श्री कृष्ण स्मृति भाग 7

 "कृष्ण को पूर्णावतार कहने के क्या-क्या कारण हैं? कुछ और नए कारण बताएं। और चौंसठ कलाओं के संदर्भ में सविस्तार प्रकाश डालें।'


नहीं, पूर्ण को कहने का और कोई कारण नहीं है। जो व्यक्ति भी शून्य हो जाता है, वह पूर्ण हो जाता है। शून्यता पूर्ण की भूमिका है। अगर ठीक से कहें तो शून्य ही एकमात्र पूर्ण है। इसलिए आप आधा शून्य नहीं खींच सकते। ज्यामेट्री में भी नहीं खींच सकते। आप अगर कहें कि मैंने आधा शून्य खींचा, तो वह शून्य नहीं रह जाएगा, आधा शून्य होता ही नहीं। शून्य सदा पूर्ण ही होता है। पूरा ही होता है। अधूरे का कोई मतलब ही नहीं होता। शून्य के दो हिस्से कैसे करियेगा? और जिसके दो हिस्से हो जाएं उसको शून्य कैसे कहियेगा? शून्य कटता नहीं, बंटता नहीं, "इंडिविजिबल' है। विभाजन नहीं होता। जहां से विभाजन शुरू होता है, वहां से संख्या शुरू हो जाती है। इसलिए शून्य के बाद हमें एक से शुरू करना पड़ता है। एक, दो, तीन, यह फिर संख्या की दुनिया है। सब संख्याएं शून्य से निकलती और शून्य में खो जाती हैं। शून्य एक मात्र पूर्ण है।

शून्य कौन हो सकता है? वही पूर्ण हो सकता है। कृष्ण को पूर्ण कहने का अर्थ है। क्योंकि यह आदमी बिलकुल शून्य है। शून्य वह हो सकता है जिसका कोई चुनाव नहीं। जिसका चुनाव है, वह तो कुछ हो गया। उसने "समबडीनेस' स्वीकार कर ली। उसने कहा कि मैं चोर हूं, यह कुछ हो गया। शून्य कट गया। उसने कहा मैं साधु हूं, यह कट गया, शून्य कट गया। यह आदमी कुछ हो गया। इसने कुछ होने को स्वीकार कर लिया, "समबडीनेस' आ गई, "नथिंगनेस' खो गई। अगर कृष्ण से कोई जाकर पूछे कि तुम कौन हो, तो कृष्ण कोई सार्थक उत्तर नहीं दे सकते हैं। चुप ही रह सकते हैं। कोई भी उत्तर देंगे तो चुनाव शुरू हो जाएगा। वह कुछ हो जाएंगे। असल में जिसको सब कुछ होना है, उसे न-कुछ होने की तैयारी चाहिए।

झेन फकीरों के बीच एक कोड है। वे कहते हैं: "वन हू लांग्स टु बी एवरीव्हेयर, मस्ट नॉट बी ऐनीव्हेयर'। जिसे सब कहीं होना हो, उसे कहीं नहीं होना चाहिए। या न-कहीं होना चाहिए। जो सब होना चाहता है, वह कुछ नहीं हो सकता। कैसे कुछ होगा? कुछ और सबका क्या मेल होगा? चुनाव नहीं। "च्वाइसलेसनेस' शून्यता ला देती है। फिर आप जो हैं, हैं। लेकिन, कह नहीं सकते कौन हैं, क्या हैं? इसलिए अर्जुन उनसे पूछता है कि आप बताएं आप कौन हैं? तो उत्तर नहीं देते, अपने को ही बता देते हैं। उसमें वे सब हैं। पूर्ण का बहुत गहरा कारण तो उनका शून्य व्यक्तित्व है। जो कुछ है, वह अड़चन में पड़ेगा। क्योंकि जिंदगी ऐसी जगह उसको ले जाएगी जहां उसका कुछ होना बंधन हो जाएगा। अगर मैंने कुछ भी होने का तय किया, तो जिंदगी उन घड़ियों को भी लाएगी जब मेरा कुछ होना ही मेरे लिए मुश्किल पड़ जाएगा।

कबीर के घर बहुत लोग रुकते थे और कबीर सबको कहते, खाना खा जाओ। और एक दिन बड़ी मुश्किल हो गई। कबीर के बेटे ने कहा, कब तक यह चलेगा? हम उधारी से दबे जाते हैं। तो कबीर ने कहा, उधारी लेते रहो । तो उसके बेटे ने कहा, चुकाएगा कौन? कबीर ने कहा, जो देता है वही चुका भी लेगा। हम क्यों फिकिर करें! लेकिन बेटे की समझ में न आया। वह गणित और हिसाब-किताब का आदमी! उसने कहा कि इन बातों से नहीं चलेगा, यह कोई अध्यात्म नहीं है। यहां जिनसे हम लेते हैं, वे मांगते हैं। और न देंगे तो चोर हो जाएंगे, बेईमान सिद्ध होंगे। तो कबीर ने कहा, सिद्ध हो जाना। इसमें हर्ज क्या है। और अगर लोगों ने हमें बेईमान कहा तो हमारा क्या बिगड़ जाएगा। लेकिन बेटे ने कहा कि यह हमारे बर्दाश्त के बाहर है। आप कृपा करके इतने उपद्रव में न डालकर, लोगों से खाना खाएं यहां यह आग्रह करना बंद कर दें। कबीर ने कहा, होगा तो हो जाएगा।

लेकिन दूसरे दिन फिर लोग आए और कबीर ने कहा, खाना खाकर जाना, और लोगों ने खाया और उनके लड़के ने कहा कि वह नहीं हुआ। कबीर ने कहा कि मैं कोई वचन नहीं दे सकता, क्योंकि मैं कोई बंधन में नहीं पड़ सकता। हो जाएगा तो हो जाएगा। किसी दिन नहीं कहूंगा तो नहीं कहूंगा, और जब तक होता है, कहना निकलता है, तो कहता हूं। उस लड़के ने कहा, फिर अब ज्यादा नहीं चल सकती बात। अब तो मुझे चोरी ही करनी पड़ेगी, उधार भी देने को गांव में कोई तैयार नहीं है। तो कबीर ने कहा, पागल, यह पहले ही क्यों न सोचा, उधारी की झंझट से बच जाते। लेकिन बेटा बड़ी मुश्किल में पड़ गया क्योंकि कबीर, साधु, सदा अच्छी बात कहता, यह हो क्या गया है? लेकिन बेटे ने कहा परीक्षा कर लें, कहीं यह मजाक तो नहीं है।

तो रात उसने कबीर को उठाया कि मैं चोरी को जाता हूं, आप भी साथ चलेंगे? कबीर ने कहा, जब उठा ही लिया है तो चला चलता हूं। बेटे ने सोचा, क्या सच में ही यह चोरी को राजी हो जाएंगे! लेकिन बेटा भी कबीर का था। उसने कहा कि इतनी जल्दी लौट जाना ठीक नहीं, हो सकता है मजाक ही हो। वह गया, उसने जाकर दीवाल तोड़नी शुरू की, सेंध लगाई। कबीर किनारे खड़े हैं। उसने देखा कि अभी भी कुछ नहीं कहते कि अब बस रुक जाओ, मजाक बंद। लेकिन वह डर रहा है। कबीर उसे कहते हैं, डरते क्यों हो? वह कहता है, डरें न और! और मजे की बात सुनिए वह कहता है कि, चोरी कर रहे हैं और डरें न! कबीर ने कहा, डरते हो इसलिए अपने को चोर समझ रहे हो। नहीं तो और कारण ही क्या है चोर समझने का? डरो मत, और ठीक से खुदाई करो, नहीं तो घर के लोग...नाहक नींद खराब हो जाएगी। तो बेटे ने किसी तरह तो खुदाई की। उसने सोचा कि शायद मजाक यहां खतम हो जाएगी। उसने कहा, अब भीतर चलें? कबीर ने कहा, चलो। वे भीतर गए। उन्होंने गेहूं का एक...कोई धन तो चुराना न था, भोजन की ही तकलीफ थी, तो एक गेहूं का बोरा खींचकर बाहर निकाला। जब बोरा बाहर निकल आया, कबीर ने कहा कि अब तो सुबह भी होने के करीब हो गई, नींद में कोई बाधा भी न पड़ेगी, घर के लोगों को जगाकर कह आओ कि हम एक बोरा चुराए लिए जाते हैं। तो उसके बेटे ने कहा, चोरी करने आए हैं कि कोई साहूकारी करने आए हैं। कबीर ने कहा, लेकिन घर के लोगों को परेशानी होगी कि कहां गया, क्या हुआ, ढूंढ़ने की मुसीबत होगी।

कबीर की इस घटना को कबीर को मानने वाला छांट ही जाता है। क्योंकि यह तो बेबूझ हो गई बात। कबीर साधु हैं कि कबीर चोर हैं? तय करना मुश्किल है। चोर होने में कोई कमी नहीं है, चोरी की गई है। साधु होने में जरा शक नहीं, क्योंकि कहता है--डरता क्यों है? क्योंकि कहता है, जगाकर घर के लोगों को खबर कर दें, उनको परेशानी न हो, वे खोजें न कि कौन ले गया, नाहक मुसीबत में न पड़ें। लड़का कहता है, घर में खबर करूंगा जाकर तो वे चोर समझेंगे। कबीर कहता है, चोरी तो की है तो चोर हैं। इसमें वे समझेंगे तो वे गलत तो न समझेंगे। तो ठीक ही समझेंगे। तो वह लड़का कहता है, गांव भर में खबर फैल जाएगी कि तुम चोर हो। कौन आएगा तुम्हारे पास? तो कबीर ने कहा, तेरी मुसीबत मिटेगी; न कोई आएगा, न मैं खाने के लिए कहूंगा। मगर वह लड़के के समझ में नहीं आता, वह सारी बात उलटी होती चली जाती है।

कृष्ण के पूरे होने का दूसरा अर्थ है कि कृष्ण के जीवन में वह सब कुछ है जो कि एक ही जीवन में होना मुश्किल है। असंभव लगता है। सब कुछ है--विरोधी, ठीक विरोधी। कृष्ण से ज्यादा असंगत, "इनकंसिस्टेंट' व्यक्तित्व नहीं है। जीसस के व्यक्तित्व में एक संगति है, महावीर के व्यक्तित्व में एक संगति है, बुद्ध के व्यक्तित्व में एक तर्क है, एक संगतिपूर्ण व्यवस्था है, एक "सिस्टम' है। बुद्ध का एक हिस्सा समझ लो, तो पूरे बुद्ध समझ में आ जाते हैं। रामकृष्ण ने कहा है कि एक साधु समझ लो तो सब साधु समझ में आ जाते हैं। यह कृष्ण की बाबत न लगेगा। रामकृष्ण ने कहा कि समुद्र की एक बूंद समझ लो तो पूरा समुद्र समझ में आ जाता है। यह कृष्ण की बाबत न लगेगा। समुद्र एकरस है, एक बूंद चखो तो खारी है, दूसरी बूंद चखो तो खारी है--सब नमक ही है। लेकिन कृष्ण में शक्कर भी मिल सकती है; और पक्का नहीं है कि पड़ोस की बूंद में शक्कर हो। कृष्ण का व्यक्तित्व जो है, सब-रस है।

ठीक ऐसा ही उनके व्यक्तित्व में सारी कलाएं हैं। कृष्ण कलाकार नहीं हैं, क्योंकि कलाकार में एक ही कला होती है। कृष्ण कला ही हैं। तब सब पूरा हो जाता है। और इसलिए जिन्होंने उनको देखा, जाना, पहचाना, उनको सब तरह की अतिशयोक्ति करनी पड़ी। हम सब के बाबत "एक्जजरेशन' से बच सकते हैं या एक ही दिशा में "एक्जजरेट' कर सकते हैं, कृष्ण के साथ कठिनाई खड़ी हो जाती है। क्योंकि हमारे पास जो अति आखिरी शब्द हैं वे हमें उपयोग करने पड़ेंगे। और कठिनाई और बढ़ जाती है कि इससे विपरीत अति का शब्द भी उपयोग करना पड़ेगा। वे ठंडे और गर्म एक साथ हैं। ऐसे पानी भी ठंडा और गर्म एक साथ ही होता है। हमारी व्याख्या से कठिनाई खड़ी हो जाती है। हम ठंडे और गर्म को अलग-अलग कर देते हैं। हम बांट देते हैं दो हिस्सों में। लेकिन अगर हम पानी से पूछें कि तुम ठंडे हो या गर्म? तो पानी क्या कहेगा? पानी कहेगा कि अपना हाथ डालकर देखिए तो आपको पता चल सकता है। क्योंकि असली सवाल मेरे ठंडे और गर्म होने का नहीं है, असली सवाल आप ठंडे हैं कि गर्म, इसका है।

अगर आप गर्म हैं तो पानी ठंडा मालूम पड़ सकता है, आप ठंडे हैं तो पानी गर्म मालूम पड़ सकता है। पानी का गर्म और ठंडा होना आपके प्रति "रिलेटिव' है, आपके प्रति सापेक्ष है। इसलिए अगर आप एक हाथ सिगड़ी पर रखकर गर्म कर लें और एक बर्फ पर रखकर ठंडा कर लें और फिर एक ही बालटी में डाल दें तो आप उसी मुश्किल में पड़ जाएंगे जो कृष्ण के साथ खड़ी होती है। तब पानी ठंडा-गरम दोनों मालूम पड़ेगा। एक हाथ कहेगा ठंडा है, एक हाथ कहेगा गर्म है। तब आप सिर पीट लेंगे, आप कहेंगे मेरे हाथ बड़ी गड़बड़ खबर देते हैं। हाथ ठीक खबर दे रहे हैं। हाथ ने सदा ही ठीक खबर दी है। हाथ असल में जो भी खबर देता है वह अपनी अपेक्षा में, अपनी सापेक्षता में, अपनी "रिलेटीविटी' में देता है। वह यह कहता है कि मेरे और पानी के बीच क्या संबंध है।

तो अगर आप किसी कृष्ण को प्रेम करने वाली राधा से पूछेंगे तो वह कुछ और खबर देगी कि कृष्ण कौन हैं। वह इसे पूर्ण भगवान शायद न भी कहे। या शायद कहे भी। उस पर निर्भर होगा। कृष्ण पर निर्भर नहीं होगा। राधा पर ही निर्भर होगा, वह "रिलेटिव' है। अगर राधा ने किसी और स्त्री के साथ कृष्ण को नाचते देख लिया तो भगवान कहना उसे बहुत मुश्किल पड़ेगा। अब यह पानी बिलकुल ठंडा मालूम पड़ेगा। पानी भी न मालूम पड़े, यह भी हो सकता है। लेकिन अगर कृष्ण राधा के साथ नाचे हैं तो वह इतना पूरा नाचते हैं उसके साथ भी कि उसे लगता है कि पूरे ही उसके हैं। तब वह उन्हें भगवान भी कह सकती है। सभी राधाएं, जब कोई उनके साथ पूरा नाचता है तो उसे भगवान कह देती हैं, लेकिन क्षण भर में वह आदमी शैतान भी हो सकता है। लेकिन ये सारे वक्तव्य सापेक्ष वक्तव्य हैं। अर्जुन से पूछियेगा, पांडवों से पूछियेगा, तो कृष्ण भगवान मालूम होंगे, कौरवों से पूछियेगा तो यह आदमी भगवान कैसे मालूम होगा। इस आदमी से ज्यादा शैतान और कौन होगा; यही तो उनकी पराजय बनता है, यही तो उनकी मृत्यु बनता है।

कृष्ण कौन हैं, ये हजार वक्तव्य हो सकते हैं। लेकिन बुद्ध कौन हैं, इसके बाबत वक्तव्य हजार नहीं होंगे। क्योंकि बुद्ध जो हैं वह सब सापेक्ष संबंधों में अपने को अलग कर लेते हैं, इसलिए वह एकरस हैं। उन्हें कहीं से भी चखो, वे खारे ही हैं। इसलिए बुद्ध के बाबत हमारे "स्टेटमेंट' का, वक्तव्य का क्या अर्थ हो सकता है। कृष्ण हमारे "स्टेटमेंट' को धोखा दे जाएंगे। और चूंकि उन्होंने सभी वक्तव्यों को धोखा दिया, इसलिए मैं कहता हूं कि वह पूर्ण हैं। कोई वक्तव्य उनको पूरा नहीं घेर पाता, बाकी रह जाता है और उलटे वक्तव्य से घेरना पड़ता है। और सभी वक्तव्य मिलकर ही उनको घेर पाते हैं, विरोधी हो जाते हैं।

कृष्ण की पूर्णता का अर्थ सिर्फ इतना ही है कि कृष्ण के पास अपने जैसा कोई व्यक्तित्व नहीं है। वह खाली अस्तित्व हैं, "एक्जिस्टेंस' हैं। अस्तित्व हैं, बस, खाली हैं, कहें कि दर्पण की तरह हैं। जो उनके सामने आ जाता है, वही उसमें दिखाई पड़ता है। "ही जस्ट मिरर्स'। जो भी दिखाई पड़ जाता है वही दिखाई पड़ता है। जब आपको अपनी शक्ल उसमें दिखाई पड़ती है तो आप सोचते हैं, मेरे जैसे हैं। और आप हटे नहीं कि वह शक्ल गई नहीं, और कृष्ण फिर खाली हैं। और जो भी सामने आता है, वह अपने जैसा बता देता है। ये सभी खबर देते हैं कि कृष्ण मेरे जैसे हैं। गीता में जिसने भी झांका उसने कह दिया कि गीता मेरी जैसी है, इसलिए हजार टीकाएं हो गईं। बुद्ध के वचनों की इतनी टीकाएं नहीं हैं। उसका कारण है। जीसस के वचनों की इतनी टीकाएं नहीं हैं। दस-पांच टीकाएं हैं, तो भी उनमें फासले बहुत कम हैं। असल में हजार अर्थ कृष्ण पर ही थोपे जा सकते हैं, बुद्ध पर थोपे नहीं जा सकते। बुद्ध जो कहते हैं, "डेफिनिट' है, सुनिश्चित है। वक्तव्य पूरा-का-पूरा है, साफ है, सुथरा है, तर्कयुक्त है। वह जो कहते हैं उसमें थोड़े-बहुत फर्क हो सकते हैं हमारी बुद्धि के अनुसार, लेकिन बहुत फर्क नहीं हो सकते। अब महावीर पर अगर कोई बहुत झगड़ा भी हुआ है, तो केवल दो पंथ बन सके। उनमें भी बहुत ज्यादा झगड़ा नहीं है, बहुत छोटी बातों पर झगड़ा है--कि महावीर नग्न थे या नहीं थे, इस पर झगड़ा है, महावीर के वक्तव्य पर झगड़ा नहीं है। श्वेतांबरों दिगंबरों में महावीर के वक्तव्य पर कोई झगड़ा नहीं है। महावीर का वक्तव्य साफ है। महावीर पर पंथ नहीं खड़े किए जा सकते, लेकिन कृष्ण पर भी पंथ खड़े नहीं किए जा सकते, लेकिन कारण बिलकुल उलटा है। कृष्ण पर पंथ खड़े करो तो लाख खड़े हो जाएं। और फिर भी कृष्ण पीछे बाकी बच जाएंगे कि नए पंथ बनाना चाहे कोई तो नई भूमि उपलब्ध हो जाएगी।

इसलिए कृष्ण पर पंथ तो खड़े नहीं हुए, व्याख्याएं खड़ी हो गईं। बहुत अनूठी घटना घटी कृष्ण पर। जीसस पर पंथ खड़े हो गए, व्याख्याएं हो गईं, दो या तीन व्याख्याएं हो गईं, दो या तीन पंथ हो गए। कृष्ण पर पंथ खड़ा नहीं हो सका इस अर्थ में, व्याख्याएं खड़ी हुईं। गीता की हजार व्याख्याएं हैं, और एक व्याख्या दूसरी व्याख्या की बिलकुल दुश्मन हो सकती है। रामानुज जो व्याख्या करेंगे, शंकर को कह सकते हैं तुम बिलकुल ही मूढ़ हो, तुम कुछ जानते ही नहीं, तुम्हें कृष्ण का कुछ पता ही नहीं। शंकर जो व्याख्या करेंगे, उसमें रामानुज को कह सकते हैं बिलकुल नासमझ हो, तुम्हें कुछ पता ही नहीं। और दोनों सही हो सकते हैं। कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन, कारण सिर्फ इतना है कि कृष्ण का व्यक्तित्व सुनिश्चित नहीं है, अनिश्चित है। उसकी रूपरेखा नहीं है, निराकार है। इस अर्थों में भी पूर्ण हैं, क्योंकि सिर्फ पूर्ण ही निराकार हो सकता है।

और जो भी व्याख्याएं हैं, इसलिए मैं कहता हूं कि गीता की कोई भी व्याख्या कृष्ण की व्याख्या नहीं है। जिन्होंने व्याख्या की है, उनकी ही व्याख्याएं हैं। शंकर जो जानते हैं उसकी व्याख्या गीता में खोज लेते हैं, मिल जाती है। वह शंकर खोज लेते हैं कि जगत माया है। रामानुज खोज लेते हैं कि भक्ति मार्ग है। तिलक खोज लेते हैं कि कर्म द्वार है। गांधी गीता में भी खोज लेते हैं कि अहिंसा सत्य है। इसमें कोई अड़चन नहीं आती किसी को भी। कृष्ण किसी को बाधा नहीं देते, सबका स्वागत है। दर्पण की तरह हैं, अपनी शक्ल देखो और हट जाओ। बाकी वहां कोई दर्पण की अपनी कोई "फिक्स्ड इमेज' नहीं है। फोटो-फिल्म की तरह नहीं है। फोटो-फिल्म भी "मिरर' का काम करती है, दर्पण का काम, लेकिन सिर्फ एक बार। फिर "फिक्सड' हो जाती है। एक दफा आपकी तस्वीर उसमें झलकती है, फिर खत्म हो जाती है। फिल्म खत्म हो जाती है, तस्वीर पकड़ जाती है। इसलिए हम फोटो की यह फिल्म को कह सकते हैं, यह किसकी फिल्म है, यह किसकी फोटो है? लेकिन दर्पण किसका है? जो झांकता है उसका ही है। और जब कोई नहीं झांकता तब दर्पण किसका? तब दर्पण खालीपन को ही "मिरर' करता रहता है। खालीपन को ही दर्शाता रहता है। खालीपन को ही दिखाता रहता है, खाली कमरा ही झलकता रहता है। कमरा नहीं होगा, कुछ और होगा, वह झलकता रहेगा। शून्य होगा, शून्य झलकेगा। जो होगा वह झलकता रहेगा। इन अर्थों में कृष्ण को पूर्ण कहता हूं।

लेकिन और बहुत अर्थों में धीरे-धीरे रोज-रोज खयाल आएगा कि और बहुत-बहुत अर्थों में वह पूर्ण हैं। और पूर्ण बहुत अर्थों में ही होंगे, क्योंकि अगर एकाध अर्थों में ही पूर्ण हैं तो अपूर्ण हो जाएंगे। क्योंकि एक अर्थ में जो पूर्ण है, उस अर्थ में तो महावीर भी पूर्ण हैं, एक अर्थ है। जीसस भी पूर्ण हैं, एक अर्थ है। एक व्यक्तित्व की पूर्णता तो जीसस हैं ही। यानी, शायद उस तरह के व्यक्तित्व में कुछ बचा नहीं है जो कि जीसस में नहीं है। जैसे गुलाब पूर्ण है। चमेली की तरह नहीं, गुलाब की तरह। चमेली की तरह गुलाब कैसे पूर्ण हो सकता है? चमेली की तरह चमेली ही पूर्ण होती है। लेकिन चमेली गुलाब की तरह पूर्ण नहीं हो सकती।

बुद्ध पूर्ण हैं, महावीर पूर्ण हैं, क्राइस्ट पूर्ण हैं बहुत और अर्थों में, बहुत अपूर्ण अर्थों में। एक व्यक्तित्व की दिशा को उन्होंने पूरा छू डाला है। उस दिशा में कुछ बाकी नहीं छोड़ा। लेकिन कृष्ण की पूर्णता बहुत भिन्न है। वह "वन-डायमेंशनल' नहीं है, एक-आयामी नहीं है। "मल्टी-डायमेंशनल' है। वह बहु-आयामी हैं। वह सभी दिशाओं में प्रवेश कर जाते हैं। वह चोर हैं तो पूरे चोर हैं आर साधु हैं तो पूरे साधु हैं। याद करते हैं, तो पूरा याद करते हैं, भूलते हैं तो पूरा ही भूल जाते हैं। इसलिए जब छोड़कर चले गए एक जगह को, तो उस जगह को भूल गए हैं। अब उस जगह के लोग परेशान हैं, रो रहे हैं, चिल्ला रहे हैं और कृष्ण को बहुत कठोर ठहरा रहे हैं। बाकी वह बेचारा कठोर जरा-भी नहीं है। या, पूर्ण है कठोरता में। जरा भी नहीं है इन अर्थों में कि जो पूरा याद करता है, वह आदमी पूरा भूल जाता है। जो आधा-आधा याद करता है, वह आधा-आधा याद भी रखता है। दर्पण आपको पूरा झलका देता है, मामला खतम हो गया, बात निपट गई, आप चले गए, खाली हो गया। कृष्ण जहां पहुंच गए हैं, वहां दर्पण बन रहा है बन रहा है। अब जो उसको दिखाई पड़ रहा है, वह दिखाई पड़ रहा है; जिसको प्रेम करना पड़ रहा है उसको वह प्रेम कर रहे हैं और जिससे लड़ना पड़ रहा है उससे लड़ रहे हैं। जो उनके सामने है, वह है। पर यह "मल्टी-डायमेंशनल' है।

तो पूर्णता कृष्ण की बहु-आयामी है। और एक आयाम में पूर्ण होना ही बहुत कठिन है, "आरडुअस' है। एक आयाम में पूर्ण होना आसान मामला नहीं है। और बहु-आयाम में पूर्ण होना तो, कठिन कहना भी उचित नहीं है, कहना चाहिए असंभव है। लेकिन असंभव भी घटित होता है, और तभी चमत्कार हो जाता है। जब असंभव घटित होता है तो "मिरेकल' हो जाता है। कृष्ण का व्यक्तित्व बिलकुल चमत्कार है। वह बिलकुल "मिरेकल' है।

हम सब तरह के व्यक्तियों की तुलना खोज सकते हैं। महावीर और बुद्ध के व्यक्तित्व बड़े निकट हैं--सन्निकट हैं, बड़े पड़ोसी व्यक्तित्व हैं। हेर-फेर बड़े छोटे हैं। अगर महावीर और बुद्ध के व्यक्तित्व में हम फर्क खोजने जाएं तो बहुत थोड़े फर्क हैं। न के बराबर हैं। जो फर्क हैं, वह भी कहना चाहिए कि बाह्य व्यक्तित्व के फर्क हैं। भीतरी अंतरात्मा बड़ी एक। एक-जैसी। लेकिन कृष्ण की तुलना हम खोजने जाएं तो मुश्किल में पड़ जाएंगे। इस पृथ्वी पर अब तक नहीं हो सकी।

स्वभावतः इस तरह के असंभव व्यक्तित्व के कुछ फायदे होंगे, कुछ नुकसान होंगे। जो व्यक्ति सभी आयामों में पूर्ण होगा, वह किसी भी एक आयाम में पूर्ण व्यक्तित्व के सामने उस आयाम में फीका पड़ जाएगा। स्वभावतः। क्योंकि महावीर की सारी शक्ति एक आयाम में लगती है। अगर उस आयाम में कृष्ण महावीर के साथ खड़े होंगे, फीके पड़ जाएंगे। क्योंकि उनकी शक्ति बहु-आयामी है, वह सब मैं फैली हुई है। इसलिए अगर एक-एक के सामने कृष्ण को हम खड़ा करें, तो कृष्ण जीत न पाएंगे। क्राइस्ट के साथ हार जाएंगे, एक-साथ अगर खड़ा करें। अगर उसी आयाम में खड़ा करें तो कृष्ण जीत नहीं सकते। लेकिन अगर हम समग्र व्यक्तित्व को सोचें, तो बड़ी कठिनाई हो जाएगी। महावीर, बुद्ध और क्राइस्ट जीत नहीं सकते। बहु-आयामी व्यक्तित्व हैं। एक ऐसे फूल की हम कल्पना करें जो जुही भी हो जाता है कभी, जो कमल भी हो जाता है कभी, कभी गुलाब भी हो जाता है; कभी घास का फूल भी हो जाता है और कभी आकाश-कुसुम भी हो जाता है, सब हो जाता है, जब भी हम जाते हैं तब पाते हैं कि वह कुछ और हो गया। इस फूल के मुकाबले किसी फूल को हम रखेंगे तो वह जीत जाएगा, क्योंकि गुलाब गुलाब ही है। उसे गुलाब होने का...उसकी सारी शक्ति, सारी ऊर्जा गुलाब होने में लग गई है। इसको कभी चमेली भी होना पड़ता है, इसको कभी जुही भी होना पड़ता है। इसके प्राण इतने फैले हुए हैं, इतने विस्तीर्ण हैं कि सघन नहीं हो सकते। तो कृष्ण के व्यक्तित्व में एक विस्तार है, एक "एक्सटैंशन' है, इसलिए "डेंसिटी' उतनी नहीं हो सकती, जितनी महावीर या बुद्ध के व्यक्तित्व में है। घनत्व नहीं हो सकता। फैलाव है, अंतहीन फैलाव है। इसलिए कृष्ण की पूर्णता का अर्थ अनंतता है। महावीर की पूर्णता का अर्थ एक दिशा को पूरा उपलब्ध कर लेना है। उस दिशा में उन्होंने कुछ भी नहीं छोड़ा है। अब कोई भी साधु इस जगत में कुछ भी पा सकता है, तो उतना ही पा सकता है जितना महावीर ने पा लिया है, उससे ज्यादा नहीं पा सकता।

लेकिन, इसलिए कृष्ण को पूर्ण अनंतता के अर्थ में, विस्तार के अर्थ में, फैलाव के अर्थ में समझेंगे, "मल्टी-डायमेंशनल के अर्थ में। फिर जो व्यक्ति एक "डायमेंशन' में पूर्ण होगा, स्वभावतः दूसरे "डायमेंशन' में बिलकुल अपरिचित हो जाएगा। दूसरे आयाम में उसकी कोई गति नहीं होगी। कृष्ण कुशलता से चोरी भी कर सकते हैं। महावीर एकदम बेकाम चोर साबित होंगे। पकड़े ही जाने वाले हैं। कृष्ण कुशलता से युद्ध भी लड़ सकते हैं, बुद्ध न लड़ सकेंगे। जीसस की हम कल्पना ही कर सकते हैं कि बांसुरी बजा सकते हैं, लेकिन कृष्ण सूली पर चढ़ सकते हैं। कृष्ण को सूली पर चढ़ने में दिक्कत न आएगी। बिलकुल मजे से चढ़ जाएंगे। इसकी कल्पना करने में कोई आंतरिक कठिनाई न पड़ेगी कि कृष्ण को सूली लग जाए। इसमें कोई "इनहेरेंट', कोई "इंट्रिसिक', कोई भीतरी तकलीफ नहीं मालूम होगी। लेकिन क्राइस्ट बांसुरी बजाएं, इसमें बड़ा मुश्किल है। कृष्ण क्राइस्ट के व्यक्तित्व में सोचा ही नहीं जा सकता। ईसाई तो कहते हैं कि "जीसस नेवर लाफ्ड', जीसस कभी हंसे ही नहीं। हंसे ही नहीं, तो बांसुरी बजाना तो बहुत...और पैर पर पैर रखकर और ओंठ पर बांसुरी रखकर, मोर-मुकुट बांधकर खड़े हो जाना, क्राइस्ट कहेंगे कि इससे सूली बेहतर! यह सूली से कठिन पड़ेगा। सूली बिलकुल "ऐट ईज' है। जीसस सूली पर बड़े मजे से चढ़ गए। सूली पर लटककर वे जितने खुश थे, मैं समझता हूं जिंदगी में कभी नहीं थे। सूली पर लटककर वह कह सके, इन सबको माफ कर देना। सूली पर लटककर वह बड़ी शांति से गुजर सके। यह आयाम उनका आयाम है, इस आयाम में उन्हें कोई अड़चन न आई। यह सिर्फ पूरा हो रहा है। जो घटना होने ही वाली थी, जिस दिशा में वे यात्रा कर रहे थे, वह पूरी होने वाली है। वह एक बगावती हैं, एक "रिबेलियस' आदमी हैं, क्रांतिकारी आदमी हैं। "रिबेलियन' का यह अंत हो सकता था। जीसस कह भी सकते थे कि सूली लगेगी, और न लगती तो जरा ऐसे ही लगता कि असफल हुए। सूली लगेगी ही।

कृष्ण का मामला बहुत मुश्किल है। कृष्ण के मामले में "प्रिडिक्शन' नहीं हो सकता कि क्या होगा। कुछ भी नहीं कहा जा सकता। यह आदमी सूली पर मरेगा, कि यह आदमी फूल-हारों में मरेगा, कि यह आदमी बड़ी भीड़ में मरेगा, क्या होगा?...मरे तो वह एक ऐसी जगह कि चुपचाप एक वृक्ष के नीचे लेटे थे। कुछ बात ही न थी मरने की। और किसी ने समझा कि हिरण दिखाई पड़ रहा है, उनका पैर, और किसी ने तीर मार दिया, और वह मर गए। इतनी "एक्सिडेंटल' मौत किसी की भी नहीं है। सबकी मौत में भी एक निश्चय है, कृष्ण की मौत बिलकुल अनिश्चित है। और ऐसे मरते हैं वह, बेकाम ढंग से, कि जिसकी कोई "यूटिलिटी' नहीं मालूम होती, कोई उपयोगिता नहीं मालूम होती। और आदमी की पूरी जिंदगी भी इसकी उपयोगिताहीन थीं, "नॉन-युटिलिटेरियन' थी, मौत भी। जीसस की मौत काम आई है। सच तो यह है कि अगर जीसस को सूली न लगी होती, तो दुनिया में "क्रिस्चिएनटी' होती ही नहीं। जीसस की वजह से नहीं है, "क्रास' की वजह से है। इस आदमी को कौन जानता है, इसको कोई खयाल में भी नहीं था यह आदमी। सूली महत्वपूर्ण बनी। इसलिए "क्रास' प्रतीक बन गया ईसाइयत का। क्योंकि वही है घटना, जिसने ईसाइयत को जन्म दिया। आज जीसस दुनिया में हैं तो उसका मतलब है, वह "क्रूसीफिक्सन' की वजह से हैं।

लेकिन कृष्ण की मौत तो बड़ी बेमानी है, बड़ी अजीब-सी है। यह भी कोई मरने का ढंग है। ऐसे भी कोई आदमी मरते हैं! आप लेटे हैं वृक्ष के नीचे, यह भी कोई...मरना चुनना चाहिए ऐसा कि कोई तीर मार दे, बिना कुछ खबर सुने, बिना कुछ बात हुए, अकारण। कोई ऐतिहासिक घटना नहीं बनती मौत से कृष्ण की। बस, ऐसे ही आते हैं और चले जाते हैं जैसे फूल खिलते हैं और मुर्झा जाते हैं। कब गिर जाते हैं सांझ, कुछ पता नहीं चलता; कौन-सी हवा का झोंका गिरा जाता, उस पर कोई सील नहीं होती। "मल्टी-डायमेंशनल' होने के कारण, बहु-आयामी होने के कारण, कुछ कहा नहीं जा सकता कि क्या हो जाएगा, कृष्ण के व्यक्तित्व में कौन-कौन से फूल खिलेंगे, नहीं कहा जा सकता।

इसको आखिरी बात इस तरह सोचें कि अगर महावीर और पचास साल जिंदा रहें तो हम कह सकते हैं कि जिंदगी कैसी होगी। अगर जीसस और पचास साल जिंदा रहते, तो क्या होने वाला है वह हम कह सकते हैं। "प्रेडिक्टबिल' है, ज्योतिषी की पकड़ के भीतर है। अगर दस साल महावीर को और मौका दिया जाए जिंदा रहने का तो कठिनाई न होगी कि हम कहानी लिख दें कि वह क्या-क्या करेंगे। कब सुबह उठेंगे, कब सांझ सो जाएंगे, वह भी तय किया जा सकता है। क्या खाएंगे, क्या पिएंगे, उनका "मेनू' तय हो सकता है। क्या बोलेंगे, क्या नहीं बोलेंगे, वह साफ जाहिर है। दस साल भी वह जो करेंगे, वह पिछले दस साल की ही पुनरुक्त्ति होने वाली है। एकरस जो हैं, समुद्र के खारे पानी की तरह जो हैं। लेकिन कृष्ण को अगर दस दिन भी मिल जाएं--दस साल बहुत हैं--तो इस दस दिन में क्या-क्या होगा इस दुनिया में, बिलकुल नहीं कहा जा सकता। क्योंकि पिछली कोई पुनरुक्ति होने वाली नहीं है। यह आदमी किसी हिसाब से जी ही नहीं रहा है, गैर-हिसाब से जी रहा है। जो हो जाएगा वह हो जाएगा। इन अर्थों में भी एक "इनफिनिटी' है। कहीं चीजें पूरी होती नहीं मालूम पड़तीं।

अब यह आखिरी अर्थ मैं देता हूं, पूर्ण सिर्फ वही जो पूरा होता मालूम नहीं पड़ता। जो पूरा हो जाता है, वह किसी अर्थ में समाप्त हो जाता है। अब यह बहुत उलटा लगेगा। क्योंकि हमारा आमतौर से खयाल यह होता है कि पूर्ण का मतलब यह है कि जो समाप्त हो जाता है। जिसके आगे कुछ बचता नहीं। अगर आपका ऐसा अर्थ है पूर्ण का, तो आपमें "वन-डायमेंशनल परफेक्शन' का खयाल है आपको। आपको एक आयाम में पूर्णता का खयाल है। कृष्ण की पूर्णता ऐसी नहीं है जो समाप्त हो जाती है। कृष्ण की पूर्णता का मतलब यह है कि कितना ही यह आदमी जिए और चले और रहे, यह समाप्त नहीं होने वाला है। यह सदा शेष रह जाएगा। इसलिए उपनिषदों ने पूर्ण की जो व्याख्या की है, वही ठीक है। उपनिषद कहते हैं, पूर्ण से पूर्ण को भी निकाल लो तो भी पीछे पूर्ण शेष रह जाता है। अगर हम कृष्ण से हजार कृष्णों को निकालते चले जाएं तो भी वह आदमी पीछे शेष रह जाएगा और फिर कृष्णों को निकाल सकता है। इसमें कोई कठिनाई नहीं पड़ेगी। उसे कोई अड़चन न आएगी, क्योंकि वह कुछ भी हो सकता है।

महावीर को हम आज पैदा नहीं कर सकते। आज पैदा करना मुश्किल हो जाएगा महावीर को। क्योंकि महावीर एक "सिचुएशन' में, एक विशेष परिस्थिति में, एक आयाम में पूर्ण हुए हैं। वह आयाम उसी स्थिति में पूर्ण हो सकता है। जीसस को आज पैदा नहीं किया जा सकता। अगर आज जीसस को हम पैदा करें, कोई सूली ही नहीं लगाएगा, पहली बात। वह कितना ही शोरगुल मचाएं, लोग कहेंगे, "निगलेक्स हिम'। क्योंकि पहले गलती की सूली लगाकर तो "क्रिश्चिएनिटी', आज एक अरब आदमी ईसाई हो गए हैं, अब आज कोई यहूदी सूली नहीं लगाएगा जीसस को। वह कहेगा, अब झंझट में मत पड़ो इस आदमी के। इसको जो कहना है कहने दो, इसको जो करना है करने दो। क्योंकि जीसस जिंदा रहकर बहुत थोड़े लोगों को उत्सुक कर पाए। मरकर उन्होंने उत्सुकता बहुत पैदा की। जीसस के वक्त में जिस दिन एक लाख आदमी सूली लगाने जीसस को इकट्ठे हुए, तो सिर्फ आठ-दस आदमी ऐसे थे जो उनको प्रेम करने वाले थे--एक लाख आदमियों में। वे आठ-दस भी इतने हिम्मतवर नहीं थे कि अगर उनसे कोई पूछता कि तुम जीसस के साथी हो तो वे कहते कि हम साथी हैं! वे कहते कि नहीं, हम जानते ही नहीं। जीसस को सूली लग जाने के बाद जिसने उनकी लाश नीचे उतारी वह कोई सज्जन, अच्छे घर की महिला नहीं थी, क्योंकि अच्छे घर तक जीसस का प्रभाव पहुंचना मुश्किल था। वह एक वेश्या थी। वह हिम्मत जुटा सकी कि अब मेरा और क्या कोई बिगाड़ेगा। तो इसलिए जीसस की लाश तो एक वेश्या ने उतारी। किसी भले घर की औरत को यह मौका नहीं था।

अभी भी! मैं सोचता हूं भले घर की औरत जीसस को अभी भी नहीं उतारेगी। जीसस को आज "निगलेक्ट' किया जा सकता है, क्योंकि उनके वक्तव्य बड़े "इनोसेंट' हैं। और दूसरा खतरा है कि अगर "निगलेक्ट' न किया जाए, तो दूसरा खतरा है कि हम उनको पागल समझ लें। क्योंकि जिन बातों पर झगड़ा हुआ है वह यह था कि जीसस कहते हैं, मैं ईश्वर हूं। हम कहेंगे, कहने दो, बिगड़ता क्या है, इसमें हर्ज क्या है? कहो ईश्वर हो। जीसस को होने के लिए वही "मॉमेंट' चुनना पड़े जो था। इसलिए जीसस "हिस्टारिक' हैं। इसलिए आप ध्यान रखें कि सिर्फ जीसस को मानने वाले लोगों ने "हिस्ट्री' पैदा की दुनिया में। बाकी लोग "हिस्ट्री' पैदा नहीं कर सके। इतिहास जीसस से शुरू होता है। इसलिए आकस्मिक नहीं है कि सन् और सदी जीसस से चलती है। आकस्मिक नहीं है। जीसस एक "हिस्टारिक' घटना हैं और एक खास "हिस्टारिक मॉमेंट' में ही हो सकते हैं।

कृष्ण की हमने कोई कहानी नहीं लिखी। कोई पक्का पता नहीं है कि यह आदमी किस तारीख में हुआ और किस तारीख में मरा। इसका पता रखना बेकार है। यह किसी भी तारीख में हो सकता है। इसकी कोई पक्की तारीख रखना बेकार है। यह कभी भी हो सकता है। यह किसी भी स्थिति में काम आ जाएगा। क्योंकि इसको कोई झंझट ही नहीं है अपने होने की। किसी भी स्थिति में वही हो जाएगा। इसका अपना कोई आग्रह नहीं है कि मैं ऐसा होऊंगा। अगर आपका आग्रह है कि आप ऐसे होंगे तो आपको एक विशेष स्थिति की जरूरत पड़ेगी। अगर आपका कोई आग्रह नहीं है, आप कहते हैं कि चलेगा--महावीर तो नग्न होने का आग्रह करेंगे। कृष्ण जो हैं वह पतली मोहरी का फुलपैंट भी पहन सकते हैं; कोई अड़चन न आएगी, बल्कि वह कहेंगे कि यह पहले क्यों नहीं बनाया, उसी वक्त? हम उसी वक्त पहने सकते थे। इतना होने की संभावना अनंत है। उन्हें अड़चन न आएगी। उन्हें कोई युग अड़चन नहीं दे सकता। वे किसी भी युग में खड़े हो जाएंगे और राजी हो जाएंगे, उसी युग के हो जाएंगे। और उसी युग में उनका फूल खिल सकता है।

इसलिए मैं कहता हूं कि सभी--महावीर, बुद्ध या जीसस "हिस्टारिक पर्सनेलिटी', ऐतिहासिक व्यक्तित्व हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वह हुए हैं और कृष्ण नहीं हुए। हुए तो कृष्ण भी हैं। लेकिन कृष्ण इस अर्थ में "हिस्टॉरिक' नहीं हैं, इस अर्थ में ऐतिहासिक नहीं हैं। कृष्ण पुराण-पुरुष हैं, कथा-पुरुष हैं, अभिनेता हैं। वे कभी भी हो सकते हैं, उनका चरित्र का कोई मोह नहीं है। वह विशेष राधा को न मांगेंगे, कोई भी राधा कारगर हो सकती है। विशेष समय न मांगेंगे, कोई भी समय उनके लिए अर्थपूर्ण हो सकता है। जरूरी नहीं कि वह बांसुरी ही बजाएं, किसी भी युग का वाद्य उन्हें काम दे जाएगा।

इस अर्थ में पूर्ण हैं कि हम उनमें से कितना ही निकाल लें, वह व्यक्ति फिर शेष रह जाता है, वह फिर हो सकता है।

ओशो रजनीश



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्री कृष्ण स्मृति भाग 134

श्री कृष्ण स्मृति भाग 114

श्री कृष्ण स्मृति भाग 122