श्री कृष्ण स्मृति भाग 6

 "भगवान श्री, चर्चा को आगे बढ़ाने के पहले पीछे का एक "प्वाइंट' छूट गया था जो स्पष्ट कर लूं। बुद्ध की दुख की धारणा जीवन का तथ्य है और तथ्य को सामने रखने में क्या गलती है? जैसा सामान्य जीवन अभी है, क्या उसमें दुख नहीं है?'


दुख जीवन का तथ्य है; लेकिन दुख ही जीवन का तथ्य नहीं है, सुख भी जीवन का तथ्य है। और जितना बड़ा तथ्य दुख है, उससे छोटा तथ्य सुख नहीं है और जब हम दुख को ही तथ्य मानकर बैठ जाते हैं तो अतथ्य हो जाता है। "फिक्शन' हो जाता है, क्योंकि सुख कहां छोड़ दिया। अगर जीवन में दुख ही होता तो बुद्ध को किसी को समझाने की जरूरत न पड़ती। और बुद्ध इतना समझाते हैं लोगों को, फिर भी कोई भाग तो जाता नहीं। हम भी दुख में रहते हैं, लेकिन फिर भी भाग नहीं जाते। दुख से भिन्न भी कुछ होना चाहिए जो अटका लेता है, जो रोक लेता है। किसी को प्रेम करने में अगर सुख न हो, तो इतने दुख को झेलने को कौन राजी होगा। और कण भर सुख के लिए पहाड़ भर अगर आदमी दुख झेल लेता है, तो मानना होगा कि कण भर सुख की तीव्रता पहाड़ भर दुख से ज्यादा होगी। सुख भी सत्य है।

समस्त त्यागवादी सिर्फ दुख पर जोर देते हैं, इसलिए वह असत्य हो जाता है। समस्त भोगवादी सुख पर जोर देते हैं, इसलिए वह असत्य हो जाता है। भौतिकवादी सुख पर जोर देते हैं इसलिए वह असत्य हो जाता है, क्योंकि वे कहते हैं, दुख है ही नहीं। वे कहते हैं, दुख है ही नहीं, सुख ही सत्य है। तब ध्यान रहे, आधे सत्य असत्य हो जाते हैं। सत्य होगा तो पूरा ही होगा, आधा नहीं हो सकता। कोई कहे जन्म ही है, तो असत्य हो जाता है। क्योंकि जन्म के साथ मृत्यु है। कोई कहे, मृत्यु ही है, तो असत्य हो जाता है, क्योंकि मृत्यु के साथ जन्म है।

जीवन दुख है, ऐसा अगर अकेला ही प्रचारित हो, तो यह अतथ्य हो जाता है। हां लेकिन, जीवन सुख-दुख है, ऐसा तथ्य है। और अगर इसे और गौर से देखें, तो हर सुख के साथ दुख जुड़ा है, हर दुख के साथ सुख जुड़ा है। अगर इसे और गहरे देखें तो पता लगाना मुश्किल हो जाएगा कि दुख कब सुख हो जाता है, सुख कब दुख हो जाता है। "ट्रांसफरेबल' है, "कन्वर्टिबल' भी है। एक दूसरे में बदलते भी चले जाते हैं। रोज यह होता है। असल में "एम्फेसिस' का ही शायद फर्क है। जो चीज आज मुझे सुख मालूम पड़ती है, कल दुख मालूम पड़ने लगती है। जो कल मुझे सुख मालूम पड़ती थी, आज दुख मालूम पड़ने लगती है। अभी मैं आपको गले लगा लूं, सुख मालूम पड़ता है। फिर मिनट-दो मिनट न छोडूं, दुख शुरू हो जाता है। आधा घड़ी न छोडूं तो आसपास देखते हैं कि कोई पुलिसवाला उपलब्ध होगा कि नहीं होगा। अब यह कैसे होगा छूटना? इसलिए जो जानते हैं, वे आपके छूटने के पहले छोड़ देते हैं। जो नहीं जानते, वे अपने सुख को दुख बना लेते हैं और कोई कठिनाई नहीं है। हाथ लिया हाथ में नहीं कि छोड़ना शुरू कर देना, अन्यथा बहुत जल्दी दुख शुरू हो जाएगा। हम सभी अपने सुख को दुख बना लेते हैं। सुख को हम छोड़ना नहीं चाहते, तो जोर से पकड़ते हैं, जोर से पकड़ते हैं तो दुख हो जाता है। फिर जिसको इतने जोर से पकड़ा फिर उसको छोड़ने में भी मुश्किल हो जाती है।

दुख को हम एकदम छोड़ना चाहते हैं। छोड़ना चाहते हैं, इसलिए दुख गहरा हो जाता है। पकड़े रहें, दुख को भी तो थोड़ी देर में पाएंगे सुख हो गया। दुख का मतलब है कि शायद हम अपरिचित हैं, थोड़ी देर में परिचित हो जाएंगे। सुख का भी मतलब है, शायद हम अपरिचित हैं, और थोड़ी देर में परिचित हो जाएंगे। और परिचय सब बदल देगा।

मैंने सुना है एक आदमी के बाबत, वह एक नए गांव में गया। किसी आदमी से उसने रुपये उधार मांगे। उस आदमी ने कहा, अजीब हैं आप भी! मैं आपको बिलकुल नहीं जानता और आप रुपये मांगते हैं। उस आदमी ने कहा, मैं अजीब हूं कि तुम! मैं अपना गांव इसलिए छोड़कर आया, क्योंकि वहां लोग कहते हैं, हम तुम्हें भली भांति जानते हैं, कैसे उधार दें? और तुम इस गांव में कहते हो कि जानते नहीं हैं, इसलिए न देंगे। तो जब भलीभांति जान लोगे तब दोगे? लेकिन पुराने गांव में सब लोग भलीभांति जानते थे। और वहां इसलिए नहीं देते थे। अब मैं कहां जाऊं? ऐसा भी कोई गांव है, जहां मुझे भी रुपये उधार मिल सकें?

हम सब भी, हम जो तोड़कर देखते हैं उससे कठिनाई शुरू होती है। नहीं, ऐसा कोई गांव नहीं है। सब गांव एक जैसे हैं।

ऐसी कोई जगह नहीं है जहां सुख-ही-सुख है। ऐसी कोई जगह नहीं है जहां दुख-ही-दुख है। इसलिए स्वर्ग और नर्क सिर्फ कल्पनाएं हैं। वह हमारी इसी कल्पना की दौड़ है। एक जगह हमने दुख-ही-दुख इकट्ठा कर दिया है, एक जगह हमने सुख-ही-सुख इकट्ठा कर दिया है। नहीं, जिंदगी जहां भी है वहां सुख भी है, दुख भी है। नर्क में भी विश्राम के सुख होंगे और स्वर्ग में भी थक जाने से दुख होंगे।

बर्ट्रंड रसल ने कहीं एक बात कही है कि मैं स्वर्ग न जाना चाहूंगा, क्योंकि जहां सुख-ही-सुख होगा, वहां सुख कैसे मालूम पड़ेगा? जहां कोई बीमार ही न पड़ता होगा, वहां स्वास्थ्य का पता चलेगा? नहीं पता चलेगा। और जहां भी चाहिए वह मिल जाता होगा, वहां मिलने का सुख होगा? मिलने का सुख न मिलने की लंबाई से आता है। इसलिए तो जो चीज मिल जाती है, समाप्त हो जाती है। प्रतीक्षा में ही सब सुख होता है। जब तक नहीं मिलता, नहीं मिलता, सुख-ही-सुख होता है। मिला कि हाथ एकदम खाली हो जाते हैं। हम फिर पूछने लगते हैं, अब किस के लिए दुखी हों? अर्थात अब हम किसके लिए सुख मानें प्रतीक्षा में? अब हम किसकी प्रतीक्षा करें? अब हम क्या पाने की राह देखें, जिसमें सुख मिले?

रथ चाइल्ड नाम का एक बहुत बड़ा अरबपति मर रहा था। एक कहानी उसके बाबत प्रचलित है, पता नहीं सच है या झूठ। उसने अपने बेटे से कहा कि तूने देख ही लिया होगा मेरी जिंदगी से कि अरबों रुपये हों, तब भी सुख नहीं मिलता। धन सुख नहीं है, संपत्ति सुख नहीं है। उसके बेटे ने कहा, देख लिया आपकी जिंदगी से, लेकिन एक बात भी देखी कि धन पास में हो तो अपने मन का दुख चुना जा सकता है। उस बेटे ने कहा, धन पास हो, तो "यू कैन हैव योर ओन च्वाइस आफ सफरिंग। एण्ड दि च्वाइस इज ब्लिसफुल'। उसने कहा कि वह जो चुनाव है, वह बड़ा सुख का है। इतना मैं जानता हूं कि सुखी तो आप न थे, लेकिन जो भी दुख चाहते थे, चुन लेते थे। एक गरीब आदमी जो भी दुख चाहे, नहीं चुन सकता। गरीब और अमीर के दुख में बहुत फर्क नहीं होता, चुनाव में फर्क होता है। गरीब को उसी स्त्री के साथ दुख भोगना पड़ता है जो मिल गई। अमीर वे स्त्रियां चुन लेता है जिनके साथ दुख भोगना हो। लेकिन यह भी कोई कम सुख है।

जिनको हम सुख-दुख कहते हैं, बहुत गहरे में जाएंगे तो वे एक ही चीज के दो रूप हैं, एक ही चीज के दो हिस्से हैं, शायद एक ही चीज की घनताएं, "डेंसिटीज' हैं। फिर जो दुख मेरे लिए दुख है, वह आपके लिए सुख हो सकता है। मेरे पास अगर करोड़ रुपये हैं और अगर पचास लाख रुपये मैं खो दूं, तो मेरे पास पचास लाख रुपये बचेंगे लेकिन मैं दुखी हो जाऊंगा। और आपके पास अगर पचास लाख रुपये नहीं हैं और आपको पचास लाख मिल जाएं, तो हम दोनों की स्थिति एक होगी--मेरे पास भी पचास होंगे और मैं रोऊंगा छाती पीटकर, आपके पास भी पचास होंगे और आप नाचेंगे छाती पीटकर। हम दोनों की स्थिति एक होगी। पचास मेरे पास भी होंगे, लेकिन मैंने पचास खोए हैं। और पचास आपके पास भी होंगे, लेकिन आपने पचास पाए हैं। लेकिन ध्यान रहे, आप कितनी देर तक छाती पीटकर नाचेंगे, क्योंकि जिसके पचास लाख हो जाते हैं उसके पास पचास लाख खोने की संभावना हो जाती है। और मैं कितनी देर रोऊंगा पचास लाख खो गए उनके लिए? क्योंकि जो पचास लाख खोता है वह फिर पचास लाख पैदा करने में लग जाता है, खोजने में लग जाता है।

नहीं, न तो मेरा सुख आपका सुख बन सकता, न मेरा दुख आपका दुख बन सकता और न ही मेरा आज का दुख मेरा कल का सुख बन सकता। न ही मेरा अभी जो सुख है वह क्षण भर बाद भी सुख होगा यह मैं कह सकता। सुख और दुख आकाश में आ गई बदलियों जैसे हैं--आते हैं, जाते हैं--लेकिन दोनों ही सत्य हैं। दोनों ही सत्य हैं, यह भी कहना पड़ता है क्योंकि हमारी सारी भाषा दो को मानकर चलती है। एक ही सत्य है, जो कभी सुख जैसा दिखाई पड़ता है, कभी दुख जैसा दिखाई पड़ता है। सुख और दुख हमारे "इंटरप्रेटेशंस' हैं। सुख और दुख हमारी व्याख्याएं हैं। हम किस चीज की व्याख्या करते हैं, इस पर सब कुछ निर्भर करता है। हम क्या व्याख्या करते हैं? सुख और दुख स्थितियां कम, व्याख्याएं ज्यादा हैं और व्याख्याएं हजारों चीजों पर निर्भर होती हैं, वह हम पर निर्भर होती हैं हजार चीजें।

लेकिन दोनों ही एक साथ सत्य हैं अगर यह स्मरण में आ जाए, तो फिर बुद्ध का सत्य अधूरा मालूम पड़ेगा, "एम्फेटिक' मालूम पड़ेगा। हालांकि कारगर होगा। बुद्ध को शिष्य मिल जाएंगे, करोड़ों, कृष्ण को नहीं मिल सकेंगे। चार्वाक को अनुयायी मिल जाएंगे, अरबों, कृष्ण को नहीं मिल सकेंगे। दोनों चुनाव करते हैं, और एक अति का चुनाव करते हैं, और साफ कह देते हैं कि चीजें ऐसी हैं। और जब हमें चीजें वैसी दिखाई पड़ती हैं तो हम कहते हैं कि बिलकुल ठीक कहते हैं। तुम्हें भी बुद्ध हर हालत में ठीक दिखाई न पड़ेंगे। तुम्हें भी उस हालत में दिखाई पड़ेंगे जब तुम दुख में हो। अगर तुम दुख में नहीं हो तो बुद्ध ठीक दिखाई मालूम नहीं पड़ेंगे। सुखी आदमी बुद्ध की उपेक्षा कर जाएगा; जो अभी सुखी अपने को समझ रहा है। दुखी होते ही से बुद्ध के वचन सार्थक होने शुरू हो जाएंगे। इसमें बुद्ध सार्थक हो रहे हैं कि आप बुद्ध के वचन के निकट आ रहे हैं।

लेकिन कृष्ण हमेशा बेबूझ रहेंगे, आप चाहे दुख में हों तो बेबूझ रहेंगे, आप चाहे सुख में हों तो भी बेबूझ रहेंगे। कृष्ण तो आप दोनों में एक साथ, एक जैसे राजी हो जाएं, तब आपकी सूझ-बूझ में आना शुरू होंगे। जिस दिन आप कह सकें कि दुख है तो भी राजी, सुख है तो भी राजी; और जिस दिन आप कह सकें कि दुख है, यह भी आने वाला सुख है, सुख है और यह भी आने वाला दुख है; और जिस दिन आप कह सकें कि हम इन दोनों को अलग नाम ही नहीं देते, अब हमने नाम देना ही बंद कर दिया है, अब जो आ जाता है, आ जाता है, अब हम व्याख्या ही नहीं करते, उस दिन आप कहां होंगे? उस दिन आप आनंद में होंगे। उस दिन आप सुख में भी नहीं होंगे, दुख में भी नहीं होंगे--आपने व्याख्याएं बंद कर दी हैं। जिस आदमी ने व्याख्याएं बंद कर दी हैं घटनाओं की, वह आदमी आनंद में प्रविष्ट हो जाता है। और जो आनंद में है वह कृष्ण को समझ सकेगा। वही समझ सकेगा।

आनंद का मतलब यह नहीं है कि अब दुख नहीं आएंगे। आनंद का मतलब यह है कि अब आप ऐसी व्याख्या नहीं करेंगे जो उन्हें दुख बना दे। आनंद का यह मतलब नहीं है कि अब सुख-ही-सुख आए चले जाएंगे, नहीं, आनंद का इतना ही मतलब है कि अब आप वे व्याख्याएं छोड़ देंगे जो उन्हें सुख बनाती थीं, या, सुख की सतत मांग करवाती थीं। अब चीजें जैसी होंगी होंगी--धूप धूप होगी, छाया छाया होगी। कभी धूप होगी, कभी छाया होगी। और अब आप उनसे प्रभावित होना बंद हो जाएंगे, क्योंकि अब आप जानते हैं चीजें आती हैं, चीजें चली जाती हैं। और आप पर सब आता है और सब चला जाता है, फिर भी आप आप ही रह जाते हैं। और यह जो रह जाना है, यह जो "रिमेनिंग', यह जो पीछे आपकी चेतना है, यही कृष्ण-चेतना है। जो "कृष्ण-कांशसनेस' कहें, वह यह घड़ी है जब सुख और दुख आते हैं और जाते हैं और आप देखते रहते हैं; आप कहते हैं, सुख आया, सुख गया, और यह भी दूसरों की व्याख्या है, मेरी नहीं। यह भी दूसरे इसको सुख कहते हैं, जो आया; और दूसरे इसको दुख कहते हैं, जो आया; यह भी मेरी व्याख्या नहीं है। ऐसा हो रहा है, मुझसे गुजर रहा है। तब आप आनंदित होंगे।

कृष्ण के लिए जो सार्थक है जीवन का शब्द, वह आनंद है। दुख और सुख दोनों सार्थक नहीं हैं। वह आनंद को ही बांटकर पैदा किए गए हैं। जिस आनंद को आप स्वीकार करते हैं उसे सुख कहते हैं और जिस आनंद को स्वीकार नहीं करते उसको दुख कहते हैं। वह आनंद को दो हिस्सों में बांटकर पैदा की गई व्याख्या है। इसलिए जब तक आप उस आनंद को स्वीकार करते हैं, वह सुख है; और जब स्वीकार नहीं करते हैं, वह दुख हो जाता है। आनंद सत्य है, पूर्ण सत्य है। इसलिए आनंद से उलटा कोई शब्द नहीं है। सुख का उलटा दुख है। प्रेम का उलटा घृणा है। बंधन का उलटा मुक्ति है। आनंद का कोई उलटा शब्द नहीं है। आनंद से उलटी कोई अवस्था ही नहीं है। आनंद से उलटी भी अगर कोई अवस्था है तो यह सुख-दुख की ही कह सकते हैं, और कोई उलटी अवस्था नहीं है। इसलिए स्वर्ग के खिलाफ नर्क है, लेकिन मोक्ष के खिलाफ कुछ भी नहीं है। क्योंकि मोक्ष आनंद की अवस्था है। उसके खिलाफ कोई जगह बनाने का उपाय नहीं है। मोक्ष का मतलब ही यही है कि अब सुख-दुख दोनों के लिए एक-सा राजीपन आ गया, एक-सी स्वीकृति का भाव आ गया।

अब तुम आगे बढ़ो नहीं तो मुश्किल में पड़ेंगे।

ओशो रजनीश



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