श्री कृष्ण स्मृति भाग 5
"आपने अभी कहा कि बुद्ध और महावीर जैसे संन्यासी दुखवादी हैं। लेकिन संन्यास उनके वैभवपूर्ण जीवन से निकला है, संन्यास उनके वैभव का अगला चरण है, इसलिए उसके आधार में आप दुख को नहीं रख सकेंगे।'
नहीं, मैंने महावीर और बुद्ध को दुखवादी संन्यासी नहीं कहा। अतीत का संन्यास दुखवादी था। महावीर का व्यक्तित्व भी अगर हम देखें, और बुद्ध का व्यक्तित्व अगर देखें, तो भी जीवन को छोड़ने वाला है। महावीर और बुद्ध दुखवादी हैं, ऐसा मैंने नहीं कहा, क्योंकि मैं महावीर और बुद्ध को मानता हूं कि उन्होंने पाया है। महावीर का दुख बहुत भिन्न है। महावीर का दुख सुख की ऊब है। बुद्ध का दुख सुख से ऊब जाना है। उनका दुख सुख का अभाव नहीं है, "एब्सेंस' नहीं है। ऐसा नहीं है कि महावीर को सुख की कमी थी इसलिए वे संन्यासी हो गए। न, अति सुख हो जाए तो सुख व्यर्थ हो जाता है। लेकिन फिर भी वे सुख को छोड़कर गए। छोड़ना उन्हें अब भी सार्थक है। सुख तो निरर्थक हुआ, लेकिन छोड़ना सार्थक रहा। कृष्ण को सुख भी व्यर्थ है, छोड़ना भी व्यर्थ है। कृष्ण के लिए व्यर्थता की गहराई बहुत ज्यादा है।
समझें।
अगर मैं किसी चीज को पकड़ता हूं, तो भी मेरे लिए उसमें कुछ अर्थ है। और अगर मैं उसे छोड़ता हूं तो भी निषेधात्मक अर्थ है। नहीं छोडूंगा तो दुख पाऊंगा। इतना अर्थ तो है ही। महावीर और बुद्ध का संन्यास दुख से निकला है, ऐसा मैं नहीं कहता। सुख से ही निकला। सुख की ऊब से निकला। वे किसी और बड़े सुख की खोज में इस सुख को छोड़कर चले गए। कृष्ण में उनसे भेद है। कृष्ण किसी बड़े सुख की खोज में इस सुख को छोड़कर नहीं जाते, इस सुख को भी उस बड़े सुख की खोज की सीढ़ी ही बनाते हैं। इसे छोड़कर नहीं जाते। इस सुख में और उस सुख में उन्हें विरोध नहीं दिखाई पड़ता। वह जो बड़ा सुख है, इसी सुख का विस्तार है। वह इसी गीत की अगली कड़ी है, वह इसी नृत्य का अगला चरण है। वह जो बड़ा सुख है, वह जो आनंद है, वह इस सुख का विरोधी नहीं है। बल्कि कृष्ण के लिए इस सुख में भी उस बड़े आनंद की ही झलक है, यह इसकी ही शुरुआत है।
बुद्ध और महावीर भी सुख से ही जाते हैं, लेकिन उनकी दृष्टि छोड़ने की दृष्टि है। वह जो छोड़ने की दृष्टि है वह हम दुखवादियों को और भी महत्वपूर्ण मालूम पड़ी है। बुद्ध और महावीर सुख से ऊबकर गए हैं, लेकिन हम दुखी लोगों को ऐसा लगा है कि दुख से ही गए हैं। तो बुद्ध और महावीर की व्याख्या भी हमने जो की है वह भी दुखवादियों की व्याख्या है। जैसे कृष्ण के साथ अन्याय हुआ, उससे थोड़ा कम सही, लेकिन बुद्ध और महावीर के साथ भी अन्याय हुआ है।
हम दुखी हैं। हम जब छोड़कर जाते हैं तो दुख के कारण छोड़कर जाते हैं। बुद्ध और महावीर जब छोड़कर जाते हैं तो सुख के कारण छोड़कर जाते हैं। हममें और बुद्ध और महावीर में भी फर्क है। हमारे छोड़ने का मूल आधार दुख होता है, उनके छोड़ने का मूल आधार सुख होता है। हैं तो वे भी सुख से ही गए हुए संन्यासी, लेकिन कृष्ण और उनमें भी एक फर्क है और वह फर्क यह है कि वे सुख को छोड़कर गए हैं, कृष्ण छोड़कर नहीं जा रहे हैं। कृष्ण स्वीकार कर ले रहे हैं जो है। असल में सुख को छोड़ने योग्य भी नहीं पा रहे हैं। भोगने योग्य का सवाल ही नहीं है, छोड़ने योग्य भी नहीं पा रहे हैं। जीवन जैसा है उसमें कुछ भी रद्दोबदल करने की कृष्ण की कोई इच्छा नहीं है।
एक फकीर ने कहीं कहा है अपनी एक प्रार्थना में कि हे परमात्मा, तू तो मुझे स्वीकार है लेकिन तेरी दुनिया नहीं। सभी फकीर यही कहेंगे कि तू तो मुझे स्वीकार है, लेकिन तेरी दुनिया नहीं। ये नास्तिक से उलटे हैं। नास्तिक कहता है, तेरी दुनिया तो स्वीकार है, तू नहीं। आस्तिक कहता है, तेरी दुनिया तो स्वीकार नहीं है, तू स्वीकार है। ये दोनों एक ही सिक्के के दोहरे पहलू हुए। कृष्ण की आस्तिकता बहुत अदभुत है। कहना चाहिए, कृष्ण ही आस्तिक हैं। तू भी स्वीकार है, तेरी दुनिया भी स्वीकार है। और यह स्वीकृति इतनी गहरी है कि कहां तेरी दुनिया समाप्त होती है और कहां से तू शुरू होता है, यह तय करना मुश्किल है। असल में तेरी दुनिया भी तेरा फैला हुआ हाथ है और तू ही तेरी दुनिया का छिपा हुआ अंतर्मम है। इससे ज्यादा कोई फर्क नहीं है।
कृष्ण समस्त को स्वीकार कर रहे हैं, इसे ध्यान में रखना जरूरी है--दुख को भी नहीं छोड़ रहे हैं, सुख को भी नहीं छोड़ रहे हैं। जो भी है उसे छोड़ ही नहीं रहे, छोड़ने का भाव ही नहीं है। छोड़ने की बात ही नहीं है। छोड़ने से ही, अगर हम ठीक से समझें तो व्यक्ति शुरू हो जाता है। जैसे ही हम छोड़ते हैं, मैं शुरू हो जाता हूं। लेकिन अगर हम कुछ छोड़ते ही नहीं, तो मेरे होने का उपाय ही नहीं है। इसलिए कृष्ण से निरहंकारी व्यक्तित्व खोजना मुश्किल है। और निरहंकारी हैं इसलिए ही उन्हें अहंकार की बात करने में भी कोई कठिनाई नहीं होती है, वह अर्जुन से कह सकते हैं--तू सबको छोड़कर मेरी शरण में आ जा। यह बड़े मजे की बात है, यह बड़े अहंकार की घोषणा है। इससे ज्यादा "इगोइस्ट' घोषणा क्या होगी कि कोई आदमी किसी से कहे--तू सबको छोड़कर मेरी शरण में आ जा! लेकिन हमको भी दिखाई पड़ता है कि यह अहंकार की घोषणा है, कृष्ण को दिखाई नहीं पड़ा होगा? इतनी अकल तो रही ही होगी, जितनी हममें है। इतना तो कृष्ण को भी दिखाई पड़ सकता है कि यह अहंकार की घोषणा है, लेकिन इसे वे बड़ी सहजता से कर सके। यह वही आदमी कह सकता है, जिसके पास अहंकार हो ही नहीं। यह वही आदमी कर सकता है, आ जा मेरी शरण में, जिसको मेरे का कोई पता नहीं है। इसलिए जब वह कह रहे हैं कि आ जा मेरी शरण में, तब वह यही कह रहे हैं कि शरण में आ जा। छोड़ दे सब। अपना होना छोड़ दे और जीवन जैसा है उसे स्वीकार कर ले।
बड़े मजे की बात है, कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं कि तू युद्ध में लड़ जा। अगर दोनों की बातों को देखें तो अर्जुन ज्यादा धार्मिक मालूम पड़ता है। कृष्ण की बात बहुत धार्मिक नहीं मालूम पड़ती। कृष्ण कहते हैं, लड़। अर्जुन कहता है, मारूंगा, दुख होगा, पीड़ा होगी, अपने हैं, प्रियजन हैं, संबंधी हैं, मित्र हैं, गुरु हैं। इनको मारूंगा, बहुत दुख होगा। इन सबको मारकर मैं बड़े-से-बड़ा सुख भी न चाहूंगा। इससे तो बेहतर है कि मैं भाग जाऊं और भीख मांग लूं। आत्मघात कर लूं, वह भी सरल मालूम पड़ता है बजाय इन सबको मारने के। कौन धार्मिक होगा जो कहेगा कि कृष्ण को जो अर्जुन कह रहा है वह गलत कह रहा है। सभी धार्मिक कहेंगे, ठीक कहता है; अर्जुन के मन में धर्म-बुद्धि पैदा हुई है। लेकिन कृष्ण उससे कहते हैं कि तू विचलित हो गया; तेरी धर्म-बुद्धि नष्ट हो गई है। क्योंकि कृष्ण यह कहते हैं कि तू पागल, तू सोचता है किसी को मार सकेगा! कोई मरता है कभी! तू सोचता है कि ये जो खड़े हैं, तू इन्हें बचा सकेगा? कोई किसी को बचा सका है कभी? तू सोचता है, तू युद्ध से बच सकेगा, तू अहिंसक हो सकेगा। लेकिन जहां "मैं' है, खुद को बचाना है, वहां अहिंसा हो सकती है कभी?
नहीं, जो आ गया है उसे स्वीकार कर, अपने को छोड़ और लड़। जो सामने है उसमें डूब। सामने युद्ध है। सामने कोई मंदिर नहीं है। सामने कोई प्रार्थना नहीं चल रही है, सामने कोई भजन-कीर्तन नहीं हो रहा है कि उसमें डूब। सामने युद्ध है। लेकिन कृष्ण कहते हैं, इसमें तू डूब। अपने को छोड़। तू कौन है! और एक बहुत मजे की बात कहते हैं कि जिन्हें तू देखता है कि मरेंगे, मैं जानता हूं कि वे पहले ही मर चुके हैं। वे सिर्फ मरने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, तू ज्यादा-से-ज्यादा निमित्त हो सकता है। तू अपने को ऐसा मत मान कि तू मार रहा है, क्योंकि तब तू निमित्त न रह जाएगा, कर्ता हो जाएगा। तू ऐसा भी न मान कि अगर तू छोड़कर भागेगा तो तू सोचेगा, कि तूने बचाया; तब भी भ्रम होगा। तेरे बचाने से ये न बचेंगे, तेरे मारने से ये न मरेंगे। तू इसमें पूरा हो, इसमें पूरा डूब। जो तुझ पर आ गया है, तू उसे पूरा निभा। और पूरा तू तभी निभा सकता है जब तू अपनी बुद्धि को छोड़े। तू यह छोड़े कि मैं हूं, और मैं के दृष्टिकोण से देखना छोड़। इसको अगर ठीक से समझें तो इसका मतलब क्या हुआ?
इसका मतलब यह हुआ कि अगर कोई "मैं' के दृष्टिकोण को छोड़े तो कर्ता न रह जाएगा, अभिनेता ही रह सकता है। मैं राम हूं और मेरी सीता खो जाए तब मैं जिस भांति रोऊंगा, एक रामलीला में काम करूं और सीता खो जाए, तब भी रोऊंगा। हो सकता है रोना मेरा असली राम के रोने से ज्यादा कुशल हो। होगा ही। क्योंकि असली राम को "रिहर्सल' का कोई मौका नहीं है। सीता एक ही बार खोती है। जब खो जाती है तभी पता चलता है। इसकी कोई पूर्व तैयारी भी नहीं होती है। और राम पूरे कर्ता की तरह डूब जाते हैं। चिल्लाते हैं, रोते हैं, दुखी हैं, पीड़ित हैं। इसलिए राम को इस देश ने कभी पूर्ण अवतार नहीं कहा। पूरे अभिनेता वे नहीं हैं। "एक्टिंग' अधूरी है। करते हैं। और चूक-चूक जाते हैं। कर्ता हो जाते हैं। इसलिए राम के व्यक्तित्व को हम "चरित्र' कहते हैं। अभिनेता का कोई चरित्र नहीं होता। अभिनेता की लीला होती है, खेल होता है। इसलिए कृष्ण के चरित्र को हम "लीला' कहते हैं।
कृष्ण की है लीला, वह कृष्ण-लीला है। राम का है चरित्र, वह है चरित्र। चरित्र बड़ी गंभीर चीज है। उसमें होना पड़ता है, चुनाव करना पड़ता है कि यह करना है और यह नहीं करना है, यह शुभ है और यह अशुभ है। अर्जुन चरित्रवान बनना चाहता था और कृष्ण उसको लीलावान बनाने के लिए उत्सुक हैं। अर्जुन कहता था मैं यह न करूं, यह बुरा है, और यह करूं जो अच्छा है। कृष्ण कहते हैं जो आ जाता है, तू अपने को बीच में खड़ा मत कर और जो आ जाता है उसे होने दे। यह पूर्ण स्वीकृति है। इस पूरी स्वीकृति में कुछ भी छोड़ना नहीं है। बड़ी कठिन है बात। क्योंकि पूर्ण स्वीकृति का मतलब है, न अब कुछ अशुभ है, न कुछ शुभ है। न अच्छा है, न बुरा है; न सुख है, न दुख है। पूर्ण स्वीकृति का मतलब है कि हमारी जो द्वंद्वात्मक सोचने की व्यवस्था है, वह जो हम दो में तोड़कर ही सोचते हैं, न कोई मरेगा। इसलिए तू बेफिक्री से खेल। कृष्ण यह कह रहे हैं कि वह जो तेरे द्वंद्व में सोचने की आदत है कि यह ठीक है, यह मैं करूं और यह ठीक नहीं है, यह मैं न करूं, यह तू छोड़; इस पृथ्वी पर जो भी है वह परमात्मा है, इसलिए ठीक और गैर-ठीक का फासला नहीं किया जा सकता।
बड़ी कठिन है यह बात।
नैतिक मन को बड़ी कठिन पड़ेगी। इसलिए कृष्ण नैतिक मन को जितने कठिन पड़े हैं, उतना अनैतिक आदमी कठिन नहीं पड़ता। अनैतिक आदमी को नैतिक आदमी निपट जाता है कहकर कि बुरा है। कृष्ण को क्या कहे? बुरा कहते भी नहीं बनता, क्योंकि आदमी बुरा दिखाई पड़ता नहीं। अच्छे कहने की हिम्मत जुटाने वाले बहुत कम लोग हैं, क्योंकि अच्छा कहो तो यह आदमी ऐसी बातों में अर्जुन को डाल रहा है कि जो बुरी हैं।
इसलिए गांधी जी ने जब कृष्ण पर बात शुरू की तो उनको बड़ी कठिनाई हो गई। क्योंकि सच तो यह था कि गांधी जी से मेल-जोल था अर्जुन का, कृष्ण का कोई भी मेल-जोल नहीं हो सकता। कृष्ण युद्ध में कुदा रहे हैं, गांधी क्या करें! कृष्ण इतने बुरे हों कि साफ-साफ तय हो जाए कि बुरे हैं, तो गांधी छुटकारा पा सकते हैं। लेकिन वह साफ-साफ तय हो नहीं सकता, क्योंकि कृष्ण को बुरा और भला दोनों स्वीकार हैं। वह भले भी हैं--चरम कोटि के भले हैं और चरम कोटि के बुरे हैं एक साथ। तो उनका भोलापन तो साफ है। उनका बुरापन भी है। उस बुरेपन को गांधी क्या करें। तो गांधी को सिवाय इसके कोई उपाय नहीं रह जाता कि वह कहें यह सारा युद्ध "पैरेबल' है, कहानी है; "मिथ' है, पुराण-कथा है, युद्ध कभी हुआ नहीं। क्योंकि कृष्ण असली युद्ध में कैसे अर्जुन को उतार सकते हैं, अगर युद्ध असली में हुआ हो तो फिर युद्ध हिंसा हो जाएगी। तो गांधी को एक ही उपाय है कि वह कहें कि यह सारी कथा है। और यह जो युद्ध हो रहा है, यह असली युद्ध नहीं है। और गांधी पुराने द्वंद्व पर वापस लौट जाते हैं जिसके खिलाफ कृष्ण हैं, वह कहते हैं, यह अच्छाई और बुराई का युद्ध है। ये पांडव अच्छे हैं, और ये कौरव बुरे हैं, और वह पुराना अच्छे और बुरे का द्वंद्व वापस खड़ा कर लेते हैं कि अच्छाई और बुराई का युद्ध हो रहा है, और कृष्ण कह रहे हैं कि अच्छे की तरफ से लड़। यह रास्ता उन्हें खोज लेना पड़ा। पूरी कथा को झूठ कहना पड़ा। पूरी कथा को काव्य कहना पड़ा। लेकिन गांधी को...बहुत वक्त हुआ, कृष्ण और गांधी के बीच पांच हजार साल का फासला पड़ता है, इसलिए किसी पांच हजार साल पुरानी कहानी को "मिथ' कहना, कल्पना कहना कठिन नहीं है।
जैनों को इतना फासला नहीं था। इसलिए जैन कृष्ण की कथा को कहानी नहीं कह सके, वह घटना घटी है। जैन-चिंतन उतना ही पुराना है जितना वेद पुराने हैं। जैनों के पहले तीर्थंकर का नाम वेद में उपलब्ध है। हिंदू और जैनों की प्राचीनता बिलकुल बराबर है। जैन इनकार नहीं कर सकते थे कि युद्ध नहीं हुआ, और कृष्ण ने युद्ध नहीं करवाया। लेकिन जैन क्या करें, अगर उनको भी सुविधा होती तो जो गांधी ने किया, जो कि बहुत गहरे मन से जैन थे--शरीर से हिंदू थे, मन से जैन थे--गांधी तो पुराण कहकर टाल सके पर जैन नहीं टाल सकते थे, वह समसामयिक थे। उनको कृष्ण को नर्क में डालना पड़ा। उन्हें अपने शास्त्रों में लिखना पड़ा कि कृष्ण नर्क गए। इतनी बड़ी हिंसा करवा के आदमी नर्क न जाए, तो फिर चींटी न मारने वाले का क्या होगा? और इतनी बड़ी हिंसा करके भी कोई नर्क न जाए, तो मुंह पर पट्टी बांधने वाले को स्वर्ग कैसे मिलेगा? बहुत मुश्किल हो जाएगा। कृष्ण को नर्क में डालना ही पड़ेगा।
लेकिन यह समसामयिक लोगों का वक्तव्य है। अगर वक्त ज्यादा गुजर जाता तो कृष्ण की अच्छाई इतनी थी कि नर्क में डालना मुश्किल हो जाता। मुश्किल उनको भी पड़ा। इसलिए उनको दूसरी कहानी भी गढ़नी पड़ी। आदमी तो अदभुत था यह। युद्ध तो करवाया था, वह सच है। नाचा था स्त्रियों के साथ, वह सच है। स्त्रियों के कपड़े उघाड़कर झाड़ पर बैठ गया था, वह भी सच है। आदमी अच्छा था, काम बुरे किए थे, वह भी सच है। तो नर्क में डालकर भी तो चैन नहीं पड़ सकता न, इतने अच्छे को नर्क में डाल दें तो फिर अच्छे आदमी भी तो संदिग्ध हो जाएंगे कि इतना अच्छा आदमी नर्क में डाल दिया! अच्छे आदमियों को फिर पक्का नहीं हो सकता स्वर्ग जाने का। इसलिए जैनों को दूसरी बात भी तय करनी पड़ी कि कृष्ण आनेवाले कल्प में पहले जैनत्तीर्थंकर होंगे। नर्क में डालना पड़ा, आनेवाले कल्प में पहले तीर्थंकर की जगह भी देनी पड़ी। यह "बैलेंस', संतुलन खोजना पड़ा, क्योंकि इस आदमी को नर्क में भेजने जैसा आदमी तो नहीं है। लेकिन भेजना ही पड़ेगा, क्योंकि वह नैतिकता कहती है कि यह आदमी ठीक तो नहीं है। और इस आदमी का व्यक्तित्व कहता है कि यह आदमी तो तीर्थंकर होने योग्य है। तो यही रास्ता बन सकता था कि इसे अभी फिलहाल नर्क में डालो, भविष्य में पहला तीर्थंकर बनाओ। आनेवाले--जब सारी सृष्टि नष्ट हो जाएगी और पहली फिर से सृष्टि शुरू होगी तो पहला तीर्थंकर। यह "कांपनसेशन' है, यह सांत्वना है अपने मन को, कृष्ण को इससे कुछ लेना-देना नहीं है! अपने मन को कि इस आदमी को नर्क में डालते हैं, इसके लिए "कांपनसेशन' भी करना पड़ेगा। गांधी के लिए सुविधा है कि वह एक साथ निपटा दें दोनों बात। न नर्क में डालें, न पहला तीर्थंकर बनाएं, पूरी कहानी को कह दें कहानी है। युद्ध कभी हुआ नहीं सिर्फ एक प्रबोधकथा है। अच्छाई और बुराई के बीच युद्ध हो रहा है। गांधी की भी तकलीफ वही है जो जैनों की है, वह अहिंसा की तकलीफ है। अहिंसा नहीं मान सकती कि हिंसा की कोई भी जगह हो सकती है। वह वही तकलीफ है जो शुभ की तकलीफ है। शुभ कैसे माने कि अशुभ की भी कोई सुविधा हो सकती है।
लेकिन कृष्ण कहते हैं, जगत द्वंद्व का मेल है; वहां दोनों एक-साथ हैं। न ऐसा कभी हुआ कि हिंसा न हो, न ऐसा कभी हुआ कि अहिंसा न हो। इसलिए जो भी एक को चुनते हैं वह अधूरे को चुनते हैं और कभी भी तृप्त नहीं हो सकते। ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि अंधेरा न हो, ऐसा कभी नहीं हुआ कि प्रकाश न हो। इसलिए जो एक को चुनते हैं वे अधूरे को चुनते हैं। और अधूरे को चुनने वाला तनाव में पड़ा ही रहेगा, क्योंकि वह आधा मिट सकता नहीं, वह सदा मौजूद है।
और मजा तो यह है कि जिस आधे को हम चुनते हैं वह उस बाकी आधे पर ही ठहरा होता है जिसको हम चुनते नहीं, यद्यपि इनकार करते हैं।
सारी अहिंसा हिंसा पर ही खड़ी होती है। और सारा प्रकाश अंधेरे के ही कारण होता है। सारी भलाई अशुभ की ही पृष्ठभूमि में जन्मती और जीती है। सब संत दूसरे छोर पर वे जो बुरे आदमी खड़े हैं, उनसे ही बंधे होते हैं। "पोलेरिटीज' जो हैं वे सभी एक-दूसरे से बंधी होती हैं, ऊपर नीचे से बंधा है, बुरा भले से बंधा है, नर्क स्वर्ग से बंधा है। ये ध्रुव हैं एक ही सत्य के और कृष्ण कहते हैं, दोनों को स्वीकार करो, क्योंकि दोनों हैं। दोनों से राजी हो जाओ, क्योंकि दोनों हैं। चुनाव ही मत करो। अगर कहें तो कृष्ण पहले आदमी हैं, जो "च्वॉइसलेसनेस', चुनावरहितता की बात करते हैं। वह कहते हैं, चुनो ही मत। चुना कि भूल में पड़े, चुना कि भटके, चुना कि आधे का क्या होगा? वह आधा अभी है। और हमारे हाथ में नहीं है कि वह नहीं हो जाए। हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है, वह है। हम नहीं थे तब भी था, हम नहीं होंगे तब भी होगा।
लेकिन नैतिक मन या जो अब तक धार्मिक समझा जाता रहा है, उसकी बड़ी कठिनाई है। वह द्वंद्व में जीता है, वह शुभ और अशुभ को बांटकर जीता है। उसका सारा मजा अशुभ की निंदा में है, तभी वह शुभ में मजा ले पाता है। संत का सारा मजा असंत के विरोध में है, अन्यथा वह मजा नहीं ले पाता। स्वर्ग जाने का सारा सुख नर्क में गए लोगों के दुख पर खड़ा है। अगर स्वर्ग में जो लोग हैं उनको एकदम पता चल जाए कि नर्क है ही नहीं तो स्वर्ग के लोग एकदम दुखी हो जाएंगे। अगर नर्क है ही नहीं तो बेकार सब मेहनत गई। और वे चोर और वे बदमाश, जिन्हें नर्क भेजना चाहा था वे सब स्वर्ग में ही आ गए हैं। क्योंकि वे जाएंगे कहां। स्वर्ग में जो रस है वह नर्क में दुख भोगने वाले लोगों पर खड़ा है; अमीर का जो सुख है वह गरीब की गरीबी में है, अमीर की अमीरी में नहीं है। अच्छे आदमी का जो सुख है वह बुरे आदमी के बुरे होने में है, अच्छे आदमी के अच्छे होने में नहीं। इसलिए जिस दिन सारे लोग अच्छे हो जाएंगे उस दिन साधु का मजा चला जाएगा। साधु बिलकुल अर्थहीन मालूम पड़ेगा। हो सकता है साधु कुछ लोगों को तैयार करे कि तुम असाधु हो जाओ क्योंकि मेरा क्या होगा। उसका कोई अर्थ नहीं है। इस जगत की सारी अर्थवत्ता विरोध में है, और इस जगत को जो पूरा देखेगा वह पाएगा कि जिसे हम बुरा कहते हैं वह अच्छे का ही छोर है। जिसे हम अच्छा कहते हैं, वह बुरे का छोर है।
कृष्ण चुनावरहित हैं, कृष्ण समग्र हैं, "इंटीग्रेटेड' हैं और इसलिए पूर्ण हैं। इसलिए हमने किसी दूसरे व्यक्ति को पूर्ण होने की बात नहीं कही। क्योंकि वह अधूरा होगा ही। राम कैसे पूर्ण हो सकते हैं, वह अधूरे होंगे ही। आधे का उनका चुनाव है। जो नहीं चुनता वही पूरा हो सकता है। लेकिन जो नहीं चुनता उसे कठिनाइयों में पड़ना पड़ेगा, क्योंकि उसकी जिंदगी में वह भी कभी-कभी दिखाई पड़ेगा जो अंधेरा है और वह भी कभी-कभी दिखाई पड़ेगा जो उजेला है। उसकी जिंदगी धूप-छांवों का ताल-मेल होगी। उसकी जिंदगी सीधी और एकरस नहीं हो सकती। एकरस जिंदगी उनकी ही हो सकती है जिनका चुनाव है। एक जिंदगी के कोने को वे साफ-सुथरा कर सकते हैं, लेकिन जिस कचरे को उन्होंने हटाया है वह जिंदगी के किसी दूसरे कोने में इकट्ठा होता रहेगा। लेकिन जिसने पूरे ही मकान को स्वीकार कर लिया है और कचरे को भी स्वीकार कर लिया है और धूप को भी, और अंधेरे को भी, और...अब उसका क्या होगा। उस आदमी के बाबत हम अपनी दृष्टि से नजर बना सकते हैं। हमारा चुनाव ही हमारी नजर होगी। हम कह सकते हैं कि यह आदमी बुरा है, क्योंकि हम बुरा अगर देखना चाहें तो उसमें दिखाई पड़ जाएगा। हम कह सकते हैं यह आदमी भला है, क्योंकि हम भला देखना चाहें तो उसमें दिखाई पड़ जाएगा। और उसमें दोनों हैं। दोनों भी हमारी भाषा की वजह से कहना पड़ते हैं, उसमें तो एक ही है। लेकिन उस एक के ही दोनों पहलू हैं।
इसलिए, बुद्ध और महावीर को मैं मानता हूं कि उनका चुनाव है। वे शुभ हैं, पूर्ण शुभ हैं और इसलिए पूर्ण नहीं हो सकते। क्योंकि पूर्ण में वह अशुभ का क्या होगा? बुद्ध और महावीर और कृष्ण को एक साथ खड़ा करें तो हमें बुद्ध और महावीर ज्यादा जंचेंगे। ज्यादा आकर्षक मालूम होंगे, ज्यादा साफ-सुथरे और निखरे दिखाई पड़ेंगे। वहां धब्बा ही नहीं है उनकी चादर पर। चादर बिलकुल साथ-सुथरी है। एकदम शुभ्र है। उसमें काले की कोई गोट भी नहीं है। महावीर और कृष्ण अगर साथ-साथ खड़े हों तो हमें भी महावीर ही जंचेंगे। कृष्ण थोड़े-थोड़े संदेह में छोड़ जाएंगे। कृष्ण सदा ही संदेह में छोड़ गए हैं। इस आदमी में दोनों बातें एक साथ हैं। यह महावीर जैसा शुभ्र भी है, और अशुभ में किस को रखें महावीर के मुकाबले? यह चंगेज या हिटलर जैसा अशुभ भी होने की हिम्मत रखता है। अगर हम महावीर को युद्ध में तलवार लेकर खड़ा कर सकें--जो हम कर न सकेंगे--तो वैसा है यह आदमी। या अगर हम चंगेज को राजी कर लें कि वह महावीर जैसा हो जाए, सब छोड़कर नग्न खड़ा हो जाए, शांत और निर्मल हो जाए--जो हम न कर सकेंगे--तो वैसा है यह आदमी। लेकिन इस आदमी के साथ क्या करें, निर्णय क्या करें? कृष्ण के साथ सब निर्णय टूट जाते हैं जो निर्णय लेते ही नहीं। कृष्ण के साथ निर्णय लेने वाला चित्त बहुत जल्दी भाग जाएगा। क्योंकि जब उसे शुभ्र दिखाई पड़ेगा तब पैर पकड़ लेगा और जब अशुभ दिखाई पड़ेगा तब क्या करेगा?
इसलिए कृष्ण के भक्तों ने भी चुनाव किया है । अगर सूर कृष्ण की बहुत चर्चा करते हैं तो बालपन की बहुत चर्चा करते हैं। बाद का हिस्सा छोड़ देते हैं। सूर की हिम्मत के बाहर है। सूर तो बहुत कमजोर हिम्मत के आदमी हैं। आंखें फोड़ ली हैं एक स्त्री को देखने के डर से। अब जरा सोचने जैसा है कि सूरदास ने, कहीं ये आंखें किसी स्त्री के प्रेम में न डाल दें और कहीं ये आंखें किसी वासना में न ले जाएं, आंखें फोड़ ली हैं; यह आदमी, यह आदमी कृष्ण को पूरा स्वीकार कर सकेगा? बड़ा प्रेम है सूर का कृष्ण से, शायद कम ही लोगों का ऐसा प्रेम रहा है, तो फिर क्या करे यह? कृष्ण को इसे दो हिस्सों में बांटना पड़ेगा। बालपन के कृष्ण को यह पकड़ लेगा, युवा कृष्ण को यह छोड़ देगा। क्योंकि युवा कृष्ण समझ के बाहर है। क्योंकि युवा कृष्ण समझ में आ सकता था अगर आंखें फोड़ लेता। सूरदास से संगत बैठ जाती। लेकिन युवा कृष्ण की आंखें--ऐसी आंखें ही कम लोगों के पास रही होंगी। इतनी स्त्रियां आकर्षित हो जाएं ऐसी आंखें पाना बहुत मुश्किल है। बड़ा मुश्किल है। बड़ा सवाल यह नहीं है कि इतनी स्त्रियां आकर्षित हुईं, बड़ा सवाल यह है कि एक ही आदमी की आंखों पर। यह आकर्षण असाधारण रहा होगा। ये आंखें "मेग्नेटिक' रही होंगी, ये आंखें बड़ा चुंबक रही होंगी। सूरदास के पास इतनी कीमती आंखें नहीं थीं। क्योंकि सूरदास ही उत्सुक थे, कोई स्त्री उत्सुक थी इसका मुझे पता नहीं है।
सूरदास कैसे चुनाव करेंगे, क्या करेंगे? तो बच्चे को पकड़ लेंगे, स्वीकार कर लेंगे कि बाल-कृष्ण। इसलिए कृष्णों पर रचे गए शास्त्र भी चुनाव के शास्त्र हैं। सूरदास किसी और कृष्ण को पकड़ते हैं, केशवदास किसी और कृष्ण को पकड़ते हैं। केशव बाल-कृष्ण में बिलकुल उत्सुक नहीं हैं। केशव का मन राग और रंग का मन है। केशव का मन युवा का मन है। वह आंख फोड़ने वाला मन नहीं है। रात भी आंख बंद करनी न पड़े ऐसा मन है। तो केशव क्या करेंगे? केशव बाल-कृष्ण की बात ही भूल जाएंगे, उससे कुछ लेना-देना नहीं है। वह उस कृष्ण को चुन लेंगे जो नाच रहा है। इसलिए नहीं कि कृष्ण के नाच को समझ रहे हैं वह, बल्कि इसलिए कि नाचनेवाला उनका मन है। इसलिए कृष्ण पर नाचना थोप देंगे। उस कृष्ण को पकड़ लेंगे जो स्त्रियों के वस्त्र लेकर वृक्ष पर चढ़ गया है नग्न छोड़कर। इसलिए नहीं कि कृष्ण जिस तरह उन स्त्रियों को नग्न छोड़ गया था, उसे केशव समझ सकते हैं, बल्कि इसलिए कि स्त्रियों को नग्न करना चाहते हैं। तो केशव का अपना चुनाव है, सूर का अपना चुनाव है। भागवत अलग कृष्ण की बात करती है, गीता अलग कृष्ण की बात करती है। ये सब चुनाव बंट गए हैं। क्योंकि यह आदमी पूरा है और इसे पूरा पचा लेने का साहस पूरे आदमी में ही हो सकता है। अधूरा आदमी इसमें से बांट लेगा, छांट लेगा, कहेगा इतने तक ठीक, इसके आगे आंख बंद कर लेते हैं, इसके आगे तुम नहीं हो। या इसके आगे होओगे भी तो वह कहानी है। या इसके आगे होओगे भी तो नर्क में फल पाओगे। और इसके आगे भी तुम थे तो हमारे काम के नहीं हो। हमारे काम के यहां तक। इसलिए कृष्ण के व्यक्तित्व पर मील के पत्थर लगा दिए गए हैं। सबने अपना-अपना हिस्सा बांट लिया है। जिसको जो प्रीतिकर लगता है वह चुन लेता है। लेकिन कृष्ण एक सागर की तरह हैं, जिसमें हम अपने घाट भला बना लें, वह घाट पूरे सागर पर नहीं बनता, वह हमारे घाट की ही जमीन पर बनता है, हम पर ही बनता है। वह सागर का बंधन नहीं है। वह हमारी समझ की सूचना है।
इसलिए मैं तो पूरे कृष्ण की बात करूंगा। इसलिए बात बहुत जगह अबूझ हो जाएगी। और बात बहुत मुश्किल में डाल देगी। और बात बहुत जगह आपकी समझ के बाहर जाने लगेगी। वहां आप समझ के बाहर चलने की भी हिम्मत करना। नहीं तो आप अपनी समझ की जगह रह जाएंगे और मील का पत्थर आ जाएगा और उसके आगे का कृष्ण आपके काम का न रह गया। और कृष्ण अगर हैं काम के तो पूरे-के-पूरे हैं। कोई भी व्यक्ति पूरा ही काम का होता है। काट-काटकर मुर्दा अंग हाथ में आते हैं, जिंदा आदमी समाप्त हो जाता है। इसलिए जिन्होंने भी कृष्ण को काटा है, किसी के हाथ में हाथ कृष्ण का, किसी का पैर है, किसी की आंख है, किसी का गला है। लेकिन पूरे कृष्ण हाथ में नहीं हो सकते। पूरे कृष्ण को हाथ में होने की तो एक ही संभावना है कि आप पूरे को बिना चुने समझने को राजी हो जाएं, और यह समझना बड़े आनंद की यात्रा होगी, क्योंकि इस समझने में आप भी पूरे हो सकते हैं। इस समझने में आप का भी पूरा होना यह शुरू हो जाएगा। अगर इस समझने के लिए आप राजी हुए और चुनाव न किया, तो आप अचानक भीतर पाएंगे कि आप के भी विरोधी छोर घुलने-मिलने लगे, आप में भी धूप-छांव एक होने लगी। आपके भीतर भी वह जो कटा-कटा व्यक्तित्व है, वह अखंड होने लगा। आप भी योग को उपलब्ध होने लगे। कृष्ण के योग का एक ही अर्थ है, अखंड, एक हो जाना।
योग की दृष्टि अखंड ही हो सकती है। योग का मतलब है, "दि टोटल', जोड़। इसलिए कृष्ण को महायोगी कहा जा सकता। योगी तो बहुत हैं, लेकिन वे भी योगी नहीं हैं, क्योंकि जोड़ वहां नहीं है, सब चुनाव है। "च्वाइसलेसनेस' वहां नहीं है।
इस अखंड कृष्ण की चर्चा कठिन तो पड़ेगी, बहुत कठिन पड़ेगी, क्योंकि बुद्धि की जो "कटेग्रीज़' हैं, बुद्धि के सोचने के जो मापदंड हैं, वे बंटे हुए हैं। बटखरे हैं बुद्धि के, बांट हैं। इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता है कि किसी के पास पुराने बांट हैं और किसी के पास नए बांट हैं। इससे फर्क नहीं पड़ता कि मीट्रिक प्रणाली के बांट हैं कि पुराना सेर और पुराना पाव और छटांक है, इससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता। बुद्धि चाहे पुरानी हो, चाहे नई; बुद्धि चाहे अतीत की हो, चाहे आज की; चाहे "अल्ट्रा माडर्न' हो, चाहे "अल्ट्रा एनशिएंट' हो; चाहे कितनी ही प्राचीन बुद्धि हो--शास्त्रों की हो--और चाहे कितनी ही नई हो--विज्ञान की हो--इससे फर्क नहीं पड़ता। बुद्धि का एक धर्म है। वह बांटकर चलती है, तोड़कर चलती है। निर्णय करती है, यह ठीक और यह गलत।
अगर आपको कृष्ण को समझना हो, तो इन दस दिनों में निर्णय ही मत करना। इन दस दिनों में सुनना, समझना, निर्णय मत करना। और जहां-जहां नासमझी की जगह आ जाए कि अब समझ में नहीं आता, वहां-वहां फिकिर मत करना और नासमझी में भी जाने की हिम्मत करना। "इर्रेशनल' बहुत जगह आ जाएगा, क्योंकि कृष्ण को "रेशनल' नहीं बनाया जा सकता। कृष्ण को बुद्धिगत नहीं बनाया जा सकता। और वह जो अबुद्धि है, या बुद्धि-अतीत जो है, वह भी वहां है। वह जो बुद्धि-अतीत है, वह जो "ट्रांसेंड' करता है, बुद्धि के पार चला जाता है, वह भी वहां है।
इसलिए कृष्ण को तर्कयुक्त ढांचों में बिठाना असंभव है। वह तर्क मानते नहीं, वह खंड मानते नहीं। वह सब खंडों में बहते चले जाते हैं। वह हमारे घाट मानते नहीं, सब घाटों को छूते हैं। इसलिए कठिनाई तो पड़ेगी। बड़ी कठिनाई यही पड़ेगी कि आपका घाट चुकने लगेगा और कृष्ण न चुकेंगे। वह कहेंगे, मैं आगे भी हूं। तुम्हारा घाट भी मैं छूता हूं, लेकिन और घाट भी मैं छूता हूं। मैं बुरे के घाट पर भी लहरें पहुंचाता हूं, भले के घाट पर भी लहरें पहुंचाता हूं। शांति का मेरा छोर नहीं, और युद्ध में मैं चक्र लेकर भी खड़ा हो जाता हूं। प्रेम का मेरा अंत नहीं, लेकिन तलवार से गर्दन भी काट सकता हूं। संन्यासी मैं पूरा हूं, लेकिन गृहस्थी होने में मुझे कोई पीड़ा नहीं है। परमात्मा से मेरा बड़ा लगाव है, लेकिन संसार से रत्ती भर कम नहीं है, संसार से भी उतना ही है। न मैं संसार के लिए परमात्मा को छोड़ सकता, न मैं परमात्मा के लिए संसार को छोड़ सकता हूं। मैंने तो पूरे के लिए राजी होने की कसम ले ली है। मैं हर रंग में रहूंगा।
इसलिए कृष्ण को अभी तक पूरा भक्त नहीं मिला। अर्जुन भी नहीं था। नहीं तो इतनी मेहनत न करनी पड़ती। युद्ध के मैदान पर गीता जैसा लंबा वक्तव्य देना पड़ा हो, तो हम सोच सकते हैं अर्जुन कैसा शंकाशील, कैसा संदेही, कैसा तर्क उठाने वाला--सब तरह की कोशिश की होगी; युद्ध के क्षण में, रणभेरी बज चुकी हो, सेनाएं आमने-सामने खड़ी हो गई हों, युद्ध का घंटानाद शुरू हो गया हो और वहां इतनी लंबी गीता समझानी पड़े। तो अर्जुन राजी नहीं हो गया होगा। उसकी बुद्धि बार-बार जोर मारती रही है कि आप ऐसा भी कहते हो और आप ऐसा भी कहते हो। वह बार-बार सवाल जो उठाता है, वह "कंट्राडिक्शन' के हैं। वह कृष्ण से कहता है कि आपमें विरोधाभास है। आप एक तरफ ऐसा भी कहते हो और दूसरी तरफ ऐसा भी कहते हो! यह आप दोनों बातें कहते हो! उसके सारे सवाल गीता में बड़े तर्कसंगत हैं। वह यही कह रहा है कि तुम यह भी कहते हो और यह भी कहते हो? दोनों बातें एक साथ! तो फिर मेरी समझ में नहीं आता। अब तुम मुझे फिर से समझाओ। समझा नहीं पाते। समझा नहीं पाएंगे--कृष्ण जैसा पूरा व्यक्ति भी समझा नहीं पाता। समझाने से थक जाते हैं तो फिर दूसरा उपाय करना पड़ता है। अपने को पूरा दिखा देते हैं। यह समझाने का कोई उपाय नहीं। यह आदमी मानता ही नहीं, और यह तर्क जो उठाता है ठीक ही उठाता है। कृष्ण भी समझते हैं कि यह तर्क ठीक ही है, क्योंकि एक बात इससे उलटी पड़ती है, एक बात इससे उलटी पड़ती है--दोनों "इनकंसिस्टेंट' हैं। तो इसको समझाओ कैसे! अर्जुन यही कहता है कि "कंसिस्टेंसी' चाहता हूं, संगति चाहता हूं; हे कृष्ण! संगति बताओ! तुम जो कहते हो उससे मुझे भ्रमजाल में मत डालो, उससे तुम मुझे "कन्फ्यूज्ड' मत करो। लेकिन कृष्ण उसका "कन्फ्यूज' किए चले जाते हैं। वह दोनों बातें, एक वक्तव्य देते नहीं कि तत्काल दूसरा देते हैं जो इसका खंडन कर जाता है। करुणा, ममता भी समझाए चले जाते हैं, हिंसा भी करवाने की बात कहे चले जाते हैं।
ऐसा जो आदमी है, उसके पास फिर एक उपाय ही रह गया। थक गया सब। थक गए बुरी तरह। वह अर्जुन मानता नहीं, और युद्ध की घड़ी बढ़ी जाती है, और युद्ध पर सब सारथी और सब योद्धा, सब तैयार हैं, लगामें खिंच गई हैं और यह आदमी मानता नहीं। और इसी आदमी पर सब निर्भर है। यह भाग जाए तो सब गड़बड़ हो जाए। यह सारा खेल, यह सारा नाटक, यह बड़ा इतना इंतजाम, यह सब व्यर्थ हो जाए। वह उसको समझाए जाते हैं, आखिर थक जाते हैं, फिर वह उसको अपना पूरा रूप ही दिखा देते हैं। पूरे रूप को देखकर वह घबड़ा जाता है। कोई भी घबड़ा जाएगा। पूरे रूप का मतलब ही यह है, पूरे रूप का मतलब ही यह है कि वह सारे विरोधाभासों के साथ इकट्ठे मौजूद हो जाते हैं। उनके भीतर सब दिखाई देने लगता है--जन्म भी और मरण भी, एक साथ। हमें सुविधा पड़ती है, सत्तर साल पहले जन्म होता है, सत्तर साल बाद मरना होता है। दोनों में इतना फासला होता है, कि हम व्यवस्था बिठा लेते हैं कि जन्म अलग चीज, मृत्यु अलग चीज। एक साथ जन्म और मृत्यु दिखने लगते हैं उनके भीतर। एक साथ जगत बनता है और विसर्जित होता दिखाई पड़ने लगता है। एक साथ बीज और वृक्ष दिखाई पड़ने लगते हैं। एक साथ प्रलय आती है और सृजन होने लगता है। तो वह घबड़ा जाता है। वह कहता है कि अब बंद करो अपना यह रूप। मैं मर जाऊंगा! मैं इसे और नहीं देख सकता, इसे बंद करो! लेकिन इसके बाद वह सवाल नहीं उठाता। इसके बाद एक बार उसे दिखाई पड़ जाता है कि जिन्हें हम असंगतियां कहते हैं, विरोध कहते हैं, वे एक ही सत्य के हिस्से हैं, तो अब वह सवाल नहीं उठाता है, वह युद्ध में चला जाता है। इसका यह मतलब मत समझ लेना कि वह राजी होकर गया है। राजी होकर नहीं जा पाता है। दिखाई पड़ गया उसे, लेकिन उसकी बुद्धि सवाल उठाती है। बुद्धि का काम ही सवाल उठाना है।
तो जितने सवाल आपको मुझसे उठाने हों, उठाना, लेकिन कृष्ण को समझने में सवाल मत उठाना। सवाल आप उठाना, आपकी सारी बुद्धि मुझ पर लगाना, लेकिन कृष्ण बहुत जगह बुद्धि को छोड़कर निर्बुद्धि में प्रवेश करने लगेंगे, वहां बहुत धैर्य की, बहुत साहस की--उससे बड़ा कोई साहस नहीं--वहां जरूरत पड़ेगी, वहां चलने को राजी होना। आपका प्रकाशित क्षेत्र खो जाएगा। अंधेरा शुरू होगा। आपके द्वार-दरवाजे वहां दिखाई नहीं पड़ेंगे, वहां साफ-सुथरे रास्ते नहीं होंगे, वहां सब "मिस्टीरियस' और रहस्यपूर्ण हो जाएगा। वहां चीजें पुरानी शक्ल और पुरानी रूपरेखा और पुराने आकार में नहीं होंगी। वहां सब आकार डांवाडोल हो जाएंगे। वहां सब संगतियां गिर जाएंगी, सब विरोध गिर जाएंगे और तभी आपको उस विराट के निकट पहुंचने का मौका मिल सकेगा। और अगर आप राजी हुए तो कुछ ऐसा नहीं है कि अर्जुन की कोई विशेष योग्यता थी कि उसको विराट दिखाई पड़े। ऐसी कोई विशेष योग्यता का पात्र न था, सभी उतनी योग्यता के पात्र हैं, और जो सवाल अर्जुन ने उठाए थे वह कोई भी उठा सकता है। लेकिन अगर आप भी उस रहस्यपूर्ण में, उस "मिस्टीरियस' में, वह जो बुद्धि के पार चला जाता है, चलने को राजी हुए, तो विराट की प्रतीति आपको भी हो सकती है। वह विराट आपके सामने भी आ सकता है। उस विराट को ही लाने की मैं कोशिश करूंगा, उस विराट का व्यक्तिवाची नाम कृष्ण है, कृष्ण से कुछ बहुत लेना-देना नहीं है। वह जो विराट है, समस्त का जोड़ है, उसका ही प्रतीकवाची नाम कृष्ण है।
इसलिए बहुत बार कृष्ण से चर्चा इधर-उधर छूट जाएगी तो उससे घबड़ा मत जाना। मैं तो उस विराट की तरफ ही पूरे समय कोशिश करूंगा। और अगर आप राजी हुए तो वह घटना घट सकती है। और कुरुक्षेत्र में ही घटे, ऐसा कुछ नहीं है, मनाली में भी घट सकती है।
ओशो रजनीश
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