श्री कृष्ण स्मृति भाग 58

 "वे शस्त्रों से नहीं मार सकते थे उन्हें, स्वयं?'


शस्त्रों से ही मार रहे हैं। लेकिन युद्ध में छल और कपट शस्त्र हैं। और जब सामने वाला दुश्मन उनका पूरा उपयोग करने की तैयारी रखता हो, तो अपने को कटवा देना सिवाय नासमझी के और कुछ भी नहीं है। कृष्ण सामने किसी भले आदमी को धोखा नहीं दे रहे हैं। कृष्ण किसी महात्मा को धोखा नहीं दे रहे हैं। और जिनका गैर-महात्मापन हजार तरह से जांचा जा चुका है, उनके साथ ही वह यह व्यवहार कर रहे हैं। और कृष्ण ने सारे उपाय कर लिए थे युद्ध के पहले कि ये लोग राजी हो जाएं, यह युद्ध न हो। इस सब उपाय के बावजूद, कोई मार्ग न छूटने पर यह युद्ध हुआ है। और जिन्होंने सब तरह की बेईमानियां की हों, जिनकी पूरी-की-पूरी कथा बेईमानियों और धोखे और चालबाजी की हों, उनके साथ कृष्ण अगर भलेपन का उपयोग करें, तो मैं मानता हूं कि महाभारत के परिणाम दूसरे हुए होते। उसमें कौरव जीते होते और पांडव हारे होते। और मजे की तो बात यह है इससे बड़ी, कि हम कहते तो यही हैं कि "सत्यमेव जयते', सत्य जीतता है, लेकिन इतिहास कुछ और कहता है। इतिहास तो जो जीत जाता है, उसी को सत्य कहने लगता है। अगर कौरव जीत गए होते, तो पंडित कौरवों की कथा लिखने के लिए राजी हो गए होते, और हमें पता भी नहीं चलता कि कभी पांडव भी थे और कभी कृष्ण भी थे! कथा बिलकुल और होती।

कृष्ण ने जो किया, वह मैं मानता हूं कि सामने जो था उसको देखते हुए जो किया जा सकता था, "एक्चुअलिटी' के भीतर, वास्तविकता के भीतर जो किया जा सकता था, वही किया। साधन-शुद्धि की सारी बातें आकाश में संभव हैं। पृथ्वी पर कैसे भी साधन का उपयोग किया जाए, वह थोड़ा न बहुत अशुद्ध होगा। अगर साधन पूरे शुद्ध हो जाएं, तो साध्य बन जाएगा। साध्य तक जाने की जरूरत न रह जाएगी। अगर साधन पूरा शुद्ध है तो साध्य और साधन में फर्क ही नहीं रह जाएगा, वे एक ही हो जाएंगे। साधन और साध्य का फर्क ही इसलिए है कि साधन अशुद्ध है और साध्य शुद्ध है। और इसलिए अशुद्ध साधन से कभी शुद्ध साध्य पूरी तरह मिलता नहीं, यह भी सच है। साध्य मिलते ही कब हैं पृथ्वी पर! सिर्फ आकांक्षा होती है पाने की, मिलते तो कभी नहीं हैं। गांधीजी भी यह कहकर नहीं मर सकते हैं कि मैं पूरा अहिंसक होकर मर रहा हूं और गांधीजी यह भी नहीं कहकर मर सकते हैं कि मैं पूरे ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होकर मर रहा हूं और न यह कह सकते हैं कि मैंने सत्य को पा लिया है और मर रहा हूं। सत्य के प्रयोग करते ही मरते हैं।

शुद्ध अगर साधन थे तो साध्य मिल क्यों नहीं गया? बाधा क्या रह गई है? अगर साधन शुद्ध है तो साध्य मिल ही जाना चाहिए, बाधा क्या है? नहीं, साधन शुद्ध हो नहीं सकते। स्थितियां करीब-करीब ऐसी हैं जैसे हम पानी में लकड़ी को डालें तो वह तिरछी हो जाए। अब पानी में लकड़ी को सीधा ही बनाए रखने का कोई उपाय नहीं है। लकड़ी तिरछी होती नहीं, तिरछी दिखाई पड़ने लगती है। वह पानी का जो "मीडियम' है, वह लकड़ी को तिरछा कर जाता है। पानी के बाहर ही लकड़ी सीधी हो पाती है, पानी के भीतर डाली कि तिरछी हो जाती है।

इस विराट सापेक्ष के जगत में, "इन दिस रिलेटिव वर्ल्ड', जहां सब चीजें तुलना में हैं, वहां सब चीजें तिरछी हो जाती हैं। इसलिए सवाल यह नहीं है कि हम सीधे हों, सवाल यह है कि कम-से-कम तिरछे हों। और कृष्ण मुझे मालूम पड़ता है, कम-से-कम तिरछे आदमी हों, सवाल यह है कि हम कम-से-कम तिरछे आदमी हैं। और यह बड़े मजे की बात है कि ऊपर से देखने पर हमें कुछ और दिखाई पड़ेगा। हमें गांधीजी बहुत सीधे आदमी दिखाई पड़ेंगे, गांधी जी मेरे हिसाब से बहुत तिरछे आदमी हैं। वे कई बार कान को बिलकुल सिर घुमाकर पकड़ते हैं, दूसरी तरफ से पकड़ते हैं, कृष्ण सीधा पकड़ लेते हैं। गांधीजी वही काम करेंगे दूसरे को दबाने का, अपने को दबा कर करेंगे। बड़ी लंबी यात्रा लेंगे। दबाएंगे दूसरे को ही, "कोयरेशन' जारी रहेगा, लेकिन प्रयोग जो वे करेंगे, वह अपने को दबाकर उसको दबाएंगे। कृष्ण उसको सीधा दबा देंगे! ऐसा गांधी सीधे-साफ मालूम पड़ेंगे। मैं मानता हूं, बहुत तिरछा व्यक्तित्व है। बहुत जटिल, बहुत "कांप्लेक्स' व्यक्तित्व है। लेकिन हमें आमतौर से खयाल में नहीं आता, क्योंकि चीजें हम जैसी पकड़ लेते हैं वैसे माने चले जाते हैं।

ओशो रजनीश



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