श्री कृष्ण स्मृति भाग 35

 "भगवान श्री, कृष्ण के बाल्यकाल की तथा अन्य इतनी कथाएं हैं--जैसे चाणूर तथा मुष्टिक नाम के पहलवानों को पछाड़ना; कंस-वध; कालिया-मर्दन; कीर्ति, अघ, बक, घोटक, पूतना आदि असुरों का नाश; दावानल को पी जाना; इत्यादि-इत्यादि। तो, क्या ये सब सत्य कथाएं हैं, या प्रतीक हैं? और इनमें से कौन-कौन सी लक्षणाएं और प्रतीक हैं। साथ ही, गीता के वचन "विनाशाय च दुष्कृताम्' से आप अर्थ लेते हैं कि दुष्टों का परिवर्तन करते हैं, उनका सुधार करते हैं। लेकिन कृष्ण ने उपरोक्त दुष्टों का वध क्यों किया और कराया?'


इस संबंध में एक बात तो सबसे पहले यह समझनी जरूरी है, जो कि सदा से ही लोगों को उलझन में डालती रही है; छोटा-सा बच्चा है कृष्ण, इतने शक्तिशाली लोगों को हरा कैसे सकेगा? लोगों के पास एक ही उपाय था इस पहेली को हल करने का।

और वह उपाय यह था कि वह कृष्ण को भगवान मान लें, परम शक्तिवान मान लें। फिर सारी पहेलियां हल हो जाती हैं। लेकिन इसका भी मतलब गहरे में यही हुआ कि छोटी शक्ति पर बड़ी शक्ति विजय पा जाती है। कोई राक्षस है, कोई शक्तिशाली पहलवान है, कृष्ण दिखाई पड़ते हैं छोटे, लेकिन वे महाशक्तिवान हैं। लेकिन मेरा मानना है कि इस तरह की व्याख्या ने कृष्ण के व्यक्तित्व को समझा ही नहीं। इस तरह की जो व्याख्या है, वह मूलतः गलत, भ्रांत है। क्योंकि उसमें जो आधार में बात है, वह यही है कि बड़ी शक्ति छोटी पर जीत जाती है। मैं कुछ और कहना चाहूंगा, उसे समझना जरूरी होगा।

इस जगत में जो जीतना नहीं चाहता, वह जीत जाता है और जो जीतना चाहता है, वह हार जाता है। इन सारी कथाओं में मेरे लिए अर्थ ऐसा है--जो जीतना नहीं चाहता, वह जीत जाता है, जो जीतना चाहता है, वह हार जाता है। असल में जीतने की चाह में ही बहुत गहरे में हार छिपी है। और जो जीतना नहीं चाहता, इस भाव में ही वह जीता ही हुआ है यह भाव छिपा है। इसे ऐसा समझें अगर कि जो आदमी जीतना चाहता है, वह गहरे में "इनफीरिऑरिटी कांप्लेक्स' से पीड़ित है। जो आदमी जीतना चाहता है, वह हीनभाव से पीड़ित है। वह जानता तो है कि हीन है, जीतकर सिद्ध करना चाहता है कि हीन नहीं है। जो आदमी जीतने के लिए आतुर ही नहीं है, वह अपनी श्रेष्ठता में प्रतिष्ठित है। उसे कहीं कोई हीनता ही नहीं है जिसे असिद्ध करने के लिए जीत अनिवार्य हो।

इसे अगर हम "ताओ' से समझेंगे तो बहुत आसानी हो जाएगी।

लाओत्से ने एक दिन अपने मित्रों को कहा है कि मुझे जिंदगी में कोई हरा नहीं सका। तो एक व्यक्ति ने उससे खड़े होकर पूछा कि वह राज हमें भी बताओ, वह "सीक्रेट', क्योंकि जीतना तो हम भी चाहते हैं और हम भी चाहते हैं कि कोई हमें हरा न सके। लाओत्से हंसने लगा, उसने कहा कि फिर तुम न समझ सकोगे उस राज को। क्योंकि तुमने पूरी बात भी न सुनी और बीच में ही पूछ बैठे। मैंने कहा था, मुझे जिंदगी में कोई हरा न सका...पूरा वाक्य तो कर लेने दो। लाओत्से ने पूरा वाक्य किया, उसने कहा, मुझे जिंदगी में कोई हरा न सका, क्योंकि मैं हारा ही हुआ था। मैं पहले से ही हारा हुआ था। मुझे जीतना मुश्किल था, क्योंकि मैंने जीतना ही नहीं चाहा था। तो उसने उन लोगों से कहा कि तुम अगर सोचते हो कि तुम मरे राज को समझ जाओगे, तो गलती में हो। तुम जीतने की आकांक्षा करते हो, वही तुम्हारी हार बन जाएगी। सफलता की आकांक्षा ही अंत में असफलता बनती है, और जीवन की अति आकांक्षा ही अंत में मृत्यु बन जाती है, स्वस्थ होने का पागलपन ही बीमारी में ले जाता है। जिंदगी बहुत अदभुत है। यहां हम जिस चीज को बहुत जोर से मांगते हैं, उसी को खो देते हैं। जिस चीज को हम मांगते नहीं, वह मिल जाती है। असल में हम मांगते नहीं, इसका मतलब ही यही है कि वह मिली ही हुई है।

कृष्ण बड़े शक्तिशाली हैं इसलिए जीत जाते हैं, ऐसा मैं न कहूंगा, क्योंकि यह तो फिर वही शक्ति का पुराना कानून हुआ कि छोटी मछली को बड़ी मछली खा जाती है, इसमें कृष्ण की कोई विशेषता न होगी। अगर राक्षस बड़े शक्तिशाली होते तो वे जीत जाते। यह तो फिर गणित हुआ शक्ति का। यह तो गणित हुआ तराजू पर वजन का कि जहां वजन ज्यादा था, वहां नीचे बैठ जाएगा। इसमें कृष्ण की कोई बड़ी जीत नहीं है। लेकिन जिन लोगों ने भी आज तक कृष्ण की जीत की व्याख्या की है, वह इसी तरह सोच सके। क्योंकि उनके पास एक ही गणित है।

जीसस का एक वचन है, "ब्लेसेड आर द मीक, बिकाज़ दे शैल इनहेरिट द अर्थ'। धन्य हैं विनम्र, क्योंकि पृथ्वी का राज्य उन्हीं का होगा। बड़ी उलटी बात है। धन्य हैं विनम्र क्योंकि पृथ्वी के मालिक वे ही होंगे। कृष्ण जीतने को बिलकुल आतुर ही नहीं हैं। बच्चे जीतने को आतुर होते भी नहीं, सिर्फ खेलने को आतुर होते हैं। जीत बड़े बाद में आती है, जब चित्त बड़े बीमार हो जाते हैं, रुग्ण हो जाते हैं। कृष्ण तो खेल रहे हैं। वह बड़े राक्षसों से लड़ रहे हैं, तब भी खेल में हैं। राक्षस जीतने के लिए आतुर हैं, और एक विनम्र बच्चे से, जिसे जीतने का कोई खयाल ही नहीं। जो अभी खेल रहा है। जो एकदम मासूम और नाजुक है। उससे वे राक्षस हार जाते हैं। हार जाएंगे।

जापान में एक कला है, जिसका नाम है, जूडो। या दूसरा है, जिजुत्सू। इस कला के संबंध में दोत्तीन बातें खयाल में ले लें तो बड़ा अच्छा होगा। जूडो कुश्ती की कला है, लेकिन उसका राज बड़ा उलटा है। जूडो की कला जो सीखता है लड़ने के लिए, उसके नियम हमारी लड़ाई के नियम से बिलकुल उलटे हैं। अगर मैं आपसे लडूं, तो मैं आप पर चोट करूंगा। आप चोट का बचाव करेंगे। आप मुझ पर चोट करेंगे, मैं चोट का बचाव करूंगा। यह साधारण लड़ने का नियम है। जूडो का नियम उलटा है। जूडो का नियम यह है कि मैं आप पर हमला कभी न करूं, जिसने हमला किया है वह हार जाएगा; क्योंकि हमले में शक्ति व्यय होती है। मैं हमले को उकसाऊं, दूसरे को प्रेरित करूं कि वह हमला करे। और मैं बिलकुल "एट ईज़', अपने में रहूं, मैं जरा भी हिलूं-डुलूं भी नहीं। मैं कुछ करूं ही नहीं, मैं सिर्फ दूसरे को उकसाऊं कि वह हमला करे। मैं उसे क्रोधित करूं, मैं उसे भड़काऊं, मैं उसे जलाऊं और मैं शांत रहूं। और जब वह हमला करे तो मैं "रेज़िस्ट' न करूं। जब वह मेरे ऊपर चोट करे, घूंसा मारे, तो मैं उसके घूंसे के विरोध में अपने शरीर को अकड़ाऊं न। शरीर को ढीला और "रिलेक्स' छोड़ दूं कि उसको घूंसा मेरा शरीर पी जाए।

कभी आपको खयाल है कि एक शराबी के साथ बैठ जाएं एक बैलगाड़ी में और बैलगाड़ी उलट जाए रास्ते में, तो आपको चोट लगेगी, शराबी को नहीं लगेगी। कभी सोचा कि राज क्या है? शराबी ज्यादा ताकतवर है, इसलिए चोट नहीं लगी? आप कमजोर हैं, इसलिए चोट लग गई? नहीं, जब गाड़ी उलटी तो आप होश में हैं। गाड़ी के उलटते ही आपको लगा कि अब चोट लगेगी, अब मैं बचूं। और आप सख्त हो गए, "स्ट्रेन्ड' हो गए; आपकी नसें, आपकी हड्डियां सब मजबूती से जमीन के खिलाफ खड़ी हो गईं बचाव के लिए। आप कड़े हो गए। शराबी को पता ही नहीं है कि गाड़ी उलट गई। या गाड़ी पहले से ही उलटी हुई थी उनके लिए, उसमें कोई खास फर्क नहीं है। वह गिर गए, वह गिरने के साथ "को-ऑपरेट' किए। उन्होंने गिरने के साथ सहयोग किया--वह जमीन के खिलाफ अकड़े नहीं, जमीन के साथ एक हो गए। तो शराबी जब गिरता है तो वह बोरे की तरह गिरता है। इसलिए शराबी रोज रात गिरते हैं, चोटें नहीं खाते। आप उतने गिरें तो पता चल जाए। बच्चे रोज गिरते हैं, हड्डियां नहीं टूटती हैं। आप उतने गिरें तो एक ही दिन में सब नष्ट हो जाए। क्या बात है? बच्चे की ताकत ज्यादा है कि बच्चा गिरता है, हड्डी नहीं टूटती? नहीं, बच्चा गिरने के साथ भी एक हो जाता है। विरोध नहीं करता गिरने का। गिरने में भी साथ देता है। गिरते वक्त भी राजी होता है। "एक्सेप्टिबिलिटी' है गिरते वक्त।

तो जूडो की कला कहती है कि जब तुम्हें कोई मारे, तब तुम राजी हो जाओ पिटने को, और जरा भी कहीं भीतर से विरोध न करना। बड़ी कठिन कला है। राजी हो जाना, पी जाना उसके घूंसे को। तो एक तो खुद हमला मत करना, क्योंकि हमले में शक्ति व्यय होती है। और जब कोई दूसरा घूंसा मारे, तो उसके घूंसे को भी पी जाना, तो उसकी शक्ति भी तुम्हें मिल जाती है। और इसलिए जूडो में बड़ा पहलवान हार सकता है और कमजोर आदमी जीत सकता है। जीत जाता है।

मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं कि कृष्ण जूडो जानते थे। सभी बच्चे जूडो जानते ही हैं। वही उनकी जिंदगी का राज है, बच्चे की जिंदगी का। कृष्ण जीत सके अगर--सभी कथाएं ऐतिहासिक हैं, यह मैं नहीं कह रहा हूं; मैं तो उसके भीतर जो मनोवैज्ञानिक सत्य है उसकी बात कर रहा हूं--कृष्ण अगर जीत सके, तो खेल था उनके लिए, अभिनय था। मौज थी, मजा था। हमलेवर वे न थे, जीतने किसी को निकले न थे। कोई दूसरा जीतने आया था। और मैं मानता हूं कि कृष्ण जैसे बच्चे पर अगर किसी पहलवान ने हमला किया, तो हम कह सकते हैं कि यह पहलवान हार जाएगा। क्योंकि जो बच्चे पर हमला करने गया है, वह भीतर से बड़ा हारा हुआ आदमी होना चाहिए। बहुत, उसके भीतर बहुत "कांफिडेंस' होना नहीं चाहिए। उसके भीतर आत्मविश्वास बिलकुल नहीं है। एक छोटे-से बच्चे पर इतना बड़ा पहलवान हमला करने गया है, यही इस बात की सूचना है कि यह हारेगा। यह हार ही चुका है। इसको लड़ने की कोई जरूरत नहीं थी। इसको पहले ही मान लेना था कि हार चुका है। हम सदा हमला जब करते हैं किसी पर, हमला करने को उत्सुक होते हैं जब किसी पर, तब बहुत गहरे में हमने उससे अपनी हीनता स्वीकार कर ली। असल में जो श्रेष्ठ हैं वे किसी पर हमला करते ही नहीं, क्योंकि ऐसा कोई आदमी नहीं दिखाई पड़ता जिससे वे हीन हैं और हमला करें। हमले की कोई जरूरत नहीं होती। भीतर की हीनता का कीड़ा हमला करवा देता है।

कृष्ण का कमजोर होना, बालक होना, कृष्ण का लड़ने के लिए आतुर न होना, कृष्ण का किसी पर जीतने के लिए आकांक्षी न होना ही राज है। घटनाएं ऐतिहासिक हैं या नहीं, यह मुझे मतलब नहीं, लेकिन जूडो की पूरी-की-पूरी "फिलासफी', जुजुत्सू की पूरी-की-पूरी कला कृष्ण की जिंदगी में शुरू होती है। मैं तो कहूंगा कि कृष्ण जो हैं वह जुजुत्सू के पहले मास्टर हैं। न तो किसी को जापान में पता है, न किसी को चीन में पता है, न किसी को हिंदुस्तान में पता है कि इस आदमी के सारी विजय का राज क्या है। इस आदमी के विजय का राज ही यही है कि यह विजय करना ही नहीं चाहता, इसे खेल है सब। उस खेल में यह तल्लीन हो जाता है। दूसरा तनावग्रस्त है, दूसरा चिंतित है, जीने को आतुर है, परेशान है, वह अपने भीतर बंटा और कटा हुआ है, टूट रहा है, अपने-आप हार जाएगा। बच्चे को हराना मुश्किल है, यही अर्थ है।

ओशो रजनीश




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