श्री कृष्ण स्मृति भाग 31
"स्वामी सहजानंद का आरोप है कि कृष्ण की रसिक-पद्धति से लोग तरे हैं कम, मरे हैं ज्यादा। उसके दो कारण हैं। एक तो कृष्ण की गोपी बनकर ही भक्ति करने की पद्धति, जैसे गुजरात में "महाराज लायबल केस' बना। और दूसरा जीवन को उत्सव मानने में मनुष्य की भोगवृत्ति को मिलता हुआ प्रोत्साहन।
दूसरा सवाल कि रामभक्त हनुमान में जो ब्रह्मचर्य, शौर्य, प्रेरणा और वैराग्य-विवेक के गुण मिलते हैं और उनमें जितनी प्रवृत्तिवादी "एक्टिविटी' है, उतनी कृष्णभक्त मीरा, नरसी और सूरदास में नहीं है। मतलब यह कि कृष्ण-पूजक अंतर्मुखी प्रवृत्ति के ज्यादा हैं और सामाजिक कार्य की दिशा में उनका योगदान नहीं-जैसा है। आपके विचार?
तीसरा सवाल कि कृष्ण, राम, महावीर तथा बुद्ध किसी को चित्रकारों ने और पुराणकारों ने दाढ़ी-मूंछ नहीं बतलाई, सिर्फ क्राइस्ट को है। इसका क्या मतलब है?'
पहली बात, जीवन एक काम है या उत्सव? अगर जीवन एक काम है, तो बोझ हो जाएगा। अगर जीवन एक काम है, तो कर्तव्य हो जाएगा। अगर जीवन एक काम है, तो हम उसे ढोएंगे और किसी तरह निपटा देंगे। कृष्ण जीवन को काम की तरह नहीं, उत्सव की तरह, एक "फेस्टिविटी' की तरह लेते हैं। महोत्सव है एक। जीवन एक आनंद का उत्सव है, काम नहीं है। ऐसा नहीं है कि उत्सव की तरह लेते हैं तो काम नहीं करते हैं। काम तो करते हैं। लेकिन काम उत्सव के रंग में रंग जाता है। काम नृत्य-संगीत में डूब जाता है। निश्चित ही, बहुत काम न हो पाएगा इस भांति, थोड़ा ही हो पाएगा। "क्वांटिटी' ज्यादा नहीं होगी, लेकिन "क्वालिटी' का कोई हिसाब नहीं है! परिणाम तो कम होगा, मात्रा कम होगी, लेकिन गुण बहुत गहरा हो जाएगा।
कभी आपने सोचा कि काम वाले लोगों ने, जो हर चीज को काम में बदल देते हैं, जिंदगी को कैसा तनाव से भर दिया है। जिंदगी की सारी "एंग्जाइटी', सारी चिंता, यह अति कामवादी लोगों की उपज है। वे कहते हैं, करो, एकदम करते रहो, करो या मरो। उनका नारा यह है--"डू ऑर डाय'। जिंदा हो तो करो कुछ, अन्यथा मरो। कोई एक काम करो। और उनके पास कोई और दृष्टि नहीं है, लेकिन किसलिए करो? आदमी करता किसलिए है? आदमी करता इसलिए है कि थोड़ी देर जी सके। और जीने का क्या मतलब होगा फिर? फिर जीने का मतलब उत्सव होगा। हम काम भी इसलिए कर सकते हैं कि किसी क्षण में हम नाच सकें। लेकिन काम इतने जोर से पकड़ लेता है कि फिर नाचने का तो मौका ही नहीं आता, गीत गाने का मौका ही नहीं आता; बांसुरी बजाने के लिए फुर्सत कहां रह जाती है, दफ्तर से घर हैं, घर से दफ्तर हैं; घर दफ्तर आ जाता है दिमाग में बैठकर, दिमाग में बैठकर दफ्तर घर पहुंच जाता है, सब गड्डमड्ड हो जाता है, सब उलझ जाता है; फिर जिंदगी भर दौड़ते रहते हैं इस आशा में कि किसी दिन वह क्षण आएगा, जिस दिन विश्राम करेंगे और आनंद ले लेंगे। वह क्षण कभी नहीं आता। वह आएगा ही नहीं। कामवृत्ति वाले आदमी को वह क्षण कभी नहीं आता है।
कृष्ण जीवन को देखते हैं उत्सव की तरह, महोत्सव की तरह, एक खेल की तरह, एक क्रीड़ा की तरह। जैसा कि फूल देखते हैं, जैसा कि पक्षी देखते हैं, जैसा कि आकाश के बादल देखते हैं, जैसा कि मनुष्य को छोड़कर सारा जगत देखता है। उत्सव की तरह। कोई पूछे इन फूलों से कि खिलते किसलिए हो, काम क्या है? बेकाम खिले हुए हो? तारों से कोई पूछे कि चमकते किसलिए हो? काम क्या है? पूछे कोई हवाओं से, बहती क्यों हो? काम क्या है?
मनुष्य को छोड़कर जगत में काम कहीं भी नहीं है। मनुष्य को छोड़कर जगत में महोत्सव है। उत्सव चल रहा है प्रतिपल। कृष्ण इस जगत के उत्सव को मनुष्य के जीवन में भी ले आते हैं। वे कहते हैं, मनुष्य का जीवन भी इस उत्सव के साथ एक हो जाए। ऐसा नहीं है कि उत्सव में काम नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि हवाएं नहीं दौड़ रही हैं। दौड़ रही हैं। ऐसा नहीं है कि चांदत्तारे नहीं चल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि फूलों को खिलने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता है, बहुत कुछ करना पड़ता है। लेकिन करना गौण हो जाता है, होना महत्वपूर्ण हो जाता है। "डूइंग' पीछे हो जाती है, "बीइंग' पहले हो जाता है। उत्सव पहले हो जाता है, काम पीछे हो जाता है। काम सिर्फ उत्सव की तैयारी होती है। दुनिया की सारी आदिम जातियों के पास अगर हम जाएं तो वह दिन भर काम करते हैं, ताकि रात नाच सकें; रात ढोल बजे और गीत हो। लेकिन सभ्य आदमी के पास जाएं तो वह दिन भर काम करता है, रात भर काम करता है। और उससे कोई पूछे कि वह काम किसलिए कर रहा है? तो वह कहता है, कल विश्राम कर सकें। विश्राम को "पोस्टपोन' करता है, काम को करता चला जाता है, फिर वह कल कभी नहीं आता। तो मैं कृष्ण के इस महोत्सववादी रुख से राजी हूं। फिर मेरा देखना यह है कि इतना काम करके भी आदमी ने कर क्या लिया? अगर काम करना अपने में ही लक्ष्य है, तब तो बात दूसरी है। लेकिन इतना काम करके हमने कर क्या लिया है?
सिसीफस की कहानी है कि देवताओं ने उसे श्राप दिया है कि वह एक पत्थर की चट्टान को पहाड़ पर चढ़ाकर ले जाए और जब वह "पीक' पर, चोटी पर पहुंचेगा तो पत्थर फिर खिसक कर नीचे चला जाएगा। सिसीफस फिर नीचे जाए, फिर पहाड़ तक खींचे तो वह फिर नीचे चला जाएगा। सिसीफस फिर नीचे जाएगा। वह सिसीफस नीचे से ऊपर तक खींचता है, बड़े काम में लगा रहता है, पहाड़ पर पहुंचता है, फिर पत्थर नीचे खिसक जाता है, फिर वह नीचे आता है, फिर वह पत्थर को ऊपर चढ़ाने लगाता है। काम वाले आदमी की जिंदगी सिसीफस की जिंदगी हो जाती है। चढ़ाता रहता है पत्थरों को, पत्थर गिरते रहते हैं, वह चढ़ाता रहता है। कभी चढ़ाने में लगा रहता है, कभी नीचे गए पत्थर को दौड़कर पकड़ने में लगा रहता है। लेकिन पूरी जिंदगी में वह क्षण नहीं आता जब विराम हो, विश्राम हो, उत्सव हो। वह हो नहीं सकता।
इन काम करने वाले लोगों ने सारी दुनिया को "मैड हाउस' बना दिया है, बिलकुल पागलखाना कर दिया है। और एक-एक आदमी पागल हो गया है। सब दौड़े जा रहे हैं कि कहीं पहुंचना है, यह मत पूछो...मैंने सुना है एक आदमी के बाबत कि वह तेजी से टैक्सी में सवार हुआ और उसने कहा, जल्दी चलो। टैक्सी वाले ने जल्दी टैक्सी चला दी। थोड़ी देर बाद उसने पूछा, लेकिन चलना कहां है? उसने कहा, यह सवाल नहीं है, सवाल जल्दी चलने का है।
हम सब जिंदगी में ऐसे ही सवार हैं। जल्दी चलो। कहां जा रहे हैं आप? सब चिल्ला रहे हैं, "हरी अप'। लेकिन कहां? जोर से करो जो भी कर रहे हो। लेकिन क्यों? क्या होगा इसका फल? क्या पाने की इच्छा है? उसका कुछ पता नहीं। लेकिन इतना समय भी नहीं कि इसको सोचें। इतने में देरी हो जाएगी, पड़ोसी आगे निकल जाएगा। हम सब भागे जा रहे हैं। काम करने वाले लोगों ने, ये अति कामवादी, जिनको दिखाई पड़ता है कि काम ही सब कुछ है, उन्होंने भारी नुकसान पहुंचाए हैं। एक नुकसान तो इन्होंने पहुंचाया है कि जिंदगी से उत्सव के क्षण छीन लिए हैं। दुनिया में उत्सव कम होते जा रहे हैं। रोज कम होते जा रहे हैं। उत्सव की जगह मनोरंजन आता जा रहा है, जो कि बहुत भिन्न बात है। उत्सव की जगह मनोरंजन आ रहा है, जो बिलकुल भिन्न बात है। उत्सव में स्वयं सम्मिलित होना पड़ता है, मनोरंजन में दूसरे को सिर्फ देखना पड़ता है। मनोरंजन "पैसिव' है, उत्सव बहुत "एक्टिव' है। उत्सव का मतलब है, हम नाच रहे हैं। मनोरंजन का मतलब है, कोई नाच रहा है, हमने चार आने दिए और देख रहे हैं। लेकिन कहां नाचने का आनंद और कहां नाच देखने का आनंद। इतना काम हमने कर लिया है कि शाम थक जाते हैं, तो किसी को नाचते हुए देखना चाहते हैं।
कहीं, कामू ने कहीं एक बात लिखी है कि जल्दी वह वक्त आ जाएगा कि आदमी प्रेम भी अपने नौकरों से करवा लिया करेंगे। उसके लिए फुर्सत भी तो चाहिए। काम से फुर्सत कहां है? एक नौकर रख लेंगे घर में कि तू प्रेम का काम कर दिया कर, क्योंकि मुझे तो फुर्सत नहीं होती। इतना काम में लगा हुआ हूं कि यह प्रेम का गोरखधंधा...प्रेम तो उत्सव है। प्रेम से कुछ फल तो निकलता नहीं आगे। अपने में ही जो है, है। तो इसको कौन करेगा? काम वाले लोग नहीं करेंगे। इसके लिए तो सेक्रेटरी रखा जा सकता है, जो इसको निपटा लेगा। काम की अति दौड़ ने उत्सव के क्षण गंवा दिए हैं और उत्सव से जो पुलक आती थी जीवन में, जो थिरक आती थी, वह खो गई है। इसलिए कोई आदमी प्रसन्न नहीं है, प्रमुदित नहीं है, खिला हुआ नहीं है।
इसका "सब्स्टीच्यूट' हमें खोजना पड़ा मनोरंजन। क्योंकि कोई तो क्षण चाहिए जब हम कुछ न करें, विश्राम में हों। लेकिन हम जो मनोरंजन खोजे हैं, वह उधार उत्सव है। दूसरा कर रहा है और हम देख रहे हैं। वह ऐसे है जैसे दूसरा प्रेम कर रहा है, हम देख रहे हैं। फिल्म में आप क्या करते हैं? कोई प्रेम कर रहा है, आप देख रहे हैं। कृपा करें, आप भी प्रेम करें, यह "सब्स्टीच्यूट' काम न करेगा। यह बिलकुल झूठा है, कागजी है, इससे कोई हल होने वाला नहीं है। इससे आप खयाल में होंगे कि काम हो गया, लेकिन आपकी वह जो प्रेम की आकांक्षा थी, वह नहीं तृप्त होगी। वह और भूखी हो जाएगी, और प्यासी हो जाएगी।
कृष्ण उत्सववादी हैं, वह जीवन को एक महालीला, एक महा उत्सव की तरह लेते हैं। इन काम करने वालों ने जगत को कोई फायदा पहुंचाया हो, ऐसा तो नहीं दिखाई पड़ता, जगत को उलझाया बुरी तरह। जटिल बहुत कर दिया। और इतना जटिल हो गया वह कि आदमी उसमें जी सके ठीक से, यह भी कठिनाई मालूम होने लगी है।
यह भी ठीक है कि अगर हम राम के भक्त को देखें--हनुमान को देखें, तो वह बड़े कर्मठ, निष्ठावान, ब्रह्मचारी, शक्त्तिशाली, वह सब दिखाई पड़ते हैं। कृष्ण का भक्त वैसा नहीं दिखाई पड़ता। मीरा है--नाचती है, गाती है, लेकिन वह बात नहीं दिखाई पड़ती। वह दिखाई नहीं पड़ेगी। क्योंकि राम जिंदगी को काम की तरह देखते हैं। कृष्ण जिंदगी को उत्सव की तरह देखते हैं। उत्सव की तरह देखना बात ही और है। लेकिन, अगर आपको चुनाव करना पड़े कि हनुमान के साथ चौबीस घंटे रहना कि मीरा के साथ, सोचना पड़ेगा। थोड़ा सोचना पड़ेगा। तब आपको पता चलेगा कि हनुमान से अगर छुट्टी रहे तो ठीक। इनका करियेगा क्या? इनके साथ चौबीस घंटे गुजारना एक कमरे में मुश्किल हो जाएगा। मीरा के साथ चौबीस जिंदगी भी गुजारी जा सकती है। यह भी सच है कि कृष्ण भक्त, कृष्ण को प्रेम करने वाला, वह जो "आउटर एक्टिविटी' है, वह जो "एक्स्ट्रोवर्शन' है, वह जो बहिर्मुखता है, उससे धीरे-धीरे हटता जाता है। वह किसी भीतरी गहरे रस में डूबता जाता है। डूबेगा। क्योंकि उसे दिखाई पड़ता है कि तुम बड़ा अदभुत खो रहे हो, ना-कुछ के लिए।
और जिस दिन दुनिया में मीराएं बढ़ जाएं उस दिन दुनिया में बड़ी शांति होगी, हनुमान बढ़ जाएं तो बड़ा उपद्रव होगा। गांव-गांव अखाड़े खुल जाएंगे और जगह-जगह उपद्रव होने लगेगा। तो एकाध हनुमान चल सकते हैं एकाध गांव में, ज्यादा नहीं चल सकते। मीरा, मीरा का तारतम्य, मीरा का संबंध जीवन के बहुत गहरे तलों से है। हनुमान बेचारे काम करने वाले एक सेवक हैं, एक "वालंटियर' हैं। "वालंटियर' को जैसा होना चाहिए, वैसे वे हैं। वे किसी के लिए जी रहे हैं--काम में लगे हैं, धुन के पक्के हैं, सेवक हैं, वह सब ठीक है। लेकिन, मीरा के आनंद की धुन "बीइंग' की धुन है, "डूइंग' की नहीं। वह कुछ करने का मजा नहीं है, होने के क्षण का मजा है। होना ही आनंदपूर्ण है। और अगर गीत वह गा रही है तो गीत गाना काम नहीं है, उसके होने के आनंद से निकली हुई अभिव्यक्ति है। वह इतने आनंद में है कि उससे गीत ही निकल सकता है।
तो मैं चाहूंगा कि जगत धीरे-धीरे संगीत से भरे, गीत से भरे, नृत्य से भरे, उत्सव से भरे। और जिसको हम बाहर का जगत कहते हैं, काम की जो दुनिया है, इस काम की दुनिया का इतना ही उपयोग है कि हम इसमें इतने दूर तक हों जितने दूर तक भीतर जाने के लिए जरूरी हो। इससे ज्यादा होने की जरूरत नहीं है। और रोटी कमानी पड़ेगी, लेकिन रोटी कमाना जिंदगी नहीं है। रोटी कमानी ही इसलिए पड़ती है कि कमा लिया और फिर जिएं। लेकिन कुछ लोग रोटी पर रोटी का ढेर लगाते चले जाते हैं। वे खाना भूल जाते हैं। जब तक रोटियां इकट्ठी हो पाती हैं तब तक भूख भी मर चुकी होती है, क्योंकि इतने दिन खाया नहीं। तब वे अचानक खड़े रह जाते हैं कि क्या करें?
सिकंदर हिंदुस्तान आता था तो वह डायोजनीज से मिला था। डायोजनीज ने उससे पूछा था कि तुम कहां जा रहे हो? यह क्या कर रहे हो? सिकंदर ने कहा कि पहले मुझे एशिया माइनर जीतना है। डायोजनीज ने कहा कि समझा। फिर क्या इरादा है? उसने कहा, हिंदुस्तान जीतना है। फिर? उसने कहा, सारी दुनिया जीतना है। डायोजनीज ने पूछा, फिर?...वह ऐसा रेत पर लेटा था, सुबह धूप निकली थी, नग्न रेत पर पड़ा था...उसने कहा, फिर? सिकंदर ने कहा कि फिर तो विश्राम का इरादा है। डायोजनीज खूब खिलखिलाकर हंसने लगा, और पीछे मांद में उसका कुत्ता, जो इसका साथी था उसे आवाज दी कि सुन, इधर आ। यह पागल सिकंदर को देख। हम अभी आराम कर रहे हैं, यह इतना उपद्रव करके आराम करेंगे। और सिकंदर से डायोजनीज ने कहा, अगर आखिर में आराम ही करना है, आओ, लेट जाओ, नदी के तट पर। जगह यहां काफी है। हम दोनों समा जाएंगे। और मैं आराम कर ही रहा हूं, सिकंदर। इतना करके आराम ही करने का इरादा है न? तो आराम तो अभी किया जा सकता है। सिकंदर ने कहा, बात तो तुम्हारी जंचती है, लेकिन अभी नहीं कर सकता हूं, पहले सब जीत लूं। तो डायोजनीज ने कहा, जीत से और विश्राम का क्या संबंध है? क्योंकि हम बिना जीते कर रहे हैं। सिकंदर ने कहा, बात तो जंचती है, लेकिन अब तो मैं निकल चुका यात्रा पर। आधा नहीं लौट सकता हूं। तो डायोजनीज ने कहा, आधे ही लौटोगे, किसकी यात्रा कब पूरी होती है। और यह हुआ, हिंदुस्तान से लौटकर सिकंदर वापस यूनान नहीं पहुंच पाया, बीच में ही मर गया।
सब सिकंदर मर जाते हैं। आधी यात्रा पर मर जाते हैं। रोटियां इकट्ठी हो जाती हैं, खाने का वक्त नहीं आता। साज-सामान इकट्ठा हो जाता है, बजाने का वक्त नहीं आता। साज ठोंक-पीटकर ठीक कर लिया जाता है। लेकिन जब तक ठोंक-पीट पूरी होती है तब तक हाथ शून्य हो चुके होते हैं, फिर कुछ करने को नहीं बचता।
नहीं, जीवन को तो लेना पड़ेगा उत्सव से ही, वही जीवन की धुनें हैं। आपसे कोई पूछे--गहरे में आप ही अपने से पूछें--कि आप जो कर रहे हैं, वह जीने के लिए कर रहे हैं कि करने के लिए जी रहे हैं? तो आपको उत्तर साफ हो सकेगा। और तब आपको कृष्ण बहुत निकट मालूम पड़ेंगे। आप जीने के लिए कर रहे हैं सब कुछ, करने के लिए नहीं जी रहे हैं। और अगर जीने के लिए कर रहे हैं सब कुछ, तो फिर ठीक है, इतना ही करना काफी है जितने से जिया जा सके। ज्यादा क्यों करना? उसका कोई अर्थ नहीं है।
स्वभावतः, अगर यह वृत्ति फैल जाए तो बहुत से उपद्रव बंद हो जाएंगे। क्योंकि बहुत से उपद्रव हमारे अत्यधिक करने से पैदा हो रहे हैं। दुनिया ज्यादा शांत, ज्यादा आनंदमय, ज्यादा प्रफुल्लित, ज्यादा प्रमुदित होगी। निश्चित ही कुछ बातें चली जाएंगी--चिंताएं चली जाएंगी, तनाव चले जाएंगे, पागलखाने चले जाएंगे, हजारों मानसिक बीमारियां चली जाएंगी, यह जरूर नुकसान होगा। इतनी चीजें चली जाएंगी।
इसलिए मैं तो कहूंगा कि मैं कृष्ण के उत्सववादी चित्त के साथ राजी हूं।
इस देश में न राम को, न कृष्ण को, न बुद्ध को, न महावीर को--जैनों के चौबीस तीर्थंकर में किसी को भी नहीं--दाढ़ी-मूंछ नहीं है उनकी प्रतिमाओं में, न ही उनके चित्रों में।
क्या कारण होंगे इसके पीछे?
ऐसा मैं नहीं मानता हूं कि इन सबको दाढ़ी-मूंछ नहीं रही होगी। एकाध को हो सकता है न रही हो, सबको न रही होगी, ऐसा मैं नहीं मान सकता। तथ्यगत वह नहीं है। लेकिन फिर भी, हमने नहीं दी है। तो कुछ कारण होंगे। कई कारण हैं।
बड़ा कारण। पहला कारण तो दाढ़ी-मूंछ आने के पहले व्यक्ति की जो वय है, वह सबसे ज्यादा "फ्रेश' और ताजी है। उसके बाद फिर सब ढलने लगता है। वह ताजगी का, "फ्रेशनेस' का आखिरी क्षण है। उसके बाद चीजें उतरनी शुरू हो जाती हैं। हमने इन लोगों का ताजगी का अनंत सागर अनुभव किया है। इन्हें हमने कभी उतरते नहीं देखा जिंदगी में, इन्हें हमने सदा ताजे देखा है। ऐसा नहीं कि ये बूढ़े नहीं हुए, ऐसा नहीं कि इनका शरीर नहीं ढला। ऐसा नहीं कि इनके जीवन में वार्द्धक्य के क्षण नहीं आए। वह सब आए, लेकिन इनकी चेतना को हमने सदा किशोर देखा है। "इटर्नल यंग'। उन्हें हमने कभी भी--उनकी चेतना की जो हमारी समझ है वह हमने पाई है कि वह सदा ही किशोर है। वे उतने ही ताजे हैं, उनकी ताजगी में, उनकी चेतना की ताजगी में कभी कोई फर्क नहीं पड़ा है। और ये सारी मूर्तियां और सारे चित्र व्यक्तियों के चित्र नहीं हैं, व्यक्तियों की मूर्तियां नहीं हैं। उन व्यक्तियों के भीतर हमने जो झांका है, उसके चित्र हैं। "कांस्टेंट फ्रेशनेस', एक युवापन, जो सदा उनके साथ है। कृष्ण को बूढ़ा हम सोच भी नहीं सकते। कोई उपाय नहीं है। ऐसा नहीं है कि वे बूढ़े नहीं हुए। वे बूढ़े हुए लेकिन हम सोच नहीं सकते इस आदमी को, यह बूढ़ा कैसे होगा! और कुछ ऐसे बच्चे भी होते हैं जिनको हम सोच भी नहीं सकते कि ये बच्चे हैं, वे पहले से ही बूढ़े होते हैं।
अभी एक गांव में मैं गया और एक लड़की ने मुझसे कहा--उसकी उम्र कोई तेरह-चौदह साल थी--उसने मुझे कहा कि मुझे तो मुक्ति चाहिए। अब यह लड़की बूढ़ी हो गई। मैंने उससे कहा कि तू बूढ़ी हो गई? मुक्ति की बात! अभी जीया भी नहीं। अभी बंधन में पड़ी भी नहीं, अभी खुलने की बात। लेकिन पर उसने कहा कि मेरे घर में तो, बड़ा धार्मिक घर है, वह मुझे अपने घर ले गई, धार्मिक घर जैसा होता है--उदास, मरा हुआ, मां भी मरी हुई, सारा घर उपवास की छाया में दबा हुआ। स्वभावतः। तो यह लड़की बूढ़ी हो गई। अगर इस लड़की का चित्र बनाना पड़े, तो उसको चौदह साल की उम्र देना "अनआथेंटिक' होगा, अप्रामाणिक होगा। इस लड़की का चित्र बनाना पड़े, तो कैमरा तो चित्र उसका लेगा उसमें चौदह साल आएंगे, लेकिन अगर कोई चित्रकार इसका चित्र बनाए तो अस्सी साल की उम्र बनानी चाहिए। इसके चित्त की उम्र वह हो गई।
बुद्ध, महावीर, कृष्ण, राम, ये सदा "यंग' हैं। लेकिन, हम पच्चीस साल का भी बना सकते थे उनका चेहरा, तब उन पर दाढ़ी-मूंछ होती। वह तेरह-चौदह साल वाला चेहरा, जिसकी दाढ़ी-मूंछ नहीं है, वह हमने क्यों बनाया? उसके पीछे कारण हैं। जो चीज शुरू हो गई, फिर उसका अंत आता है। अगर दाढ़ी-मूंछ हो गई शुरू, अब वह जाएगी भी, गिरेगी भी, बुढ़ापा आएगा भी। तो इसलिए हमने उस जगह से, जहां से वह शुरू ही नहीं हुई है, उसको हमने "लास्ट प्वाइंट' समझ लिया। उसके बाद हमने उनका चित्रण नहीं किया। एक कारण।
दूसरा कारण, पुरुष के मन में सौंदर्य का जो खयाल है, वह स्त्रैण है। पुरुष के मन में सौंदर्य की जो प्रतिमा है, वह स्त्री की है। पुरुष के मन में सौंदर्य की प्रतिमा पुरुष की नहीं है। और ये सारे कवि, और ये सारे चित्रकार, और ये सारे शास्त्रकार पुरुष हैं। अगर कृष्ण को सुंदर बनाना है--और सुंदर बनाना ही है, क्योंकि कृष्ण से ज्यादा सुंदर क्या हो सकता है--तो जो चेहरे की शक्ल होगी, वह स्त्रैण होगी। इसलिए बुद्ध की, कृष्ण की, सबके चेहरे की शक्ल स्त्रैण है। चेहरे पर जो बिंब है, वह स्त्री का है। पुरुष का नहीं है। पुरुष की समझ सौंदर्य की स्त्रैण है। इसलिए सारी दुनिया में जैसे हमारी समझ बढ़ती चली गई, पुरुष ने अपनी दाढ़ी-मूंछ काटकर अलग कर दी। कारण वही है। पहले उसने राम, बुद्ध की साफ की, बाद में अपनी साफ कर दी। उसके मन में खयाल है कि चेहरा तो स्त्री का सुंदर है। तो स्त्री के चेहरे जैसा कैसे उसका चेहरा हो जाए, इसकी चेष्टा में सतत लगा हुआ है।
हालांकि यह बात स्त्री की तरफ से सच नहीं है। यह बात स्त्री की तरफ से सच नहीं है। स्त्री के मन में जो सौंदर्य का अर्थ है, वह सदा पुरुष जैसा है। स्त्री के मन में दूसरी स्त्री बहुत सुंदर नहीं मालूम हो सकती। स्वभावतः, स्त्री के मन में जो सौंदर्य का बिंब है, वह पुरुष के चिह्न का है। अगर स्त्रियां राम, कृष्ण और बुद्ध की मूर्तियां और चित्र बनातीं, तो मेरी अपनी समझ है कि उसमें दाढ़ी-मूंछ अनिवार्य होती। क्योंकि स्त्रियों को वह जंचता ही नहीं, वह स्त्रैण मालूम पड़ते हैं। और मैं आज भी नहीं मानने को राजी हूं यह कि दाढ़ी-मूंछ अलग करने के बाद स्त्री को कोई चेहरा बहुत प्रीतिकर लगता है। नहीं लग सकता। क्योंकि जिस चेहरे से दाढ़ी-मूंछ विदा हो गई, उस चेहरे से पुरुष का कुछ हिस्सा विदा हो जाता है। हो जाता है। आप जरा उल्टा करके सोचें, कि स्त्रियां दाढ़ी-मूंछ लगा लें, तब आपको कितनी प्रीतिकर लगेंगी? आप भी दाढ़ी-मूंछ काटकर उतने ही प्रीतिकर लगते होंगे। स्त्रियां चाहे कहें, चाहे न कहें, क्योंकि स्त्रियों को कहने की स्वतंत्रता भी नहीं रह गई है। उनके सोचने के ढंग भी पुरुष ने तय कर दिए हैं। इसलिए वे कभी "असर्ट' भी नहीं कर सकती हैं। लेकिन आप ध्यान रखें कि जब भी किसी युग में पुरुष-सौंदर्य प्रगट होता है, तो दाढ़ी-मूंछ लौट आती है। दाढ़ी-मूंछ की रौनक वापिस लौट आती है। लेकिन, कभी भी, कहीं भी, जब भी कहीं ऐसा होता है कि पुरुष-सौंदर्य स्थापित होता है, तो दाढ़ी-मूंछ वापिस लौट आती है। लेकिन वह स्त्री को देख-देखकर अगर हम अपना चेहरा निर्धारित करेंगे, तो उसमें दाढ़ी-मूंछ चली जाएगी।
स्त्रियां भी पुरुष जैसे होने की बड़ी कोशिश में लगी रहती हैं। सारी दुनिया में चल रही है दौड़। स्त्रियां पुरुष जैसे कपड़े पहना चाहेंगी, क्योंकि उनके मन में सौंदर्य का अर्थ पुरुष है। पुरुष जैसी घड़ियां बांधना चाहेंगी, क्योंकि उनके मन में सौंदर्य का अर्थ पुरुष है। पुरुष जैसे काम करना चाहेंगी क्योंकि उनके मन में सौंदर्य का प्रतीक पुरुष है। अगर स्त्रियों का समाज किसी दिन जीत गया--जिसका कि डर रोज-रोज पैदा होता जा रहा है--क्योंकि पुरुष काफी दिन मालकियत कर लिया, अब पलड़ा बदलेगा। बहुत दिन हो गई, आप स्त्री के ऊपर बैठे-बैठे, अब स्त्री आपके ऊपर आएगी। जिस दिन स्त्री आपके ऊपर आएगी, कुछ आश्चर्य न होगा कि स्त्री दाढ़ी-मूंछ लगाने की कोशिश करे। कोई आश्चर्य न होगा। आज हमें आश्चर्य लगता है, क्योंकि वह घटना हमारे खयाल में नहीं आती। वैसे वह और तरह से दाढ़ी-मूंछ लगाने की कोशिश में लगी हुई है। वह ठीक पुरुष जैसे होने की कोशिश में लगी हुई है--सब भांति वह पुरुष के बगल में खड़ी हो जाए, पुरुष की दूसरी "कॉपी' बनकर। पुरुष भी उस कोशिश में लगा रहा है। यह "एब्सर्ड' कोशिश है। इसका कोई मतलब नहीं है।
जिन चित्रकारों ने, जिन मूर्तिकारों ने कृष्ण, राम और बुद्ध की मूर्तियां अंकित की हैं, वे पुरुष हैं और स्त्रैण सौंदर्य उनके मन में है, इसलिए ये कोई चित्र और प्रतिमाएं "आथेंटिक' नहीं हैं, प्रामाणिक नहीं हैं। अगर आप जैनों के चौबीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएं देखें तो आपको पता चल जाएगा कि वे बिलकुल एक जैसे हैं। अगर उनके नीचे बने हुए चिह्न अलग कर दिए जाएं तो उनमें कोई फर्क नहीं है। अगर बुद्ध और महावीर की प्रतिमाओं पर से सिर्फ कपड़े का भेद अलग कर दिया जाए तो वे बिलकुल एक जैसी हैं, उनमें कोई फर्क नहीं रह जाता। क्या ये सब शक्लें एक जैसी रही होंगी? नहीं, ये शक्लें एक जैसी नहीं हो सकतीं। एक जैसी शक्लें कब होती हैं! लेकिन बनाने वाले चित्रकार के पास एक जैसे प्रतीक हैं। वह बुद्ध को बनाने वाला चित्रकार भी बुद्ध की मूर्ति को सुंदरतम बनाने की कोशिश कर रहा है। महावीर का चित्रकार भी महावीर की मूर्ति को सुंदरतम बनाने की कोशिश कर रहा है। और तब वह सुंदरतम बनाने की कोशिश में वे शक्लें एक जैसी हो जाने वाली हैं। वे करीब-करीब एक-जैसी हो गई हैं।
ओशो रजनीश
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