श्री कृष्ण स्मृति भाग 40
"भगवान श्री, मार्शल मैकलूहान का सूत्र है: "मीडियम इज मेसेज', माध्यम ही संदेश है। किसी आलोचक ने "मेसेज' की जगह "मसाज' शब्द रख लिया और अभिनव अर्थ प्रदान किया। वैसे ही हम कृष्ण की मुरली को जीवात्मा की परमात्मा को प्रेम-पुकार कहें तो क्या बाधा है?
महाभारत के समय कृष्ण का पांचजन्य शंख बजाना, तथा बांसुरी के साथ सुदर्शन चक्र का होना, क्या ये कोई प्रतीकात्मक अर्थ रखते हैं?
रासक्रीड़ा के अंतर्गत भागवत में एक श्लोक है, जिसमें ब्रज-सुंदरियों के साथ खेलते कृष्ण का वर्णन--"यथा अर्भक स्व प्रतिबिंब विभ्रमः', यह "इमेज', यह भाव-कल्पना क्या अर्थ रखता है? और एक रहस्यवादी कहते हैं कि जीवात्मा का अहंकार परमात्मा का भोजन है। क्या इसी विधान के अनुलक्ष्य में रासलीला करते कृष्ण गोपिकाओं के अहंकार-मर्दन के लिए अचानक अदृश्य हो गए थे?'
मार्शल मेकलूहान अदभुत विचारक हैं। उनका वक्तव्य "मीडियम इज मेसेज'--माध्यम ही संदेश है--बड़ा कीमती है। ऐसा सदा से नहीं समझा जाता रहा। समझा ऐसा जाता रहा है कि संदेश अलग बात है, माध्यम अलग बात है। संदेश माध्यम के द्वारा प्रगट होता है, लेकिन संदेश ही माध्यम नहीं है और माध्यम ही संदेश नहीं है। द्वैतवादी दृष्टि सदा ही इस तरह के फासले तोड़ती है। वह "डुआलिस्ट माइंड' सब चीजों को दो हिस्सों में तोड़ लेता है। वह कहता है, शरीर अलग है, आत्मा अलग है। शरीर माध्यम है, आत्मा संदेश है। वह कहता है, गति अलग है, गतिवान अलग है। वह कहता है, प्रकाश अलग है, प्रकाशवान अलग है। वह कहता है, जगत अलग है, परमात्मा अलग है।
ठीक यह जो द्वैतवादी दृष्टि है, वही अभिव्यक्ति के माध्यम और अभिव्यक्ति के संदेश में चलती रही है। मार्शल मेकलूहान को मैं अद्वैतवादी कहता हूं। उसे पता है या नहीं, यह मैं नहीं जानता, मैं उसे अद्वैतवादी कहता हूं। उसने माध्यम और संदेश के संबंध में पहली दफा अद्वैत की घोषणा की है। वह यह कह रहा है कि जो आप कहते हैं वह, और जिस ढंग से आप कहते हैं और जिस मार्ग से और विधि से और माध्यम से आप कहते हैं, ये दो चीजें नहीं हैं, ये एक ही चीज हैं। इसे समझने के लिए थोड़ी-सी बातें समझनी जरूरी होंगी।
एक मूर्तिकार एक मूर्ति बनाता है। लेकिन मूर्तिकार अलग होता है, मूर्ति अलग होती है। इसे हम देख सकते हैं साफ। मूर्ति बनती जाती है, और मूर्तिकार बनाता जाता है, फिर मूर्ति बन जाती है, मूर्तिकार अलग खड़ा हो जाता है, मूर्ति अलग खड़ी हो जाती है। बड़ा ही गहरा अद्वैतवादी चाहिए, जो कह सके कि मूर्तिकार और मूर्ति एक हैं। बड़ी कठिनाई पड़ेगी। हमारी आंखें गवाही न देंगी। हमारे हाथ स्वीकार न करेंगे। हमारा मन, हमारी बुद्धि कहेगी, क्या पागलपन की बातें कर रहे हो? मूर्तिकार और मूर्ति अलग हैं। कल मूर्तिकार मर जाएगा और मूर्ति रहेगी। बहुत गहरी आंखें चाहिए जो कहें कि अब मूर्तिकार मर कैसे सकेगा जब तक मूर्ति रहेगी! बहुत गहरी आंखें चाहिए, जो देख सकें कि अब मूर्तिकार कितना ही दूर चला जाए लेकिन दूर जा कैसे सकेगा! अब "स्पेस' का संबंध न रहा। अब इन दोनों के बीच एक आत्मिक एकता है, एक तादात्म्य है, जो अब अनंत तक रहेगा, जो नहीं मिट सकता। लेकिन, मूर्तिकार के साथ देखने में हमें बहुत कठिनाई पड़ेगी, इसलिए इस उदाहरण को छोड़ दें, नृत्यकार को लें, और कृष्ण के ज्यादा निकट पड़ेगा वह।
नाच रहा है एक नर्तक। नर्तक और नृत्य दो हैं या एक? यहां बहुत आसानी पड़ेगी। नर्तक को अलग कर लें तो नृत्य खो जाता है, नृत्य को अलग कर लें तो नर्तक नर्तक नहीं रह जाता, साधारण आदमी हो जाता है। नर्तक और नृत्य एक हैं। बांसुरी और बांसुरीवादक एक हैं। गीत और गायक एक हैं, प्रकृति और परमात्मा एक हैं। कहा जाने वाला और जिस माध्यम से कहा गया, वह एक है। लेकिन बहुत-सी चीजों में देखने में आसानी पड़ेगी, क्योंकि हमारी स्थूल आंखें भी पहचान सकेंगी कि बात ठीक है कि नर्तक और नृत्य एक हैं। लेकिन, अगर बहुत द्वैतवादी दृष्टि हो, तो यहां भी हम दो में तोड़ सकते हैं। बिलकुल तोड़ सकते हैं। क्योंकि नृत्य तो बाहर होने वाली प्रगट एक क्रिया है और नर्तक भीतर छिपा एक प्राण है। प्राण नहीं नाच रहा, प्राण तो नाच के बीच खड़ा है। नाच बाहर चल रहा है। द्वैतवादी कह सकता है कि नर्तक चाहे तो अपने नृत्य को देख सकता है, साक्षी हो सकता है। तब वह दो हो जाएंगे। जो हमें दो दिखाई पड़ते हैं वह भी एक हो सकते हैं गहरी दृष्टि से, जो हमें एक दिखाई पड़ता है, उथली दृष्टि से वह भी दो हो सकता है।
लेकिन, बांसुरी बजाई जा रही है। कहां है वह जगह, जहां से बांसुरी बजाने वाले ओंठ और बांसुरी अलग होते हैं? और अगर वे सच ही अलग हैं तो ओंठ बांसुरी बजा कैसे सकते हैं? फिर तो बीच में "गैप' पड़ जाएगा, बीच में जगह छूट जाएगी। ओंठ अलग हो जाएंगे, बांसुरी अलग हो जाएगी। जुड़ेंगे कैसे, एक कैसे होंगे? स्वर ओंठों पर पैदा होंगे, बांसुरी तक पहुंचेंगे कैसे? नहीं, बांसुरी और ओंठ अलग-अलग दिखाई भर पड़ते हैं। अगर ठीक से समझें तो बांसुरी ओंठों का बढ़ा हुआ रूप है। "इंस्ट्रूमेंटल' रूप है, बढ़ गया आगे, फैल गया आगे।
ऐसा और तरह से समझें--जैसा मार्शल मैकलूहान को पसंद पड़े, वैसा समझें। एक दूरबीन है, हम आंख पर लगाकर देखते हैं आकाश की तरफ। जो तारे हमें नहीं दिखाई पड़ते थे खुली आंख से, वे दूरबीन से दिखाई पड़ने लगेंगे। दूरबीन और आंख अलग हैं, या कि ऐसा कहें कि दूरबीन आंख का बढ़ा हुआ रूप है? विज्ञान ने आंख को बढ़ा दिया। दूरबीन को जोड़कर आंख बड़ी हो गई। जब मैं अपने हाथ से आपको छूता हूं, तो मैं छूता हूं या मेरा हाथ छूता है? दिखता तो मेरा हाथ छूता हुआ है। लेकिन मेरे हाथ और मुझमें कहीं फासला है, कहीं फर्क है, कहीं कोई अंतराल है, कहीं कोई जगह है, जहां मैं खत्म होता हूं, मेरा हाथ शुरू होता है? नहीं, मेरा हाथ मेरा "एक्सटेंशन' है, मेरा बढ़ाव है। और समझ लें कि हाथ में मैं एक लकड़ी ले लूं और फिर लकड़ी से आपको छूऊं, तब आप शायद कहेंगे अब आप नहीं छू रहे हैं। लेकिन अब भी मैं ही छू रहा हूं, लकड़ी मेरे हाथ का और भी बढ़ाव है। जब टेलीफोन से मैं आपसे बात कर रहा हूं तब भी मेरे ओंठ ही बात कर रहे हैं। टेलीफोन सिर्फ मेरे ओंठों का वैज्ञानिक बढ़ाव है। अगर हम इस भांति देखें, तो दूरबीन से मैं तारों को देख सकता हूं, इसका मतलब ही यही है कि तारों और मेरी आंख के बीच कोई आंतरिक संबंध होना चाहिए, अन्यथा देख कैसे सकूंगा? कान से तो मैं तारों को नहीं देख पाता, आंख से मैं संगीत को नहीं सुन पाता। आंख और तारों के बीच कोई तालमेल, कोई जोड़, कोई "हार्मनी' चाहिए। कोई अंतर्संबंध चाहिए, कोई "इंटिमेसी' चाहिए। तो दूरबीन ही नहीं है मेरा बढ़ाव, तारे भी मेरी आंख के बढ़ाव हैं। या उलटी तरफ से सोचें, तो तारों का बढ़ाव मेरी आंख है। तब हमें अद्वैत दिखाई पड़ेगा। तब चीजें हमें एक दिखाई पड़ेंगी। तब चीजों में हमें एक अंतफलाव दिखाई पड़ेगा। और तब सब एक हो जाएगा। "देन मीडियम इज द मेसेज'। तब फिर माध्यम ही संदेश है और संदेश ही माध्यम है।
ठीक पूछते हैं कि कृष्ण की यह बांसुरी और ये बांसुरी पर बजाए गए स्वर परमात्मा की तरफ की गई प्रार्थनाएं नहीं हैं? प्रार्थना मैं न कहूंगा। क्योंकि कृष्ण जैसा आदमी प्रार्थना नहीं करता। प्रार्थना किससे करेगा? प्रार्थना में थोड़ा फासला हो जाता है। प्रार्थना में थोड़ा भेद हो जाता है। प्रार्थना में प्रार्थी अलग हो जाता है उससे, जिससे प्रार्थना करता है। प्रार्थना द्वैत है। इसे थोड़ा समझना अच्छा होगा।
प्रार्थना द्वैत है। नहीं, कृष्ण बांसुरी बजाते वक्त प्रार्थना में नहीं, ध्यान में हैं। ध्यान अद्वैत है। और प्रार्थना और ध्यान शब्द में यही फर्क है। प्रार्थना द्वैतवादी की खोज है। वह कहता है, इधर मैं हूं, उधर परमात्मा है, निवेदन करता हूं। ध्यान अद्वैतवादी की स्थिति है। वह कहता है; वहां कोई परमात्मा नहीं, यहां मैं नहीं, बीच में दोनों के सब हैं। कृष्ण की बांसुरी प्रार्थना का उठा हुआ गीत नहीं, ध्यान से उठा हुआ स्वर है। यह किसी परमात्मा से की गई प्रार्थना नहीं, यह स्वयं को दिया गया धन्यवाद है। "सेल्फ कांग्रेचुलेशन' है, स्वयं को दिया गया धन्यवाद है। स्वयं के प्रति प्रगट गई अनुगृहीत भावना। यह अनुग्रह-भाव है, यह "ग्रेटीटयूड' है, "प्रेयर' नहीं। यह अनुग्रह-बोध है, यह अहोभाव है, क्योंकि प्रार्थना में पैर उतने मुक्त नहीं हो सकते जितने अहोभाव में होते हैं। प्रार्थना में संकोच और डर तो बना ही रहता है। प्रार्थना में भय और आकांक्षा तो बनी ही रहती है। प्रार्थना सुनी जाएगी, नहीं सुनी जाएगी, इसका संशय तो बना ही रहता है। कोई प्रार्थना सुनने वाला है या नहीं, इसका संदेह तो खड़ा ही रहता है।
अनुग्रह में कोई सवाल नहीं रह जाता। कोई सुनता है या नहीं सुनता है, यह सवाल ही नहीं है। कोई गुनता है, नहीं गुनता है, यह सवाल ही नहीं है। कोई मानेगा, नहीं मानेगा, यह सवाल ही नहीं है। यह किसी के लिए "एड्रेस्ड' नहीं है। ध्यान जो है, "अनएड्रेस्ड' है। इस पर किसी का कोई पता ही नहीं है। सीधा अनुग्रह का भाव है, जो समस्त के प्रति निवेदित है। आकाश सुने तो सुने, फूल सुने तो सुने, बादल सुने तो सुने, हवाएं ले जाएं तो ले जाएं न ले जाएं तो न ले जाएं। इसके पीछे कोई आकांक्षा नहीं है। "देअर इज नो एंड टु इट'। यह अपने-आप में पूरी है बात। बांसुरी बज गई है, बात खत्म हो गई है। कृष्ण ने अपने हृदय को निवेदन कर दिया, "अनएड्रेस्ड'। यह किसी के प्रति नहीं है निवेदन। यह निपट निवेदन है। इसीलिए कृष्ण आनंद से बजा सके इस बांसुरी को। मीरा उतने आनंद से नहीं नाच सकी। मीरा ध्यान में नहीं है, प्रार्थना में है। मीरा के लिए कृष्ण वहां पराए की तरह खड़े हैं। कितने ही निकट हों, पर पराए हैं। कितने ही पास हों, पर फिर भी दूर हैं। और कितने ही हों, फिर भी एक नहीं हो गए हैं।
इसलिए मीरा के नाचने में वह स्वतंत्रता नहीं है, जो कृष्ण के नाचने में है। मीरा के घुंघरुओं में परतंत्रता का तो थोड़ा-सा स्वर है। मीरा के भजन में दुख है, पीड़ा है। कृष्ण की बांसुरी में सिवाय आनंद के और कुछ भी नहीं है। मीरा के भजन में आंसू भी हैं--"एड्रेस्ड' है न भजन, किसी का पता लिखा है; पहुंचेगा नहीं, सुनेगा नहीं; पता नहीं आएगा, नहीं आएगा; सेज उसने तैयार कर रखी है, निवेदन भेज दिया है, प्रतीक्षा जारी है। मीरा के भजन के पीछे कोई लक्ष्य है। मीरा के भजन के पीछे कोई आकांक्षा है, अभीप्सा है, इसलिए मीरा की आंख में आंसू भी हैं, मीरा के मन में प्रतीक्षा भी है, पूरी होगी कि नहीं होगी आकांक्षा, इसका भय भी है। इसका कंपन भी है। कृष्ण के मन में कोई कंपन नहीं है। ये ध्यान से उठे हुए स्वर हैं, किसी परमात्मा के प्रति प्रेरित नहीं, बल्कि किसी परमात्मा से ही उठे हुए हैं। अनंत के प्रति विस्तीर्ण, "अनएड्रेस्ड', कोई पता-ठिकाना नहीं है। कृष्ण किसीलिए बांसुरी नहीं बजा रहे हैं, अकारण बजा रहे हैं। या इसीलिए बजा रहे हैं कि अब और करने का कोई कारण नहीं रहा, अब बांसुरी ही बजाई जा सकती है।
आमतौर से हम बांसुरी को चैन से जोड़ते हैं। हम कहते हैं, फलां आदमी चैन की बांसुरी बजा रहा है। असल में बांसुरी का मतलब ही यह है कि कोई आदमी चैन में है। कोई आदमी "एट ईज' हो गया, अब बांसुरी बजाने के सिवाय कोई बचा नहीं कुछ करने को। नाहक का काम है, बेकार काम है, कुछ फल तो होता नहीं। कुछ आता तो नहीं, कुछ मिलता तो नहीं। लेकिन कुछ मिल गया है, कुछ पा लिया गया है, वह फूट-फूटकर बह जाता है।
ओशो रजनीश
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