श्री कृष्ण स्मृति भाग 57
"भगवान श्रीकृष्ण आध्यात्मिक पुरुष थे। साथ-ही-साथ उन्होंने राजनीति में भी भाग लिया। और राजनीतिज्ञ के रूप में जो उन्होंने महाभारत के युद्ध में किया वह यह: भीष्म के आगे शिखंडी को खड़ा करके उन्हें धोखे से मरवाया। द्रोण को, "अश्वत्थामा मारा गया', ऐसा झूठ बुलवाकर मरवाया। कर्ण को, जब रथ का पहिया फंस गया, तब उस निहत्थे को मरवाया। दुर्योधन को उसकी जंघा पर गदा-प्रहार करवाकर मरवाया। तो क्या धार्मिक व्यक्ति राजनीति में आएगा? और अगर आएगा, तो राजनीति में यह चाल और यह छल-कपट खेलेगा? और क्या इससे जीवन में हम भी यही सीखें कि अपनी विजय के लिए इस प्रकार के कार्य, जो धोखे से भरे हुए हों, करें? महात्मा गांधी ने जो साध्य की शुद्धता के साथ-साथ साधन की शुद्धता पर भी बल दिया, वह निरर्थक था? क्या राजनीति में इसकी कोई आवश्यकता नहीं?'
धर्म और अध्यात्म का थोड़ा-सा भेद सबसे पहले समझना चाहिए। धर्म और अध्यात्म एक ही बात नहीं। धर्म जीवन की एक दिशा है। जैसे राजनीति एक दिशा है, कला एक दिशा है, विज्ञान एक दिशा है, ऐसे धर्म जीवन की एक दिशा है। अध्यात्म पूरा जीवन है। अध्यात्म जीवन की दिशा नहीं है, समग्र जीवन अध्यात्म है।
तो हो सकता है कि धार्मिक व्यक्ति राजनीति में जाने से डरे, आध्यात्मिक व्यक्ति नहीं डरेगा। धार्मिक व्यक्ति के लिए राजनीति कठिन पड़े, क्योंकि धार्मिक व्यक्ति ने कुछ धारणाएं ग्रहण की हैं जो कि राजनीति में विपरीत हैं। आध्यात्मिक व्यक्ति किसी तरह की धारणाएं ग्रहण नहीं करता, समग्र जीवन को स्वीकार करता है, जैसा है।
कृष्ण धार्मिक व्यक्ति नहीं, आध्यात्मिक व्यक्ति हैं। महावीर धार्मिक व्यक्ति हैं इस अर्थ में, बुद्ध धार्मिक व्यक्ति हैं इस अर्थ में कि उन्होंने जीवन की एक दिशा को चुना है। उस दिशा के लिए उन्होंने जीवन की अन्य सारी दिशाओं को कुर्बान कर दिया है। उन सबको उन्होंने काट कर अलग कर दिया है। कृष्ण आध्यात्मिक व्यक्ति हैं इस अर्थ में कि उन्होंने पूरे जीवन को चुना है। इसलिए कृष्ण को राजनीति डरा नहीं सकती। कृष्ण को राजनीति में खड़े होने में जरा भी संकोच नहीं है, कोई कारण नहीं है। राजनीति भी जीवन का हिस्सा है। और समझना जरूरी है कि जो लोग धर्म के नाम पर राजनीति को छोड़कर हट गए हैं, उन्होंने राजनीति को ज्यादा अधार्मिक बनाने में सहायता दी है, राजनीति को धार्मिक बनाने में सहायता नहीं दी।
इसलिए पहली बात तो यह समझनी है कि कृष्ण के लिए जीवन के सब फूल और सब कांटे एकसाथ स्वीकृत हैं। जीवन में उनका कोई चुनाव नहीं है, "च्वॉइसलेस', जीवन को उन्होंने बिना चुनाव के स्वीकार कर लिया है, जीवन जैसा है। फूल को वह नहीं चुनते हैं, कांटे को भी गुलाब का यह जो फूल है, कांटा इसका दुश्मन है। दुश्मन नहीं है। गुलाब के फूल की रक्षा के लिए ही कांटा है। दोनों गहरे में जुड़े हैं। दोनों एक ही से संयुक्त हैं। दोनों की एक ही जड़ है और दोनों का एक ही प्रयोजन है। कांटे को काटकर गुलाब को बचा लेने की बहुत लोगों की इच्छा होगी, लेकिन कांटा गुलाब का हिस्सा है, यह उन्हें समझना होगा। तब फिर कांटा और गुलाब दोनों को साथ ही बचाना है।
तो कृष्ण राजनीति को सहज ही स्वीकार करते हैं। वे उसमें खड़े हो जाते हैं, उसकी उन्हें कोई कठिनाई नहीं है।
दूसरा जो सवाल उठाया है, वह और भी सोचने जैसा है। वह सोचने जैसा है कि कृष्ण ऐसे साधनों का उपयोग करते हैं, जो कि उचित नहीं कहे जा सकते। ऐसे साधनों का उपयोग करते हैं, जिनका औचित्य कोई भी सिद्ध नहीं कर सकेगा। झूठ का, छल का, कपट का उपयोग करते हैं। लेकिन एक बात इसमें समझेंगे तो बहुत आसानी हो जाएगी। जिंदगी में शुभ और अशुभ के बीच कभी भी चुनाव नहीं है, सिवाय सिद्धांतों को छोड़कर। जिंदगी में "गुड' और "बैड' के बीच कोई चुनाव नहीं है, सिवाय सिद्धांतों को छोड़कर। जिंदगी में सब चुनाव कम बुराई, ज्यादा बुराई के बीच हैं। जिंदगी के सब चुनाव "रिलेटिव' हैं। सवाल यह नहीं है कि कृष्ण ने जो किया वह बुरा था, सवाल यह है कि अगर वह न करते तो क्या उससे भला घटित होता कि और भी बुरा घटित होता? चुनाव अच्छे और बुरे के बीच होते तब तो मामला बहुत आसान था। चुनाव अच्छे और बुरे के बीच नहीं है, चुनाव सदा "लेसर इविल' और "ग्रेटर इविल' के बीच है। पूरी जिंदगी ऐसी है।
मैंने सुनी है एक घटना। एक चर्च का पादरी एक रास्ते से गुजर रहा है। जोर से आवाज आती है कि बचाओ, बचाओ, मैं मर जाऊंगा। अंधेरा है, गलियारा है। वह पादरी भागा हुआ भीतर पहुंचता है। देखता है वहां कि एक बहुत कमजोर आदमी के ऊपर एक बहुत मजबूत आदमी छाती पर चढ़ा बैठा है। वह उसको चिल्लाकर कहता है कि हट, उस गरीब आदमी को क्यों दबा रहा है? लेकिन वह हटता नहीं, तो वह उस पर टूट पड़ता है पादरी, और उस मजबूत आदमी को नीचे गिरा देता है। वह जो नीचे आदमी है, वह ऊपर निकल आता है। भाग खड़ा होता है। तब वह ताकतवर आदमी उससे कहता है कि तुम आदमी कैसे हो? उस आदमी ने मेरा जेब काट लिया था और वह जेब काटकर भाग गया। वह पादरी कहता है, तूने यह पहले क्यों न कहा, मैं तो यह समझा कि तू ताकतवर है और कमजोर को दबाए हुए है; मैं समझा कि तू उसको मार रहा है! यह तो भूल हो गई। यह तो शुभ करते अशुभ हो गया। लेकिन वह आदमी तो उसकी जेब लेकर नदारद ही हो चुका था।
जिंदगी में जब हम शुभ करने जाते हैं, तब भी देखना जरूरी है कि अशुभ तो न हो जाएगा? इससे उल्टा भी देखना जरूरी है कि कुछ अशुभ करने से शुभ तो नहीं हो जाएगा? कृष्ण के सामने जो चुनाव है, वह बुरे और अच्छे के बीच नहीं है। कृष्ण के सामने जो चुनाव है वह कम बुरे और ज्यादा बुरे के बीच है। और कृष्ण ने जिन-जिन छल-कपट का उपयोग किया, उनसे बहुत ज्यादा छल-कपट का उपयोग सामने का पक्ष कर रहा था और कर सकता था। और उस सामने के पक्ष से लड़ने के लिए गांधीजी काम न पड़ते। वह सामने का पक्ष गांधीजी को मिट्टी में मिला देता। सामने का पक्ष साधारण बुरा नहीं था, असाधारण रूप से बुरा था। उस असाधारण रूप से बुरे के सामने भले की कोई जीत की संभावना न थी। गांधी जी को भी अगर हिंदुस्तान में हुकूमत हिटलर की मिलती तो पता चलता! हिंदुस्तान में हुकूमत हिटलर की नहीं थी, एक बहुत उदार कौम की थी। और उस कौम में भी अगर चर्चिल हुकूमत में रहता तो आजादी मिलनी बहुत मुश्किल बात थी। उसमें भी एटली का हुकूमत में आना बुनियादी फर्क पड़ गया।
गांधीजी जिस साधन-शुद्धि की बात करते हैं, वह थोड़ी समझने जैसी है। उचित ही है बात कि शुद्ध साधन के बिना शुद्ध साध्य कैसे पाया जा सकता है। लेकिन इस जगत में न तो कोई शुद्ध साध्य होता है, और न कोई शुद्ध साधन होते हैं। यहां कम अशुद्ध, ज्यादा अशुद्ध, ऐसी ही स्थितियां हैं। यहां पूर्ण स्वस्थ पूर्ण बीमार आदमी नहीं होते, कम बीमार और ज्यादा बीमार आदमी होते हैं। जिंदगी में सफेद और काला, ऐसा नहीं है, "ग्रे कलर' है जिंदगी का। उसमें सफेद और काला सब मिश्रित है। इसलिए गांधी जैसे लोग कई अर्थों में "उटोपियन' हैं। कृष्ण बहुत ही जीवन के सीधे-साफ निकट हैं। "उटोपिया' कृष्ण के मन में नहीं है। जिंदगी जैसी है उसको वैसा स्वीकार करके काम करने की बात है। और फिर, जिन्हें गांधीजी शुद्ध साधन कहते हैं, वे भी शुद्ध कहां हैं? हो नहीं सकते। इस जगत में--हां, मोक्ष में कहीं हो सकते होंगे शुद्ध साधन और शुद्ध साध्य--इस जगत में सभी कुछ मिट्टी से मिला-जुला है। इस जगत में सोना भी है तो मिट्टी मिली हुई है। इस जगत में हीरा भी है तो वह पत्थर का ही हिस्सा है। गांधीजी जिसे शुद्ध साधन समझते हैं, वह भी शुद्ध है नहीं। जैसे गांधी जी कहते हैं कि अनशन। उसे वह शुद्ध साधन कहते हैं। मैं नहीं कह सकता। कृष्ण भी नहीं कहेंगे। क्योंकि दूसरे आदमी को मारने की धमकी देना अशुद्ध है, तो स्वयं के मर जाने की धमकी देना शुद्ध कैसे हो सकता है? मैं आपकी छाती पर छुरा रख दूं और कहूं कि मेरी बात नहीं मानेंगे तो मार डालूंगा, यह अशुद्ध है। और मैं अपनी छाती पर छुरा रख लूं और कहूं कि मेरी बात नहीं मानेंगे तो मैं मर जाऊंगा, यह शुद्ध हो जाएगा? छुरे की सिर्फ दिशा बदलने से शुद्धि हो जाती है? यह भी उतना ही अशुद्ध है। और एक अर्थ में पहले वाले मामले से यह ज्यादा नाजुक रूप से अशुद्ध है। क्योंकि पहली बात में आदमी कह सकता है कि ठीक है, मार डालो, नहीं मानेंगे। उसको एक मौका है। एक "मॉरल अपर्चूंनिटी' है। वह मर तो सकता है न! लेकिन दूसरे मौके में आप उसे बहुत कमजोर कर जाते हैं। आपको मारने की जिम्मेदारी शायद वह न भी लेना चाहे।
अंबेदकर के खिलाफ गांधीजी ने अनशन किया। अंबेदकर झुके बाद में। इसलिए नहीं कि गांधीजी की बात सही थी, बल्कि इसलिए कि गांधीजी को मारना उतनी-सी बात के लिए उचित न था। इतनी हिंसा अंबेदकर लेने को राजी न हुआ। बाद में अंबेदकर ने कहा कि गांधी जी अगर समझते हों कि मेरा हृदय-परिवर्तन हो गया तो गलत समझते हैं, मेरी बात तो ठीक और गांधीजी की बात गलत है। और अब भी मैं अपनी बात पर टिका हूं। लेकिन इतनी-सी जिद्द के पीछे गांधीजी को मारने की हिंसा मैं अपने ऊपर न लेना चाहूंगा। अब सोचना जरूरी है कि शुद्ध साधन अंबेदकर का हुआ कि गांधी का हुआ! इसमें अहिंसक कौन है? मैं मानता हूं, अंबेदकर ने ज्यादा अहिंसा दिखलाई। गांधीजी ने पूरी हिंसा की। वह आखिरी दम तक लगे रहे जब तक अंबेदकर राजी नहीं होते, तब तक तो मैं मरने की तैयारी रखूंगा।
इस पृथ्वी पर या तो दूसरे को धमकी दो, या खुद को मारने की धमकी दो। जब हम दूसरे को मारने की धमकी देते हैं, तब हम कम-से-कम उसे एक मौका तो देते हैं कि वह शान के साथ मर जाए और कह दे तुम गलत हो और मैं मरने को राजी हूं। लेकिन अगर हम खुद को मारने की धमकी देते हैं तब हम उसे शान से मरने का मौका भी नहीं देते। वह दोनों हालत में दिक्कत में पड़ जाता है। या तो वह कहे कि गलत है और झुके, या वह कहे कि वह सही है और आपकी हत्या का बोझ ले। हम उसे हर हालत में अपराधी करार करवा देते हैं। गांधीजी के साधन शुद्ध नहीं हैं। दिखाई शुद्ध पड़ते हैं। और मैं कहता हूं कि कृष्ण ने जो भी किया वह शुद्ध है। तुलनात्मक अर्थों में, "रिलेटिव' अर्थों में, सापेक्ष अर्थों में, जिनसे वे लड़ रहे थे उनके सामने जो कृष्ण ने किया, उसके अतिरिक्त और कुछ करने का उपाय न था।
ओशो रजनीश
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