श्री कृष्ण स्मृति भाग 33

 "आपने कहा कि कृष्ण चित्त की भूमिका से ऊपर उठ गए हैं। और यह भी कहा कि चित्त की सहज प्रेरणाओं से प्रेरित होकर उन्होंने गोपियों के वस्त्रों का अपहरण किया। जो व्यक्ति चित्त के ही ऊपर उठ गया, क्या वह भी चित्त की सहज प्रेरणा से प्रेरित होगा? और अगर होगा तो पशु भी इस प्रकार उसके ही समान हो गया?'


मैंने कहा कि कृष्ण चित्त के पार हो गए थे। इसका मतलब यह नहीं कि कृष्ण का चित्त नहीं रह गया था।

चित्त के पार होने का मतलब इतना ही है कि चित्त के पार जो है, कृष्ण उसे भी जान गए, पहचान गए थे। चित्त तो था ही। समाहित था। कृष्ण का व्यक्तित्व चित्त से बड़ा व्यक्तित्व हो गया था, उसमें चित्त की भी जगह थी।

चित्त के पार हो जाने के दो अर्थ हो सकते हैं। चित्त की दुश्मनी में पार हो गए हों, तो चित्त कटकर अलग टूट जाता है। लेकिन अगर चित्त की मैत्री में पार हुए हैं, तो चित्त सम्मिलित होता है, समाहित होता है। इस बड़ी घटना में जो चित्त के पार घट रही है, चित्त भी अपना हिस्सा रखता है, वह भी अपनी जगह होता है। जब मैं कहता हूं कि मैं शरीर के पार हो गया, तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं शरीर नहीं रह गया। इसका केवल इतना ही मतलब है कि मैं सिर्फ शरीर नहीं रह गया। शरीर तो हूं ही, और भी कुछ हूं, "समथिंग एडेड', "समथिंग प्लस'। शरीर कट नहीं गया, कुछ और भी जुड़ गया। कल तक मैं सोचता था, शरीर ही हूं, अब मैं जानता हूं कि और भी कुछ हूं। शरीर तो हूं ही, वह जो और कुछ है उसने शरीर के होने को मिटा नहीं डाला, और "रिच' और समृद्ध कर दिया। आत्मा भी हूं। और जब कोई व्यक्ति जानता है परमात्मा को भी, तो ऐसा नहीं है कि आत्मा मिट जाती है, तब यह जानता है कि परमात्मा भी हूं। और आत्मा और चित्त, सब उस बड़े विराट में समाहित होते चले जाते हैं। कुछ खोता नहीं, जुड़ता जाता है।

तो कृष्ण को जब मैं कहता हूं चित्त के पार हो गए थे, तो मेरा मतलब यह है कि उन्होंने उसे भी जान लिया था जो चित्त के पार फैला है। लेकिन चित्त तो वे थे ही। वह दुश्मन नहीं हैं चित्त के। वह चित्त के शत्रु नहीं हैं, उससे लड़कर पार नहीं हो गए थे, उसको जीकर पार हो गए थे। और इसलिए जब मैं कहता हूं कि उनके सहज चित्त से जो उठा था वह हुआ था, तो मेरा मतलब यही है कि अब उनके भीतर सब सहज ही हो सकता है।

चित्त में, असहज तभी तक होता है जब तक चित्त के भीतर हमारी लड़ाई होती है। एक हिस्सा कहता है करो, एक कहता है मत करो। लड़ाई होती है। तब चीजें असहज हो जाती हैं। जब पूरा चित्त इकट्ठा होता है, तो जो होना होता है, वह हो जाता है, जो नहीं होना होता, वह नहीं होता है। तब सहज होता है। लेकिन यह बात बहुत अच्छी पूछी है कि फिर पशुओं में और उनमें फर्क क्या रह जाएगा?

एक हिसाब से बिलकुल नहीं, एक हिसाब से बहुत ज्यादा। एक हिसाब से बिलकुल नहीं। पशु भी सहज हैं, लेकिन बिना जानते हुए, बेहोशी में। कृष्ण भी सहज हैं, लेकिन जानते हुए, होश में। सहजता समान है, बोध भिन्न है। पशु भी सहज है, जो हो रहा है हो रहा है। लेकिन इसका पशुओं को कोई बोध नहीं है कि जो हो रहा है, वह हो रहा है। इसकी कोई "अवेयरनेस', इसकी कोई प्रज्ञा नहीं है। यंत्रवत हो रहा है। कृष्ण को जो हो रहा है, इसका साक्षी भी पीछे खड़ा है, जो देख रहा है कि ऐसा हो रहा है। पशु के पास साक्षी नहीं है।

कृष्ण चित्त के पार चले गए हैं, पशु अभी चित्त के पहले हैं। कृष्ण चित्त के "बियांड', पशु चित्त के "बिलो'। अभी पशु के पास चित्त भी नहीं है, अभी पशु के पास शरीर ही है। "इंस्टिंक्ट' हैं, अभी वृत्तियां हैं, और ये यंत्रवत काम करा रही हैं और वह काम कर रहा है। अभी पशु के पास चित्त भी नहीं है। इसलिए चित्त के पार जो गया है उसमें और चित्त के नीचे जो है, एक तारतम्य होगा।

बहुत पुरानी, फकीरों में एक कहावत है कि जब कोई परम ज्ञान को उपलब्ध होता है तो परम अज्ञानी जैसा हो जाता है। उसमें थोड़ी सचाई है। क्योंकि परम अज्ञानी में...जैसा हम जड़भरत को जानते हैं। अब जड़भरत नाम दिया है, उस परम ज्ञानी को! लेकिन हो गया वह जड़ जैसा। एक अर्थ में जो पूर्ण ज्ञान है, वह उस पूर्ण अज्ञान जैसा मालूम पड़ेगा। कम-से-कम पूर्णता तो समान है, एक बात वह दोनों में है। ज्ञान में भी कोई बेचैनी नहीं रह गई, क्योंकि सब जान लिया गया। अज्ञान में कोई बेचैनी नहीं है क्योंकि अभी कुछ जाना ही नहीं गया है। बेचैनी होने के लिए कुछ तो जाना जाना चाहिए! पशु, जो हो रहा है, इसको उसे कोई बोध नहीं है। कृष्ण, जो हो रहा है, हो रहा है, बोध पूरा है। यह अबोध में नहीं हो रहा है। इसलिए हम कहते हैं, जब संत अपने पूरे व्यक्तित्व को उपलब्ध होता है तो वह बच्चों जैसा हो जाता है।

जीसस से कोई पूछता है कि आपके प्रभु के राज्य में क्या होगा? या जो आदमी प्रभु को उपलब्ध हो जाएगा वह कैसा होगा? तो जीसस कहते हैं, वह व्यक्ति जो प्रभु को उपलब्ध हो जाएगा, बच्चों जैसा होगा। लेकिन जीसस यह नहीं कहते कि बच्चे उसे उपलब्ध हो गए हैं। नहीं तो सभी बच्चे उपलब्ध हो गए हों। न, वह कहते हैं, बच्चों जैसा, बच्चा नहीं। बच्चों जैसा, "जस्ट लाइक चिल्ड्रन'। अगर वह कहें कि बच्चा हो जाएगा, तो फिर बच्चे तो बच्चे हैं ही, फिर इसमें और उपद्रव की क्या जरूरत है। नहीं, बच्चा अभी नीचे है। "बिलो' है; वह "बियांड' होगा। बच्चे को अभी तनाव में जाना पड़ेगा, वह तनाव में जाकर निकल चुका है। बच्चा अभी "पोटेंशियली' सब बीमारियां लिए हुए है, वह सारी बीमारियों के पार हो गया है। अभी पशु को उन सारी बीमारियों से गुजरना पड़ेगा जो आदमी की हैं, और कृष्ण उन सारी बीमारियों के पार गुजर गए हैं। इतना फर्क है और इतनी समानता भी है।

ओशो रजनीश



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