श्री कृष्ण स्मृति भाग 53

 "भगवान श्री, रामावतार में जैसे अहिल्या का शिला-व्यक्तित्व राम का इंतजार करता था और शिला में से अहिल्या हुई, इसी तरह कृष्णावतार में भगवान कृष्णचंद्र का जो समागम कुब्जा के साथ हुआ, क्या उसका कोई "स्प्रिचुअल' अर्थ घटाते हैं? वह क्या है, उसे कृपया स्पष्ट करें।'


जीवन में सभी कुछ, सभी समय घटित नहीं होता है; क्षण हैं, जिनके लिए प्रतीक्षा करनी होती है। समय है, जिसकी राह देखनी होती है। अवसर हैं, जिनके लिए रुकना पड़ता है। बहुत-बहुत आयामों में इस बात को देखना जरूरी है।

पत्थर की तरह पड़ी हुई कोई स्त्री-नहीं मैं कहता हूं कि पत्थर ही हो गई होगी, पत्थर हो जाना कवि की कल्पना है--लेकिन, कोई स्त्री जो राम से ही खिल पाएगी और राम के स्पर्श से ही खिल पाएगी, जब तक राम न मिलें तब तक पत्थर ही रहती है। ऐसा नहीं है कि कोई शिला की तरह पड़ी थी। वह तो कवि की व्यवस्था है, सोचने के ढंग हैं, और कवि के "मेटाफॅर' हैं। लेकिन जो स्त्री राम के स्पर्श से ही खिल सकती है और जीवंत हो सकती है और चेतना पा सकती है, कोई किसी और का स्पर्श उसे जड़ ही छोड़ जाएगा। कहानी का मर्म इतना ही है कि हर एक की अपनी प्रतीक्षा है। हर एक की अपनी "अवेटिंग' है। और क्षण आए बिना वह घटित नहीं होती है। जो पत्थर की तरह पड़ी थी, पत्थर ही हो गई थी, और यह सोचने जैसा है--जब तक किसी स्त्री को उसका प्रेम न मिल जाए, तब तक वह पत्थर ही होती है। तब तक उसके भीतर सब शिलाखंड हो गया होता है। और उसके पास हृदय पथरीला हो गया होता है। जब तक उसे उसका प्रेमी न मिल जाए, तब तब उसे उसके प्रेम का स्पर्श, जब तक उसे उसके प्रेम की छाया और जब तक उसे प्रेम की ऊष्मा न मिल जाए, तब तक उसके भीतर कुछ पत्थर की तरह ही पड़ा रह जाता है। वह अनंतकाल तक पत्थर ही रहेगा।

इसे एक तरह से और समझ लेना चाहिए। स्त्री जो है, "पैसिविटी' है। स्त्री जो है, वह ग्राहक अस्तित्व है, "रिसेप्टिव एक्जिसटेंस' है। "एग्रेसिव' नहीं है, आक्रामक नहीं है, ग्राहक है। स्त्री के व्यक्तित्व में गर्भ ही नहीं है, उसका चित्त भी गर्भ की भांति है। इसलिए अंग्रेजी का शब्द "वूमन' तो बहुत मजेदार है। उसका मतलब है, "मैन विद ए वूंब'। स्त्री जो है, वह गर्भसहित एक पुरुष है। स्त्री का समस्त अस्तित्व ग्राहक है, "रिसेप्टिव' है। आक्रामक नहीं है। पुरुष का सारा व्यक्तित्व आक्रामक है, ग्राहक बिलकुल नहीं है। और यह दोनों "कांप्लिमेंटरी' हैं, और स्त्री और पुरुष का सब कुछ "कांप्लिमेंटरी' है। जो पुरुष में नहीं है वह स्त्री में है, जो स्त्री में नहीं है वह पुरुष में है। इसलिए वे दोनों मिलकर पूरे हो पाते हैं।

स्त्री की जो ग्राहकता है, वह प्रतीक्षा बन जाएगी और पुरुष का जो आक्रमण है, वह खोज बनती है। अहिल्या जो शिलाखंड की तरह प्रतीक्षा करेगी, राम नहीं प्रतीक्षा करेंगे। राम अनेक पथों पर खोजेंगे। यह बड़े मजे की बात है कि शायद ही किसी स्त्री ने कभी प्रेम-निवेदन किया हो। प्रेम-निवेदन लिया है, किया नहीं है। शायद ही किसी स्त्री ने अपनी तरफ से प्रेम में "इनीशिएटिव' लिया हो, अपनी तरफ से पहल की हो। ऐसा नहीं है कि स्त्री पहल नहीं करना चाहती, ऐसा भी नहीं है कि पहल उसके भीतर पैदा नहीं होती, लेकिन उसकी पहल प्रतीक्षा ही बनती है। उसकी पहल मार्ग ही देखती है, राह देखती है और अनंत जन्मों तक देख सकती है। असल में जब भी स्त्री आक्रमण करती है, तभी उसके भीतर से कुछ स्त्रैण खो जाता है, और तभी वह कम आकर्षक हो जाती है। उसकी अनंत प्रतीक्षा में ही उसका अर्थ और उसका व्यक्तित्व, उसकी आत्मा है। अनंत काल तक प्रतीक्षा चल सकती है लेकिन स्त्री आक्रमण नहीं कर सकती। वह जाकर किसी से कह नहीं सकती कि मैं तुम्हें प्रेम करती हूं। वह जिसे प्रेम करती है, उससे भी नहीं कह सकती है। वह यही प्रतीक्षा करेगी कि वह जो उसे प्रेम करता है, कभी कहे, और कहने पर भी उसका हां एकदम सीधा नहीं आ जाता। उसका हां भी न की शकल लेकर ही आता है। उसका सारा "गेस्चर' कहेगा, उसका सारा व्यक्तित्व कहेगा, हां। लेकिन उसकी वाणी कहेगी, ना। क्योंकि अगर वह जल्दी हां कहे तो उसमें भी आक्रमण थोड़ा-सा हो जाता है। वह ना ही कहती चली जाएगी। पुरुष ही पहल करेगा।

कृष्ण के लिए भी कोई प्रतीक्षारत हो सकता है। और, कृष्ण के बिना शायद कोई स्त्री उस हर्ष को, उस प्रफुल्लता को, उस खिल जाने को उपलब्ध ही न हो सके। तो इस देश के नियमों में एक बहुत अदभुत नियम था, वह समझ लेने जैसा है। वह नियम यह था कि स्त्री साधारणतः, सामान्यतया न आक्रमण करती, न निवेदन करती, न प्रार्थना करती। लेकिन, यदि कभी स्त्री प्रार्थना करे तो पुरुष का इनकार अनैतिक है क्योंकि यह बहुत "रेयर' मामला है। एक स्त्री तो निवेदन करती नहीं, लेकिन यदि कभी स्त्री निवेदन करे तो पुरुष का इनकार अनैतिक है। और अगर पुरुष इनकार करे, तो उसने अपने पुरुषत्व से इनकार कर लिया। यह नियम इसलिए बनाया जा सका कि ऐसे यह सामान्य घटने वाला नियम नहीं है, ऐसा होता नहीं है। लेकिन कभी ऐसे क्षण आते हैं। अर्जुन के जीवन में एक उल्लेख है और उल्लेख मैं आपको याद दिलाना चाहूं।

अर्जुन एक वर्ष के ब्रह्मचर्य की साधना कर रहा है। और एक सुंदर युवती ने उसे देखकर, उस साधनारत अर्जुन को देखकर उससे निवेदन किया है कि मैं चाहूंगी कि मुझे तुम्हारे जैसे बेटे, तुम्हारे जैसे पुत्र उपलब्ध हों। यह भी बड़े मजे की बात है कि स्त्री अगर निवेदन भी करेगी, तो भी प्रेयसी और पत्नी बनने का न कर पाएगी, मां बनने का कर पाएगी। अर्जुन बहुत मुश्किल में पड़ गया है। वह एक वर्ष का ब्रह्मचर्य का काल व्यतीत कर रहा है। ब्रह्मचर्य तोड़ा नहीं जा सकता। और नियम! और नियम बड़ा अर्थपूर्ण है और बड़ा पुरुषगत है। नियम कि स्त्री निवेदन करे तो अस्वीकार करना अनैतिक है। और अर्जुन अनैतिक भी न होना चाहेगा। पुरुष-ऊर्जा से जब किसी ने, किसी ग्राहक शक्ति ने निवेदन किया हो और अगर पुरुष-ऊर्जा बहने से इनकार कर दे, तो वह पुरुष-ऊर्जा न रही। अर्जुन बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। लेकिन अर्जुन ने कहा कि मैं तैयार हूं, पर पक्का कहां है कि मेरे पुत्र मेरे जैसे होंगे? इसलिए अच्छा हो कि तू मुझे ही पुत्र मान ले। मैं तेरा पुत्र हुआ जाता हूं। तेरी आकांक्षा पूरी हो जाएगी। मेरे जैसे पुत्र ही चाहिए न! मेरा पुत्र मेरे जैसा होगा, यह पक्का कहां है? इसलिए मैं तेरा पुत्र हुआ जाता हूं।

ऐसी ठीक एक घटना बर्नार्ड शॉ के जीवन में है। एक फ्रेंच अभिनेत्री ने बर्नार्ड शॉ को निवेदन किया--सुंदरतम अभिनेत्री है। उसने बर्नार्ड शॉ को लिखा एक पत्र और कहा कि मैं आपसे विवाह करना चाहती हूं। पश्चिम की स्त्री यद्यपि स्त्री होने से काफी दूर चली गई है, लेकिन फिर भी वह निवेदन मां का ही कर सकी। उसने भी निवेदन में यह कहा कि मैं चाहती हूं, ऐसे बेटे हों हमारे जिनको मेरा सौंदर्य मिल जाए और तुम्हारी बुद्धि मिल जाए। कहता हूं कि पश्चिम की स्त्री स्त्री होने से काफी दूर चली गई है, फिर भी निवेदन मां का ही कर पाई। स्त्री मां होने के निवेदन में कहीं भी हीन अनुभव नहीं करती। क्योंकि स्त्री मां होने का जब निवेदन करती है तब भी वह निवेदन नहीं है। हीन होती नहीं मां होने में वह। वह पुरुष से कहीं पीछे पड़ती नहीं, नीचे कहीं उतरती नहीं। मां होने में तो पुरुष का छोटा-सा उपयोग भर है, फिर तो वह पूरा खुद ही कर लेती है। लेकिन पत्नी होने में बात और है। पुरुष का थोड़ा-सा उपयोग नहीं है। पुरुष का फिर पूरा ही उपयोग है।

बर्नार्ड शॉ को भी वही मुसीबत है जो अर्जुन को हुई होगी। लेकिन अर्जुन पूरब की हवा में पला हुआ था, इसलिए जो उत्तर दिया वह पूरब का था। बर्नार्ड शॉ ने जो उत्तर दिया वह पश्चिम का है। इसलिए बर्नार्ड शॉ के उत्तर की बेहूदगी बड़ी साफ है। बर्नार्ड शॉ ने उसे पत्र लिखा कि देवी, इससे उल्टा भी हो सकता है जैसा आप कहती हैं। ऐसा भी हो सकता है कि आपकी बुद्धि मिल जाए हमारे बेटों को और मेरी शक्ल-सूरत मिल जाए! पूरब में कोई पुरुष ऐसा उत्तर नहीं दे सकता था। यह तो स्त्री-शक्ति का सीधा अपमान हो गया। स्त्री के द्वारा किए गए निवेदन का सीधा इनकार हो गया। और इनकार भी शिष्ट न रहा, अशिष्ट हो गया।

कृष्ण के लिए कुब्जा की प्रतीक्षा है। वह प्रतीक्षा जन्मों की है। कृष्ण इनकार नहीं कर सकते। इनकार ही कृष्ण के जीवन में नहीं है। और अगर कुब्जा चाहे कि शरीर के तल पर संभोग हो तो कृष्ण उसका भी इनकार नहीं कर सकते, क्योंकि कृष्ण के मन में शरीर का भी कोई विरोध नहीं है। शरीर भी है, शरीर की अपनी जगह है। शरीर ही सब कुछ नहीं है, यह बात दूसरी है, लेकिन शरीर भी है। और शरीर की अपनी जगह है, अपना रस है, अपना आनंद है। शरीर का अपना होना है। कृष्ण के मन में उसकी भी काई निषेध बात नहीं है। कृष्ण एक-साथ शरीर और आत्मा को पी गए हैं, एक-साथ पदार्थ और परमात्मा को ले गए हैं। इसलिए कृष्ण के द्वारा स्त्री-शक्ति का अपमान ही होगा। वे शरीर के तल पर भी संभोग करने को राजी हैं। कुब्जा की जो आकांक्षा है, वह पूरा करने को राजी हैं। इस राजी होने में कोई उन्हें राजी होने की चेष्टा नहीं करनी पड़ रही है। इस राजी होने में कोई प्रयास नहीं है। इस राजी होने में, जो घटित हो रहा है उसकी सहज स्वीकृति है।

कठिन पड़ता है हमें। कृष्ण का शरीर के तल पर संभोग हमें कठिन पड़ता है, क्योंकि हम द्वैतवादी हैं। हम शरीर और आत्मा को अलग-अलग मानकर चलने वाले लोग हैं। मेरे देखे--और ऐसा ही देखना कृष्ण का भी है--कि शरीर और आत्मा दो नहीं हैं, संभोग और योग दो नहीं हैं, पदार्थ और परमात्मा दो नहीं हैं। शरीर आत्मा का वह छोर है जो हमारी आंखों और हाथों के पकड़ में आ जाता है। और आत्मा शरीर का वह छोर है जो हमारे हाथ, आंख और बुद्धि की पकड़ के बाहर छूट जाता है। शरीर दृश्य आत्मा है और आत्मा अदृश्य शरीर है। और दोनों एक हैं, और ये कहीं टूटते नहीं, कहीं खंडित नहीं होते। शरीर के तल पर जिसे हम संभोग कहते हैं, आत्मा के तल पर वही योग है। शरीर के तल पर जिसे हम संभोग कहते हैं, आत्मा के तल पर वही समाधि है। कृष्ण के मन में संभोग और समाधि में विरोध नहीं है। संभोग ही समाधि तक द्वार बन जाता है। समाधि ही संभोग तक उतर कर अपनी किरणें पहुंचाती है।

लेकिन कुब्जा की बात कुब्जा जाने। कुब्जा के लिए क्या है, इसे कृष्ण से कोई...कृष्ण के लिए क्या है, वह मैं कह रहा हूं। कुब्जा की ऐसी भूमिका है, ऐसा मुझे नहीं लगता। उसके लिए संभोग समाधि बन सकता है, ऐसा भी मुझे नहीं लगता। लेकिन यह प्रयोजन के बाहर है। कुब्जा ने जो मांगा है, जितना उसका पात्र है, कृष्ण उतने पात्र को भी भरने को राजी हैं। वे नहीं कहते कि तेरे पास सागर जैसा पात्र चाहिए, क्योंकि मेरे पास सागर जैसा देने को है। कुब्जा कहती है, मेरे पास तो छोटा-सा भिक्षापात्र है; इसमें सिर्फ शरीर ही समाता है। इसमें आत्मा वगैरह की मुझे कुछ खबर नहीं है। तो कुब्जा के पात्र को वह इसलिए खाली न लौटा देंगे कि सागर जैसा पात्र लेकर वह नहीं आई। नहीं, कृष्ण कहेंगे जितना पात्र है उतना ले जाओ। इसलिए शरीर के तल पर भी कृष्ण का मिलन संभव हो सका है।

ओशो रजनीश



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