"भगवान श्री, श्रीकृष्ण की गो-भक्ति को आप किस दृष्टि से देखते हैं? उत्क्रांति की प्रक्रिया में डार्विन के वानर को मनुष्य-देह का पूर्वगामी और आत्मा के विकास में आपके अनुसार गो-माता को पूर्वगामी मानने को अगर राजी हों, तो स्पष्ट नहीं होता कि समस्त पशुजाति में गाय ही आत्मा के साथ क्या ताल्लुक रखती है! क्या कृषि-प्रधान देश होने के कारण हम गाय को माता कहते हैं? गो-वध के संबंध में आपका क्या खयाल है?'
चार्ल्स डार्विन ने जब सबसे पहले यह बात कही कि आदमियों के शरीर को देखकर ऐसा मालूम पड़ता है कि वह बंदरों की ही किसी जाति की शृंखला की आगे की कड़ी है, तो स्वीकार करना बहुत मुश्किल हुआ था। क्योंकि जो आदमी परमात्मा को अपना पिता मानता रहा हो, वह आदमी अचानक बंदर को अपना पिता मानने को राजी हो जाए, यह कठिन था। एकदम परमात्मा की जगह बंदर बैठ जाए, तो अहंकार को बड़ी गहरी चोट थी। लेकिन कोई रास्ता न था। डार्विन जो कह रहा था, प्रबल प्रमाण थे। डार्विन जो कह रहा था उसके लिए समस्त वैज्ञानिक साधन सहारा दे रहे थे। इसलिए विरोध तो बहुत हुआ, लेकिन धीरे-धीरे स्वीकार कर लेना पड़ा। इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं था।
बंदर के शरीर और आदमी के शरीर में इतनी ही निकटता है, बंदर की बुद्धि और आदमी की बुद्धि में भी इतनी ही निकटता है, बंदर के जीने और होने के ढंग और आदमी के जीने और होने के ढंग में भी इतनी निकटता है कि यह इनकार करना मुश्किल है कि आदमी किसी-न-किसी रूप में बंदर की कड़ियों से जुड़ा हुआ है। आज भी जब हम रास्ते पर चलते हैं तो हमारे बायें पैर के साथ दायां हाथ हिलता है। जरूरत नहीं है अब कोई, "मोशन' के लिए कोई जरूरत नहीं है। आप दोनों हाथ बिलकुल रोक कर चलें तो भी चल सकते हैं। दोनों हाथ कट जाते हैं तो भी आदमी इतनी ही गति से चलता है। लेकिन बायें पैर के साथ दायें हाथ का हिलना, डार्विन कहेगा, बंदर जब चारों हाथ-पैर से चलता था, तब की आदत है, वह छूटती नहीं। वह अभी भी आप जब चलते हैं, तो बस, उल्टे हाथ के साथ उल्टा पैर जुड़ जाता है। वह चार हाथ-पैर से कभी-न-कभी मनुष्य जाति का कोई पूर्वज चलता रहा है। अन्यथा इसका कोई कारण नहीं है। जहां बंदर की पूंछ है, वहां वह अभी खाली जगह हमारे पास है, सबके पास है, जहां पूंछ होनी चाहिए थी, लेकिन अब है नहीं। वह हड्डी, जहां पूंछ जुड़ी होनी चाहिए थी, वह "लिंकेज' हमारे शरीर में है। पूंछ तो नहीं है, लेकिन वह "लिंकेज' है। वह खबर देती है कि कभी पूंछ रही होगी।
इस लिहाज से हनुमान बड़े कीमती आदमी हैं। डार्विन को कुछ पता नहीं था हनुमान का, नहीं तो बड़ा प्रसन्न होता। अगर उसको हनुमान का पता चलता, तो वह बड़ा प्रसन्न होता। क्योंकि हनुमान का बंदर होना, ऐसा मालूम पड़ता है कि हनुमान उस बीच-कड़ी के आदमी होंगे, जब वह पूरे बंदर भी नहीं रह गए थे, पूरे आदमी भी नहीं हो गए थे। कहीं "लिंकेज' बीच की होनी चाहिए। हां, "ट्रांजिटरी पीरियड' के आदमी होने चाहिए। क्योंकि बंदर एकदम से आदमी नहीं हो गए होंगे, लाखों साल तक बंदर आदमी होते रहे होंगे। कुछ चीजें गिरती गई होंगी, कुछ बढ़ती गई होंगी। लाखों साल में ऐसा हुआ होगा कि कड़ी टूट गई, कुछ बंदर बंदर रह गए और कुछ आदमी हो गए और बीच का हिस्सा गिर गया। वह जो बीच का हिस्सा गिर गया, हनुमान उसी के कहीं-न-कहीं प्रतीक हैं। वह जो बीच का हिस्सा, अब उपलब्ध नहीं है--उसको खोजा जा रहा है बहुत, और सारी जमीन पर हजार तरह की, लाख तरह की खोजें चलती हैं कि हम उस बीच की कड़ी की हड्डियों को खोज लें जो आदमी और बंदर के बीच में रही होंगी। हनुमान की हड्डियां कहीं मिल जाएं तो काम आ सकती हैं। डार्विन ने जब यह कहा, तो कठिन हुआ था, लेकिन धीरे-धीरे स्वीकृत हुआ। क्योंकि प्रमाण प्रबल थे और पक्ष में थे। मैं एक दूसरी बात भी कहता हूं, और वह मैं यह कहता हूं कि आदमी के शरीर का जहां तक विकास है, आदमी का शरीर बंदर के विकास की अगली कड़ी है, लेकिन जहां तक आदमी की आत्मा का संबंध है, वहां तक आदमी की आत्मा गाय की आत्मा की अगली कड़ी है। आदमी के पास आत्मा की जो यात्रा है वह तो गाय से होकर आई है और शरीर की जो यात्रा है, वह बंदर से होकर आई है। निश्चित ही जैसे प्रमाण डार्विन बंदर से आदमी होने के लिए जुटा सकता है, ठीक वैसे प्रमाण इस बात के लिए नहीं जुटाए जा सकते, लेकिन दूसरे तरह के प्रमाण जुटाए जा सकते हैं।
गाय को मां कहने का कारण सिर्फ कृषि करने वाला देश नहीं है। क्योंकि बैल को हमने पिता नहीं कहा। गाय को मां कहने का कारण सिर्फ गाय की कृषि-प्रधान देश में उपादेयता और उपयोगिता मात्र नहीं है। अगर यह सिर्फ उपादेयता होती, तो उपादेय चीजों को हम मां नहीं बना लेते हैं! कोई कारण नहीं है। रेलगाड़ी को कोई मां नहीं कहता, बहुत उपादेय है। और रेलगाड़ी के बिना एक क्षण नहीं चला जा सकता। हवाई जहाज को कोई मां नहीं बना लेता। बहुत उपादेय है। दुनिया में उपादेय के लिए कुछ-न-कुछ रही हैं, जिनकी "यूटिलिटी' रही है, लेकिन जिस चीज की "यूटिलिटी' हो, उसको मां कहने का क्या संबंध है? "यूटिलिटी' हो तो ठीक है, मां कहने का कोई वास्ता नहीं है। मां कहने के पीछे कोई और कारण है।
वह कारण, मेरे अपने अनुभव में, जैसे बंदर पिता है डार्विन के हिसाब से, वैसे गाय मां है। यह किन आधारों पर मैं कहता हूं? इसके सारे आधार "साइकिक रिसर्च' के ही आधार हो सकते हैं। मनस की, और "जाति-स्मरण' के आधार हो सकते हैं। हजारों योगियों ने निरंतर इस पर प्रयोग करके यह अनुभव किया कि वह जितने पीछे लौटते हैं, जब तक याद आती है, तब तक मनुष्य के जन्म होते हैं, लेकिन मनुष्यों के जन्मों के पीछे जो स्मरण आना शुरू होता है, वह गाय का जन्म शुरू हो जाता है। अगर आप अपने पिछले जन्मों की स्मृति में उतरेंगे, तो बहुत से जन्म तो मनुष्य के होंगे--सबके, कुछ के कम, कुछ के ज्यादा--यह "जाति-स्मरण' के परिणामों का फल है। जिन लोगों ने "जाति-स्मरण' पर प्रयोग किए, अपने पिछले जन्म की स्मृतियों की खोजबीन की, उन्होंने पाया कि आदमी की स्मृतियों के बाद जो पहली पर्त मिलती है, वह पर्त गाय की स्मृति की है। इस गाय की स्मृति के आधार पर गाय को मां कहा गया।
ऐसे भी, अगर हम सारे पशु-जगत में खोजने जाएं, तो गाय के पास जैसी आत्मा दिखाई पड़ती है, वैसी किसी दूसरे पशु के पास दिखाई नहीं पड़ती। अगर हम गाय की आंख में झांकें, तो जैसी मानवीयता गाय की आंख में झलकती है वैसी मानवीयता किसी दूसरे पशु की आंख में नहीं झलकती। जैसी सरलता, जैसी विनम्रता गाय में दिखाई पड़ती है वैसी किसी दूसरे पशु में नहीं दिखाई पड़ती है। आत्मिक दृष्टि से गाय विकसिततम मालूम पड़ती है, समस्त पशु-जगत में। उसकी आत्मिक गुणवत्ता साफ स्पष्ट रूप से सर्वाधिक विकसित मालूम पड़ती है। उसका यह जो विकसित होना है, यह भी प्रमाण बन सकता है, खयाल दे सकता है कि अगला चरण गाय का जो होगा, वह आत्मिक छलांग का होगा। बंदर की अगर हम शारीरिक बेचैनी समझें, तो हमें खयाल में आ सकता है कि यह जल्दी अपने शरीर के बाहर छलांग लगाएगा। यह रुक नहीं सकता। यह इसी शरीर से राजी नहीं हो सकता। बंदर राजी ही नहीं है किसी चीज से। वह पूरे वक्त बेचैन और चंचल और परेशान है। आपने ध्यान किया, जब बच्चे पैदा होते हैं तो उनकी आंखों में गाय का भाव होता है और शरीर में बंदर की व्यवस्था होती है। छोटे बच्चे को देखें, तो शरीर तो उसके पास बिलकुल निपट बंदर का होता है, लेकिन आंख में झांकें तो गाय की आंख होती है।
इसलिए मैं कहता हूं कि गाय को मां कहने का कारण है। यह सिर्फ कृषि-प्रधान होने की वजह से ऐसा नहीं हुआ। इसके "साइकिक', इसके बहुत मानसिक खोजों का कारण है। अब दुनिया में जब "साइकिक रिसर्च' बढ़ती चली जाती है, तो मैं नहीं समझता हूं कि बहुत देर लगेगी कि इस देश की इस खोज को समर्थन विज्ञान से मिल जाए। बहुत देर नहीं लगेगी, समर्थन मिल जाएगा।
कठिनाई क्या होती है?
अगर हम हिंदुओं के अवतार देखें तो हमें खयाल में आ सकता है। हिंदुओं का अवतार मछली से शुरू होता है और बुद्ध तक चला जाता है। पहले यह बात बड़ी मुश्किल की थी कि मछली का अवतार! मत्स्य का अवतार! पागल तो नहीं हैं आप! लेकिन अब जब विज्ञान और जीवशास्त्र कहता है कि जीवन का पहला अस्तित्व मछली से शुरू हुआ, तब हमें बड़ी मुश्किल पड़ जाती है। अब आज मजाक नहीं उड़ा सकते इस बात का। आज इस बात का मजाक उड़ाना मुश्किल हो गया, क्योंकि विज्ञान कहने लगा। और विज्ञान की कुछ ऐसी छाप है हमारे मन पर कि फिर हम मजाक नहीं उड़ा सकते। विज्ञान कहता है कि मछली ही शायद पहला जीवन का विकसित रूप है। फिर मछली से ही सारा विकास हुआ। मछली इस देश ने पहला अवतार माना है--अवतार का कुल मतलब होता है, चेतना का अवतरण। शायद मछली पर जीवन-चेतना पहली बार उतरी। इसलिए मछली को अवतार कहने में बुरा नहीं है। यह भाषा धर्म की है। और जब विज्ञान कहता है कि मछली पहला जीवन मालूम पड़ती है, तब भाषा उसके पास विज्ञान की हो जाती है। हमारे पास एक अवतार और भी अदभुत है--नरसिंह अवतार। जो आधा पशु और आधा मनुष्य का अवतार है। जब डार्विन कहता है कि बीच में कड़ियां रही होंगी जो आधी पशुता की और आधी मनुष्यता की रही होंगी, तब हमें कठिनाई नहीं होती, लेकिन नरसिंह अवतार को पकड़ने में कठिनाई होती है। वह भाषा धर्म की है। लेकिन उसके भी पीछे गहन अंतर्दृष्टियां समाविष्ट हैं।
गाय मां है, उन्हीं अर्थों में, जिन अर्थों में बंदर पिता है। और डार्विन ने फिक्र की शरीर की, क्योंकि पश्चिम शरीर की चिंता में संलग्न है। इस देश ने फिक्र की आत्मा की, क्योंकि यह देश आत्मा की चिंता में संलग्न है। इस देश को इसकी बहुत फिक्र नहीं रही कि शरीर कहां से आता है--कहीं से भी आता हो, लेकिन आत्मा कहां से आती है, यह हम जरूर जानना चाहते रहे हैं। इसलिए हमारी "एम्फेसिस' शरीर के विकास पर न होकर आत्मा के विकास पर गई है।
दूसरी बात पूछी है कि गो-वध के संबंध में मेरा क्या खयाल है?
मैं किसी वध के पक्ष में नहीं हूं। तो गो-वध के पक्ष में होने की तो बात ही नहीं उठती। लेकिन मैं पक्ष में हूं या नहीं, इससे वध रुकेगा नहीं। परिस्थितियां गो-वध कराती ही रहेंगी। मैं मांसाहार के पक्ष में नहीं हूं। लेकिन, मांसाहार के पक्ष में हूं या नहीं, इससे फर्क नहीं पड़ता। परिस्थितियां ऐसी हैं कि मांसाहार जारी रहेगा। जारी इसलिए रहेगा कि आज भी हम इस स्थिति में नहीं हो पाए कि शाकाहारी भोजन सारे जगत को दे सकें। सारा जगत तो बहुत दूर है, अगर एक मुल्क भी पूरा शाकाहारी होने का निर्णय कर ले, तो मर जाएगा। शाकाहारी होने के लिए जो सारी व्यवस्था हमें जुटानी चाहिए, वह हम जुटा नहीं पाए। इसलिए मांसाहार मजबूरी की तरह जारी रहेगा, "नेसेसरी इविल' की तरह। गो-वध भी जारी रहेगा "नेसेसरी इविल' की तरह।
और बड़े मजे की बात यह है कि जो लोग गो-वध बंद हो इसके लिए आतुर हैं, वह गो-वध से जो मिलता है लोगों को, उसको देने के लिए उनकी कोई चेष्टा नहीं है। गो-वध किसी दिन बंद हो सकेगा, हो सकता है। और मैं मानता हूं कि वह गो-वध भी बंद उनकी वजह से होगा जो गो-वध बंद करने के बिलकुल पक्ष में नहीं हैं। यह गो-वध बंद करने वाले लोगों की वजह से बंद नहीं होने वाला है, क्योंकि बंद करने की वह कोई व्यवस्था नहीं जुटा पाते। बस सिर्फ नारेबाजी, या कानून, या नियम, इनसे कुछ होने वाला नहीं है। आज भी जमीन पर सर्वाधिक गायें हमारे पास हैं, और सबसे कमजोर और सबसे मरीज। जिनके पास बहुत कम गायें हैं और जो बहुत गो-वध करते हैं, उनके पास बड़ी स्वस्थ, बड़ी जीवंत गायें हैं। एक-एक गाय भी चालीस किलो दूध दे सके। हमारी गाय आधा किलो भी दे तो भी बड़ी कृपा है! इन अस्थिपंजरों को हम जिंदा रखने की कोशिश में लगे हैं। इनको जिंदा रखने की कोशिश "इनडायरेक्ट' ही हो सकती है। भोजन के अतिरिक्त साधन इकट्ठे करने जरूरी हैं। अभी तक भी शाकाहारी ठीक से मांसाहारी के योग्य भोजन का उत्तर नहीं दे पाए हैं। उनकी बात सही है, उनका तर्क उचित है।
यह बड़े मजे की बात है कि गाय भी गैर-मांसाहारी है और बंदर भी गैर-मांसाहारी है। शरीर भी आदमी का जहां से आया है वह गैर मांसाहारी प्राणी से आया है, और आत्मा भी जहां से आई है वह भी गैर-मांसाहारी प्राणी से आई है। छोटी-मोटी चींटियों वगैरह को बंदर कभी खा गए, बात अलग, ऐसे मांसाहारी नहीं है। गाय तो मांसाहारी है ही नहीं। मजबूरी में मांस खा जाए, बात अलग; खिला दे कोई बात अलग। ये दोनों यात्रापथ गैर-मांसाहारी हैं और आदमी मांसाहारी क्यों हो गया? आदमी के शरीर की पूरी व्यवस्था गैर-मांसाहारी है। उसके पेट की अस्थियों का ढांचा गैर-मांसाहारी का है। उसके चित्त के सोचने का ढंग गैर-मांसाहारी का है। लेकिन आदमी मांसाहारी क्यों हैं? मांसाहार आदमी की मजबूरी है, मांसाहारी होना। अभी तक शाकाहार का हम पूरा भोजन नहीं जुटा पाए।
इसलिए मेरी अपनी समझ में, गो-वध जारी रहेगा। जारी नहीं रहना चाहिए। जारी रखना पड़ेगा। जारी नहीं रखना चाहिए, और सिर्फ उसी दिन रुक सकेगा जिस दिन हम "सिंथेटिक फूड' पर आदमी को ले जाने के लिए राजी हो जाएं। उसके पहले नहीं रुक सकता है। जिस दिन हम भोजन के मामले में वैज्ञानिक भोजन पर आदमी को ले जाएं, उस दिन रुक सकेगा। इसलिए मेरी चेष्टा गो-वध बंद हो, न हो, इसमें जरा भी नहीं है। यह सब बिलकुल फिजूल बातें हैं, जिनको चलाकर हम समय खराब करते हैं और कुछ होता नहीं, हो सकता नहीं। मेरी चिंता इसमें है कि आदमी को हम ऐसा भोजन दे सकें जो उसे मांसाहार से मुक्त कर सके। "सिंथेटिक फूड' के बिना अब पृथ्वी में पर कोई रास्ता नहीं है। अब जमीन से पैदा हुआ भोजन काम नहीं कर सकेगा, अब तो हमें फैक्ट्री में बनाई गई गोली भोजन के लिए उपयोग में लानी पड़ेगी। साढ़े तीन अरब और चार अरब के बीच संख्या डोलने लगी है मनुष्य की। इस संख्या के लिए भोजन का कोई उपाय नहीं। और यह संख्या रोज बढ़ती जाएगी, हमारे सब उपाय के बावजूद बढ़ती जाएगी। और गो-वध तो बहुत दूर की बात है, हो सकता है तीस-चालीस साल के भीतर आंदोलन शुरू करना पड़े कि नर-वध किया जाए, आदमी को खाया जाए। जैसे आज एक आदमी मरता है तो हम उससे कहते हैं कि अपनी आंख "डोनेट' कर दो, हम मरते हुए आदमी से कहेंगे, अपना मांस "डोनेट' कर जाओ। और कोई उपाय नहीं रह जाएगा। संख्या इतनी तीव्र होगी तो इसके सिवा कोई उपाय नहीं रह जाएगा। और जो आदमी अपना मांस "डोनेट' कर जाएगा, उसकी हम इज्जत करेंगे, जैसे अभी हम आंख वाले की करते हैं। वह कह जाएगा कि मरने के पहले तुम मुझे काट-पीटकर खा लेना। बहुत जल्दी वह वक्त आ जाएगा कि जो कौमें लोगों को जलाती हैं, लाशों को, वह अनुचित और अन्यायपूर्ण मालूम होने लगेगा। और ऐसा कोई आज ही हो गया, ऐसा नहीं, मनुष्य को खाने वाली जातियां थीं, जिनके पास कुछ और खाने को न था, वह मनुष्य को खाती रही हैं। यहां मनुष्य को खाने की स्थिति करीब आई जाती है, वहां हम आंदोलन चलाए जाते हैं गो-वध को रोकने का। यह नहीं चलेगा, इसमें कोई वैज्ञानिकता नहीं है।
लेकिन गो-वध रुक सकता है, सभी वध रुक सकते हैं। हमें भोजन के संबंध में बड़े क्रांतिकारी कदम उठाने की जरूरत है। गो-वध के मैं पक्ष में नहीं हूं, लेकिन गो-वध विरोधियों के भी पक्ष में नहीं हूं। गो-वध विरोधी निपट नासमझी की बातें करते हैं। उनके पास कोई बहुत बड़ी योजना नहीं है जिससे कि गो-वध रुक सके। रुक तो जाना चाहिए। गऊ आखिरी जानवर होना चाहिए जो मारा जाए। वह विकास की पशुओं में आखिरी, मनुष्य के पहले की कड़ी है। उस पर दया होनी जरूरी है। उससे हमारे बहुत आंतरिक संबंध हैं। उनका ध्यान रखना जरूरी है। लेकिन, यह ध्यान तक तक ही रखा जा सकता है जब सुविधा हो सके, अन्यथा नहीं रखा जा सकता है। एक छोटी-सी कहानी मैं कहूं--
परसों ही रास्ते में मैं कह रहा था। एक पादरी एक चर्च में व्याख्यान करने को गया है। कोई तीन-चार मील का फासला है और पहाड़ी रास्ता है, ऊंचा-नीचा रास्ता है, बूढ़ा पादरी है। उसने गांव के अपने एक तांगेवाले को कहा कि मुझे वहां तक पहुंचा दो, जो तुम पैसे लो, ले लेना। उस तांगेवाले ने कहा कि ठीक है, पैसे तो ठीक हैं, लेकिन मेरा बूढ़ा घोड़ा है गफ्फार, उसका जरा ध्यान रखना पड़ेगा। तो उसने कहा, यह तो ठीक ही है, तुम जितनी दया घोड़े पर करते हो, उससे कम मैं नहीं करता। घोड़े का ध्यान रखा जाएगा।
फिर यात्रा शुरू हुई। कोई आधा मील बीतने के बाद ही चढ़ाई शुरू हुई, तो उस तांगेवाले ने कहा, अब कृपा करके आप नीचे उतर जाएं। घोड़ा बूढ़ा है, और ध्यान रखना जरूरी है। पादरी नीचे उतर गया। फिर ऐसा ही चलता रहा। घाट आता, पादरी को नीचे उतरना पड़ता। कभी-कभी घाट और ज्यादा आ जाता, तो तांगेवाले को भी नीचे उतरना पड़ता। चार मील के रास्ते पर मुश्किल से एक मील पादरी तांगे में बैठा, तीन मील नीचे चला। और जो असली जगह जहां तांगे की जरूरत थी वहां पैदल चला और जहां तांगे की जरूरत नहीं थी वहां तांगे में बैठा। जब वे चर्च के पास पहुंच गए और तांगेवाले को पादरी ने पैसे चुकाए तो उसने कहा पैसे तो तुम लो, लेकिन एक सवाल का जवाब देते जाओ। मैं तो यहां भाषण देने आया, समझ में आता है। तुम पैसा कमाने आए, वह भी समझ में आता है। गफ्फार को किसलिए लाए हो? हम दोनों आते तो भी आसान पड़ता। इस बेचारे गफ्फार को किसलिए लाए हो?
जीवन आवश्यकताओं में जिआ जाता है, सिद्धांतों में नहीं। आदमी मरने के करीब है, गाय नहीं बचाई जा सकती। गाय बचाई जा सकती है, आदमी इतने "एफयुलेंस' में हो जाए कि गाय को बचाना "एफॅर्ड' कर सके। फिर गाय भी बचाई जा सकती है। फिर और जानवर भी बचाए जा सकते हैं। क्योंकि गाय अगर एक कड़ी पीछे है, तो दूसरे जानवर थोड़ी और कड़ी पीछे हैं। मछली भी मां तो है, जरा रिश्ता दूर का है। और तो कुछ बात नहीं है। अगर गाय मां है, तो मछली मां क्यों नहीं है? जरा रिश्ता दूर का है, बस इतना ही फर्क है। लेकिन जैसे-जैसे आदमी समृद्ध होता चला जाए, सुविधा जुटाता जाए, वह गाय को ही क्यों बचाएगा, वह मछली को भी बचाएगा।
बचाने की दृष्टि तो साफ होनी चाहिए। लेकिन बचाने का आग्रह सुविधाएं न हों तो मूढ़तापूर्ण हो जाता है।
ओशो रजनीश
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