श्री कृष्ण स्मृति भाग 26

 "भगवान श्री, आपने इसकी ओर यथार्थ इंगित किया कि आप किसी पक्ष में नहीं हैं। पर जैसा कि आपने अभी कहा कि किसी का हाथ प्यारा लगे तो उस हाथ को सहज समाज में आप ले सकें, वह एक "नार्मल सिचुएशन' हो सकती है। मगर हाथ तक तो ठीक है आपसे यही प्रश्न पूछना मुनासिब होगा कि आप "इम्मॉरैलिटी' की व्याख्या क्या करते हैं? क्योंकि आप हाथ कहेंगे, ऐसे दूसरा कोई और अंगों की मांग करेगा। क्या उससे व्यक्ति के जीवन में "कान्फ्लिक्ट' नहीं पैदा हो जाएगी? क्या कोई पति दिक्कत में नहीं पड़ जाएगा?

साथ दूसरा भी एक प्रश्न है कि जो कृष्ण वस्त्रहरण कर सके, वही कौरव-सभा में द्रौपदी का चीर पूरा भी कर सके। ये कृष्ण के व्यक्तित्व के दो छोर हुए। द्रौपदी का वस्त्र पूर्ण करते कृष्ण अलौकिक हैं, लोकोत्तर हैं, चमत्कारिक हैं। क्या यह केवल अदभुत दृष्टांत नहीं हो सकता? द्रौपदी के वस्त्र को पूर्ण करने वाले कृष्ण काले थे। श्रीमद्भागवत में उनके रंग के वर्णन के लिए तीन विशेषण दिए गए हैं--शुक्ल, पीत और कृष्ण। कवियों ने बहुत-बहुत कल्पनाएं कीं कि कृष्ण क्यों काले हैं फिर भी मतवाले हैं, इत्यादि। आप भी कुछ कहें।'


जहां तक सहजता का संबंध है, शरीर के किसी अंग में और हाथ में कोई फर्क नहीं है। फर्क हमें दिखाई पड़ता है, क्योंकि फर्क हमने पैदा कर लिया है। फर्क निर्मित है। फर्क है नहीं। शरीर के सभी अंग एक जैसे हैं। हाथ में और किसी अंग में कोई फर्क नहीं है। हमें फर्क दिखाई पड़ता है, क्योंकि हमने शरीर में भी खंड कर लिए हैं। शरीर का कोई हिस्सा है जो बैठकखाने जैसा है, जिसको सब देख सकते हैं। शरीर का कोई हिस्सा है जो गोडाऊन जैसा है, जिसके लिए "लाइसेंस' चाहिए। हमने शरीर को कई हिस्सों में बांटा हुआ है। ऐसे शरीर अखंड और इकट्ठा है। इसमें कोई हिस्से का कोई फर्क नहीं है। और जिस दिन मनुष्य सच में पूरा स्वस्थ होगा और सहज होगा, उस दिन कोई फर्क नहीं होगा।

लेकिन आपका यह कहना ठीक है कि इसे किस सीमा तक? अगर कोई व्यक्ति किसी का हाथ हाथ में ले लेता है, तो सोचा जा सकता है कि ठीक है। लेकिन, दो बातें विचारणीय हैं। जिस सहज समाज की मैं बात करता हूं, या जिस सहज संभावना की बात करता हूं, दूसरे व्यक्ति का हाथ लेते वक्त जैसे किसी दूसरे व्यक्ति को व्यर्थ ही, अकारण बाधा डालना ठीक नहीं है, वैसे ही दूसरे व्यक्ति का हाथ लेते वक्त व्यर्थ ही, अकारण ही दूसरे व्यक्ति को कष्ट न हो, वह भी सहजता का हिस्सा है। क्योंकि जब मैं किसी व्यक्ति का हाथ लेता हूं तो किसी व्यक्ति का हाथ ले रहा हूं, और मेरे लिए आनंदपूर्ण हो सकता है उसका हाथ लेना, लेकिन अगर उसको दुखपूर्ण है, तो उसको भी स्वतंत्रता तो है ही। मैं अपना आनंद लेने के लिए हकदार हूं तो दूसरा भी अपने आनंद का ध्यान रखने के लिए हकदार है। अगर मुझे अच्छा लग रहा है किसी का हाथ हाथ में लेना तो यह भी जानना जरूरी है कि उसे अच्छा लग रहा है या नहीं लग रहा है। मैं अपने सुख के लिए स्वतंत्र हूं तो वह भी अपने सुख के लिए स्वतंत्र है। जहां से यह दूसरा व्यक्ति शुरू होता है वहां से ही हमारी स्वतंत्रता पर दूसरे की स्वतंत्रता की जिम्मेदारी भी शुरू हो जाती है। वह बिलकुल सहज है, स्वाभाविक। क्योंकि आप आएं और मुझे गले से लगा लें, लेकिन मुझे इससे सिर्फ घबड़ाहट होती हो, तो आप आप आनंद लेने के हकदार हैं, लेकिन मैं भी तो अपनी घबड़ाहट से बचने का हकदार हूं। इसलिए सहज समाज निवेदन करेगा। ये निवेदन ही हो सकते हैं। और इनकी स्वीकृति अनिवार्य नहीं है; क्योंकि दूसरा व्यक्ति शुरू हो गया तत्काल।

मैं किस बात को नैतिकता कहता हूं, आपने पूछा, मैं किस बात को "मॉरेलिटी' कहता हूं? मैं इस बात को नैतिकता कहता हूं। मैं इस बात को नैतिकता कहता हूं कि दूसरे व्यक्तित्व का सम्मान, दूसरे व्यक्ति का उतना ही सम्मान जितना मेरा सम्मान मेरी दृष्टि में है, इसको मैं नैतिकता कहता हूं। इसके अतिरिक्त मेरे लिए कोई नैतिकता नहीं है। और मैं मानता हूं कि और जितनी नैतिकताएं हैं वे सब इसके नीचे अपने-आप फलित होती हैं। दूसरे व्यक्ति का मेरे ही जितना सम्मान नैतिकता का मूल है। जिस दिन मैं अपने को दूसरे व्यक्ति के ऊपर रखता हूं उसी दिन मैं अनैतिक हो जाता हूं। जिस दिन मैं दूसरे व्यक्ति का साधन की तरह उपयोग करता हूं और मैं साध्य हो जाता हूं, उस दिन मैं अनैतिक हो जाता हूं। प्रत्येक व्यक्ति अपने-आप में साध्य है, "एंड' है। जब तक मैं इसका स्मरण रखता हूं, तब तक मैं नैतिक होता हूं।

आपने पूछा है कि एक पति को तो बुरा लगता है। लग सकता है। असल में पति एक प्रकार की अनैतिकता है। एक तरह की "इम्मॉरेलिटी' है। असल में पति इस बात की घोषणा है कि उसने एक पत्नी को सदा के लिए अपना साधन बना लिया है। पति इस बात की घोषणा है कि उसने एक व्यक्ति को खरीद लिया है। पति इस बात की घोषणा है कि वह एक व्यक्ति का मालिक हो गया है, "ओनरशिप' हो गई है। व्यक्तियों की मालकियत नहीं हो सकती। मालकियत सिर्फ वस्तुओं की हो सकती है। और व्यक्तियों की मालकियत अनैतिक है।

तो मेरे हिसाब में तो विवाह एक अनैतिकता है। प्रेम एक नैतिकता है, विवाह एक अनैतिकता है। और जिस दिन दुनिया अच्छी होगी, उस दिन दो व्यक्ति जीवन भर साथ रह सकते हैं, लेकिन वह साथ रहना कोई "कांट्रेक्ट' नहीं होगा। यह साथ रहना कोई सौदा नहीं होगा, यह साथ रहना कोई संस्था नहीं होगी, यह साथ रहना उनके प्रेम का प्रतिफल होगा। यह उनका प्रेम है कि वे साथ रह रहे हैं। जिस दिन प्रेम कानून बनता है, उस दिन प्रेम की हत्या हो जाती है।

जिस दिन मैं किसी स्त्री से कह सकता हूं कि मैं हकदार हूं तुमसे प्रेम मांगने का, क्योंकि तुम मेरी पत्नी हो, उस दिन प्रेम कानून बन गया। उस दिन पत्नी अगर कहे कि आज तो मैं प्रेम के क्षण में नहीं हूं--और प्रेम के "मूड' होते हैं, प्रेम के क्षण होते हैं। इस योग्य बहुत कम लोग हैं जो चौबीस घंटे प्रेम में हैं। चौबीस घंटे प्रेम में वही हो सकता है जो प्रेम हो गया है। साधारणजन तो किसी क्षण में प्रेम में होता है, चौबीस घंटे प्रेम में नहीं होता। लेकिन कानून तो क्षण नहीं देखेगा। मैं अपनी पत्नी से कह सकता हूं कि मैं इस वक्त प्रेम चाहता हूं। प्रेम मांगा जा सकता है, क्योंकि तुम मेरी पत्नी हो। और उसे प्रेम देना पड़ेगा। और जब प्रेम देना पड़ता है तब वह प्रेम नहीं रह जाता। लेकिन पत्नी अगर कहे कि आज तो प्रेम का क्षण ही नहीं है, इस क्षण तो आप मेरे कोई भी नहीं हैं--क्योंकि नाता तो सिर्फ प्रेम का ही है, इस वक्त प्रेम ही नहीं है--इस वक्त आप ऐसे ही पराए हैं जैसे कोई और पराया है, तो कठिनाई खड़ी होगी कानून में।

लेकिन हम यह भी समझें कि क्या यह संभव है जो हमने बनाया है नीति के नाम पर? हमने नीति के नाम पर बहुत-सी असंभावनाएं थोप दी हैं और उन असंभावनाओं की वजह से बहुत अनैतिकता पैदा हुई है। मैं आज एक व्यक्ति को प्रेम करता हूं, क्या मैं पक्का वायदा कर सकता हूं कि कल मैं किसी दूसरे व्यक्ति को प्रेम नहीं करूंगा? कैसे कर सकता हूं? यह बिलकुल असंभव है। अभी कल आया नहीं, अभी वह व्यक्ति भी मुझे नहीं मिला जिससे कि मेरा प्रेम हो सकता है, मैं वायदा कैसे कर सकता हूं? और अगर मैंने वायदा किया, तो कल उपद्रव यह होगा कि कल वह व्यक्ति तो आ जाएगा--वह मेरे वायदे को देखता नहीं--कल वह चित्त की घड़ी भी आ जाएगी--वह भी मेरे वायदे को नहीं देखती--कल एक घटना घट सकती है जब मैं किसी के प्रति प्रेमपूर्ण हो जाऊं, लेकिन तब मेरा वायदा बीच में खड़ा हो जाएगा। तब दोहरी कठिनाई होगी। या तो मैं चोरी से किसी के प्रेम में हो जाऊं, जो कि अनैतिकता होगी। क्योंकि जिस दिन दुनिया में प्रेम को भी चोरी से किसी के प्रेम में हो जाऊं, जो कि अनैतिकता होगी। क्योंकि जिस दिन दुनिया में प्रेम को भी चोरी से करना पड़े, उस दुनिया में और क्या है जिसको हम ईमानदारी से कर सकेंगे? एक तरफ यह होगा कि मैं चोरी से प्रेम करूं और दूसरी तरफ यह होगा कि जिससे मैंने प्रेम का वायदा किया है उसके साथ मैं प्रेम का अभिनय करूं। क्योंकि अब उसके साथ प्रेम कैसे हो सकेगा! और जिस दुनिया में प्रेम का भी अभिनय करना पड़ता हो, वहां किस चीज का आचरण किया जा सकेगा?

तो मैं पति को, विवाह को अनैतिकताएं मानता हूं, जो एक अनैतिक समाज ने ईजाद की हैं। और उनके साथ ही हजार तरह की अनैतिकताएं पैदा होती हैं। जब हम पति को, पत्नी को बहुत जोर से कस देते हैं, वेश्या पैदा हो जाती हैं। फौरन पैदा हो जाती हैं। वेश्या जो है, वह सती-सावित्रियों की रक्षा है। सती-सावित्री बचानी है तो वेश्या पैदा करनी पड़ेगी। लेकिन स्त्रियां भी पसंद करेंगी कि उनका पति एक वेश्या के पास चला जाए, बजाए पड़ोसी की पत्नी से प्रेम में पड़ जाए। क्योंकि प्रेम में "इनवॉल्वमेंट' है, खतरा है। पड़ोसी की पत्नी के प्रेम में अगर पति पड़ जाए, तो पत्नी को खतरा है। वेश्या के पास चला जाए तो कोई खतरा नहीं है। वह वापस सुबह लौट आएगा। और यह पैसे का सौदा है, इसमें कोई खतरा नहीं है। इसलिए पत्नियां वेश्याओं के लिए राजी हो गईं, प्रेम के लिए राजी नहीं हुईं।

अब जब इस सब को मैं ऐसा कहता हूं, तो आप जो कहते हैं ठीक कहते हैं कि "टैबूज़' से भरा हुआ आदमी, हजार तरह के संस्थान, हजार तरह के संस्कार, हजार तरह की आदतें, हजार तरह की नैतिकताओं में पला हुआ आदमी, वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। मैं आपसे कहता हूं, वह बड़ी मुश्किल में पड़ा ही हुआ है। मैं जो कह रहा हूं, उससे वह मुश्किल के बाहर जा सकता है। वह मुश्किल में पड़ा ही हुआ है। कहां है वह आदमी, जो मुश्किल में नहीं है? सब आदमी मुश्किल में पड़े हैं। लेकिन, अगर मुश्किल पुरानी है, तो हमें दिखाई नहीं पड़ती। अगर मुश्किल आदतन हो गई, तो दिखाई नहीं पड़ती। अगर बीमारी स्थायी है, तो हम उसे भूल जाते हैं। मैं जो कह रहा हूं वह नई मुश्किल होगी। नई मुश्किल इसलिए नहीं है कि मैं जो कह रहा हूं उससे आदमी की जिंदगी में मुश्किलें आएंगी, मैं जो कह रहा हूं उससे एक मुश्किल होगी कि पुरानी मुश्किल आदतें छोड़नी पड़ेंगी। पुरानी मुश्किल के संस्कार छोड़ने पड़ेंगे। और अगर किसी दिन पृथ्वी इस बात के लिए राजी हो सकी कि हम जीवन को सहज कर लें, और जीवन पर असंभावनाएं न थोपें, तो कृष्ण जैसे लाखों व्यक्तित्व पैदा हो सकते हैं। कोई एक ही कृष्ण पैदा हो, यह जरूरी नहीं है। सारी पृथ्वी कृष्णों से भर सकती है।

आखिरी प्रश्न उन्होंने पूछा है कि कृष्ण के बहुत रंगों की बात हुई है। बहुत रंगों के आदमी थे! रंगीन आदमी थे! एक रंग में उनको नहीं बताया जा सकता। इसी कारण। बहुत रंग के आदमी थे। कई रंग एकसाथ थे उस आदमी में। शरीर तो एक ही रंग का रहा होगा, लेकिन आदमी कई रंग का था। फिर देखने वाली आंखों पर बहुत कुछ निर्भर करता है कि कौन-सा रंग दिखाई पड़ता है। तो जिनने जिस आंख से देखा होगा, उन्हें वे रंग दिखाई पड़ गए होंगे। हां, एक आदमी भी तीन हालातों में तीन रंग देख सकता है। क्योंकि एक ही आदमी तीन हालातों में एक ही आदमी कहां रहता है? कभी जब मैं प्रेम में होता हूं तब आपको दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और जब मैं क्रोध में होता हूं तब दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और कभी आप मेरे प्रति प्रेम में होते हैं तब दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और कभी जब आप मेरे प्रति क्रोध में होते हैं तो दूसरा रंग दिखाई पड़ता है। और वे रंग रोज बदलते रहते हैं। रंग प्रतिपल बदलते रहते हैं। सब बदलता रहता है। यहां थिर कुछ भी नहीं है। इस जगत में थिरता जैसी बात ही झूठ है। यहां सब बदल रहा है। लेकिन, अधिक लोगों ने उनमें सांवला रंग ही देखा। उसके कुछ कारण हैं।

ऐसा लगता है कि सांवला रंग उनकी थिरता का स्थायित्व गुण रहा होगा। यानी वे सांवले रंग में ही अथिर होते रहे होंगे। वह चंचल रहे होंगे, सांवले रंग में ही। इस मुल्क के मन में सांवले रंग के लिए कुछ आग्रह हैं। असल में गोरा रंग उतना सुंदर कभी भी नहीं होता, जितना सांवला रंग सुंदर होता है। उसके कई कारण हैं। लेकिन आमतौर से हमें गोरा रंग सुंदर दिखाई पड़ता है, क्योंकि गोरे रंग की चमक में बहुत-सी असुंदरताएं छिप जाती हैं। और काले रंग में कुछ भी नहीं छिपता, इसलिए काला आदमी मुश्किल से कभी सुंदर होता है। गोरे आदमी बहुत सुंदर होते हैं क्योंकि काला रंग कुछ छिपाता नहीं है, सीधा प्रगट कर देता है। सफेदी की चमक में बहुत-सी चीजें छिप जाती हैं। इसलिए गोरे रंग के बहुत-से आदमी सुंदर दिखाई पड़ेंगे, काले रंग का कभी-कभी कोई आदमी सुंदर होता है। लेकिन जब काले रंग का कोई सुंदर होता है, तो गोरे रंग का सुंदर आदमी एकदम फीका पड़ जाता है। इसलिए हमने राम को भी सांवला, कृष्ण को भी सांवला--हमने जिनको भी सुंदर देखा उनको हमने सांवले रंग में देखा। सांवले रंग का सौंदर्य "रेअरिटी' है। वह बहुत "रेअर' है। सफेद रंग के सुंदर बहुत लोग होते हैं। वह कोई "रेअरिटी' नहीं है। वह कोई बहुत विशेषता नहीं है। सफेद रंग का सुंदर होना बड़ी साधारण बात है, सांवले रंग का सुंदर होना बड़ी असाधारण बात है।

कुछ और भी कारण हैं। सफेद रंग में गहराई नहीं होती, "डेप्थ' नहीं होती, फैलाव होता है। इसलिए सफेद शक्ल "फ्लैट' होती है, "डीप' नहीं होती। नदी देखी है, जब गहरी हो जाती है तब सांवली हो जाती है। सांवले रंग में एक "डेप्थ' है। फैलाव नहीं है, एक "इनटेंसिटी' है। सांवला चेहरा चेहरे पर ही समाप्त नहीं होता, उसमें भीतर कुछ "ट्रांसपेरेंट' भी होता है। उसमें पर्तें होती हैं। सांवले आदमी के चेहरे के भीतर चेहरे, चेहरे के भीतर चेहरों की पर्तें होती हैं। हां, गोरा आदमी "फ्लैट' होता है, उसका चेहरा साफ, जो है सामने होता है। इसलिए गोरे रंग से बहुत जल्दी ऊब पैदा हो जाती है। सांवले रंग से ऊब पैदा नहीं होती। उसमें नए रंग दिखाई ही पड़ते चले जाते हैं। और कृष्ण जैसा आदमी ऐसा आदमी है कि उससे ऊब पैदा हो नहीं सकती।

अभी आप जानकर हैरान होंगे कि पश्चिम की सारी सुंदरियां सांवला होने के लिए बड़ी दीवानी हैं। सागर के तट पर लेटी हैं। किसी तरह धूप थोड़ी सांवली कर दे। क्या पागलपन आ गया है? असल में जब भी कोई संस्कृति अपने शिखर पर पहुंचती है, तब फैलाव कम मूल्य का रह जाता है, गहराई ज्यादा मूल्य की हो जाती है। हमको पश्चिम का आदमी सुंदर दिखाई पड़ता है, पश्चिम का आदमी जानता है कि अब सौंदर्य गहराई में खोजना है, हो चुकी वह बात। अब पश्चिम की सुंदर स्त्री सांवला होने की कोशिश में लगी है। इसलिए पश्चिम का सुंदरतम आदमी भी "ट्रांसपेरेंट' नहीं होता। उसका चेहरा बोथला हो जाता है। वह सफेद रंग की खराबी है।

वह सफेद रंग की खूबियां हैं, कि बहुत लोग सुंदर हो सकते हैं सफेद रंग में। सफेद रंग की खराबी है, कि उसमें बहुत गहरा सौंदर्य नहीं हो सकता। इसलिए सांवले रंग पर हमने देखा। मैं नहीं मानता कि कृष्ण सांवले रहे ही होंगे यह कोई जरूरी नहीं है। हमने सांवला देखा। इतना प्यारा आदमी था कि हम उसको गोरा नहीं सोच सके। हमने उनको सांवला सोचा। वे सांवले हो भी सकते हैं, वह मेरे लिए गौण है।

मेरे लिए तथ्य बहुत गौण हैं। मेरे लिए काव्य बहुत महत्वपूर्ण हैं। हम न सोच सके इस आदमी को गोरा, क्योंकि यह इतने रंग का आदमी था, इतना गहरा आदमी था, और इसके चेहरे में झांकते जाने, झांकते जाने का मन होता था, डूबते जाने का मन होता था। इसमें और गहराइयां थीं, जो उघड़ती चली जाती थीं। इसलिए बहुत रंग में एक व्यक्ति ने भी देखा और बहुत लोगों ने भी देखा, पर एक स्थायी रंग में हमने सोचा है, वह है सांवला रंग। श्याम नाम ही उनको इसलिए दे दिया। श्याम का मतलब है, काले। कृष्ण का मतलब भी है, काला। न केवल हमने सोचा, बल्कि हमने नाम भी जो उन्हें दिए उसमें सांवलापन था। श्याम कहा, कृष्ण कहा, वे सब काले रंग के ही प्रतीक हैं।

और एक बात उन्होंने पूछी है कि एक तरफ उघाड़ते हैं वस्त्रों को कृष्ण, दूसरी तरफ उघड़ती हुई द्रौपदी पर वस्त्र फेंकते हैं। असल में जिसने कभी उघाड़ा नहीं, वह जिंदगी भर उघाड़ता ही रहता है। लेकिन जिसने उघाड़कर देख लिया, अब वह वस्त्र ढांक सकता है।

ढांकने और उघाड़ने में एक और बड़ा फर्क है।

प्रेम तो उघाड़ने की आज्ञा दे सकता है। प्रेम उघाड़ना चाहता है। लेकिन द्रौपदी प्रेम से नहीं उघाड़ी जा रही थी। द्रौपदी बड़ी घृणा से उघाड़ी जा रही थी। द्रौपदी को देखने वाली आंखें प्रेम की जिज्ञासा से भरी हुई आंखें न थीं। जो घटना है, उस घटना का मेरे लिए मूल्य नहीं--जैसा मैं निरंतर कहता हूं, मेरे लिए तथ्यों का कोई मूल्य नहीं। कोई चमत्कार ऐसा घटा हो कि दूर से कोई कृष्ण ढांकते रहे हों, मैं मानता हूं कि ये सब प्रतीक हैं। कृष्ण ने किसी-न-किसी तरह उस दिन द्रौपदी को उघाड़ने से रोका होगा, इतना ही मैं मानता हूं। किसी-न-किसी तरह कृष्ण उस दिन द्रौपदी के उघड़ने में बाधा बन गए होंगे, इतना ही मैं मानता हूं। लेकिन कवि जब इसको लिखेगा तो कविता बन जाएगी। और जब कविता बनेगी, और बाद में जब हम कविता को तथ्य बनाते हैं, तब "मिकरेल' मालूम होने लगते हैं। बाकी कविता ही एकमात्र "मिकरेल' है और कोई मामला नहीं है। कृष्ण किसी-न-किसी तरह उस दरबार में नग्न की जाती द्रौपदी के लिए बाधा बन गए होंगे। वह बाधा अनिवार्य हो गई होगी।

और यह बड़े मजे की बात है कि कृष्ण का नाम है कृष्ण, द्रौपदी का एक नाम कृष्णा है। सच तो यह है कि कृष्ण जैसा शानदार आदमी नहीं हुआ और कृष्णा जैसी शानदार स्त्री नहीं हुई। द्रौपदी का कोई मुकाबला नहीं है। हमने बहुत सीता और दूसरों की चर्चा की है, द्रौपदी की जरा कम की है। क्योंकि हमें बड़ी तकलीफ है द्रौपदी के साथ। वह पांच पतियों की पत्नी है, वह हमें भारी पड़ गई। लेकिन ध्यान रखें, एक ही पति की पत्नी होना भी बड़ी मुश्किल बात है। पांच पतियों की पत्नी होना असाधारण स्त्री का काम हो सकता है।

कृष्ण का बड़ा प्रेम है कृष्णा से। गहरे-से-गहरे उनकी प्रेयसियों में से वह है। इसलिए प्रेम इस क्षण में काम न आए तो कब काम आए। पर वह बात अलग है। वह तो कभी द्रौपदी पर चर्चा करेंगे, तब।

ओशो रजनीश




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