श्री कृष्ण स्मृति भाग 30

 "भगवान श्री, विवाह के संबंध में आपने अभी-अभी जो चर्चा की, उसे ध्यान में रख यह भी दर्शाने की कृपा करें कि जिस दिन हम प्रेम का आधार बनाएंगे, उस दिन बच्चों का क्या होगा? वे किसके कहलाएंगे? और, क्या ये "सोशल प्रॉब्लम' नहीं बन जाएंगे?'


बहुत-सी कठिनाइयां दिखाई पड़ेंगी। लेकिन वे कठिनाइयां इसलिए दिखाई पड़ती हैं कि हम पुरानी धारणाओं को आधार बनाकर ही सोचते हैं। जैसे, सच तो यह है कि जिस दिन हम प्रेम को परम मूल्य दे सकें, उस दिन बच्चे व्यक्तियों के हैं, ऐसा मानने की बात ही बेमानी है। बच्चे हैं भी नहीं व्यक्तियों के। सदा थे भी नहीं। एक युग था जब पिता का तो कोई पता नहीं चलता था, मां का ही पता होता था। मातृसत्ता का युग था। इसलिए जानकर आपको हैरानी होगी कि पिता शब्द बहुत पुराना नहीं है। काका, "अंकल' शब्द ज्यादा पुराना है। मां बहुत पुराना शब्द है और पिता बहुत नया शब्द है। पिता तो आया तब, जब हमने विवाह की व्यक्तिगत व्यवस्था सुनिश्चित कर दी, अन्यथा पिता का तो कोई पता न चलता था। कबीले के सभी लोग पितातुल्य थे। मां का पता चलता था। पूरा कबीला बच्चों के प्रति प्रेमपूर्ण भाव रखता था। और बच्चे चूंकि किसी के भी नहीं थे, इसलिए सभी के थे। किसी के हैं, इससे फायदा पहुंचा है, ऐसा नहीं है। बच्चे सभी के होंगे, फायदा और बड़ा पहुंच सकता है।

जिस दिन हम प्रेम को आधार बनाएंगे, उस दिन बच्चों का क्या होगा? सवाल उठता है, क्या वह "सोशल प्रॉब्लम' बन जाएंगे? नहीं, अभी बच्चे सामाजिक समस्या हैं, क्योंकि अभी हमने बच्चों को व्यक्तियों के ऊपर छोड़ दिया है। और फिर भविष्य में जो नित-नवीन बहुत कुछ संभव होता जा रहा है, उसे देखते हुए समझ लेना चाहिए कि हमने जो पीछे आधार बनाए थे वे कोई टिकने वाले नहीं हैं।

जैसे, पुरानी दुनिया में बच्चों के पैदा होने के लिए कम-से-कम बाप का जिंदा होना तो जरूरी था। भविष्य में नहीं रहेगा। आज भी नहीं है। अगर मैं मर जाऊं तो भी मेरे वीर्यकण संरक्षित रखे जा सकते हैं हजार साल तक, दस हजार साल तक। मैं तो नहीं रहूंगा, मेरा बच्चा दस हजार साल बाद पैदा हो सकता है। मां अब तक अनिवार्य रही है, लेकिन भविष्य में अनिवार्य नहीं रह जाएगी। जिस दिन भी हम व्यवस्था, खोज ही लिए हैं करीब-करीब, उस दिन हम मां को नौ महीने पेट में बच्चे को ढोने का व्यर्थ बोझ नहीं देंगे। उस दिन बच्चे को हम, जो मां के पेट में सुविधा उपलब्ध हो सकती है वह यंत्र में भी सुविधा उपलब्ध हो सकती है और ज्यादा व्यवस्थित उपलब्ध है। उस दिन तो कौन मां है, कौन पिता है, कहना मुश्किल हो जाएगा। हमें पूरा ढांचा बदलना पड़ेगा। पूरी समाज की स्त्रियां मां हैं और पूरे समाज के पुरुष पिता हैं। और उन बच्चों को सबका होकर बड़ा होना पड़ेगा। निश्चित ही सब बदलेगा।

जो मैं कह रहा हूं, वह वैज्ञानिक ढंग से भी जो काम दुनिया में चल रहा है, उसकी वजह से भी जरूरी हो जाएगा। अभी हमें खयाल में नहीं आता, क्योंकि हम पुराने ढंग से सोचते चले जाते हैं। आपके घर बच्चा पैदा होता है, तो आप डाक्टर की दवाई लाते हैं, सबसे अच्छे डाक्टर की। आप यह नहीं सोचते कि मैं इसका पिता हूं तो मैं खुद ही दवाइयां बनाकर इसको पिला दूं। आप कपड़ा बनवाते हैं, सबसे अच्छे दर्जी से, यह नहीं सोचते कि मैं इसका पिता हूं तो मैं ही कपड़ा बनाकर पहनाऊं। अगर समझ थोड़ी और गहरी बढ़ेगी तो आप यह भी न चाहेंगे कि आपका बच्चा आपके वीर्यकण से ही पैदा हो, अगर इससे अच्छा वीर्यकण समाज में उपलब्ध हो सकता है। अच्छा है कि आपका बच्चा लंगड़ा-लूला पैदा न हो, अच्छा है कम बुद्धि का पैदा न हो। अच्छा है कि श्रेष्ठतम बीज उसे उपलब्ध हो सके। मां भी न चाहेगी कि मां होने के लिए वह नौ महीने बच्चे को पेट में घसीटे, जब कि उससे बेहतर सुविधाएं उपलब्ध हो गई हैं, बच्चा ज्यादा स्वस्थ पैदा हो सकता हो, ज्यादा बुद्धिमान पैदा हो सकता हो। तो मां और पिता का अब तक जो "फंक्शन' रहा है, वह भविष्य में रहने वाला नहीं है। और जिस दिन मां और पिता का "फंक्शन' विदा हो जाएगा, उस दिन आपके विवाह का क्या वजूद रह जाता है, विवाह का क्या आधार रह जाता है। उसका कोई मतलब नहीं रह जाता। उस दिन प्रेम ही आधार रह जाता है। टेक्नॉलॉजी भी मनुष्य को उस जगह ला रही है, मनुष्य के मन की समझ भी उस जगह ला रही है, जहां व्यक्तिगत दावेदारी समाप्त हो जाती है।

इसका यह मतलब नहीं है कि सारी समस्याएं समाप्त हो जाती हैं। हर नए प्रयोग के साथ नई समस्याएं होती हैं। बड़ा सवाल यह नहीं है कि समस्याएं रोज बेहतर होती जाएं। कल की समस्याओं से आज की समस्याएं बेहतर हों। ऐसा नहीं है कि हम विवाह को हटा देंगे तो मनुष्य और मनुष्य के बीच के सारे संघर्ष विदा हो जाएंगे। नहीं लेकिन वे संघर्ष विदा हो जाएंगे जो विवाह के कारण ही पैदा होते हैं और वे काफी बड़ी मात्रा में हैं। कुछ नई बातें पैदा होंगी, कुछ नई समस्याएं पैदा होंगी। पृथ्वी पर रहने के लिए समस्याएं जरूरी हैं। उनको हम हल करेंगे, उन्हीं में हमारा विकास है। उनसे हम लड़ेंगे और आगे बढ़ेंगे।

एक बात जरूर ध्यान में ले लेने जैसी है, और कठिनाई उसी से आती है। कठिनाई इससे आती है कि जिस ढांचे में हम रहने के आदी हो गए हैं, उस ढांचे की समस्याओं को भी हम सहने के आदी हो गए हैं। अगर उससे बेहतर व्यवस्था भी मिल सकती हो, तो उस बेहतर व्यवस्था के साथ नई समस्याएं मिलेंगी जिनके हम आदी नहीं हैं। और उससे कठिनाई होती है। लेकिन बुद्धि का काम यही है कि वह उन समस्याओं को समझे,  हल करे,  और सोचे कि पुरानी समस्याओं से अगर बेहतर समस्याएं मिलती हों, तो हम परिवर्तन करें। ऐसा मेरा मानना यह है कि मनुष्य के जीवन में जब तक प्रेम का फूल पूरी तरह न खिले, तब तक उसके व्यक्तित्व में रौनक, तब तक उसके व्यक्तित्व में जिसको हम कहें नमक, वह नहीं उत्पन्न होता। उसका जीवन फीका-फीका हो जाता है। और मैं मानता हूं कि फीके व्यक्तित्व के बजाय समस्याओं से भरे हुए तेज और चमकदार व्यक्तित्व का मूल्य है। एक छोटी-सी कहानी, 

मैंने सुना है कि एक बगीचे में एक छोटा-सा फूल--घास का फूल--दीवाल की ओट में ईंटों में दबा हुआ जीता था। तूफान आते थे, उस पर चोट नहीं हो पाती थी। ईंटों की आड़ थी। सूरज निकलता था, उस फूल को नहीं सता पाता था, उस पर ईंटों की आड़ थी। बरसा होती थी, बरसा उसे गिरा नहीं पाती थी, क्योंकि वह जमीन पर पहले ही से लगा हुआ था। पास में ही उसके गुलाब के फूल थे।

एक रात उस घास के फूल ने परमात्मा से प्रार्थना की कि मैं कब तक घास का फूल बना रहूंगा। अगर तेरी जरा भी मुझ पर कृपा है तो मुझे गुलाब का फूल बना दे। परमात्मा ने उसे बहुत समझाया कि तू इस झंझट में मत पड़, गुलाब के फूल की बड़ी तकलीफें हैं। जब तूफान आते हैं, तब गुलाब की जड़ें भी उखड़ी-उखड़ी हो जाती हैं। और जब गुलाब में फूल खिलता है, तो खिल भी नहीं पाता है कि कोई तोड़ लेता है। और जब बरसा आती है तो गुलाब की पंखुड़ियां बिखर कर जमीन पर गिर जाती है। तू इस झंझट में मत पड़, तू बड़ा सुरक्षित है। उस घास के फूल ने कहा कि बहुत दिन सुरक्षा में रह लिया, अब मुझे कुछ झंझट लेने का मन होता है। आप तो मुझे बस गुलाब का फूल बना दें। सिर्फ एक दिन के लिए सही, चौबीस घंटे के लिए सही। पास-पड़ोस के घास के फूलों ने समझाया, इस पागलपन में मत पड़, हमने सुनी हैं कहानियां कि पहले भी हमारे कुछ पूर्वज इस पागलपन में पड़ चुके हैं, फिर बड़ी मुसीबत आती है। हमारा जातिगत अनुभव यह कहता है कि हम जहां हैं, बड़े मजे में हैं। पर उसने कहा कि मैं कभी सूरज से बात नहीं कर पाता, मैं कभी तूफानों से लड़ नहीं पाता, मैं कभी बरसा को झेल नहीं पाता। उन पास के फूलों ने कहा, पागल, जरूरत क्या है? हम ईंट की आड़ में आराम से जीते हैं। न धूप हमें सताती, न बरसा हमें सताती, न तूफान हमें छू सकता।

लेकिन वह नहीं माना और परमात्मा ने उसे वरदान दे दिया और वह सुबह गुलाब का फूल हो गया। और सुबह से ही मुसीबतें शुरू हो गईं। जोर की आंधियां चलीं, प्राण का रोआं-रोआं उसका कांप गया, जड़ें उखड़ने लगीं। नीचे दबे हुए उसके जाति के फूल कहने लगे, देखा पागल को, अब मुसीबत में पड़ा। दोपहर होते-होते सूरज तेज हुआ। फूल तो खिले थे, लेकिन कुम्हलाने लगे। बरसा आई, पंखुड़ियां नीचे गिरने लगीं। फिर तो इतने जोर की बरसा आई कि सांझ होते-होते जड़ें उखड़ गईं और वह वृक्ष फूलों का पौधा जमीन पर गिर पड़ा। जब वह जमीन पर गिर पड़ा तब वह अपने फूलों के करीब आ गया। उन फूलों ने उससे कहा, पागल, हमने पहले ही कहा था। व्यर्थ अपनी जिंदगी गंवाई। मुश्किलें ले लीं नई अपने हाथ से। हमारी पुरानी सुविधा थी, माना कि पुरानी मुश्किलें थीं, लेकिन सब आदी था, परिचित था, साथ-साथ जीते थे, सब ठीक थे। उस मरते हुए गुलाब के फूल ने कहा, नासमझो, मैं तुमसे भी यही कहूंगा कि जिंदगी भर ईंट की आड़ में छिपे हुए एक घास का फूल होने से चौबीस घंटे के लिए गुलाब का फूल हो जाना बहुत आनंदपूर्ण है। मैंने अपनी आत्मा पा ली, मैं तूफानों से लड़ लिया, मैंने सूरज से मुलाकात ले ली, मैं हवाओं से जूझ लिया, मैं ऐसे ही नहीं मर रहा हूं, मैं जीकर मर रहा हूं। तुम मरे हुए जी रहे हो।

निश्चित ही जिंदगी को अगर हमें जिंदा बनाना है, तो बहुत-सी जिंदा समस्याएं खड़ी हो जाएंगी। लेकिन होनी चाहिए। अगर हमें जिंदगी को मुर्दा बनाना है, तो हो सकता है हम सारी समस्याओं को खत्म कर दें, लेकिन तब आदमी मरा-मरा जीता है।

तो मैं मानता हूं कि नई समस्याएं तो होंगी ही, होनी ही चाहिए, और मनुष्य को इतना भरोसा और आत्मविश्वास होना चाहिए कि वह नई समस्याओं से जूझ सकेगा। कोई कारण नहीं है। अभी हमने जो व्यवस्था बनाई है, वह सारी-की-सारी व्यवस्था भय पर खड़ी है। सब तरह के भय, सब तरह के "फियर'। उसका उद्गम ही "फियर ओरियेंटेशन' है। वह उसी में से जन्मती है कि ऐसा हो जाएगा, ऐसा हो जाएगा, ऐसा हो जाएगा, इसका क्या होगा, उसका क्या होगा। यह सब भय सोचकर हम घर में रुके रह जाते हैं। और हम कभी यह नहीं सोचते कि हमको हो क्या रहा है? क्या होगा, इस डर से नया कदम नहीं उठाते और जो हो रहा है उसको देखते नहीं, क्योंकि उसे देखेंगे तो नया कदम उठाना पड़ेगा। और फिर पता नहीं क्या हो जाए। इसलिए जैसा है उसे हम बोझ की तरह ढोए चले जाते हैं।

मैंने शायद ही, इधर मुझे लाखों लोगों से मिलने का मौका आया है, बहुत निकट से उनकी आंखों में, उनके हृदय में झांकने का मौका आया, मैंने ऐसा पुरुष नहीं देखा जो विवाह से तृप्त हो। मैंने ऐसी स्त्री नहीं देखी जो विवाह में आनंदित हो। लेकिन अगर उनसे भी कहा जाए तो वे कहेंगे कि ये-ये समस्याएं उठ जाएंगी। लेकिन बड़ा मजा यह है कि तुम यहां समस्या के बिना जी रहे हो, वहां की समस्याओं का तुम्हें पता है, खयाल है; सिर्फ चौबीस घंटे उनमें गुजरते हो, इसलिए पता नहीं चलता। आदी हो गए हो। वह तो हम पिंजड़े के पंछी को भी अगर कहें कि खुले आकाश में उड़, तो वह कहेगा, बहुत दिक्कतें आएंगी, यहां सब सुरक्षा है। दिक्कतें आएंगी भी। और पिंजड़े के पंछी को और भी आ जाएंगी क्योंकि उसे खुले आकाश में उड़ने का अनुभव भी नहीं रहा है। लेकिन, माना कि पिंजड़े में बड़ी सुरक्षा है, लेकिन कहां खुले आकाश का आनंद, कहां पिंजड़े की सुरक्षा। तो कब्र में भी बहुत सुरक्षा है।

ओशो रजनीश



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