श्री कृष्ण स्मृति भाग 25

 "श्रीमद्भागवत में वस्त्रहरण-लीला के प्रसंग में कृष्ण का नैसर्गिक "इरोटिक गेस्चर' सुस्पष्ट है। वर्णन है कि गोपिकाओं की अक्षत योनियां देखकर कृष्ण प्रसन्न हुए। और वस्त्र लेने के लिए लज्जावश गोपिकाएं गुह्यांग हाथ से ढांककर बाहर आती हैं, तब कृष्ण कहते हैं कि तुमने जल देवता का नग्न नहाकर अपराध किया है, इसलिए पापशमन हेतु मस्तक पर दोनों हाथ जोड़ उन्हें नमस्कार कर वस्त्र ले जाओ। बाद में भागवतकार लिखते हैं कृष्ण ने कुमारिकाओं को ठगकर लज्जा त्याग करवाया। इस संदर्भ में निरावरणता के सर्वप्रथम पुरस्कर्ता कृष्ण के आप समर्थ अनुगामी हैं, मगर आपके खयाल और जर्मनी आदि देशों के "न्यूडिस्ट क्लब' के खयाल में क्या बुनियादी फर्क है? वस्त्र सभ्यता का प्रतीक है, संस्कृति चमड़ी है। इस त्वचा का आवरण अलग करने से जो अस्थि-पंजर दिखाई पड़ेगा, इससे हम प्राकृतिक रूप में दिखाई पड़ेंगे, मगर बर्बर भी दिखाई पड़ेंगे। यह खयाल "बैक टु प्रिमिटिज्म, बैक टु जंगल' नहीं होगा? घड़ी के कांटे को पीछे घुमाने की विधि को आप आप बाद में "प्रोग्रेस' कह सकोगे?'


पहली बात, सिग्मंड फ्रायड का "लिबिडो' का खयाल बहुत कीमती है। "लिबिडो' को अगर हम ठीक शब्द दें, तो उसका अर्थ होगा, काम-ऊर्जा, "सेक्स-एनर्जी'। मनुष्य के जीवन में ही नहीं, सारी सृष्टि के जीवन में, सृजन में काम-ऊर्जा गुह्यतम छिपी है। पुराण कहते हैं, ब्रह्मा ने जगत बनाया तो काम से पीड़ित होकर। सृजन होगा ही नहीं कामना के बिना। समस्त सृजन कामना से ही आविर्भूत होता है। जो भी है, वह काम का ही विस्तार है। जीवन की समस्त लीला, जीवन की सारी अभिव्यक्ति--चाहे फूल खिलते हों, चाहे पक्षी गीत गाते हों--काम-ऊर्जा का ही खेल हैं। ऐसा समझें, जैसे काम-ऊर्जा का एक सागर है और उसमें अनंत-अनंत लहरें उठती हैं, अनंत-अनंत रूपों में। स्वयं परमात्मा ही बहुत गहरे में काम-ऊर्जा का केंद्र है।

कृष्ण के जीवन में काम-ऊर्जा की सहज, निश्छल स्वीकृति है। सहज स्वभाव का अंगीकार है। न कहीं कोई निषेध है, न कहीं कोई दमन है। जैसा है जीवन, वैसा अनुग्रहपूर्वक, अनुग्रहभाव से उसे जीने की सहजता है। इसलिए कृष्ण की घटनाओं को जो लोग दबाने, बदलने, शक्ल देने की कोशिश करते हैं, वे केवल अपनी अपराध-वृत्तियों, अपने दमित काम, अपने चित्त के रोगों की खबर देते हैं। निश्चित ही यह कोशिश की जाती रही है कि जिस कृष्ण ने गोपियों के वस्त्र लिए और वृक्ष पर चढ़ गए, वह बहुत छोटे थे। हमें बड़ी राहत मिलेगी अगर वे बहुत छोटे हों। उससे हम उनको स्वीकार करने में सुलभता पाएंगे। लेकिन छोटे बच्चे भी एक-दूसरे को नग्न देखना चाहते हैं। बहुत छोटा बच्चा भी उत्सुक है जानने को--लड़की भी, लड़का भी। और यह जिज्ञासा अत्यंत स्वाभाविक है। जैसे ही एक बच्चे को--वह चाहे लड़की हो, चाहे लड़का--जैसे ही अपने शरीर का बोध शुरू होता है, वैसे ही उसे यह भी बोध शुरू होता है कि लड़की भी है घर में, बहन भी है उसकी, जिसके शरीर में कुछ फर्क है। लड़की को भी बोध होता है कि लड़का है, उसके शरीर में कुछ फर्क है। यह बोध इतना कठिन न हो, अगर लड़के और लड़कियां सहज ही घर में नग्न भी होते हों। लेकिन बड़े-बूढ़े इतने कामग्रसित हैं, इतने "आब्सेस्ड' हैं कि छोटे-छोटे बच्चों को भी जल्दी वस्त्र पहनाने के लिए आतुर होते हैं। यह उनकी आतुरता इतनी ज्यादा है कि छोटे बच्चे एक-दूसरे को नग्न सहजता से नहीं देख पाते। तो कृष्ण ने ही कोई, अगर यह भी मान लें कि उनकी उम्र छोटी रही हो, तो नहाती हुई लड़कियों के वस्त्र लेकर वे वृक्ष पर चले गए हों, तो इसमें कुछ बहुत नया नहीं है। सभी छोटे बच्चे लड़कियों को नग्न देखना चाहते हैं। न नदी उपलब्ध है अब, न वृक्ष उपलब्ध हैं अब, न नदी पर नहाती हुई लड़कियां उपलब्ध हैं। तो बच्चों को नए-नए रास्ते खोजने पड़ते हैं।

फ्रायड ने एक खेल का उल्लेख किया है, डाक्टर के खेल का। छोटे बच्चे लड़कियों को बीमार करके लिटाकर डाक्टर का खेल शुरू करेंगे और उनको नग्न देखना चाहेंगे। यह बड़ी सहज जिज्ञासा है, इसमें कुछ बुरा नहीं है। यह बहुत स्वाभाविक है कि हम एक-दूसरे से परिचित होना चाहें। यह हमारे शरीर-परिचय की बिलकुल प्राथमिक कड़ी है। तो अगर कृष्ण छोटे भी रहे हों, तब भी संभव है। लेकिन उम्र ज्यादा भी रही हो, तब भी असंभव नहीं है। हमारे लिए असंभव हो जाएगा, कृष्ण के लिए असंभव नहीं है। क्योंकि कृष्ण जीवन को सहज जीते हैं, जैसा है उसे स्वीकार करते हैं। और जिस संस्कृति में वह पैदा हुए होंगे, वह संस्कृति भी  बहुत सहजता को स्वीकार करती होगी। अगर कृष्ण हमारे समाज में पैदा हुए होते, तो हमने इस उल्लेख को ही काट दिया होता। हम इस उल्लेख को कभी लिखते ही नहीं। जिन लोगों ने इस उल्लेख को सहजता से लिखा है, उनके मन में कोई भी ऐसा भाव न रहा होगा कि कुछ गलत हुआ है। नहीं तो गलत को हम छांट देते। हजारों साल तक यह सवाल किसी ने नहीं उठाया कि कृष्ण कैसा आदमी है। यह अभी हमने उठाना शुरू किया है। यह सवाल नहीं उठाता है। जिस संस्कृति में कृष्ण की यह घटना घटी होगी, वह संस्कृति इसको सहज स्वीकार कर ली होगी। यह कोई कृष्ण ही कपड़े चुराकर अगर चले गए होते, तो अनूठी घटना अगर होती, तो इसकी निंदा भी होती। यह और भी कृष्ण यह करते रहे होंगे, ये और लड़के भी यह करते रहे होंगे, ये और बालगोपाल भी यह करते रहे होंगे।

लड़कियां भी बहुत कम उम्र की रही होंगी, यह नहीं माना जा सकता। इतनी उम्र की तो रही होंगी जहां से लड़कियों को लड़कियां होने का बोध शुरू हो जाता है। जहां से शर्म शुरू हो जाती है। जहां से वे काम के मामले में, "सेक्स' के मामले में, यौन के मामले में भिन्न हैं; उनके पास कुछ छिपाने को है; जहां से उन्हें छिपाने का बोध शुरू होता है, वह वही बोध है जहां से कोई दूसरा उन्हें जानने और देखने को उत्सुक होता है। ये दोनों एक ही घड़ी, एक ही उम्र की बात है। तो कृष्ण जिस उम्र के रहे होंगे उससे बहुत भिन्न उम्र की लड़कियां नहीं रही होंगी। कृष्ण देखने को उत्सुक हैं उन्हें नग्न, ये लड़कियां कृष्ण न देख पाएं, इसके लिए आतुर हैं।

इस मामले में एक बात बहुत समझ लेनी जरूरी है कि पुरुष-चित्त और स्त्री-चित्त में जो बहुत से फर्क हैं, उनमें एक फर्क यह भी है। पुरुष स्त्री को नग्न देखना चाहता है, वह "वोयूर' है। स्त्री पुरुष को नग्न नहीं देखना चाहती है, इतनी उसकी उत्सुकता नहीं है। वह "वोयूर' नहीं है। इसलिए बड़े मजे की बात है। लेकिन पुरुष स्त्री को नग्न देखना चाहता है। इसीलिए दुनिया में इतनी नग्न स्त्रियों की प्रतिमाएं हैं। पुरुषों की नहीं हैं। और अगर कहीं पुरुषों की नग्न प्रतिमाएं हैं, तो वे उन संस्कृतियों में पैदा हुईं, जो कि "होमोसेक्सुअल' थीं। जैसे, यूनान में पैदा हुईं। सुकरात और प्लेटो के वक्त में पैदा हुईं, जो कि "होमोसेक्सुअल' वक्त है। जिसमें कि पुरुष पुरुषों को भी काम-विषय बनाते थे, "सेक्स आब्जेक्ट' बनाते थे, तो वह भी पुरुषों ने ही बनाई हैं वे मूर्तियां नग्न पुरुषों की। स्त्रियां नग्न पुरुषों में बिलकुल उत्सुक नहीं हैं। इसलिए ऐसी कोई पत्रिका नहीं निकलती जिसमें नग्न पुरुषों की तस्वीरें देखकर स्त्रियां प्रसन्न होती हों, वे बिलकुल प्रसन्न नहीं होतीं। लेकिन ऐसी बहुत पत्रिकाएं निकलती हैं जिनमें नग्न स्त्रियों की तस्वीरें देखकर पुरुष बड़े प्रसन्न होते हैं। स्त्रियों को समझ में नहीं आता कि पुरुषों को यह क्या पागलपन है।

कभी आपने शायद खयाल न किया हो कि प्रेम के गहरे-से-गहरे क्षण में पुरुष जरूर स्त्री को नग्न करना चाहेगा। स्त्री उनकी उत्सुक नहीं होगी। बल्कि पुरुष नग्न भी हो, तो प्रेम के गहरे क्षण में पुरुष की आंख खुली रहेगी, स्त्री की आंख बंद हो जाएगी। अगर स्त्री का चुंबन भी लिया जा रहा हो तो वह आंख बंद कर लेगी। देखने में उसका बहुत रस नहीं है। "एब्ज़ार्व' कर लेने में, पी लेने में, हो जाने में उसका रस है, देखने में उसका रस नहीं है। पुरुष देखने में बहुत रसपूर्ण है। और पुरुष की यह देखने की उत्सुकता है, यह स्त्री को छिपने की उत्सुकता का जन्म बन जाती है। वह अपने को छिपाना शुरू कर देती है। इसलिए स्त्री छिपाए जा रही है। लेकिन स्त्री की बड़ी मुश्किल है। अगर वह बहुत ज्यादा छिपा ले, तो पुरुष के लिए अनाकर्षक हो जाती है। इसलिए स्त्री को दोहरा काम करना पड़ता है। छिपाना भी पड़ता है और उघाड़ना भी पड़ता है। उसकी दोहरी मुसीबत है। उसको एक ही चीज से दोहरे काम करने पड़ते हैं। उन्हीं कपड़ों से छिपाना पड़ता है खुद को, उन्हीं कपड़ों से उघाड़ना पड़ता है खुद को। तो जिन कपड़ों से स्त्री अपने को छिपाती है, उन्हीं से उघाड़ने का भी काम लेती है। क्योंकि, छिपाना तो वह पुरुष की जो जिज्ञासा की जो "क्याूरिआसिटी' है, उससे वह भयभीत है। वह उसकी समझ के बाहर है। तो अपने को छिपाती है। लेकिन इस पुरुष के लिए उसे आकर्षक भी होना है, क्योंकि इस पुरुष के लिए अगर वह आकर्षक नहीं है तो बेमानी है। तो उसे उघाड़ना भी है। तो स्त्रियां एक बड़ी जिच में पड़ी रहती हैं, सदा--उघाड़ो भी, ढांको भी। इधर से ढांको, उधर से उघाड़ो। यह अंग ढांको, वह अंग उघाड़ो। उनको पूरे वक्त इन दोनों के बीच एक तालमेल और एक संतुलन और एक "बैलेंस' बनाए रखना पड़ता है।

तो वे स्त्रियां अगर पानी से अपने गुह्य अंगों को ढांककर निकली हों, तो बिलकुल स्वाभाविक है। यह घटना बड़ी सहज है। और कृष्ण ने अगर उनसे कहा हो कि हाथ जोड़कर देवता को नमस्कार करो, तो यह भी बिलकुल स्वाभाविक है। इसमें कुछ कठिनाई नहीं है। यह पुरुष-चित्त है। और कृष्ण सीधे, सहज पुरुष-चित्त हैं--कहना चाहिए, पूरे पुरुष-चित्त हैं। और इसके बाबत न कोई दमन है, न कोई विरोध है। और जिन्होंने ये कथाएं लिखीं, वे भी बड़े सहज लोग रहे होंगे, उन्होंने सीधी-सीधी बातें लिख दी हैं, जैसी थीं। उनके मन में अभी तक कोई ऐसा मामला नहीं आया था, न कोई ऐसे सिद्धांत आ गए थे जो कहते कि यह क्या लिख रहे हो? और कृष्ण जिसे तुम भगवान बना रहे हो, उसके बाबत ऐसी बात लिखकर तुम दिक्कत डाल रहे हो। बाद के लोगों को बड़ी कठिनाई होगी कि यह भगवान कैसा था! भगवान ही ऐसा हो सकता है। इतना सरल और सहज, इतना "स्पांटेनियस' भगवान ही हो सकता है, आदमी नहीं हो सकता। आदमी तो "स्पांटनियस' हो ही नहीं सकता, वह तो "प्रीप्लांड' है। इतना जरूर मैं कहूंगा कि कृष्ण ने यह "प्लानिंग' न की होगी। इतना मैं कहूंगा। इसका कोई "ब्लू प्रिंट' नहीं रहा होगा, कि लड़कियां अपने अंग छिपा लेंगी तो मैं उनसे कहूंगा कि हाथ जोड़ो। बस यह हुआ होगा कि लड़कियों ने अंग छिपाए होंगे, कृष्ण ने कहा होगा कि हाथ जोड़ो नदी के देवता को, क्या करती हो? नाराज कर दिया नदी के देवता को! पर यह "स्पांटेनियस', सहज। और इस सहजता को इसी तरह वर्णित किया जिन लोगों ने, वे अदभुत रहे होंगे। सरल रहे होंगे, सीधे रहे होंगे। घटनाओं में काट-छांट नहीं की है। "इम्प्रूवमेंट' नहीं किया है कोई घटनाओं पर। चीजों को छोड़ दिया है जैसी वे थीं। पीछे हमको कठिनाई होती चली गई है। पीछे हम मुश्किल में पड़ते चले गए। ऐसी बहुत घटनाएं हैं जो हमें पीछे दिक्कत में डालती हैं। क्योंकि पीछे हमारे नए सिद्धांत और नई धारणाएं और नई नैतिकताएं नए खयाल दे देती हैं और वह हमको पीछे की तरफ लौटकर उनको हमें लागू करना पड़ता है। फिर कठिनाई खड़ी हो जाती है।

तो मैं तो मानता हूं कि काम-ऊर्जा की जो सहजतम अभिव्यक्ति हो सकती है, वह कृष्ण में हुई है। उसमें उन्होंने कोई बाधा नहीं मानी है। वह सहज जिए हैं। और उनके समाज में, जिसमें वह थे, उसने सहज स्वीकार कर लिया था। वह समाज भी सहज होगा।

दूसरी बात पूछी है, कि मैं भी पुरस्कर्ता हूं। एक अर्थ में हूं। ऐसा नहीं कि वस्त्रों का विरोधी हूं। अगर वस्त्रों का विरोधी हूं, तो मैं घड़ी के कांटों को पीछे की तरफ घुमाता हूं। वस्त्रों की उपादेयता है, वस्त्रों का अर्थ है, वस्त्रों का प्रयोजन है। लेकिन वस्त्रों की कोई नैतिकता नहीं है, वस्त्रों की कोई "मॉरलिटी' नहीं है। प्रयोजन है। सर्दी है और वस्त्र जरूरी हैं। गर्मी है और और तरह के वस्त्र जरूरी हैं। और आप रास्ते पर जाने के लिए हैं, तो भी वस्त्र जरूरी हैं, क्योंकि कोई आपको नग्न न देखना चाहे तो आपको दिखाने का हक नहीं है, वह "ट्रेसपास' है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कोई हमें नग्न देखने को राजी नहीं है तो हम अपने घर पर भी नग्न होने को स्वतंत्र न रह जाएं, या किन्हीं घड़ियों में हम नग्न न हो सकें। नहीं, नग्नता और वस्त्र ऐसे ही होने चाहिए जैसे जूते हैं। घर पर हम जूता नहीं पहनकर घूम रहे हैं, उतार देते हैं, बाहर पहनकर चले जाते हैं। लेकिन घर में जूता उतारकर कोई नहीं कहता कि तुम नंगे हो गए। हो तो गए हैं, पैर तो नंगे हो ही गए।

कपड़े सहजता से लिए जाएं, उनका दंश न रह जाए। और सहजता से वे तभी लिए जाएं, उनका दंश न रह जाए। और सहजता से वे तभी लिए जा सकते हैं जब नग्नता भी सहजता से ली जाए, नहीं तो नहीं लिए जा सकते हैं। तब कपड़े एक नैतिक अर्थ ले लेते हैं, जो उनमें बिलकुल नहीं है। मनुष्य ने बहुत कपड़े ओढ़ डाले। इतने कपड़े ओढ़ डाले कि उन कपड़ों की वजह से उसे कपड़े उघाड़ने के हजार तरह के प्रयत्न करने पड़ते हैं। उससे अनैतिकता पैदा होती है।

मैं मानता हूं कि अगर हम नग्नता को सहज स्वीकार कर लें, जैसा कि हम नग्न पैदा होते हैं। कपड़ों के भीतर भी नग्न ही रहते हैं, नग्न ही मरते हैं। परमात्मा ने हमें नग्न ही पैदा किया है। वह सहजता है। इसका यह मतलब नहीं है कि हम नंगे ही रहें। परमात्मा ने हमें जैसा पैदा किया है उसमें हम बहुत फर्क करते हैं। परमात्मा धूप डाल रहा है, हम छाता लगाए हुए हैं। इसमें हम कोई परमात्मा का विरोध नहीं कर रहे हैं। क्योंकि छाता लगाने से जो छाया आती है वह भी परमात्मा के नियम का हिस्सा है। उसमें कोई विरोध नहीं है। सिर्फ हम हमारे लिए जो मौज का है वह हम कर रहे हैं, और इतनी स्वतंत्रता हमें है कि हम धूप में बैठें कि छाया में। लेकिन अगर किसी दिन कोई आदमी छाया में बैठने को नैतिकता बना ले और धूप में जाने को पाप बना दे, तो फिर छाया में बैठना बड़ा बोझिल हो जाएगा। और फिर धूप में जाना अपराध हो जाएगा--और लोग चोरी से धूप में जाने लगेंगे, जो कि बड़ी सहज बात है। जिसमें चोरी से जाने का कोई कारण न था, अब अकारण हम चोरी पैदा कर रहे हैं, अकारण हम अनैतिकता पैदा करवा रह हैं। अकारण "कंडेमनेशन' पैदा कर रहे हैं, अकारण लोगों को अपराधी सिद्ध करवा रहे हैं और उनको "गिल्ट' दे रहे हैं, जिसको देने की कोई जरूरत न थी।

तो मैं मानता हूं कि नग्नता एक सत्य है जीवन का, उसे सरलता से स्वीकार करने की बात है। उससे भागने की कोई जरूरत नहीं है। भागने के कारण पच्चीस उपाय कर रहे हैं। सड़क-सड़क पर नंगे पोस्टर लगे हैं, वे बिलकुल न लगेंगे। अगर हम सहज नग्नता को स्वीकार कर लें, अगर घर में कभी लोग नग्न भी बैठते हों, कभी नदी के किनारे नग्न नहाते भी हों, कभी मित्रों के बीच नग्न गपशप भी करते हों, कभी नग्न बैठकर धूप भी लेते हों--ऐसा नहीं कि कपड़े छोड़कर भाग जाएं; कपड़े छोड़कर भागेंगे तो घड़ी का कांटा पीछे लौटेगा। और अगर कपड़े छोड़कर भागते नहीं हैं, नग्नता को भी स्वीकार करते हैं, तो जो लोग नग्न थे उनको कपड़ों का जो फायदा नहीं था, वह हमें होगा; और जो लोग सिर्फ कपड़ा पहने हुए हैं और कपड़ों से जो परेशानी में पड़ गए हैं, उस परेशानी में हम न होंगे। और इसलिए इसे मैं विकास कहूंगा। यह आगे जाना होगा। यह अकेले नंगे लोगों से भी आगे जाना होगा, अकेले कपड़े ढंके लोगों से भी आगे जाना होगा।

र्न्यूडिस्ट-क्लब' बगावत हैं। "न्यूडिस्ट-क्लब' एक प्रतिक्रिया हैं उस समाज की जिन्होंने कपड़े बहुत थोप दिए हैं। मैं "न्यूडिस्ट-क्लब' के पक्ष का नहीं हूं। यानी इसका मतलब यह हुआ कि एक तरफ पूरा समाज बीमार होता है और एक तरफ अस्पताल बनाते हैं। मैं कहता हूं, बीमार ही क्यों हों! "न्यूडिस्ट-क्लब' की जरूरत जो है, वह यह जो "आब्सेस्ड' लोग हैं कपड़े से, इनकी वजह से पैदा होती है। अगर हम "आब्सेसन' अलग कर लें, तो "न्यूडिस्ट-क्लब' की कोई जरूरत  नहीं रह जाती। अगर हम सहजता से घर में बाप बेटे के साथ नग्न नहा सके, मां बेटे के साथ नग्न नहा सके तो हैरान होंगे आप इस बात को जानकर कि अगर घर में मां अपने बेटे के साथ नग्न नहा सके तो यह बेटा किसी लड़की को रास्ते पर धक्का देने में असमर्थ हो जाएगा। इसका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। यह बिलकुल बेमानी बात हो जाएगी। स्त्री और पुरुष के बीच का फासला इतना कम हो जाएगा कि धक्का मारकर फासला कम करने की कोई जरूरत नहीं है। धक्का मारकर भी फासला ही कम किया जा रहा है, और कुछ किया नहीं जा रहा है। और चूंकि आहिस्ता से हाथ रखने कोई उपाय नहीं है, इसलिए धक्का मारा जा रहा है। अगर कोई स्त्री मुझे अच्छी लगे और उसका हाथ मैं हाथ में लेकर कहूं कि मुझे हाथ बहुत प्यारा लगता है, एक क्षण हाथ में ले सकता हूं, और समाज इतना सहज हो कि वह कहे कि ठीक है, यह हाथ आपको प्यारा लगा, धन्यवाद--मेरे हाथ को इतना प्यारा लगने का भी तो धन्यवाद होना चाहिए--तो फिर धक्का मारना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन वह नहीं संभव हुआ है। हम फूलों को धक्के नहीं मारते; हम खड़े होकर देख लेते हैं, रास्ते से गुजर जाते हैं। अगर कल फूल कोई कानून बना लें, और फूल भी पुलिस के आदमी खड़े कर लें और कहें कि कोई देखेगा तो ठीक नहीं होगा, तो फिर फूलों के साथ ज्यादती शुरू हो जाएगी। फिर अनैतिकता शुरू हो जाएगी।

असल में अति नैतिकता का आग्रह अनैतिकता का जन्म बन जाता है, "टू मच मॉरैलिटी क्रिएट्स इम्मॉरैलिटी'। ज्यादा नैतिक हुए कि आप अनैतिक होंगे फिर। तो बहुत कपड़े पहन लिए तो "न्यूडिस्ट-क्लब' है। मैं कोई "न्यूडिस्ट-क्लब' के पक्ष में नहीं, क्योंकि मैं बहुत कपड़े वालों के पक्ष में नहीं। मैं कहता हूं, सहजता से जिंदगी जैसी है उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। और कृष्ण बड़े अदभुत प्रतीक हैं। वह सहज जीवन में जो है, उसकी सहज स्वीकृति है।

ओशो रजनीश



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