श्री कृष्ण स्मृति भाग 34
"भगवान श्री, आपने स्वधर्म और निजधर्म की चर्चा की, उसमें जो श्लोक का पहला भाग है वह यह कहता है कि स्वधर्म विगुण भी श्रेष्ठ है। स्वधर्म अगर निजता है, तो वह विगुण, गुणरहित कैसे हो सकता है? क्या कोई निजता गुणरहित भी होती है?'
पूछते हैं कि स्वधर्म विगुण होगा, गुणरहित होगा, ऐसा कैसे हो सकता है? निजता विगुण कैसे हो सकती है?
इसमें दो बातें खयाल में लेनी जैसी हैं। एक तो, चीजें अपने मूल में सदा ही निर्गुण, विगुण होती हैं। सिर्फ अभिव्यक्ति में गुण उपलब्ध होता है। जैसा अभी एक बीज है। अभी यह विगुण है, अभी इसमें कोई गुण नहीं है। सिर्फ बीज होने का गुण है। सिर्फ "पोटेंशियलिटी' है। इसमें लाल फूल खिलेंगे, अभी खिले नहीं हैं। कल यह फूल बन जाएगा। तब लाल फूल खिलेंगे। फूल गुणवान हो जाएगा। उसकी सुगंध होगी खास, उसका रंग होगा खास, उसका व्यक्तित्व होगा खास, लेकिन बीज में चीजें गुणशून्य हैं। अभिव्यक्ति में प्रगट होकर गुण को उपलब्ध होंगी।
जगत गुण है, परमात्मा निर्गुण है। परमात्मा बीज-रूप है। जब प्रगट होता है तब गुण दिखाई पड़ते हैं, जब अप्रगट हो जाता है तो गुण खो जाते हैं। एक आदमी अच्छा है, एक आदमी बुरा है; एक आदमी चोर है, एक आदमी साधु है; दोनों सो गए, दोनों विगुण हो गए। सुषुप्ति में कोई गुण नहीं रह जाता--साधु साधु नहीं रह जाता, चोर चोर नहीं रह जाता। और सुषुप्ति में निजता के बहुत करीब होते हैं, एकदम करीब होते हैं, वहां कोई गुण नहीं रह जाता। सुषुप्ति में चोर चोर नहीं है, साधु साधु नहीं है। हां, जागेंगे तो चोर चोर हो जाएगा, साधु साधु हो जाएगा। जागते ही गुण आएंगे, सोते ही गुण सो जाएंगे। सुषुप्ति में हम अपनी निजता के बहुत करीब होते हैं, समाधि में तो हम निजता में ही पहुंच जाते हैं। तो ठीक निजता का जो अनुभव है, स्वभाव का जो अनुभव है, वह निर्गुण होगा। लेकिन स्वभाव की जो अभिव्यक्ति है, "मेनीफेस्टेशन' है, वह सगुण होगी। सगुण और निर्गुण दो चीजें नहीं हैं। सगुण और निर्गुण विरोधी चीजें नहीं हैं। सगुण निर्गुण की अभिव्यक्ति का नाम है। और निर्गुण सगुण के अप्रगट अवस्था का नाम है।
तो स्वभाव की दो स्थितियां होंगी, निजता की दो स्थितियां होंगी। एक तो वह निजता, जो अप्रगट है, बीज-रूप है, गर्भ में है; अभी प्रगट नहीं हो गई, अभी सोई है, अपने में डूबी है। लीन है। और एक वह निजता, जो प्रगट हो गई। और जब प्रगट होती है निजता तो आकार ले लेती है, गुण ले लेती है। असल में कोई अभिव्यक्ति निराकार नहीं हो सकती, और कोई अभिव्यक्ति निर्गुण नहीं हो सकती। जैसे ही कोई चीज प्रगट होगी, उसका रूप, रंग, आकार प्रगट होगा। प्रगट होने का मतलब ही यह है कि उसे रूप, रंग में होना पड़ेगा।
एक छोटी-सी कहानी याद आती है। एक झेन कहानी है। एक झेन साधु अपने शिष्यों को चित्र बनाना सिखाता है। चित्रों से ध्यान के मार्ग पर ले जाता है। कहीं से भी जाया जा सकता है। जगत में जो भी कोई जगह है, वहीं से ध्यान तक जाया जा सकता है। उसके दस शिष्य एक दिन सुबह इकट्ठे हुए हैं और उसने कहा कि तुम जाओ और एक चित्र की मैं तुम्हें रूपरेखा देता हूं। वह रूपरेखा यह है कि एक गाय, घास से भरे मैदान में, घास चर रही है। तुम यह चित्र बना लाओ। लेकिन ध्यान रहे चित्र निर्गुण हो।
वे दसों चित्रकार गए और बहुत मुश्किल में पड़ गए। फकीर का काम ही यह है कि किसी को मुश्किल में डाले। और कोई काम नहीं है। क्योंकि मुश्किल में डाले तो शायद स्वयं का खयाल भी आ जाए। वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए कि निर्गुण कैसे होगा यह? रंग का तो उपयोग करना पड़ेगा। कम-से-कम गाय को आकार तो देना पड़ेगा, घास भी बनानी तो पड़ेगी।
नौ चित्रकार बनाकर लाए। उन्होंने ऐसा बनाया कि बहुत साफ-साफ न दिखाई पड़े, लेकिन फिर भी गाय तो थी ही। घास भी ऐसा बनाया, ठीक "एब्सटे्रक्ट आर्ट' का उपयोग किया होगा कि चीजें साफ-सुथरी नहीं हैं। लेकिन फिर भी रंग का उपयोग करना पड़ा। एक-दूसरे के चित्र देख कर वे पूछने लगे, गाय कहां है? तो एक चित्रकार ने यह भी कहा कि जब मैं बना रहा था तब तो मुझे पक्का पता था, अब मुझे जरा शक है। क्योंकि निर्गुण बनाने की कोशिश की है, तो अब मैं पक्का नहीं कह सकता, किस जगह है? लेकिन उस गुरु ने नौ के ही चित्र फेंक दिए और कहा कि निर्गुण में रंग कैसा? गाय कैसी? दसवां आदमी खाली कोरा कागज लेकर आ गया। उसने कहा, यह रहा। तो उन बाकी नौ चित्रकारों ने पूछा कि गाय कहां है? उसने कहा, गाय ने चर लिया। चीजें लौट गईं। यह निर्गुण चित्र है। गाय घर चर रही है, लेकिन चर चुकी है। घास समाप्त हो गई, कोरा कागज रह गया।
निर्गुण निजता की जो बहुत गहराई है, वहां तो सब निराकार है, निर्गुण है; विगुण, गुणरहित है। अभिव्यक्ति जब गाय घास चरती है तब प्रगट होती है। फिर घास भी आती है, फिर गाय भी आती है, फिर सब खेल होता है। फिर सब विदा हो जाता है।
यह जगत का इतना बड़ा विस्तार कभी विगुण में था। कभी यह सब शून्य में जन्मा, कभी यह फिर शून्य में समाहित हो जाएगा। सब जन्मता है, सब समाहित हो जाता है। जहां से जन्मता है, वहीं लौट जाता है। और वह जो शून्य की अवस्था है उसमें पूर्ण छिपा है, अपने पूर्ण गुणों को लेकर, लेकिन विगुण है, निर्गुण है, अभी उसमें गुण नहीं आया, अभी आएगा।
इस अर्थ में निजता के दो रूप हुए--सभी चीजों के दो रूप हैं--"मैनिफेस्टेड', "अनमैनिफेस्टेड'; प्रगट, अप्रगट। प्रगट में गुण दिखाई पड़ते हैं, अप्रगट में निर्गुण रह जाता है।
इसलिए कृष्ण को भी दो तरफ से देखना है--एक तो उनका जो दिखाई पड़ता है व्यक्तित्व, और एक वह जो दिखाई पड़ता है। जो अश्रद्धालु है, वह सिर्फ उसी को देख पाएगा जो दिखाई पड़ता है। और जिसके जीवन में श्रद्धा भी जन्मी है, वह उसको भी देख पाएगा जो नहीं दिखाई पड़ता है। तर्क, चिंतन, मनन, विचार, "मैनिफेस्टेड' से आगे नहीं जाएगा, प्रगट के आगे नहीं जाएगा, गुण के आगे नहीं जाएगा। ध्यान, प्रार्थना, श्रद्धा, "अनमैनिफेस्टेड' में प्रवेश कर जाएगी। वह जो नहीं दिखाई पड़ता है, जो अदृश्य है, उसमें प्रवेश कर जाएगा। लेकिन जो अभी "मैनिफेस्टेड' को भी नहीं पकड़ पाते वे "अनमैनिफेस्टेड' को नहीं पकड़ पाएंगे।
इसलिए तर्क का, विचार का एक काम है कि वह वहां तक पहुंचा दे, उस सीमांत तक, जहां अभिव्यक्त समाप्त होता है और अनभिव्यक्त शुरू होता है। फिर वहां छलांग लगानी पड़ेगी। फिर वहां अपनी बुद्धि से कूद जाना पड़ेगा। फिर अपने ही चित्त के आगे चले जाना होगा। फिर "बियांड वनसेल्फ' फिर खुद को ही पार कर जाना होगा। फिर खुद को ही "ट्रांसेंड' कर जाना होगा। लेकिन उसका यह मतलब नहीं है कि जो जाएगा, फिर ज्ञान में जो दिखाई पड़ेगा, उसमें जो पहले जाना था वह कट जाएगा। नहीं, वह उसमें समाहित हो जाएगा। और जिस दिन "मैनिफेस्टेड' और "अनमैनिफेस्टेड', प्रगट और अप्रगट दोनों इकट्ठे हो जाते हैं, उस दिन एब्सोल्यूट, जिसको हम पूर्ण सत्य कहें, उसका साक्षात्कार है।
अब दोत्तीन बातें ध्यान के संबंध में समझ लें। एक तो, जो प्रयोग हमने पहले दिन किया था, दस मिनिट शांत खड़े रहना थोड़े से ही मित्रों को संभव हो पाता है, कोई बीस प्रतिशत लोगों को। अस्सी प्रतिशत लोगों को, पुराना जो आजोल या नारगोल में ध्यान का प्रयोग चलता था, वही ठीक पड़ जाता है। इसलिए आज से हम आजोल में किए गए प्रयोग को ही जारी रखेंगे। और दोनों तरह के प्रयोग जारी रखें तो मेरे सुझाव में कठिनाई होगी और आपको कनफ्यूजन होता है, वह कठिनाई खड़ी हो जाती है। इसलिए इस प्रयोग को, कुछ नए मित्र होंगे, वे समझ लें।
सबसे पहले तो संकल्प करना है, चालीस मिनट आंख बंद रखने का। कुछ भी हो जाए, आंख नहीं खोलनी है। बहुत मन होगा कि खोलें। लेकिन अगर भीतर देखना हो तो बाहर देखना थोड़ी देर के लिए छोड़ देना जरूरी है। और इस संकल्प का भी बड़ा फायदा है। अगर चालीस मिनट भी आंख सतत बंद रखी जा सकी, तो आपकी विल, आपके संकल्प को जागृति होती है।
तो जब मैं कहूं कि चालीस मिनट आंख बंद रहेगी, तो जब तक मैं न कहूं, तब तक आपको नहीं खोलनी है। कभी किसी की भूल से खुल जाती है--खोलता नहीं, अचानक खुल जाती है--तो उसे तत्काल बंद कर लेनी है। उसके लिए कोई परेशान नहीं होना है।
दूसरी बात, संकल्प हम करेंगे हाथ जोड़कर परमात्मा के समक्ष कि हम अपनी पूरी शक्ति लगाएंगे। एक बार हमें साफ होना चाहिए कि हमें पूरी शक्ति लगानी है। यह पक्का खयाल होना चाहिए कि पूरी शक्ति लगानी है। क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि कुछ पानी अट्ठानबे डिग्री से वापस लौट आते हैं और भाप नहीं बन पाते, दो ही डिग्री का फासला था, थोड़ी और ताकत लगाते तो पार हो जाते--लेकिन दो इंच पहले लौट आए। और कुछ पता नहीं है कि वह सीमा कहां आती है जहां से पार होते हैं। इसलिए आप अपनी तरफ से पूरी शक्ति ही लगाएं।
पहले चरण में दस मिनट तक गहरी श्वास लेनी है। जिनको श्वास की कोई तकलीफ हो, वे धीमे लें, लेकिन गहरी लें। और जिनको कोई तकलीफ न हो, वे श्वास को गहरे होने की फिक्र न करें--फास्ट होने की फिक्र करें, तेजी की फिक्र करें। जिनको श्वास की कोई तकलीफ है, वे आहिस्ता से गहरी ले जाएं, जितनी गहरी जा सके। और गहरी बाहर निकाल दें धीरे से, गहराई की फिक्र कर लें। जिनको श्वास की कोई तकलीफ नहीं है और जिन मित्रों ने आजोल में प्रयोग किया है, वे फास्ट ब्रीदिंग करें, तेजी से भीतर ले जाएं, तेजी से बाहर फेंकें, जैसे धौंकनी चलती है लुहार की। पूरा खाली कर देना है सारी श्वास और नई ताजी हवाएं भीतर ले जानी हैं।
पांच मिनट के प्रयोग के बाद ही आपके शरीर के भीतर विद्युत का संचार शुरू हो जाएगा, "इलेक्ट्रिफाइड' आप होने लगेंगे। और शरीर में कंपन शुरू होंगे तो उनको होने देना है। अगर शरीर नाचने भी लगे इस बीच तो फिकर नहीं करनी, नाचने देना है। दस मिनट तक गहरी श्वास, तेज श्वास पर प्रयोग करेंगे।
दस मिनट के बाद मैं कहूंगा कि अब आप अपने शरीर को सहयोग करें। तो शरीर नाचता हो तो नाचें, रोता हो तो रोएं, हंसता हो तो हंसें, चिल्लाता हो तो चिल्लाएं। इन दस मिनट में शरीर जो भी करता हो उसको को-आपरेट करें, उसे पूरा सहयोग दें। अगर हाथ थोड़ा सा हिल रहा है तो आप पूरी तरह उसको हिला डालें। अगर थोड़े से नाच रहे हैं तो पूरी तरह नाच हो जाएं।
कुछ मित्र कहते हैं कि उन्हें कुछ भी नहीं होता।
हमारे दमन की परतें गहरी हैं। तो जैसे आप गहरी श्वास ले रहे हैं वह भी आप कर रहे हैं। अपने आप वह भी नहीं हो रहा है। वैसे ही जो भी आपको सुविधापूर्ण लगता हो वह आप करना शुरू कर दें, होने की भी प्रतीक्षा मत करें। एक-दो दिन करेंगे, फिर वह होना शुरू हो जाएगा। धारा टूट जाएगी। नाचना है तो नाचने लगें। चिल्लाना है, चिल्लाने लगें। कुछ तो करें! उस दस मिनट में जो भी करना चाहें करें, लेकिन करें पूरी ताकत से। उसमें फिर संकोच न लें।
और तीसरे दस मिनट में नाचना जारी रहेगा, अपने मन के भीतर पूछना है, मैं कौन हूं? इतने जोर से पूछना है कि बस मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? यही धुन रह जाए। दो मैं कौन हूं के बीच में जगह न छूटे। हो सकता है कि आप जोर से पूछें तो बाहर आवाज निकलने लगे, तो कोई डर की जरूरत नहीं, बाहर भी निकलने दें। नाचना जारी रखें, कूदना जारी रखें और मैं कौन हूं? यह पूछें।
तीस मिनट पूरे होने पर फिर दस मिनट के लिए हम विश्राम में चले जाएंगे। ये पूरे पहाड़ विश्राम में हैं, ये पूरे पौधे विश्राम में हैं, हम इनके साथ एक हो जाएंगे। यहां जो लोग देखने के लिए इकट्ठे हो गए हैं, उनसे मेरी प्रार्थना है कि वे बिलकुल चुपचाप खड़े होकर देखते रहेंगे, जरा बात नहीं करेंगे। देखें मजे से, आराम से बैठ जाएं, लेकिन बात बिलकुल नहीं करें ताकि यहां बाधा न पड़े।
अब आप लोग अपनी-अपनी जगह खड़े हो जाएं, थोड़े फैल जाएं।
बातचीत न करें। वातावरण को खराब न करें। चुपचाप खड़े हो जाएं। आपके खड़े होने से बातचीत का क्या संबंध? चुपचाप अपनी-अपनी जगह खोज लें, थोड़ा फासला कर लें। क्योंकि लोग कूदेंगे, नाचेंगे, तो उनको जगह रहे। और जिनको जोर से तेजी से कूदना है, वे थोड़ा भीड़ के बाहर खड़े हों। किसी को भी बीच में कपड़े अलग करने का खयाल आ जाए तो संकोच की जरूरत नहीं है, चुपचाप अलग कर दें। पहले ही किसी को खयाल हो कि उसे सुविधा होती है कपड़ा अलग करने में, वह पहले ही अलग कर दे सकता है। बीच में भी खयाल आ जाए, चुपचाप कपड़े उतार कर रख दें, उसकी चिंता न करें।
ठीक है, मैं मान लूं कि आपने अपनी जगह देख ली, आपके आस-पास जगह थोड़ी है ऐसा खयाल रख कर खड़े हों। क्योंकि यह प्रयोग तो बहुत तीव्र है। और बहुत तीव्रता से परिणाम होंगे। इसलिए जगह बना कर खड़े हों।
देखें, यहां पीछे जो लोग खड़े हैं बातचीत नहीं चलेगी। देखें, जो लोग देखने आ गए हैं, वे मजे से देखें। अपनी जगह पर खड़े रहें या बैठ जाएं, लेकिन बातचीत बिलकुल न करें, जिससे ध्यान करने वालों को कोई बाधा न हो। इतनी भर कृपा करें।
आंख बंद कर लें। आंख बंद कर लें। यह आंख चालीस मिनट के लिए बंद होती है। अब चालीस मिनट तक आंख नहीं खोलनी है। संकल्पपूर्वक आंख बंद रखनी है। जब तक मैं न कहूं तब तक आंख नहीं खोलनी है।
दोनों हाथ जोड़ लें। परमात्मा को साक्षी रख कर संकल्प कर लें। चारों तरफ वह मौजूद है। संकल्प करें। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा। मैं प्रभु को साक्षी रख कर संकल्प करता हूं कि ध्यान में अपनी पूरी शक्ति लगाऊंगा।
अब शुरू करें। तीव्र और गहरी श्वास शुरू करें।
जोर से, जोर से, जोर से, गहरी और तेज।...जोर से, जोर से, पूरी ताकत लगानी है। फेफड़ों को खाली कर देना है, सारी श्वास बाहर-भीतर, बाहर-भीतर, जैसे लुहार की धौंकनी चलती है, ऐसी ताकत से पूरी तरह खाली कर डालें। शरीर की शक्ति जागनी शुरू हो जाएगी, भीतर विद्युत फैलने लगेगी। शरीर डोलने-नाचने लगेगा, नाचने दें। आप पूरी ताकत श्वास पर लगाएं। जो भी हो रहा है होने दें, आप श्वास पर पूरी ताकत लगाएं। देखें, चूकें न, पूरी ताकत से फेफड़ों को ताजा कर लें। सब बाहर फेंक दें। सब कचरा बाहर कर दें।....
जोर से, जोर से, जोर से, गहरी श्वास, तेज श्वास।...जोर से, जोर से, गहरी श्वास, गहरी श्वास, पूरी शक्ति लगा दें।...
पांच मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं। अपने को बिलकुल बदल डालें। पूरी शक्ति जागेगी, उसे जागने दें। देखें, पीछे न रहें। कोई पीछे न रह जाए। अपनी तरफ खयाल करें, पूरी शक्ति लगाएं। गहरी, गहरी, गहरी, डोलने दें शरीर को, नाचने दें शरीर को। गहरी, गहरी और गहरी श्वास। गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, तेज और गहरी।...
जोर से, जोर से, दो मिनट बचे हैं, पूरी शक्ति लगाएं, फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करेंगे। जो पूरी शक्ति लगाएगा वही दूसरे में जा भी सकेगा। दो मिनट के लिए अपने को पूरा दांव पर लगा दें। श्वास, श्वास, श्वास ही श्वास रह जाए। इस श्वास के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है जगत में बस, बाहर-भीतर, बाहर-भीतर, श्वास ही श्वास। शक्ति जागेगी, शरीर डोलेगा, कांपेगा, नाचेगा, उसकी फिक्र न करें, रोकें न। गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास, गहरी श्वास।...गहरी श्वास, जोर से, जोर से।...
एक मिनट बचा है, मैं जब कहूं एक, दो, तीन, तो पूरी ताकत लगा देनी है। एक, लगाएं, पूरी ताकत लगाएं।...दो, पूरी ताकत लगाएं।...तीन, एक मिनट के लिए अब पूरी ताकत लगा दें।...
बिलकुल ठीक, बिलकुल ठीक, थोड़ा और--लगाएं, पूरी ताकत लगाएं। कुछ सेकेंड हैं, पूरी ताकत लगाएं, फिर हम दूसरे चरण में प्रवेश करेंगे।...बिलकुल ठीक, कुछ सेकेंड और--पूरी ताकत।...
अब दूसरे चरण में प्रवेश करें, शरीर को जो होता है होने दें। अब दूसरे चरण में प्रवेश करें, नाचें, डोलें, चिल्लाएं, रोएं, हंसें, जो भी करना है पूरी ताकत से करें। शुरू करें, दस मिनट के लिए नाचें, दिल खोल कर नाचें।...
जोर से, जोर से, नाचें--पूरी ताकत लगाएं; हंसें, जोर से हंसें; चिल्लाना है, जोर से चिल्लाएं, शरीर को को-आपरेट करें, पूरा साथ दें। नाचें, नाचें, नाचें, हंसें, रोएं, चिल्लाएं।...
नाचें, नाचें, नाचें। जोर से, आनंद से नाचें, पूरे आनंद भाव से नाचें। हंसें, रोएं, चिल्लाएं, जो भी हो रहा है पूरे आनंद भाव से करें। कमी न करें, कंजूसी न करें, पूरी ताकत से करें। आनंद से, आनंद से, नाचें, नाचें, नाचें।...
जोर से, जोर से, जोर से, पांच मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगा कर नाच लें, सब गिर जाने दें, मन में जो भी है। पूरी ताकत से नाचें। हंसें, रोएं, चिल्लाएं, तीव्रता से और शरीर को जो भी हो रहा है पूरी ताकत से करें। नाचें, नाचें, नाचें, जोर से। कोई खड़ा न रह जाए, पूरी ताकत लगाएं, अपनी जगह पर ही लेकिन--दूसरी जगह पर न जाएं। पूरे जोर से।...
जोर से, जोर से, बिलकुल थका डालें, बिलकुल थका डालें। अब दो ही मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, फिर हम तीसरे चरण में प्रवेश करेंगे। नाचें, दिल खोल कर रोएं, हंसें, चिल्लाएं।...
जोर से, जोर से; चिल्लाना है, जोर से चिल्लाएं; हंसना है, जोर से हंसें; नाचना है, जोर से नाचें। जोर से, जोर से, दिल खोल कर पूरा खाली कर लें, जो भी हो रहा है होने दें। बिलकुल ठीक, बिलकुल ठीक, और जोर से, और जोर से, नाचें, नाचें, नाचें।...
जोर से, जोर से, पूरी घाटी गूंज जाए। नाचें, चिल्लाएं, जोर से। कुछ सेकेंड बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, पूरी ताकत लगा दें। नाचें, हंसें, चिल्लाएं, पूरी ताकत लगा दें।...बहुत ठीक, बहुत ठीक, कुछ सेकेंड और हैं, पूरी ताकत लगाएं।...
अब तीसरे चरण में प्रवेश करें, नाचना जारी रखें, भीतर पूछें, मैं कौन हूं? नाचना जारी रखें, भीतर पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? दस मिनट में मन को थका डालना है। पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? तूफान उठा दें। भीतर बिलकुल तूफान उठा दें। नाचें, पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? एक ही सवाल भीतर, नाचें, और पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछें, पूछें, भीतर और गहरे और गहरे और गहरे, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछें। पांच मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं?...
नाचें, नाचें, पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? यह पूरी घाटी गूंजने लगे एक ही सवाल से, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? कोई फिकर नहीं, बाहर आवाज निकल जाए निकल जाने दें। पूछें, मैं कौन हूं?...
पूछें, पूछें, मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? नाचते रहें, नाचते रहें, कूदते रहें, पूछें, मैं कौन हूं? बाहर आवाज निकल जाए कोई फिकर नहीं।...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? पूछें, थोड़ा ही समय और बचा है। तीन मिनट बचे हैं, पूरी ताकत लगाएं, फिर हम विश्राम में चले जाएंगे। थका डालें अपने को, पूरी तरह थका डालें। नाचें, चिल्लाएं, पूछें, मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? दो मिनट बचे हैं--पूरी ताकत लगाएं। मैं जब कहूं एक, दो, तीन तब पूरी शक्ति से कूद पड़ें। मैं कौन हूं? नाचें, नाचें, नाचें, मैं कौन हूं? चिल्लाएं, पूछें, मैं कौन हूं? नाचें, पूछें, मैं कौन हूं?...
मैं कौन हूं? मैं कौन हूं? एक मिनट बचा है, पूछें, जोर से पूछें, नाचें और पूछें, मैं कौन हूं? एक, पूरी ताकत लगा दें। दो, पूरी ताकत लगा दें। तीन, पूरी ताकत लगा दें। दिल खोल कर चिल्लाएं और पूछें, मैं कौन हूं?...
नाचें, कुछ सेकेंड जोर से नाचें और चिल्लाएं, मैं कौन हूं?...
नाचें, नाचें और पूछें, मैं कौन हूं? जोर से पूछें, मैं कौन हूं?...
बस! अब रुक जाएं। ठहर जाएं। अब सब छोड़ दें, नाचना छोड़ दें, पूछना छोड़ दें। अब बिलकुल दस मिनट के लिए विश्राम में पड़ जाएं। दस मिनट के लिए अब सब छोड़ दें--नाचें भी नहीं, पूछें भी नहीं, शांत पड़े रहें--दस मिनट के लिए मौन में डूब जाएं। जैसे बूंद सागर में खो जाती है ऐसे खो जाएं। चारों ओर वही परमात्मा है, उसके साथ एक हो जाएं। जैसे मिट गए, जैसे मर गए, जैसे समाप्त हो गए। अब वही बचा, परमात्मा के सिवाय और कुछ भी नहीं है। हम तो नहीं हैं।...
परमात्मा ही परमात्मा है। चारों ओर वही है, स्मरण करें, बाहर भी वही भीतर भी वही, आती श्वास भी उसकी जाती श्वास भी उसकी। चारों ओर परमात्मा के सिवाय और कुछ भी नहीं है। स्मरण करें, स्मरण करें, प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया है, आनंद ही आनंद शेष रह गया है, रोआं-रोआं आनंद से भर गया है। भीतर प्रकाश ही प्रकाश भर गया है। अमृत की वर्षा हो रही है, डूब जाएं, नहा लें, परमात्मा के सिवाय और कोई नहीं है। स्मरण करें, स्मरण करें, पहचानें, हम तो मिट ही गए परमात्मा ही शेष रह गया।...
आनंद ही आनंद, प्रकाश ही प्रकाश, अमृत ही अमृत। खो गई बूंद सागर में, खो गई बूंद सागर में, वही रह गया, वही है, परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। पहचानें, पहचानें, स्मरण करें, परमात्मा ही परमात्मा, चारों ओर वही है। वृक्षों में वही, आकाश में वही, भीतर वही, बाहर वही। स्मरण करें, स्मरण करें, स्मरण करें।...
आनंद ही आनंद, प्रकाश ही प्रकाश, डूब जाएं, डूब जाएं, खो जाएं, खो जाएं, बिलकुल खो जाएं, बूंद सागर में गिर गई।...
परमात्मा के अतिरिक्त और कोई नहीं है। वही है, चारों ओर वही है, सब कुछ वही है, स्मरण करें, स्मरण करें, पहचानें। आनंद ही आनंद, प्रकाश ही प्रकाश।...
सब शांत हो गया, भीतर आनंद के झरने फूट रहे हैं। सब अंधकार मिट गया, भीतर प्रकाश ही प्रकाश शेष रह गया। सब आकार मिट गए, निराकार ही मौजूद रह गया। पहचानें, पहचानें, सब रूप खो गया, अरूप ही शेष रह गया। स्मरण करें, स्मरण करें।...
अब दोनों हाथ जोड़ लें, परमात्मा को धन्यवाद दे दें। दोनों हाथ जोड़ लें, सिर झुका लें, उसके अज्ञात चरणों में गिर जाएं, समर्पित हो जाएं। धन्यवाद दे दें।
उसकी अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है। जोड़े रहें हाथ। झुकाए रहें सिर। उसकी अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है।
देखें, देखने वाले चुपचाप खड़े रहें, बातचीत न करें।
उसकी अनुकंपा अपार है। प्रभु की अनुकंपा अपार है। अब दोनों हाथ नीचे गिरा लें। धीरे-धीरे आंख खोलें। आंख न खुलती हो तो दोनों हाथ आंख पर रख लें, फिर धीरे-धीरे आंख खोलें। उठते न बने तो दो-चार गहरी श्वास लें, फिर धीरे-धीरे उठ आएं।
जो पड़े रह जाएं और पड़े रहना चाहें थोड़ी देर, उन्हें कोई दूसरा न उठाए। और जो लोग कैम्पस में उठ गए हैं ध्यान के बाहर, वे धीरे-धीरे चले जाएंगे। किसी को बैठे रहना है, पड़े रहना है, वह पड़ा रहे। छह बजे उन्हें उठा दिया जाएगा। बाकी जो लोग उठ गए हैं, धीरे-धीरे जाएं।
ओशो रजनीश
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