श्री कृष्ण स्मृति भाग 42
"वह चक्र-सुदर्शन और पांचजन्य के बारे में प्रश्न था, तथा रासक्रीड़ा के संबंध में--"यथा अर्भक स्व प्रतिबिंब विभ्रमः'?'
कृष्ण के व्यक्तित्व से जुड़ी हुई सारी बातों के बड़े प्रतीक अर्थ हैं। होने ही चाहिए। कृष्ण जैसे व्यक्ति के साथ जो भी जुड़ा है, वह निर्मूल्य नहीं हो सकता। अमूल्य हो सकता है। लेकिन हम उसका मूल्य भी समझ पाएं तो बहुत है, अमूल्य को समझना तो थोड़ी कठिनाई की बात है।
कृष्ण का पांचजन्य, उनका शंख बड़े प्रतीक अर्थ रखता है। आदमी की पांच इंद्रियां हैं, आदमी के पांच द्वार हैं, आदमी अपने पांच द्वारों के माध्यम से उद्घोष करता है। उसके जीवन का सारा उद्घोष पांच द्वारों के किया गया उद्घोष है--उसकी आंख से, उसकी नाक से, उसके कान से, उसके मुंह से। पांच इंद्रियां पांच द्वार हैं जगत से हमारे संबंध के। और जब कथाकार कहते हैं कि कृष्ण ने पांचजन्य बजाया, उसका कुल मतलब इतना है कि युद्ध में वे अपनी पांचों इंद्रियों सहित समग्र रूप से मौजूद हुए। इससे ज्यादा कोई मतलब नहीं है। युद्ध उनके लिए कोई एक काम न था, उनके लिए कोई चीज काम न थी। कबीर जैसा कपड़ा बेचने बाजार चला गया था, पूरा-का-पूरा, ऐसे ही कृष्ण पांचजन्य बजाकर उद्घोष करते हैं कि मैं पूरा-का-पूरा युद्ध में आ गया हूं। कुछ पीछे छोड़ आया नहीं। वह पीछे छोड़कर चलते ही नहीं। वह पूरे-के-पूरे, जहां होते हैं पूरे होते हैं। इसलिए पांच इंद्रियों के प्रतीक पांचजन्य को वह बजाते हैं और वह कहते हैं कि मेरी समस्त इंद्रियों सहित मैं यहां मौजूद हूं। मेरी मौजूदगी की घोषणा है। वह सारे शंख अपनी-अपनी मौजूदगी की घोषणा करते हैं। सबके शंखों के अलग-अलग नाम हैं। और प्रत्येक अपना-अपना शंख बजाता है, वह उसकी घोषणा है। प्रत्येक शंख का अलग-अलग स्वर है। और प्रत्येक शंख का प्रत्येक व्यक्ति के आंतरिक व्यक्तित्व से संबंध है। लेकिन कृष्ण के शंख का मुकाबला कोई भी नहीं है। समग्र रूप से वहां कोई भी उपस्थित नहीं है, समग्र रूप से वह अकेले ही उपस्थित हैं। और मजे की बात है कि वही वहां युद्ध करने को उपस्थित नहीं है। वह आदमी वहां लड़ने आया ही नहीं, "नानकमीटेड', वहां खड़ा है।
सच बात यह है कि पूरा वही खड़ा हो सकता है जिसका कोई "कमिटमेंट' नहीं है। अगर "कमिटमेंट' है तो अधूरे ही खड़े होंगे आप। "कमिटमेंट' में कुछ-न-कुछ पीछे छूट ही जाता है, कुछ बाकी रह जाता है। कम-से-कम वह तो छूट ही जाता है जो "कमिट' करता है। वह पीछे छूट जाता है। "वन कैन बी टोटल ओनली व्हेन वन इज अनकमीटेड'। जब कोई भी "कमिटमेंट' नहीं हैं तब तो कोई बात ही नहीं है। हम पूरे ही होते हैं, कोई वजह ही नहीं है। इसलिए कृष्ण वहां युद्ध करने को आए नहीं, लेकिन पूरे युद्ध में हैं। और पांचजन्य इनकी घोषणा देता है कि यह आदमी पूरा यहां मौजूद है। "टोटल प्रेजेंस' की खबर वह पांच इंद्रियों के प्रतीक पांचजन्य से होगी। यह आदमी युद्ध में मौजूद है। युद्ध करने को मौजूद नहीं। इसका केवल मतलब इतना है कि यह तय करके आया नहीं। युद्ध करने का कोई भी निर्णय इसके मन में नहीं है। युद्ध से इसे कोई प्रयोजन भी नहीं है, इसे कुछ मिलने-जाने वाला भी नहीं है, इसका युद्ध से कोई संबंध भी नहीं है। "नो-पार्टी ' है यह आदमी। कौन जीतता है, कौन हारता है, इससे इसे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। इसका अपना कोई हित, कोई स्वार्थ नहीं है। लेकिन फिर भी यह आदमी एक क्षण आता है युद्ध का और युद्ध में उतर जाता है और सुदर्शन चक्र को हाथ में ले लेता है--वह उनके चक्र का नाम है।
वह नाम भी बड़ा प्रतीकात्मक है।
असल में जिन लोगों ने काव्य लिखे उन्होंने शब्दों के साथ बड़ी मेहनत की है। काव्य का तो प्राण ही शब्द है। और शब्दों के साथ बड़ी उन्होंने छेनी-हथौड़ी लेकर सैकड़ों वर्ष तक मेहनत की है।
अब कृष्ण का जो चक्र है, उसको नाम दिया है सुदर्शन का। मृत्यु का वह वाहक है और नाम सुदर्शन का है। मृत्यु देखने में सुंदर नहीं होती, न सुदर्शन होती है, लेकिन कृष्ण के हाथ में मृत्यु भी सुदर्शन बन जाती है। उतना ही अर्थ है। हम एटम बम को सुदर्शन चक्र का नाम नहीं दे सके। एटम जैसा ही संघातक है वह। अचूक है उसकी चोट। मौत उसकी निश्चित है उससे। वह छूटता है तो बस मारकर ही लौटता है। मृत्यु जहां बिलकुल निश्चित हो, वहां भी हम उस मृत्यु के शस्त्र को सुदर्शन कहेंगे? लेकिन कहा तो है। असल में कृष्ण जैसे आदमी के हाथ में मृत्यु भी सुदर्शन हो जाती है। हिटलर जैसे आदमी के हाथ में फूल भी सुदर्शन नहीं रह जाता है। सवाल यह नहीं है कि क्या है आपके हाथ में, सवाल सदा यही है कि हाथ किसका है। कृष्ण के हाथ से मरना भी आनंदपूर्ण हो सकता है। और उस युद्ध के स्थल पर खड़े हुए मित्र और विपक्षी भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि उनके हाथ से मरना आनंदपूर्ण हो सकता है। वह भी सौभाग्य का क्षण हो सकता है। इसलिए उनके शस्त्र को भी नाम जो देते हैं हम, वह सुदर्शन का नाम दिया है।
एक क्षण आता है युद्ध का, वह सुदर्शन हाथ में लेकर युद्ध में कूद पड़ते हैं। यह उनके "स्पांटेनियस', सहज होने का प्रतीक है। ऐसा आदमी क्षण में जीता है, "मॉमेंट टु मॉमेंट'। ऐसा आदमी पिछले क्षण से बंधा हुआ नहीं होता है। अगर ठीक से समझें तो ऐसे आदमी की कोई "प्रॉमिस' नहीं होती। संभवतः जेसपर्स ने आदमी की परिभाषा की है--बहुत परिभाषाएं आदमी की की जा सकती हैं, कोई कहता है, "मैन इज ए रेशनल बीइंग', मनुष्य बुद्धिमान प्राणी है। जेसपर्स ने जो परिभाषा की है वह है, "मैन इज ए प्रॉमिसिंग एनिमल'। आदमी जो है, वह वचन देने वाला प्राणी है। कृष्ण आदमी नहीं हैं। वह वचन देता नहीं। हां, गांधी उनमें आएंगे, वचन देन वाले प्राणियों में आएंगे। कृष्ण वचन देनेवाला प्राणी नहीं है। क्षण में जीने वाला आदमी है। जो क्षण ले आएगा, वैसा जिएगा। अगर क्षण ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी तो यह अपने को रोकेगा नहीं। क्षण अगर युद्ध ले आया, तो युद्ध में उतर जाएगा। क्षण-क्षण जीवन का जो अर्थ होता है--और निश्चित ही केवल क्षण-क्षण जीने वाला आदमी ही मुक्त जी सकता है। क्योंकि जिसने वचन दिए हैं, वह अतीत से बंध जाता है। जो पीछे से बंध जाता है, जो पीछे से बंधकर जीने लगता है, उसकी भविष्य की स्वतंत्रता रोज संकीर्ण होती चली जाती है। और अतीत भविष्य पर बोझिल होने लगता है।
तो कृष्ण लड़ने में उतर जाते हैं। आए नहीं थे लड़ने को, युद्ध करने का कोई खयाल न था, कोई बात न थी, उतर जाते हैं युद्ध में। यह बड़ी कठिनाई की बात रही है। जो लोग कृष्ण पर सोचते रहे हैं, उन्हें बड़ी मुश्किल की बात रही है कि वह युद्ध में क्यों उतर गए? कारण सिर्फ इतना ही है कि वैसा आदमी भरोसे का आदमी नहीं है। "ही कैन नाट बी रिलाइड अपॉन।' ऐसे आदमी पर बिलकुल पक्का भरोसा नहीं किया जा सकता। ऐसा आदमी जो स्थिति होगी वैसा जिएगा। और आप उससे यह नहीं कह सकते कि कल तो आप ऐसे थे, आज आप ऐसे? वह कहेगा, कल अब नहीं है। गंगा का पानी बहुत बह चुका। अब गंगा जहां है, वहां है। आज मैं ऐसा हूं; और कल मैं कैसा होऊंगा, कुछ भी नहीं कहा जा सकता। कल आएगा, तभी हम जानेंगे। इस तरह के आदमी की भविष्यवाणी नहीं बताई जा सकती। ज्योतिषी ऐसे आदमी के साथ हार जाते हैं। ज्योतिषी ऐसे आदमी के साथ कभी नहीं जीत पाते। क्योंकि ज्योतिषी बताता है भविष्य को। वह आज के आदमी को देखकर कहता जाएगा। क्योंकि कृष्ण कल क्या करेंगे, यह बिलकुल नहीं कहा जा सकता। आज के कृष्ण से कुछ निकलता ही नहीं कल के कृष्ण के लिए। कल का कृष्ण कल पैदा होगा, आज का कृष्ण आज पैदा हुआ है।
इसे थोड़ा ठीक से देख लें।
दो तरह की जिंदगियां होती हैं। एक जिंदगी होती है, शृंखलाबद्ध। और एक जिंदगी होती है, "एटॉमिक'। एक जिंदगी होती है "सीरीज़' की तरह, और एक जिंदगी होती है अणुओं की तरह। जो आदमी शृंखला में जीता है, उसके कल और आज के बीच सेतु होता है। उसका आज उसके कल से निकलता है। उसकी जिंदगी उसके मरे हुए हिस्सों से निकलती है। उसका ज्ञान उसकी स्मृति से निकलता है। उसका आज का होना उसके कल की राख से निकलता है, उसकी जिंदगी का फूल उसकी कब्र पर खिलता है।
लेकिन एक दूसरा जीवन है। यह जीवन शृंखला का जीवन नहीं है, आणविक जीवन है। उसमें आज का होना कल से नहीं निकलता, आज से ही निकलता है। यह आज का जो सारा अस्तित्व है, इससे ही निःसृत होता है। मेरे कल का जो शृंखलाबद्ध स्मृति का अस्तित्व है, मेरा जो संस्कार का अस्तित्व है, मेरी जो "कंडीशनिंग' है, उससे नहीं निकलता है मेरा आज का होना। आज के इस विराट अस्तित्व से, आज के "एक्ज़िस्टेंस' से, आज के अस्तित्व से निःसृत होता है। "एक्ज़िस्टेंसियल' है। आज के क्षण से निकलता है, आने वाले क्षण में फिर उस क्षण से निकलता है, फिर आने वाले क्षण में उस क्षण से निकलता है। शृंखला ऐसे जीवन में भी होती है, लेकिन सेतुबद्ध नहीं होती। रोज-रोज प्रतिपल निकलता है। ऐसा आदमी हर क्षण को जीता है और हर क्षण को मर जाता है। आज जीता है, आज मर जाता है। आज रात सोता है, आज के लिए मर जाता है। कल सुबह फिर जीता है, फिर जगता है। प्रतिपल जीना और प्रतिपल मर जाना--"डाइंग टु एवरी मॉमेंट', तभी वह प्रतिपल नया होकर जन्म लेता है। तो प्रतिपल नया है और कभी पुराना नहीं पड़ता। वैसा आदमी सदा जवान है। ऐसा आदमी सदा युवा है, ऐसा आदमी सदा ताजा है। और उसका जो होना निकलता है वह समग्र अस्तित्व से निकलता है, इसलिए उसका होना भागवत है।
हम भगवान का जो अर्थ करें, मैं जो करूं भगवान का अर्थ, वह यही है। भगवान का जीवन "एटामिक' है, आणविक है, "एक्ज़िस्टेंसियल' है, अस्तित्व से निकलता है, सत से निकलता है, रोज-रोज प्रतिपल, पल-पल निकलता है, होता है। उसका न कोई अतीत है, न कोई भविष्य है, सिर्फ वर्तमान है। कृष्ण को अगर भगवान कहा जा सका, भागवत चेतना कहा जा सका, "डिवाइन कांशसनेस' कहा जा सका, उसका और कोई अर्थ नहीं है। उसका यह मतलब नहीं है कि कहीं कोई भगवान बैठा है और वह इस आदमी में उतर आया है। इसका इतना ही मतलब है कि भगवान अर्थात समग्र, "दि टोटल', इस आदमी का होना समग्र से ही निकलता चला जाता है। इसलिए इस आदमी में अगर हम कभी "कंसिस्टेंसी' खोजने जाएं तो थोड़ी दिक्कत में पड़ेंगे। ऐसे आदमी में अगर हम संगति खोजने जाएं, शृंखला खोजने जाएं, तो हमें बहुत-सी चीजों को "इगनोर' करना पड़ेगा। या बहुत-सी चीजों को जबर्दस्ती समझाना पड़ेगा। या बहुत-सी चीजों को किसी तरह तालमेल बिठाना पड़ेगा। या कहना पड़ेगा लीला है। जब हमारी समझ में नहीं पड़ेगा तो कहना पड़ेगा समझ में नहीं पड़ता है, लीला है। लेकिन कठिनाई और अड़चन जो आ रही है वह "सीरियल एक्ज़िस्टेंस' और "स्पांटेनियस एक्ज़िस्टेंस'--शृंखलाबद्ध अस्तित्व और सहज अस्तित्व, इनको न समझने से आती है।
ओशो रजनीश
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