श्री कृष्ण स्मृति भाग 28
"लिबिडो', काम-ऊर्जा का उल्लेख, आया है। आध्यात्मिक संभोग की बात भी आई है। इसी कड़ी में एक बड़ा ही नाजुक और स्पष्ट प्रश्न है। बांसुरी कृष्ण की है, संगीत के मधुर सुर राधा के हैं। गीत कृष्ण के अधरों के हैं, उस गीत की काव्य-माधुरी राधा की है। नृत्य कृष्ण का है, किंतु उनके चरणों में गति और झंकार राधा की है। ऐसा अभिन्न व्यक्तित्व है कृष्ण का और राधा का। तभी तो हम राधाकृष्ण तो कहते हैं, लेकिन विवाहित होते हुए भी रुक्मिणी-कृष्ण कोई नहीं कहता। राधा को कृष्ण से अलग कर दिया जाए तो कृष्ण का जीवन भी औरों की तरह ही उदास-उदास और अधूरा-अधूरा-सा लगने लगेगा। और मजे की बात यह है कि कृष्ण की अनंत लीलाओं के आधारग्रंथ भागवत में राधा का कहीं नाम नहीं आया है। कोई बात नहीं। लेकिन कृष्ण के जीवन की समग्रता में शक्ति और प्रेमरूप राधा का क्या भावात्मक या "सेक्सुअल' संबंध है, इस पर प्रकाश डालने का एकमात्र अधिकारी है, भगवान श्री, आप!'
जो लोग शास्त्रों में खोजते हैं, उनके लिए बड़ी कठिनाई रही है इस बात से कि राधा का कोई उल्लेख ही नहीं है। और तब कुछ ने तो यह भी कहना शुरू कर दिया कि राधा जैसा कोई व्यक्तित्व कभी हुआ भी नहीं। राधा बाद के युगों के कवियों की कल्पना है। स्वभावतः जो इतिहास में जीते हैं, तथ्यों में जीते हैं, उनके लिए कठिनाई है। राधा का उल्लेख बहुत बाद के ग्रंथों में शुरू होता है। किसी प्राचीन ग्रंथ में राधा का कोई उल्लेख नहीं होता।
मेरी हालत बिलकुल उल्टी है। मैं मानता हूं कि राधा का उल्लेख न होने का कुल कारण इतना है कि राधा कृष्ण से इतनी एक और लीन हो गई कि अलग उल्लेख की कोई जरूरत नहीं। जो अलग थे, उनका उल्लेख है। जो अलग न थी और छाया की तरह थी, उसके उल्लेख की कोई जरूरत नहीं। उल्लेख करने के लिए भी तो किसी का अलग होना जरूरी है। रुक्मिणी अलग है। वह कृष्ण को प्रेम करती हो सकती है, कृष्णमय नहीं है। कृष्ण से उसके संबंध हो सकते हैं, कृष्ण में आत्मसात नहीं है। संबंध तो उनके ही होते हैं, जो अलग हैं। राधा का कोई संबंध नहीं है कृष्ण से। राधा कृष्ण ही है। इसलिए अगर उसका उल्लेख न किया गया हो, तो मैं मानता हूं न्याययुक्त है, उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए।
तो एक तो यह बात खयाल लें, उसके उल्लेख न होने का कारण है। वह छाया की तरह अदृश्य है। इतनी भी अलग नहीं, इतनी भी भिन्न नहीं कि उसे कोई जाने और पहचाने। इतनी भी अलग नहीं, इतनी भी भिन्न नहीं कि कोई उसे नाम भी दे, कोई जगह भी दे। इस कारण।
दूसरी बात, यह भी सच है कि राधा के बिना कृष्ण का व्यक्तित्व एकदम अधूरा रह जाएगा। अधूरा इसलिए रह जाएगा कि मैंने कहा कि कृष्ण पूरे पुरुष हैं। इसको थोड़ा समझना पड़ेगा। ऐसे पुरुष बहुत कम हैं जगत में, जो पूरे पुरुष हों। प्रत्येक पुरुष के भीतर उसका भी स्त्री-अंग होता है, और प्रत्येक स्त्री के भीतर उसका भी पुरुष-अंग होता है। मनस को जानने वाले लोग कहते हैं कि प्रत्येक स्त्री के भीतर पुरुष है, प्रत्येक पुरुष के भीतर स्त्री है। जो फर्क है वह सिर्फ "डिग्रीज' का, क्रमों का है। जिसे हम पुरुष कहते हैं, वह साठ फीसदी पुरुष है, चालीस प्रतिशत स्त्री है। इसलिए ऐसे भी पुरुष हैं जो स्त्रैण मालूम पड़ते हैं, और ऐसी भी स्त्रियां हैं जो पुरुष मालूम पड़ती हैं। अगर मात्रा बहुत ज्यादा है भीतर स्त्री की, तो पुरुष पर हावी हो जाएगी। अगर पुरुष की मात्रा बहुत ज्यादा है, तो स्त्री पर हावी हो जाएगी। लेकिन इस अर्थों में भी कृष्ण पूर्ण हैं, जो मैं कह रहा था। वे पूर्ण पुरुष हैं। उनके भीतर स्त्री का कोई तत्व ही नहीं है। या जैसे मीरा को मैं कहूंगा, वह पूरी स्त्री है। उसके भीतर पुरुष का कोई तत्व ही नहीं है। और जब भी कोई पूर्ण पुरुष होगा, तब एक अर्थ में अधूरा पड़ जाएगा, उसको पूरी स्त्री जरूरी है। अन्यथा वह अधूरा पड़ जाएगा। हां, अधूरा पुरुष जी सकता है बिना स्त्री के। उसके भीतर अपनी स्त्री भी है, जिससे काम चलता है। लेकिन कृष्ण जैसा पुरुष, अनिवार्य रूप से उसकी राधा उसके साथ खड़ी हो जाएगी। और उसे पूर्ण स्त्री चाहिए।
अब यह भी बड़े मजे की बात है कि पूर्ण स्त्री और पूर्ण पुरुष का थोड़ा अर्थ भी हम समझें। और भी उसके अर्थ हैं।
पुरुष की जो गहरी-से-गहरी गहराई है, वह आक्रामक है, "एग्रेसिव' है। स्त्री की गहरी-से-गहरी गहराई है, वह समर्पण की है, "सरेंडर' की है। कोई भी स्त्री पूरी स्त्री न होने से कभी पूरा समर्पण नहीं कर पाती। कोई भी पुरुष पूरा पुरुष न होने से कभी पूरा आक्रामक नहीं हो पाता। इसलिए दो अधूरे स्त्री और पुरुष जब मिलते हैं, तो निरंतर कलह और संघर्ष चलता है। चलेगा। क्योंकि स्त्री के भीतर कुछ है, जो आक्रामक भी है। वह आक्रमण भी करती है। कुछ है जो समर्पण भी है, वह समर्पण भी करती है। किसी क्षण में वह पुरुष के हाथ भी दाबती है, पैर भी दाबती है, उसके पैर पर सिर भी रखती है। और किसी क्षण में वह बिलकुल ही विकराल हो जाती है और पुरुष की गर्दन दबाने को उत्सुक हो जाती है। ये दोनों रूप उससे निकलते हैं। पुरुष किसी क्षण बड़ा आक्रामक होता है, बिलकुल दबा डालना चाहता है। और किसी क्षण वह बिलकुल दब्बू हो जाता है और स्त्री के पीछे घूमने लगता है। वे दोनों उसके भीतर हैं।
रुक्मिणी का कृष्ण के साथ बहुत गहरा मेल नहीं हो सकता, उसके भीतर पुरुष है। राधा पूरी डूब सकी, वह अकेली निपट स्त्री है, वह समर्पण पूरा हो गया। वह समर्पण पूरा हो सका। कृष्ण का किसी ऐसी स्त्री से बहुत गहरा मेल नहीं बन सकता जिसके भीतर थोड़ा भी पुरुष है। अगर कृष्ण के भीतर थोड़ी-सी स्त्री हो तो उससे मेल बन सकता था। लेकिन कृष्ण के भीतर स्त्री है ही नहीं। वह पूरे ही पुरुष हैं। पूरा समर्पण ही उनसे मिलन बन सकता है। इससे कम वह न मांगेंगे, इससे कम में काम न चलेगा। वह पूरा ही मांग लेंगे। हालांकि पूरा मांगने का मतलब यह नहीं है कि वह कुछ न देंगे, पूरा मांगकर वह पूरा ही दे देंगे। इसलिए हुआ ऐसा पीछे कि रुक्मिणी छूट गई, जिसका उल्लेख था शास्त्रों में, जो दावेदार थी। और भी दावेदार थीं, वे छूटती चली गईं। और जो बिलकुल गैर-दावेदार था, जिसका कोई दावा ही नहीं था, जिसे कृष्ण अपनी है ऐसा भी नहीं कह सकते थे--राधा तो पराई थी, रुक्मिणी अपनी थी। रुक्मिणी से संबंध संस्थागत था, विवाह का था। राधा से संबंध प्रेम का था, संस्थागत नहीं था--जिसके ऊपर कोई दावा नहीं किया जा सकता था, जिसके पक्ष में कोई "कोर्ट' निर्णय न देती कि यह तुम्हारी है, आखिर में ऐसा हुआ कि वे जो अदालत से जिनके लिए दावा मिल सकता था, जो कृष्ण से "मेंटिनेंस' मांग सकती थीं, वे खो गईं, और यह स्त्री धीरे-धीरे प्रगाढ़ होती चली गई, और वक्त आया कि रुक्मिणी भूल गई, और कृष्ण के साथ राधा का नाम ही रह गया।
और मजे की बात है कि राधा ने सब छोड़ा कृष्ण के लिए, लेकिन नाम पीछे न जुड़ा, नाम आगे जुड़ गया। कृष्ण-राधा कोई नहीं कहता, राधा-कृष्ण हम कहते हैं, जो सब समर्पण करता है, वह सब पा लेता है। जो बिलकुल पीछे खड़ा हो जाता है, वह बिलकुल आगे हो जाता है।
नहीं, राधा के बिना कृष्ण को हम न सोच पाएंगे। राधा उनकी सारी कमनीयता है। राधा उनका सारा-का-सारा जो भी नाजुक है, वह सब है, जो "डेलीकेट' है, वह है। राधा उनके गीत भी, उनके नृत्य का घुंघरू भी, राधा उनके भीतर जो भी स्त्रैण है वह सब है। क्योंकि कृष्ण निपट पुरुष हैं, और इसलिए अकेले कृष्ण का नाम लेना अर्थपूर्ण नहीं है। इसलिए वह इकट्ठे हो गए, राधाकृष्ण हो गए। राधाकृष्ण होकर इस जीवन के दोनों विरोध इकट्ठे मिल गए हैं। इसलिए भी मैं कहता हूं कि यह भी कृष्ण की पूर्णताओं की एक पूर्णता है।
महावीर को किसी स्त्री के साथ खड़ा करके नहीं सोचा जा सकता। स्त्री असंगत है। महावीर का व्यक्तित्व स्त्री के बिना है। महावीर की शादी हुई, विवाह हुआ, बच्ची हुई; लेकिन महावीर का एक पंथ दिगंबरों का मानता है कि नहीं, उनका विवाह नहीं हुआ, न उनकी कोई बच्ची हुई। मैं मानता हूं कि शायद ऐतिहासिक तथ्य यही है कि उनका विवाह हुआ हो, बच्ची हुई हो, लेकिन मनोवैज्ञानिक तथ्य दिगंबर जो कहते हैं वही ठीक है कि महावीर जैसे आदमी के साथ स्त्री को जोड़ना ही बेमानी है। हुआ भी हो तो नहीं माना जा सकता। महावीर कैसे किसी स्त्री को प्रेम करेंगे। असंभव। महावीर के पूरे व्यक्तित्व में कहीं कोई वह छाया भी नहीं है। बुद्ध के साथ स्त्री थी, लेकिन छोड़कर चले गए। क्राइस्ट के साथ भी स्त्री को जोड़ना मुश्किल है। वे निपट क्वांरे हैं। "बैचलर' होने में उनकी अर्थवत्ता है। इस अर्थ में भी वह सब अधूरे हैं। इस जगत की व्यवस्था में जैसे धन विद्युत अधूरी है ऋण विद्युत के बिना, जैसे विधेय अधूरा है निषेध के बिना, ऐसे स्त्री और पुरुष का एक परम मिलन भी है। स्त्री और पुरुष का न कहें, स्त्रैणता और पौरुषता का; आक्रामकता का और समर्पण का; जीतने का और हारने का।
अगर हम कृष्ण और राधा के लिए कोई प्रतीक खोजने निकलें, तो सारी पृथ्वी पर चीन भर में एक प्रतीक है जिसे वह "यिन' और "यांग' कहते हैं। बस एक प्रतीक है, चीनी भाषा में, क्योंकि चीनी भाषा तो "पिक्टोरियल' है, चित्रों की है, उसके पास एक प्रतीक है, जिसे वे जगत का प्रतीक कहते हैं। उसमें एक गोल वर्तुल है और वर्तुल में दो मछलियां एक-दूसरे को मिलती हुई--आधा सफेद, आधा काला। काली मछली में सफेद गोल एक घेरा, सफेद मछली में काला एक घेरा और पूर्ण एक वर्तुल। दो मछलियां पूरी तरह मिलकर एक गोल घेरा बना रही हैं। एक मछली की पूंछ दूसरे के मुंह से मिल रही है, दूसरी मछली का मुंह पहली की पूंछ से मिल रहा है। और दोनों मछलियां मिलकर पूरा गोल घेरा बन गई हैं। "यिन एंड यांग'। एक का नाम "यिन', एक का नाम "यांग' है। एक ऋण, एक धन। वे दोनों मिलकर इस जगत का पूरा वर्तुल हैं।
राधा और कृष्ण पूरा वर्तुल हैं। इस अर्थ में भी वे पूर्ण हैं। अधूरा नहीं सोचा जा सकता कृष्ण को। अलग नहीं सोचा जा सकता। अलग सोचकर वे एकदम खाली हो जाते हैं। सब रंग खो जाते हैं। पृष्ठभूमि खो जाती है, जिससे वे उभरते हैं। जैसे हम रात के तारों को नहीं सोच सकते रात के अंधेरे के बिना। अमावस में तारे बहुत उज्जवल होकर दिखाई पड़ने लगते हैं, बहुत शुभ्र हो जाते हैं, बहुत चमकदार हो जाते हैं। दिन में भी तारे तो होते हैं, आप यह मत सोचना कि दिन में तारे खो जाते हैं। खोएंगे भी बेचारे तो कहां खोएंगे! दिन में भी तारे होते हैं--आकाश तारों से भरा है अभी भी--लेकिन सूरज की रोशनी में तारे दिखाई नहीं पड़ सकते। अगर आप किसी गहरे कुएं में चले जाएं, तो दोत्तीन सौ फीट गहरा कुआं हो तो आपको उस गहरे कुएं से तारे दिन में भी दिखाई पड़ सकते हैं। क्योंकि बीच में अंधेरे की पर्त आ जाती है; फिर तारे दिखाई पड़ सकते हैं। रात में तारे आते नहीं सिर्फ दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि अंधेरे की चादर फैल जाती है। और अंधेरे की चादर में तारे चमकने लगते हैं।
कृष्ण का सारा व्यक्तित्व चमकता है राधा की चादर पर। चारों तरफ से राधा की चादर उन्हें घेरे है। वह उसमें ही पूरे-के-पूरे खिल उठते हैं। कृष्ण अगर फूल हैं तो राधा जड़ है। वह पूरा-का-पूरा इकट्ठा है। इसलिए उनको अलग नहीं कर सकते। वह युगल पूरा है। इसलिए राधाकृष्ण पूरा नाम है, कृष्ण अधूरा नाम है।
ओशो रजनीश
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