श्री कृष्ण स्मृति भाग 23
"भगवान, आपने कहा कि "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज', और कि " मैं युग-युग में जन्म लेता हूं धर्म की संस्थापना के लिए, साधुओं के परित्राण और दुष्टों के विनाश के लिए', कृष्ण ने एक मजाक किया। मुझे ऐसा लगता है कि गीता का कृष्ण तो मजाक नहीं करता था। भागवत का कृष्ण शायद मजाक करता है। और हमने एक अजीब तरह का "अनक्रिटिकल एटीच्यूड' अपनाकर गीता के कृष्ण व भागवत के कृष्ण को मिला लिया और उनको एक ही व्यक्ति मान लिया--कि गीता वाले ने भी मजाक कर दिया। तो सोचना पड़ेगा कि गीता के कृष्ण के संबंध में हम कुछ कहें तो यह व्यक्ति एक है, जो हजार-दो हजार साल पहले एक व्यक्ति की कल्पना का कृष्ण है। भागवत का कृष्ण कोई और है। और उन दोनों को एक करके अगर हम तालमेल बिठाना चाहें तो कहीं-कहीं बात उल्टी पड़ेगी। गीता स्वयं भी इस तरह है कि शंकर उसमें कुछ और देख रहे हैं, लोकमान्य तिलक कुछ और देख रहे हैं, आप कुछ और अर्थ देख रहे हैं। तो सोचना यह होगा कि क्या गीता कृष्ण के जीवनदर्शन का प्रामाणिक संकलन है?'
पहली बात तो यह, कि कल मैंने कहा कि साधुओं के परित्राण के लिए, और दुष्टों के विनाश के लिए, मैं आता रहूंगा, इसमें कृष्ण ने गहरी मजाक की है। इस संबंध में तो जो मैंने कहा था, कल मैंने आपसे कहा। लेकिन मैंने यह नहीं कहा कि "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज', इसमें कृष्ण ने मजाक की है, यह मैंने नहीं कहा। तो थोड़ा-सा इस संबंध में समझ लें, फिर और प्रश्न के आगे बढ़ें।
कृष्ण जब कहते हैं, सब धर्मों को छोड़कर तू मुझ एक की शरण में आ--सब धर्मों को छोड़कर। जगत में धर्म तो एक ही हो सकता है। लेकिन जो धर्मों को बहुत देख रहा है, वह बड़ी भ्रांति में पड़ेगा। सब धर्मों को छोड़कर, इसका अर्थ ही यही है कि विशेषणवाची जो भी धर्म हों उसे छोड़कर। अनेक को छोड़कर, तू मुझ एक की शरण में आ। कृष्ण यह भी कह सकते थे कि तू मेरी शरण में आ। लेकिन जो शब्द है, वह बहुत अदभुत; वह है, "मामेकं शरणं व्रज'। मुझ एक की शरण में! माम् एकम्। यहां कृष्ण व्यक्ति की हैसियत से बोल ही नहीं रहे हैं, यहां तो धर्म की हैसियत से बोल रहे हैं। यहां तो वे धर्म ही हैं। सब धर्मों को छोड़कर धर्म की शरण में आ। अनेक को छोड़कर एक की शरण में आ। एक बात।
दूसरी बात, यहां वह यह बोल रहे हैं, मुझ एक की शरण में आ। अगर इसे बहुत गहरे में हम समझें, तो यह बहुत मजेदार बात है। मैं की शरण में आ, लेकिन जब मैं बोलता हूं मैं, तो मेरा मैं होता है। वह आपके लिए तू हो जाएगा, मैं नहीं रह जाएगा। आपके लिए मैं तो आपका ही मैं होगा, मेरा मैं नहीं हो सकता। अगर कृष्ण का यह अर्थ हो कि तू कृष्ण की शरण में आ, तो यह तो तू की शरण हो जाएगी, यह मैं की शरण न होगी। लेकिन कृष्ण का अगर यही अर्थ हो कि तू मेरी शरण में आ, तो अर्जुन का मैं कृष्ण नहीं है। अर्जुन का मैं, अर्जुन का मैं है। वह उसकी शरण में जाएगा। वह पूरा स्वधर्म की शरण में चला जाएगा।
यह कृष्ण ने मजाक में नहीं कहा है। वह वक्तव्य बहुत अदभुत है और गहरा है। और इसकी गहराइयों का कोई हिसाब नहीं है। मनुष्यों ने जितने भी वक्तव्य दिए हैं इस पृथ्वी पर, शायद ही कोई वक्तव्य इसकी गहराई को छूता हो। अनेक को छोड़कर एक की, तू को छोड़कर मैं की, विशेषणवाची धर्मों को छोड़कर धर्म की शरण में आ।
लेकिन इसमें और गहराइयां हैं।
अगर अर्जुन कहे कि मैं अपने ही मैं की शरण में जाऊंगा तब भी वह कृष्ण को नहीं समझा। क्योंकि शरण में जाने वाले को मैं छोड़ देना पड़ता है। शरण का अर्थ ही है कि मैं छूट जाए, समर्पण का अर्थ ही है कि मैं न बचे। अगर अर्जुन कहे कि मैं अपने ही मैं की शरण में जाता हूं, तो भी नहीं समझ पाया बात को। शरण का अर्थ ही है कि जहां मैं न हो। शरण का अर्थ ही है कि मैं को छोड़कर आ। यह भी बड़ी कठिन बात और जटिल बात हो गई। अपनी ही शरण में आ, अपने को छोड़कर। धर्म की शरण में आ, धर्मों को छोड़कर। एक की शरण में आ, अनेक को छोड़कर। लेकिन जिसके पास एक भी बच रहेगा, उसके पास अनेक भी बच रहेगा। एक की हम कल्पना ही नहीं कर सकते अनेक के बिना। इसलिए जिसे एक की शरण में आना है, उसे एक को भी छोड़ देना पड़ेगा। संख्या ही छोड़ देनी पड़ेगी।
इसलिए बाद में जब यह खयाल में आया है कि एक शब्द भ्रांति पैदा कर सकता है, अनेक के खिलाफ एक शब्द भ्रांति पैदा कर सकता है, जब बाद में यह खयाल में आया, तो "एक-वाद', हमने नहीं बनाया, फिर हम "अद्वैत' की बात करने लगे। हमने कहा, एक की नहीं, दो की शरण में मत आ, दो से बच। फिर एक कहने में भी संकोच हुआ, क्योंकि डर हुआ कि एक पकड़ा जा सकता है। इसलिए एक नया शब्द गढ़ना पड़ा जो "निगेटिव' है, नकारात्मक है--एक नहीं, "अद्वैत'; दो नहीं, इतना ही ध्यान रखना कि दो न हों। और स्मरण रहे, अगर एक भी बचा तो दूसरा रहेगा, क्योंकि एक को जानना दूसरे के परिप्रेक्ष्य में ही, दूसरे के "पर्सपेक्टिव' में ही संभव है। अगर मैं जान रहा हूं कि मैं हूं तो तू के बिना नहीं जान सकता हूं। नहीं तो मैं कहां शुरू होऊंगा और कहां खत्म होऊंगा। तो जो भी जान रहा है मैं हूं, वह तू के विरोध में ही जान सकता है। तू रहेगा ही। तो ही मैं हो सकता हूं। अगर कोई कह रहा है, एक ही है सत्य, तो भी अभी उसका जोड़ बता रहा है कि उसे दूसरा दिखाई पड़ रहा है, जिसको वह इनकार कर रहा है। इसलिए इस वक्तव्य की बड़ी गहराइयां हैं।
पहला तो स्मरण रखें कि यह कृष्ण की शरण के लिए नहीं कहा गया है। यह अर्जुन को आत्मशरण होने के लिए कहा गया है। दूसरी बात खयाल रखें, यह अर्जुन के अहंकार की शरण के लिए नहीं कहा गया है। यह निरहंकार स्वभाव की शरण के लिए कहा गया है। तीसरी बात खयाल रखें कि यह धर्मों के त्याग के लिए कहा गया है और धर्मों के त्याग में कोई विशेष धर्म नहीं बचता है। सभी धर्मों के त्याग के लिए कहा गया है--सर्वधर्मान्। ऐसा नहीं कि हिंदू को बचा लेना, और बाकी को छोड़ देना। सबको छोड़ देना है। क्योंकि जब तक कोई किसी धर्म को पकड़े है, तब तक धर्म को उपलब्ध न हो सकेगा। जब तक कि कोई किसी धर्म को पकड़े हुए है तब तक उस निर्विशेष धर्म को कैसे उपलब्ध होगा जो किसी विशेषण में नहीं बंधता है। धर्म को छोड़ देना, धर्मों को छोड़ देना, विशेषण को छोड़ देना, कृष्ण को छोड़ देना, संख्या को छोड़ देना, मैं को छोड़ देना, अहंकार को छोड़ देना, फिर जो शेष रह जाए, वही धर्म है। यह मजाक में नहीं कहा गया है।
और दूसरी बात जो पूछी कि हम फर्क करें गीता के कृष्ण का और भागवत के कृष्ण का। जिन मित्र ने पूछी है, वे थोड़े बाद में आए; जो मैं पहले कहा हूं, उनके खयाल में नहीं है, थोड़ी-सी बात कहूं।
हमारा मन चाहेगा कि हम भेद करें। क्योंकि भागवत के कृष्ण में और गीता के कृष्ण में तालमेल बिठाना हमारी बुद्धि में नहीं पड़ सकेगा। वे बड़े अलग आदमी मालूम पड़ते हैं, अलग ही नहीं, विरोधी आदमी मालूम पड़ते हैं। गीता के कृष्ण बड़े गंभीर, भागवत के कृष्ण एकदम गैर-गंभीर। उनके बीच हम तालमेल नहीं बिठा सकेंगे। तो हम तो तोड़ना चाहेंगे कि ये दो आदमी हैं। या तो हम चाहेंगे कि ये दो आदमी हैं, या फिर कृष्ण "सिजोफ्रेनिक' हैं--इसमें दो आदमी हैं इस आदमी के भीतर कि कभी यह एक तरह की बात करने लगता है, कभी दूसरी तरह की। तो उनके फिर "पीरियड्स' होते हैं--छः महीने वे शांत होते हैं, छः महीने अशांत होते हैं। कि छः महीने वे आनंदित होते हैं, छः महीने वे बड़े उदास हो जाते हैं। कि सुबह ठीक होते हैं, सांझ और कुछ हो जाते हैं। या तो हम समझें कि कृष्ण "मल्टी-साइकिक' हैं, बहुत चित्त हैं कृष्ण के, बहुचित्तवान हैं, बहुत आदमी हैं कृष्ण के भीतर। एक रास्ता तो यह है समझने का। इसका मतलब हुआ कि कृष्ण जो हैं, वह भीतर खंड-खंड में बंटे हैं--विरोधी खंडों में।
दूसरा रास्ता यह है--यह मनोवैज्ञानिक का रास्ता होगा--अगर कृष्ण को मनोवैज्ञानिक समझने जाए, अगर फ्रायड को हम कहें कि कृष्ण का तुम विश्लेषण करो, तो फ्रायड कहेगा, "सिजोफ्रेनिक'। यह आदमी अनेक चित्तों में बंटा हुआ आदमी है। अगर हम इतिहासज्ञ से कहें, तो वह कहेगा कि यह दो कालों में घटे हुए दो आदमी होने चाहिए, एक आदमी नहीं हो सकता। यह इतिहासज्ञ की व्याख्या होगी, क्योंकि उसकी कल्पना के बाहर है कि एक आदमी और इतने आदमियों जैसा हो सके। तो वह कहेगा, भागवत के कृष्ण कोई और हैं, गीता के कृष्ण कोई और हैं। तो वह कहेगा कि यह कृष्ण, वह कृष्ण; वह दस-पच्चीस कृष्णों को निर्मित करेगा कि ये अलग-अलग हैं। ये एक नहीं हो सकते।
लेकिन, मैं आपसे कहना चाहता हूं कि न मैं फ्रायड की सलाह मानूंगा....मनोवैज्ञानिक की सलाह मैं मानने को राजी नहीं हूं। नहीं हूं इसलिए कि "सिजोफ्रेनिक', खंडित व्यक्तित्व कृष्ण जैसे आनंद को उपलब्ध नहीं होता है। न ही मैं इतिहासज्ञ की बात मानने को तैयार हूं, क्योंकि उसकी तकलीफ भी उसी बात से उठ रही है। उसकी तकलीफ यह है कि हम कैसे मानें कि एक आदमी और यह सब कर सकेगा। यह बहुत आदमी होने चाहिए अलग-अलग काल में, या एक ही काल में, लेकिन होने चाहिए अलग-अलग आदमी। जो मनोवैज्ञानिक एक ही आदमी के भीतर करता है वह इतिहासज्ञ समय के भीतर अलग-अलग व्यक्तियों को बांटकर करेगा।
मेरी तो अपनी दृष्टि यह है कि एक कृष्ण यह हैं और यही कृष्ण की महत्ता है। इसको अगर हम काट देते हैं तो कृष्ण बेमानी हो जाते हैं। उनका मूल्य ही खत्म हो जाता है। कृष्ण का महत्व ही यही है कि वे एकसाथ सब कुछ हैं। उनका महत्व ही यह है कि वे एकसाथ विरोधी हैं और उन विरोधों में एक "हार्मनी' है। उन विरोधों में एक संगीत है। जो कृष्ण बांसुरी बजाकर नाच सकता, वह कृष्ण चक्र लेकर लड़ सकता। इन दो कृष्णों में कोई विरोध नहीं है। जो कृष्ण मटकी फोड़ सकता, वह कृष्ण गीता जैसा गंभीर उद्घोष कर सकता। जो कृष्ण चोर हो सकता, वह गीता का परम योगी हो सकता। ये सब एकसाथ एक व्यक्ति है, यही कृष्ण की महत्ता है। यही कृष्ण के व्यक्तित्व की निजता है। जो क्राइस्ट में उपलब्ध नहीं होगी, बुद्ध में उपलब्ध नहीं होगी, महावीर में उपलब्ध नहीं होगी, राम में उपलब्ध नहीं होगी।
कृष्ण विरोधों के बीच समागम हैं--समस्त विरोधों का समागम। और मैं इसे इसलिए भी कह पाता हूं कि मैं देखता हूं कि इन विरोधों को विरोधी होने की कोई वजह नहीं है। समस्त जीवन का सत्य ही विरोधों का समागम है। सारा जीवन ही विरोधों पर खड़ा है। और उन विरोधों में कोई "डिस्कार्डेन्स' नहीं है। उनमें कोई विसंगितता नहीं है, उसमें संगीत है। जो आदमी बच्चा होता है, वही आदमी बूढ़ा हो जाता है। इसमें कोई विरोध नहीं है। अगर मैं आपसे पूछूं कि किस दिन आप बच्चे थे और किस दिन जवान हुए, तो बताना बहुत मुश्किल हो जाएगा। अगर मैं आपसे पूछूं कि अप जवान थे, अब बूढ़े हो गए, किस दिन आप बूढ़े हुए? तो बहुत मुश्किल हो जाएगी। उनको बांटना मुश्किल होगा। शब्दों में जवानी और बुढ़ापा विरोधी मालूम पड़ते हैं--शब्दों में। जवानी और बुढ़ापा विरोधी मालूम पड़ते हैं, लेकिन किस दिन जवानी समाप्त होती है और बुढ़ापा शुरू होता है? किसी भी दिन ऐसा नहीं होता। जवानी रोज बुढ़ापा बनती चली जाती है। हम जवान को कह सकते हैं कि यह होने वाला बूढ़ा है। हम बूढ़े को कह सकते हैं, यह हो गया जवान है। और कोई फर्क नहीं कर सकते।
हम शांति और अशांति को दो चीजें मानते हैं, लेकिन कभी आपने खयाल किया कि वह कौन-सी जगह है जहां शांति अलग होती और अशांति शुरू होती है। शब्दों में विरोधी हैं, "डिक्शनरी' में खोजने जाएंगे तो शांति और अशांति का विपरीत अर्थ है। शब्दकोश में खोजेंगे तो सुख और दुख विरोधी हैं, लेकिन जिंदगी में देखने जाएंगे तो पाएंगे कि सुख दुख बन जाता है, दुख सुख बन जाते हैं। शांति अशांति हो जाती है, अशांति शांति बन जाती है। जन्म मृत्यु हो जाती है, मृत्यु जन्म हो जाती है। सुबह सांझ हो जाती है, दिन अंधेरा हो जाता है। प्रकाश अंधकार बन जाता है, अंधकार प्रकाश बन जाता है। जीवन समस्त विरोधों का समागम है। यहां ऋण और धन विपरीत नहीं हैं, एक ही शक्ति के खेल हैं।
जीवन की अगर इस अर्थवत्ता को हम देखें, इस शाश्वत "हार्मनी' को, संगीत को हम देखें, तो फिर कृष्ण हमें समझ में आ सकेंगे। इसलिए कृष्ण को हम पूर्ण अवतार कह सके। वे जीवन के पूरे प्रतीक हैं। बुद्ध नहीं जीवन के पूरे प्रतीक हैं। बुद्ध जीवन में जो शुभ है, जो सुबह है, जो प्रभात है, जो प्रकाश है, उसके ही प्रतीक हैं। सांझ का क्या होगा? रात के अंधेरे का क्या होगा? पूर्णिमा तो आप सम्हाल लेंगे, अमावस का क्या होगा? अमृत तो आप ले लेंगे, जहर का क्या होगा? इसलिए बुद्ध साफ-सुथरे हैं। इसलिए कोई नहीं कहेगा कि फलां किताब के बुद्ध अलग हैं और फलां किताब के बुद्ध अलग हैं। कोई कारण नहीं कहने का। सब किताबों के बुद्ध एक हैं। कोई नहीं कहेगा कि बुद्ध का "सिजोफ्रेनिक' है, इसमें कई खंड हैं, नहीं कोई कहेगा। एक, अखंड है। एकरस है। लेकिन कृष्ण में यह सवाल उठेगा।
और हम बजाय अपने मन को समझाने के लिए, अपनी "कैटेग्रीज' को बचाने के लिए कृष्ण को कई व्यक्तियों में बांटें, इससे अच्छा होगा अपनी "कैटेग्रीज' छोड़ें और अपने इस चित्त को एक तरफ फेंकें और कृष्ण को पूरा देखें। मैं नहीं कहता अलग हुए भी हों तो मुझे फिकिर नहीं है। मुझे इसकी चिंता नहीं है। हो सकता है कि ऐतिहासिक सिद्ध करें कि फासला है दो हजार साल का भागवत के कृष्ण में और गीत के कृष्ण में। मैं फिक्र न करूंगा, मैं कहूंगा, मुझे फासला नहीं है। मेरे लिए तो कृष्ण का अर्थ ही तभी है जब यह एक व्यक्ति है। अगर यह एक व्यक्ति नहीं है, तो व्यर्थ हो गया, इसका कोई अर्थ न रहा। हुए हों, न हुए हों, इससे मुझे प्रयोजन नहीं है। मैं मानता हूं कि जीवन की पूर्णता जब भी किसी व्यक्ति में फलित होगी, तो उसमें अनेक व्यक्ति एकसाथ फलित होंगे। जीवन की पूर्णता जब भी किसी व्यक्ति में फलित होगी, तो उसकी असंगतियों में एक संगति होगी। उसके विरोधों में एक अविरोध होगा। उसके व्यक्तित्व में विरोधी छोर होंगे, लेकिन जुड़े होंगे। हो सकता है धागे हमें दिखाई न पड़ें, हमारी आंखें कमजोर हैं बहुत।
ऐसा ही समझें कि अगर मैं एक मकान की सीढ़ियों पर चढ़ रहा हूं, तो नीचे की सीढ़ी मुझ दिखाई पड़ती हो और बीच की सीढ़ियां दिखाई न पड़ें और आखिरी सीढ़ी दिखाई पड़ती हो, तो क्या मैं कभी भी सोच सकूंगा कि पहली सीढ़ी और आखिरी सीढ़ी में कोई जोड़ है? कभी भी न सोच सकूंगा। बीच की सीढ़ियां भी दिखाई पड़ जाएं तो मैं कह सकूंगा, पहली और आखिरी सीढ़ी दो सीढ़ियां नहीं हैं, एक ही सीढ़ी के दो हिस्से हैं। पहली सीढ़ी पर शुरू होती है यात्रा, आखिरी सीढ़ी पर पूरी होती है। यह एक ही चीज का विस्तार है। कृष्ण के व्यक्तित्व की जो बीच की सीढ़ियां हैं वह हमें दिखाई नहीं पड़तीं, क्योंकि हमारे ही व्यक्तित्व की बीच की सीढ़ियां हमें दिखाई नहीं पड़ीं। वे जो "लिंक्स' हैं, वे हमें दिखाई नहीं पड़ते। आपने अपनी अशांति भी देखी, शांति भी देखी। दोनों के बीच का क्षण देखा? वह नहीं देखा है। आपने प्रेम भी देखा और घृणा भी देखी। लेकिन दोनों के बीच की यात्रा देखी है कि प्रेम किस भांति घृणा बनता है? घृणा किस भांति प्रेम बनती है? आपने मित्रता भी साधी, शत्रुता भी साधी, लेकिन कभी यह देखा कि मित्रता किस कीमिया से, किस "केमिकल' प्रक्रिया से शत्रुता बन जाती है? और शत्रुता किस कीमिया से मित्रता बन जाती है?
केमिस्ट हुए--अलकेमिस्ट--जो इस कोशिश में लगे थे कि लोहा सोने में कैसे बदल जाए। लेकिन लोग उनको समझ न पाए। लोग समझे कि सच में ही वे लोहे को सोना बनाने में लगे हैं। वे सिर्फ यह कह रहे थे कि अगर लोहा है तो कहीं-न-कहीं सोने से जुड़ा होगा। यह हो नहीं सकता कि लोहा और सोना जुड़ा न हो। कहीं-न-कहीं कोई "लिंक', कहीं-न-कहीं कोई बीच की कड़ी होगी जो हमें दिखाई नहीं पड़ रही है। यह हो नहीं सकता कि जगत "अनलिंक्ड' हो। अगर वहां फूल खिला रहा है और यहां मैं बैठा हूं तो कहीं-न-कहीं कोई "लिंक' होगा। और अगर मैं प्रसन्न हूं तो उस प्रसन्नता में फूल की प्रसन्नता कहीं भागीदार होगी। हो सकता है, कड़ी हमें दिखाई न पड़ती हो। और वहां फूल कुम्हला जाए और मैं उदास हो जाऊं और कड़ी दिखाई न पड़े। जीवन जोड़ है, इसमें सब जुड़ा है।
"अलकेमिस्ट' कहते थे कि लोहा है और सोना है, तो कहीं जोड़ होगा। हम कोई रास्ता खोज ही लेंगे जिसमें सोना लोहा बन जाए और लोहा सोना बन जाए। इस खोज में थे। लेकिन इतनी ही खोज न थी, वे यह कह रहे थे कि जिसको हम नीचा कहते हैं वह ऊंचे से जुड़ा होगा। "द बेसर मस्ट बी लिंक्ड विद हायर'। नहीं तो हो नहीं सकता। कहीं-न-कहीं सेक्स परमात्मा से जुड़ा होगा। जुड़ा होना चाहिये। कहीं-न-कहीं जमीन आकाश से जुड़ी होगी। जुड़ी होनी चाहिये। कहीं-न-कहीं जन्म मृत्यु से जुड़ा होगा। जुड़ा होना चाहिये। बिना जुड़े हो कैसे सकता है? संभव नहीं रह जायेगा। जड़ कहीं-न-कहीं चेतना से जुड़ा होगा। पत्थर कहीं-न-कहीं आत्मा से जुड़ा होगा। जुड़ा होना चाहिये। अन्यथा हो कैसे सकता है? इस बड़े जोड़ के प्रतीक की तरह कृष्ण हैं।
मैं तो कहता हूं, यह व्यक्ति हुआ, ऐसा ही हुआ। इतिहास दलीलें जुटाए, मैं उठाकर कचरे में फेंक दूंगा। मनोवैज्ञानिक बताए, मैं कहूंगा तुम्हारा दिमाग खराब है। तुम अभी समझ न पाओगे। क्योंकि तुमने खंडों का साफ-सुथरापन समझा है, तुमने सभी खंडों का जोड़ अभी नहीं समझा है। फ्रायड बहुत खोज करता है। जितना वह आदमी जानता है क्रोध के संबंध में, शायद कम आदमी जानते होंगे। लेकिन कोई जरा धक्का मार दे, तो क्रोध उसे भी आ जाता है। तो यह जानकारी बड़ी बाहरी हो गई। पर बहुत खोज करता है। फ्रायड जितना पागलपन के संबंध में जानता है शायद कोई जानता हो। लेकिन फ्रायड खुद पागल हो सकता है, कभी भी "पोटेंशियल' है। किसी भी क्षण पागल हो सकता है। मौके आ जाते हैं जब वह पागलपन करता है।
मनोवैज्ञानिक क्या कहता है, इसका बहुत मूल्य मेरे लिए नहीं है, क्योंकि कृष्ण मन के बाहर गए व्यक्ति हैं, मन के पार गए व्यक्ति हैं। कृष्ण मन के पार गए व्यक्ति हैं। और एक और तरह की अखंडता है, जो आत्मा की अखंडता है, जो एक ही साथ सबमें हो सकती है, सब मनों में हो सकती है, सब तरह के मनों में हो सकती है। इसलिए मैं एक ही व्यक्ति मानकर बात करूंगा।
ओशो रजनीश
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