंद में, नदियां बह रही हैं अपने आनंद में, बादल चल रहे हैं अपने आनंद में, चांदत्तारे चल रहे हैं अपने आनंद में। आप किस के लिए पैदा हुए हैं? आप किस कारण पैदा हुए हैं? आप अपने आनंद में ही जी रहे हैं। और कृष्ण जैसा व्यक्ति तो पूरी तरह अपने आनंद में जी रहा है। ऐसा व्यक्ति कभी भी पैदा हो जाए तो हम जरूर उसका कुछ उपयोग करेंगे। सूरज कभी भी निकले तो हम उसकी रोशनी अपने घरों में ले जाएंगे। और बादल कभी भी बरसें, हम फसल पैदा करेंगे। और फूल कभी भी खिलें, हम उनकी मालाएं बनाएंगे। लेकिन इस सब के लिए यह नहीं हो रहा है।

लेकिन निरंतर हम इसी भाषा में सोचते हैं--महावीर क्यों पैदा हुए? कौन-सी राजनैतिक स्थिति थी जिससे महावीर पैदा हुए? बुद्ध क्यों पैदा हुए? कौन-सी सामाजिक स्थिति थी जिससे बुद्ध पैदा हुए? ध्यान रहे, इसमें एक और खतरनाक बात है, और वह यह है कि व्यक्ति की चेतना सामाजिक परिस्थितियों से पैदा होती है, ऐसा माक्र्स का सोचना था। माक्र्स कहता था कि चेतना परिस्थितियां नहीं बनाती, परिस्थितियों से चेतना जन्मती है। लेकिन जो नहीं हैं कम्यूनिस्ट, वह भी इसी तरह सोचते हैं। उन्हें पता नहीं होगा कि जिन लोगों ने भी कभी यह कहा है कि इस कारण से महावीर पैदा हुए, इस कारण से कृष्ण पैदा हुए, वे यह कह रहे हैं कि समाज की परिस्थितियां उनके जन्म का कारण हैं। नहीं, समाज की परिस्थितियां उनके जन्म का कारण नहीं हैं। और समाज की ऐसी कोई भी परिस्थिति नहीं है जो कृष्ण जैसी चेतना को जन्म दे दे। समाज तो बहुत पीछे होता है कृष्ण जब पैदा होते हैं। समाज तो बहुत पीछे होता है, कृष्ण जैसी चेतना को जन्म देने की क्षमता उसकी नहीं है। बल्कि कृष्ण ही पैदा करके उस समाज को नई दिशाएं अनजाने में दे जाते हैं। नए मार्ग दे जाते हैं, नई शक्ल, नई रूपरेखा दे जाते हैं।

मैं परिस्थितियों को बहुत मूल्य नहीं देता। मैं मूल्य चेतना को "कांशसनेस' को ज्यादा देता हूं। और आपसे यह कहना चाहूंगा कि जीवन उपयोगितावादी नहीं है, जीवन खेल जैसा है, लीला जैसा है। एक आदमी जा रहा है रास्ते पर। उसे कहीं पहुंचना है। उसे कोई मंजिल, कोई मुकाम, उसे किसी काम के लिए जाना है। यह आदमी भी चलता है रास्ते पर। एक आदमी सुबह घूमने निकला है। उसे कहीं पहुंचना नहीं है, कहीं जाना नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है, सिर्फ घूमने निकला है। लेकिन कभी आपने खयाल किया है कि वही रास्ता, जब आप काम करने के लिए निकलते हैं, तो बोझिल हो जाता है और वही रास्ता जब आप घूमने के लिए निकलते हैं, तो आनंदपूर्ण हो जाता है। वे ही पैर, जब काम करने को जाते हैं तो भारी हो जाते हैं। वे ही पैर, जब फिर घूमने को जाते हैं तो पर लग जाते हैं, हलके हो जाते हैं। वही आदमी जब काम करने जाता है तो उसके सिर पर मनों बोझ होता है; और उसी रास्ते पर, उन्हीं कदमों से, उतनी ही दूरी पूरी करता है--सिर्फ घूमने के लिए--तब कोई हिसाब नहीं उसके आनंद का, कोई बोझ नहीं होता है।

कृष्ण जैसे व्यक्ति किसी काम के लिए नहीं जीते। उनकी जिंदगी घूमने जैसी है, कहीं जाने जैसी नहीं। उनकी जिंदगी एक खेल है। निश्चित ही जिस रास्ते वे गुजरते हैं, उस रास्ते पर अगर कांटे पड़े हों, तो उसे हटा देते हैं। यह बिलकुल दूसरी बात है। यह भी उनके आनंद का हिस्सा है। लेकिन कृष्ण उस रास्ते से कांटों को हटाने के लिए नहीं निकले थे। निकले थे और कांटे पड़े थे तो वे हटा दिए हैं। और उस रास्ते पर अगर कोई आदमी यह न सोचे कि वह कोई "ट्रैफिक' के, पुलिस के आदमी हैं कि उसके लिए खड़े थे वहां, रास्ता बताने को। वह वहां से निकले थे, आपने पूछा है, उन्होंने बता दिया। यह सब "नान-कॉज़ल' है। इसके कार्य-कारण की कोई शृंखला नहीं है। इसलिए मैं कृष्ण को या बुद्ध को, या क्राइस्ट को, या महावीर को हमारी शृंखला में सोचने के लिए तैयार नहीं हूं। वे घटित होते हैं अकारण। या कहें कि उनके कारण उनके आंतरिक हैं, हमारे सामाजिक और बाह्य कारण नहीं हैं।

व्यक्ति की आत्मा और व्यक्ति की चेतना का अर्थ ही यही है कि व्यक्ति की चेतना भीतर परम स्वतंत्र है। उसे कोई बांधता नहीं। उसे कोई बांध नहीं सकता।

एक बहुत बड़े ज्योतिषी के संबंध में मैंने सुना है कि उसके गांव के लोग उस ज्योतिषी से बहुत परेशान हो गए थे। वह जो भी कहता था, वह ठीक निकल जाता था। तब उस गांव के दो युवकों ने सोचा कि कभी तो एक बार इस ज्योतिषी को गलत करना जरूरी है। सर्दी के दिन थे, वे अपने बड़े "ओवर कोट' के भीतर एक कबूतर को छिपाकर उस ज्योतिषी के पास पहुंचे और उस ज्योतिषी से उन्होंने कहा कि इस कोट के भीतर हमने एक कबूतर छिपा रखा है, हम आपसे पूछने आए हैं कि वह जिंदा है या मरा हुआ है? वे यह तय करके आए थे कि अगर वह कहे जिंदा है, तो भीतर उसकी गर्दन मरोड़ देनी है। मरा हुआ कबूतर बाहर निकालना है। अगर वह कहे मरा हुआ है, तो कबूतर को जिंदा ही बाहर निकाल दें। एक दफा तो मौका होना ही चाहिए कि ज्योतिषी गलत हो जाए। उस बूढ़े ज्योतिषी ने नीचे से ऊपर देखा, और उसने जो वक्तव्य दिया वह बहुत अदभुत था। उसने कहा, "इट इज इन योर हैंड'। उसने कहा, न कबूतर जिंदा है, न मरा है, तुम्हारे हाथ में है। तुम्हारी जैसी मर्जी। उन युवकों ने कहा, बड़ा धोखा दे दिया आपने!

जिंदगी हमारे हाथों में है। और कृष्ण जैसे लोगों के तो बिलकुल हाथों में है। वे जैसे जीना चाहते हैं, वैसा ही जीते हैं। न कोई समाज, न कोई परिस्थिति, न कोई बाहरी दबाव उसमें कोई फर्क ला पाता है। उनका होना अपना होना है। निश्चित ही कुछ फर्क हमें दिखाई पड़ते हैं, वे दिखाई पड़ेंगे। क्योंकि हमारे बीच जीते हैं, बहुत-सी घटनाएं घटती हैं, जो हमारे बीच घटती हैं जो कि नहीं घटी होतीं अगर किसी और समय में वे होते। लेकिन वे गौण हैं, "इर्रेलेवेंट' हैं, असंगत हैं, उनसे कृष्ण के आंतरिक जीवन को कोई लेना-देना नहीं है।

 कृष्ण किसी समाज के लिए पैदा नहीं होते, न किसी राजनैतिक स्थिति के लिए पैदा होते हैं। न किसी के बचाने के लिए पैदा होते हैं। हां, बहुत लोग बच जाते हैं, यह बिलकुल दूसरी बात है। बहुत लोगों को रास्ता मिल जाता है, यह बिलकुल दूसरी बात है। कृष्ण तो अपने आनंद में खिलते हैं; और यह खिलना वैसे ही अकारण है जैसे आकाश में बादलों का चलना, जमीन पर फूलों का खिलना, हवाओं का बहना। यह उतना ही अकारण है। लेकिन हम इतने अकारण नहीं हैं, इसलिए कठिनाई होती है समझने में। हम तो कारण से जीते हैं। हम तो किसी को प्रेम भी करते हैं तो भी कारण से करते हैं। प्रेम भी हम कारण से कहते हैं, प्रेम का फूल भी अकारण नहीं खिल पाता। हम बिना कारण के तो कुछ भी कर ही नहीं सकते। और ध्यान रहे, जब तक आपकी जिंदगी में बिना कारण के किसी करने का जन्म न हो, तब तक आपकी जिंदगी में धर्म का भी जन्म नहीं होगा। जिस दिन आपकी जिंदगी में कुछ अकारण भी होने लगे, कि आप बिना कारण करते हैं, "अनकंडीशनल', कोई वजह नहीं थी करने की, करने का आनंद ही एकमात्र वजह थी।

ओशो रजनीश




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