श्री कृष्ण स्मृति भाग 36

 "भगवान श्री, यशोदा को मुख में ब्रह्मांड का दर्शन कराना और अर्जुन को युद्ध में विश्वरूप का दर्शन कराना, इन दोनों घटना विशेष का आप तात्पर्य बतलाएं और यह भी बताएं कि क्या दिव्य-दृष्टि देकर वापस भी ली जा सकती है, जैसा कि कृष्ण ने अर्जुन को देकर वापस ले ली थी?'


आंखें नहीं हैं हमारे पास, अन्यथा सब जगह हमें विराट का दर्शन हो जाए। आंखें नहीं हैं हमारे पास, अन्यथा सभी जगह ब्रह्मांड है। कृष्ण तो सिर्फ निमित्त हैं। यशोदा को दिखाई पड़ सहता है ब्रह्मांड उनके मुख में। ऐसे भी किस मां को अपने बेटे के मुख में ब्रह्मांड नहीं दिखाई पड़ता है! ऐसे भी किस मां को अपने बेटे में ब्रह्म नहीं दिखाई पड़ता! खो जाता है धीरे-धीरे, यह बात दूसरी। लेकिन, पहले तो दिखाई पड़ता है! यशोदा को दिखाई पड़ सका कृष्ण के मुंह में विराट, ब्रह्म, ब्रह्मांड, सभी मां को दिखाई पड़ता है। लेकिन यशोदा पूरे अर्थों में मां थी, इसलिए पूरी तरह दिखाई पड़ सका है। और, कृष्ण पूरे अर्थों में बेटा था, इसलिए निमित्त बन सका। इसमें कुछ "मिकरेल' नहीं है। इसमें कोई चमत्कार नहीं है। अगर आप प्रेम से मुझे भी देख सकें, तो ब्रह्मांड दिखाई पड़ सकता है। देखने वाली आंखें चाहिए, एक। और योग्य निमित्त चाहिए। एक छोटे-से फूल में दिख सकता है सारा जगत। है भी छिपा। यहां अणु-अणु में विराट छिपा है। एक छोटी-सी बूंद में पूरा सागर छिपा है। एक बूंद को कोई पूरा देख ले तो पूरा सागर दिख जाएगा।

अर्जुन को भी दिखाई पड़ सका, वह भी कुछ कम प्रेम में न था कृष्ण के। ऐसी मैत्री कम घटित होती है पृथ्वी पर, जैसी वह मैत्री थी। उस मैत्री के क्षण में अगर कृष्ण निमित्त बन गए और अर्जुन को दिखाई पड़ सका, तो कुछ आश्चर्य नहीं है, न कोई चमत्कार है। और ऐसा नहीं है कि एक ही बार ऐसा हुआ है, ऐसा हजारों बार हुआ है। उल्लेख नहीं होता है, यह बात दूसरी है; संगृहीत नहीं होता है, यह बात दूसरी है।

यह जरूर समझने जैसा है कि क्या दी गई दिव्य-दृष्टि वापस ली जा सकती है?

न तो दिव्य-दृष्टि दी जा सकती है, और न वापस ली जा सकती है। किसी क्षण में दिव्य-दृष्टि घटित होती है और खो सकती है। दिव्य-दृष्टि एक "हैपेनिंग' है। किसी क्षण में आप अपनी चेतना के उस शिखर को छू लेते हैं, जहां से सब साफ दिखाई पड़ता है। लेकिन उस शिखर पर जीना बड़ा कठिन है। जन्म-जन्म लग जाते हैं उस शिखर पर जीने के लिए। उस शिखर से वापिस लौट जाना पड़ता है। जैसे जमीन से आप छलांग लगाएं, तो एक क्षण को जमीन के "ग्रेवीटेशन' के बाहर हो जाते हैं। खुले आकाश में, मुक्त पक्षियों की तरह हो जाते हैं। एक क्षण के लिए। लेकिन बीता नहीं क्षण कि आप जमीन पर वापिस हैं। एक क्षण को पक्षी होना आपने जाना। ठीक ऐसे ही चेतना का "ग्रेवीटेशन' है, चेतना की अपनी कशिश है, चेतना के अपने चुंबकीय तत्त्व हैं जो उसे नीचे पकड़े हुए हैं। किसी क्षण में, किसी अवसर में, किसी "सिचुएशन' में आप इतनी छलांग ले पाते हैं कि आपको विराट दिखाई पड़ जाता है--एक क्षण को। जैसे बिजली कौंध गई हो। फिर आप वापिस जमीन पर आ जाते हैं। निश्चित ही अब आप वही नहीं होते जो इस दर्शन के पहले थे। हो भी नहीं सकते। क्योंकि एक क्षण को भी अगर इस विराट को देख लिया, तो अब आप वही नहीं हो सकते जो पहले थे। आप दूसरे हो गए। लेकिन वह जो दिखा था, वह खो गया।

जैसे रात अंधेरी है और बिजली कौंध जाए। एक क्षण को फूल दिखाई पड़ें, पहाड़ दिखाई पड़ें और खो जाएं, फिर घना अंधकार हो जाए। लेकिन अब मैं वही नहीं हूं, जो पहले अंधकार में था। पहले तो मुझे पता भी नहीं था कि पहाड़ भी हैं, वृक्ष भी हैं, फूल भी हैं। अब मुझे पता है। अंधकार घना है। लेकिन अब उन फूलों को अंधकार मुझसे छीन नहीं सकता। अब उन पहाड़ों को अंधकार मुझसे छीन नहीं सकता। वे मैंने जान लिए, अब वे मेरे हिस्से हो गए हैं। अब मैं जानता हूं, चाहे देखूं और चाहे न देखूं; चाहे पता चले, चाहे पता न चले; लेकिन बहुत गहरे में मैं जानता हूं, चाहे देखूं और चाहे न देखूं; चाहे पता चले, चाहे पता न चले; लेकिन बहुत गहरे में मैं जानता हूं कि पहाड़ हैं, वृक्ष हैं, फूल हैं। उनकी अज्ञात सुगंधें मुझे छुएंगी, उनकी अज्ञात हवाओं में मुझे संदेश मिलेगा। अंधकार उन्हें छिपा सकता है, अब लेकिन मुझसे मिटा नहीं सकता।

दिव्य-दृष्टि कोई देता नहीं। लेकिन कृष्ण कहते मालूम पड़ते हैं कि मैं तुझे दिव्य-दृष्टि देता हूं। इससे कठिनाई पैदा होती है। असल में आदमी की भाषा बड़ी उलझन से भरी है। यहां हमें ऐसे शब्दों के प्रयोग करने पड़ते हैं जो कि वस्तुतः जीवंत नहीं हैं। यहां हमें देने-लेने की बात बोलनी पड़ती है। हम अक्सर कहते हैं कि मैं फलां व्यक्ति को प्रेम देता हूं। लेकिन प्रेम दिया जा सकता है? प्रेम कोई वस्तु है, जो दे देगा? प्रेम घटित होता है, दिया नहीं जाता। लेकिन भाषा ऐसा कहती है कि मैं प्रेम देता हूं। मां कहती है, मैं बेटे को प्रेम देती हूं। किसी मां ने बेटे को कभी प्रेम दिया है? प्रेम हुआ है। "इट हैज़ हैपेंड', वह घटित हुआ है, दिया नहीं गया। ठीक उसी तरह भाषा की बात है, और ज्यादा बात नहीं है। न कोई प्रेम देता है, न कोई लेता है। प्रेम घटता है। घट भी सकता है, खो भी सकता है। ऊंचाइयां घटती हैं और खो जाती हैं। ऊंचाइयों पर रहना मुश्किल है। हिलेरी और तेनसिंग एवरेस्ट पर गए। झंडा गाड़ा, वापिस लौट आए। एवरेस्ट पर रहना मुश्किल है। ऊंचाइयों पर रहना मुश्किल है। लेकिन एवरेस्ट पर किसी दिन रहा जा सकेगा, हम इंतजाम कर लेंगे--लौटना नहीं होगा, रुक भी सकेंगे, चेतना की ऊंचाइयों पर रुकना तो बहुत मुश्किल होता है। बहुत मुश्किल हो जाता है चेतना की ऊंचाइयों पर रुकना।

लेकिन, रुका जाता है। कृष्ण जैसे व्यक्ति रुकते हैं। अर्जुन जैसे व्यक्ति छलांग लगाते हैं, देखते हैं, वापिस लौट आते हैं। यह घटना घटती है, यह लेना-देना नहीं है। लेकिन हमारी भाषा लेने-देने में सोचती है। इससे बहुत कठिनाई होती है। हम कहते हैं, हमने फलां व्यक्ति को सहानुभूति दी। सहानुभूति कोई देता है? बस घटती है। जो ठीक शब्द है, वह यह है कि कृष्ण और अर्जुन के बीच उस क्षण में दिव्य-दृष्टि घटी। उसमें कृष्ण निमित्त बने, अर्जुन छलांग लगाने वाला बना। लेकिन भाषा में इसे कैसे कहेंगे? भाषा में इसे ऐसे ही कहेंगे कि दिव्य-दृष्टि दी। जैसा मैंने कहा कि मैं यहां बैठा हूं और अगर मुझे पूरे प्रेम से कोई खुली आंख से देख सके तो कुछ घट सकता है। लेकिन जब आपको घटेगा तो आप भी कहेंगे कि आपने दिया। लेकिन मैं कहां देने वाला हूं! शायद भाषा में कहना पड़े तो मैं भी कहूं कि मुझसे आपको मिला। लेकिन मुझसे क्या मिल सकता है!

"केमिस्ट्री' में शब्द है, उसे समझना चाहिए। वह है, "केटेलेटिक एजेंट'। "केटेलेटिक एजेंट' उस चीज को कहते हैं जिसकी मौजूदगी में कोई चीज घट जाती है। लेकिन वह कोई भी भाग नहीं लेता। जैसे कि, उदाहरण के लिए, हाइड्रोजन और आक्सीजन को अगर हमें मिलाना हो और पानी बनाना हो, तो बीच में विद्युत की मौजूदगी चाहिए। अगर बीच में विद्युत मौजूद न हो, तो हाइड्रोजन आक्सीजन अलग-अलग रहेंगे, मिल न सकेंगे। आकाश में भी जो बिजली चमकती है वह इसीलिए चमकती है, अन्यथा आकाश के हाइड्रोजन और आक्सीजन पानी नहीं बन सकेंगे। वह बिजली की चमक की वजह से पानी बन जाता है बादल। लेकिन बड़ी खोज करके भी यह पता नहीं चलता है कि बिजली का कोई "कंट्रीब्यूशन' है। कोई "कंट्रीब्यूशन' नहीं है। बिजली कुछ करती नहीं। आक्सीजन और हाइड्रोजन को मिलाने के लिए बिजली कुछ भी नहीं करती। बिजली से कुछ भी नहीं जाता, लेकिन सिर्फ मौजूदगी, "जस्ट प्रेज़ेंस', उसकी मौजूदगी भर जरूरी है। उसकी बिना मौजूदगी के नहीं होगा। उसकी मौजूदगी में हो जाएगा। ऐसे "केमिस्ट्री' में बहुत "केटेलेटिक एजेंट' हैं जिनकी मौजूदगी जरूरी है। लेकिन सब तरफ की नाप-जोख से पता चलता है कि उनसे कुछ जाता नहीं, उनसे कुछ खोता नहीं, उनसे कुछ होता नहीं।

कृष्ण जो हैं, वह "केटेलेटिक एजेंट' हैं। और जिनको हम अब तक गुरु समझते रहे हैं वह बड़ी भ्रांति है। दुनिया में कोई गुरु नहीं हैं, सिर्फ "केटेलेटिक एजेंट' हैं। चेतना में भी घटनाएं घट सकती हैं किसी की मौजूदगी में, जो कि बिना मौजूदगी में शायद न घटें। कृष्ण की मौजूदगी में घटना घटती है। अर्जुन बेचारा निश्चित ही कहेगा कि आपने मुझे दी। रामकृष्ण की मौजूदगी में विवेकानंद को  कुछ घटित होता है। विवेकानंद जरूर ही कहेंगे कि आपने मुझे दिया। और रामकृष्ण अगर भाषा में, बहुत झंझट में न पड़ना चाहते हों तो वह भी कहेंगे, ठीक है। भाषा की झंझट में कभी लोग पड़ना भी नहीं चाहते...मेरे जैसे लोगों को छोड़कर। लेने-देने से काम चल जाता है। लेकिन वह शब्द उचित नहीं है, "एप्रोपिएट' नहीं है। ठीक जगह पर नहीं है। और आदमी के पास दूसरा कोई शब्द भी नहीं है।

एक चित्रकार से पूछें, वानगाग से पूछें। पूछें कि तुमने यह जो चित्र बनाया...तो वानगाग कहेगा, मैंने बनाया नहीं है, यह मुझसे बना। मगर हम कहेंगे, इससे क्या फर्क पड़ता है? फर्क बहुत पड़ता है। और हो सकता है इस झंझट में वानगाग भी न पड़े और वह कहे कि हां, मैंने बनाया है। क्योंकि सारी दुनिया ने देखा उसे बनाते हुए। यह कोई झूठी बात नहीं है। गवाह मिल जाएंगे कि यह आदमी बना रहा था। लेकिन वानगाग की अंतरात्मा तो कहती है कि मैंने बनाया नहीं, मुझसे बना। यह घटना घटी। यह एक "हैपेनिंग' है, यह "डूइंग' नहीं है। यह मेरे भीतर से हुआ। यह मैंने नहीं बनाया, यह मुझसे बनवा लिया गया। मैं सिर्फ मौजूद था, मैं सिर्फ गवाह था।

तो दिव्य-दृष्टि की जो घटना घटी है कृष्ण- अर्जुन के बीच, वह एक बार नहीं, बहुत बार घटी है। कभी बुद्ध- मौगल्लान के बीच घटी है, कभी बुद्ध-सारिपुत्त के बीच घटी है, कभी महावीर-गौतम के बीच घटी है, कभी जीसस और ल्यूक के बीच घटी है, कभी रामकृष्ण-विवेकानंद के बीच घटी है, हजारों-लाखों दफे घटी है। वह चमत्कार नहीं है। इस जगत में चमत्कार होते ही नहीं। अज्ञान नहीं समझ पाता और चमत्कार समझ लेता है। सब चमत्कार अज्ञान से पैदा होते हैं। चमत्कार हो ही नहीं सकते। जो भी हो रहा है, सब सत्य है, सब तथ्य है। इस जगत में सब तथ्य है, सब सत्य है। लेकिन जब हम नहीं समझ पाते तो चमत्कार हो जाता है।

ओशो रजनीश



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