श्री कृष्ण स्मृति भाग 21
"श्रीकृष्ण की लीलाएं अनुकरणीय हैं या चिंतनीय? जो अनुकरण करने जाएगा, वह पतित नहीं होगा?'
डरे हुए आदमियों को कृष्ण से जरा दूर रहना चाहिए!...(सब तरफ हास्य)...ठीक सवाल पूछते हैं।
अनुकरणीय कृष्ण तो क्या, कोई भी नहीं है। और ऐसा नहीं है कि कृष्ण का अनुकरण करने जाएगा, तो पतित होगा। किसी का भी अनुकरण करने जाएगा तो पतित होगा। अनुकरण ही पतन है। कृष्ण के संबंध में लेकिन हम विशेष रूप से पूछते हैं। महावीर के संबंध में नहीं पूछेंगे ऐसा, बुद्ध के संबंध में नहीं पूछेंगे, राम के संबंध में नहीं पूछेंगे ऐसा। कोई नहीं कह सकेगा कि राम का अनुकरण करने जाएंगे तो पतन हो जाएगा। अकेले कृष्ण पर यह सवाल क्यों उठता है? राम का तो हम अपने बच्चों को समझाएंगे कि अनुकरण करो। कृष्ण के मामले में कहेंगे, जरा सावधानी से चलना। इसीलिए तो, हमारा डरा हुआ मन!
लेकिन मैं आपसे कहता हूं, अनुकरण ही पतन है, किसी का भी अनुकरण पतन है। अनुकरण किया कि आप गए, आप खो गए। न तो कृष्ण अनुकरणीय हैं, न कोई और। वे सब चिंतनीय हैं, सब विचार करने योग्य हैं। बुद्ध भी, महावीर भी, क्राइस्ट भी, कृष्ण भी। और मजे की बात यह है कि बुद्ध पर विचार करने में इतनी कठिनाई न होगी। और न क्राइस्ट पर विचार करने में इतनी कठिनाई होगी। असली कठिनाई कृष्ण पर ही विचार करने में पैदा होगी। क्योंकि महावीर, बुद्ध या क्राइस्ट का जीवन विचार की पद्धतियों में समाया जा सकता है। उनके जीवन का ढंग मर्यादा है। उनके जीवन का ढंग सीमा है। कृष्ण का जीवन विचार में पूरा समा नहीं सकता। उनके जीवन का ढंग अमर्याद है, असीम है, उसको कहीं सीमा नहीं है। हमारी तो सीमा आ जाएगी, और वह हमसे कहेंगे, और आगे; वह हमसे कहेंगे, और आगे। हमारी तो जगह आ जाएगी जहां से आगे जाने में खतरा है, वह कहेंगे, और आगे।
लेकिन कृष्ण ही चिंतनीय बन जाते हैं इसलिए और भी ज्यादा। क्योंकि मेरी दृष्टि में वही चिंतनीय है जो अंततः चिंतन के पार ले जाए। चिंतन अंतिम बात नहीं है, चिंतन प्राथमिक चरण है। एक क्षण आना चाहिए जब चिंतन के ऊपर भी उठा जा सके। लेकिन चिंतन के ऊपर वही उठ आएगा जो चिंतन को डगमगा दे। और चिंतन के ऊपर वही उठ आएगा जो चिंतन को घबड़ा दे। और चिंतन के ऊपर वही उठ आएगा जो चिंतन में न समाए और चिंतन के बाहर चला जाए।
सभी चिंतनीय हैं। सभी सोचने योग्य हैं। अनुकरणीय तो सिर्फ आप ही हैं अपने लिए, और कोई नहीं। अपना अनुकरण करें, समझें सबको; अपने पीछे जाएंगे, किसी के पीछे न जाएं। समझें सबको, जाएं पीछे अपने।
लेकिन भय क्या है? कृष्ण के साथ सवाल क्यों उठता है? भय है। और भय यही है कि हमने अपनी जिंदगी को दमन की, "सप्रेशन' की जिंदगी बना रखा है। हमारी जिंदगी जिंदगी कम, दबाव ज्यादा है। हमारी जिंदगी खालीपन नहीं है, "फ्लावरिंग' नहीं है, कुंठा है। इसलिए डर लगता है कि अगर कृष्ण को हमने सोचा भी, तो कहीं ऐसा न हो कि जो हमने अपने में दबाया है, वह कहीं फूटकर बहने लगे। कहीं ऐसा न हो कि जो हमने अपने में रोका है, उसके रोकने के लिए जो हमने तर्क दिए हैं, वे टूट जाएं और गिर जाएं। कहीं ऐसा न हो कि हमने अपने भीतर ही अपनी बहुत-सी वृत्तियों को जो कारागृह में डाला है, वे बाहर निकल आएं, और वे कहें कि हमें बाहर आने दो। डर भीतर है। घबराहट भीतर है। लेकिन इसके लिए कृष्ण जिम्मेदार नहीं हैं। इसके लिए हम जिम्मेदार हैं। हमने अपने साथ यह दुर्व्यवहार किया है। हमने अपने साथ ही यह अनाचार किया है। हमने अपने पूरे व्यक्तित्व को कभी न जाना, न स्वीकार, न जिआ। हमने उसमें बहुत कुछ दबाया है। और थोड़ा-बहुत जीने की कोशिश की है।
हम ऐसे लोग हैं, जैसे कि सभी लोग होते हैं साधारणतः, अगर किसी के घर में जाएं तो वह अपने बैठकखाने को साज-संवारकर, ठीक करके रख देता है। यह ड्राइंग रूम की दुनिया अलग है। लेकिन किसी के ड्राइंग रूम को देखकर यह मत समझ लेना कि यह उसका घर है। यह उसका घर है ही नहीं। न वह वहां खाना खाता, न वह वहां सोता, यहां वह सिर्फ मेहमानों का स्वागत करता है। यह सिर्फ चेहरा है जिसको वह दूसरों को दिखाता है। ड्राइंग रूम घर का हिस्सा नहीं है। ड्राइंग रूम घर से अलग बात है। इसलिए किसी का ड्राइंग रूम देखकर उसके घर का खयाल मत करना। उसका घर तो वहां है, जहां वह सोता है, लड़ता है, झगड़ता है, खाता है, पीता है, वहां उसका घर है। ड्राइंग रूम किसी का भी घर नहीं है। ड्राइंग रूम चेहरा है, "मास्क' है, जो हम दूसरों को दिखाने के लिए बनाए हुए हैं। इसलिए ड्राइंग रूम जिंदगी की बात नहीं है। ऐसे ही हमने जिंदगी के साथ भी किया है। जिंदगी में हमने ड्राइंग रूम बनाए हैं, हमने चेहरे बनाए हैं, जो दूसरों को दिखाने के लिए हैं। वह हमारी असलियतें नहीं हैं, हमारा असली घर भीतर है--अंधेरे में डूबा हुआ, अचेतन में दबा हुआ। उसका हमें कोई पता भी नहीं है। हमने भी उसका पता लेना छोड़ दिया है। हम खुद भी डर गए हैं। यानी हम ऐसे आदमी हैं जो खुद भी अपने घर से डर गया है और वह ड्राइंग रूम में ही रहने लगा है। और खुद भी भीतर जाने में घबराता है। तो जिंदगी उथली हो ही जाएगी।
इससे कृष्ण से डर लगता है, क्योंकि कृष्ण पूरे घर में रहते हैं। और उन्होंने पूरे घर को बैठकखाना बना दिया है, और वह हर कोने से अतिथि का स्वागत करते हैं। जहां से भी आओ, वह कहते हैं, चलो यहीं बैठो। उनके पास बैठकखाना अलग नहीं है। उनकी पूरी जिंदगी खुली हुई है। उसमें जो है, वह है। उसका कोई इनकार नहीं, उसका कोई विरोध नहीं। उसको उन्होंने स्वीकार किया है। हम डरेंगे, हम हैं "सप्रेसिव', हम हैं दमनकारी। हमने अपनी जिंदगी के निन्नयानबे प्रतिशत हिस्से को तो अंधेरे में ढकेल दिया है। और एक प्रतिशत को जी रहे हैं। वह निन्नयानबे प्रतिशत पूरे वक्त धक्के मार रहा है कि मुझे मौका दो जीने का। वह लड़ रहा है, वह संघर्ष कर रहा है, सपनों में टूट रहा है। जागने में भी टूट पड़ता है। रोज-रोज टूटता है, हम फिर उसे धक्का देकर पीछे कर आते हैं। जिंदगी भर इसी संघर्ष में बीत जाती है, उसको धकाते हैं, पीछे करते हैं। अपने से ही लड़ने में आदमी हार जाता है और समाप्त हो जाता है। इससे डर है कि अगर कृष्ण को समझा--यह बिना बैठकखाने का आदमी, यह बिना चेहरे का आदमी, इसकी पूरी जिंदगी एक जैसी है, सब तरफ से द्वार खोल रखे हैं इसने, कहीं से भी आओ स्वागत है, कुछ दबाया नहीं, अंधेरे को भी स्वीकार करता है, उजाले को भी स्वीकार करता है, कहीं इसे देखकर हमारी आत्मा बगावत न कर दे हमारे दमन से। कहीं हम ही अपने खिलाफ बगावत न कर दें। वह जो हमने इंतजाम किया है कहीं टूट न जाए, इसलिए डर है।
लेकिन यह डर भी विचारना।
यह डर कृष्ण के कारण नहीं है, यह हम जिस ढंग से जी रहे हैं उसके कारण है। अगर सीधा-साफ आदमी है और जिंदगी को सरलता से जीआ है, वह कृष्ण से नहीं डरेगा। डरने का कोई कारण नहीं है। जिंदगी में अगर कुछ भी नहीं दबाया है, कृष्ण से नहीं डरेगा। डरने का कोई कारण नहीं है। हमारे डर को भी हमें समझना चाहिए कि हम क्यों डर रहे हैं? और अगर हम डर रहे हैं, तो यह हमारी रुग्ण-अवस्था है, यह हम बीमार हैं। यह हम विक्षिप्त हैं और हमें इस स्थिति को बदलने की कोशिश करनी चाहिए। इसलिए कृष्ण तो बहुत विचारणीय हैं। लेकिन हम कहेंगे कि हम तो अच्छी-अच्छी बातों पर विचार करते हैं। क्योंकि अच्छी-अच्छी बातें हमें अपने को दबाने में सहयोगी बनती हैं। हम तो बुद्ध का वचन पढ़ते हैं जिसमें कहा है कि क्रोध मत करना। हम तो जीसस का वचन पढ़ते हैं जिसमें कहा है, शत्रु को भी प्रेम करना। हम कृष्ण से तो डरते हैं। यह डर! इस डर का तीर किस तरफ है? कृष्ण की तरफ कि अपनी तरफ?
और अगर कृष्ण से डर लगता है तब तो बड़ा अच्छा है। कृष्ण आपके काम पड़ सकते हैं। आपको खोलने में, उघाड़ने में, आपको नग्न करने में, आपको स्पष्ट-सीधा करने में काम पड़ सकते हैं। उनका उपयोग कर लें--उनको आने दें, उनको विचारें, बचें मत, भागें मत। उनके आमने-सामने खड़े हो जाएं। "एनकाउंटर' होने दें। यह मुठभेड़ अच्छी होगी। इसमें अनुकरण नहीं करना है उनका। इसमें समझना ही है उनको। उनको समझने में ही आप अपने को समझने में बड़े सफल हो जाएंगे। उनको समझते-समझते ही आप अपने को भी समझ पाएंगे। उनको समझते-ही-समझते हो सकता है आप खुद अपने को समझने में अदभुत साक्षात्कार को उपलब्ध हो जाएं और जान पाएं कि यह तो मैं भी हूं, यही तो मैं हूं।
एक मित्र मेरे पास आए, और उन्होंने कहा, कृष्ण की सोलह हजार स्त्रियां थीं, क्या आप इसमें भरोसा करते हैं? मैंने कहा कि छोड़ो इसे, मैं तुमसे पूछता हूं कि तुम्हारे मन में सोलह हजार से कम स्त्रियां तृप्ति दे सकती हैं? उन्होंने कहा, क्या कहते हैं आप? मैंने कहा, यह कृष्ण की सोलह हजार स्त्रियां थीं या नहीं, सवाल बड़ा नहीं है, कोई पुरुष सोलह हजार स्त्रियों से कम पर राजी नहीं है। कृष्ण की सोलह हजार स्त्रियां थीं अगर ऐसा पक्का हो जाए तो वह हमारे भीतर का जो पुरुष है वह घोषणा करेगा, तो फिर देर क्यों कर रहे हो? उससे हमें डर है। वह भीतर बैठा हुआ पुरुष हमें डरा रहा है। लेकिन उससे डरकर, भागकर, बचकर कुछ भी हो नहीं सकता है। उसका सामना करना पड़ेगा, समझना पड़ेगा।
ओशो रजनीश
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