श्री कृष्ण स्मृति भाग 9
"भगवान श्री, पूर्णता के संबंध में एक प्रश्न था। आपने सुबह कहा कि पूर्णता का मूल लक्षण आप शून्यता मानते हैं। बुद्ध भी तो परम शून्य थे। क्या उन्हें पूर्ण नहीं कहा जा सकता? और इसी के साथ क्या शून्यता स्वयं में बहु-आयामी नहीं है?
दोत्तीन बातें।
एक तो, बुद्ध शून्यता पर पहुंचे, जैसा मैं अभी कह रहा था। बुद्ध शून्यता पर पहुंचे। वह उनका "अचीवमेंट' है। वह उन्होंने पाया। वे शून्य हुए। जो शून्यता पाई जाएगी, वह "वन डायमेंशनल' हो जाती है। उसकी एक दिशा हो जाती है। वह पाने वाले पर निर्भर हो जाती है।
इसको ऐसा समझें। असल में मैं अपने भीतर से जिस चीज को शून्य कर दूंगा, जिस चीज को काट डालूंगा, अलग कर दूंगा, वह समाप्त हो जाएगी, मेरे भीतर से हट जाएगी। एक तरह का शून्य उपलब्ध होगा। लेकिन वह शून्यता किसी चीज का अभाव होकर आएगी। एक और शून्यता है, जो हम लाते नहीं, जो हमारे होने के बोध में ही जनमती है। हम हैं ही शून्य, हम होते नहीं शून्य। शून्यता हमारा स्वभाव है। ऐसे हम हैं ही। जिस दिन शून्यता हमारा स्वभाव होती है, साधन नहीं, अभ्यास नहीं, उपलब्धि नहीं, उस दिन शून्यता बहु-आयामी, "मल्टी-डायमेंशनल' हो जाती है। हमने किसी चीज को खाली करके अपने को शून्य नहीं किया है। हम शून्य हैं ही, इसको स्मरण किया है।
तो बुद्ध की जो शून्यता हमें दिखाई पड़ती है, वह शून्यता लाई हुई है। और जो शून्यता लाई हुई है, वही हमें दिखाई पड़ती है। कृष्ण में हमें शून्यता कभी नहीं दिखाई पड़ी। कृष्ण को तो लोग कहेंगे, बहुत भरे-पूरे आदमी हैं, बहुत "ऑकुपाइड' आदमी हैं। कृष्ण की "प्रेजेंस' तो अनुभव होती है, कृष्ण में "एब्सेंश' अनुभव नहीं होती। कृष्ण में कुछ मौजूद है, यह तो पता चलता है, कृष्ण खाली हैं, यह पता नहीं चलता। पता हमें चलता है कि बुद्ध खाली हैं। उसका कारण है कि जो हम में भरा है, उसको बुद्ध ने निकाल दिया है, इसलिए बुद्ध खाली लगते हैं। अगर हम में क्रोध है, तो बुद्ध ने उसे निकल दिया; अगर हम में हिंसा है, तो बुद्ध ने उसे निकाल दिया; अगर हम में राग है, तो बुद्ध ने उसे निकाल दिया; अगर हम में मोह है, तो बुद्ध ने उसे निकाल दिया; जिससे हम भरे हैं, बुद्ध उससे खाली हैं। इसलिए हमें लगता है कि वह शून्यता है। बुद्ध शून्य हुए। असल में जिससे हम भरे हैं, वह उनमें नहीं है। हम उनकी शून्यता को पहचान लेते हैं। कृष्ण की शून्यता हमें पहचान में नहीं आती। क्योंकि इस आदमी में अगर लोभ नहीं है, तो भी यह आदमी जुआ खेलने बैठ सकता है। अगर इस आदमी में क्रोध नहीं है, तो यह आदमी हाथ में चक्र लेकर कैसे उतर जाता है युद्ध में! अगर इस आदमी में हिंसा नहीं है, तो अर्जुन को क्यों उकसाता है हिंसा के लिए? अगर इसमें राग नहीं है, तो यह प्रेम क्यों करता है? जिससे हम भरे हैं, वह हमें कृष्ण में दिखाई पड़ता है, कृष्ण की शून्यता हमारी पकड़ में नहीं आ सकती।
बुद्ध की शून्यता को अगर ठीक से समझें, तो वह किसी चीज की "एब्सेंश' है, जो हम में मौजूद है। तो हम पहचान लेते हैं। असल में जिस-जिस को हम मनुष्यता की बीमारियां कहते हैं, बुद्ध में उनका अभाव है। जहां तक मनुष्य के बीमार होने का संबंध है, बुद्ध बिलकुल शून्य हैं। आदमी की कोई बीमारियां उनमें नहीं हैं। बस यहीं तक बुद्ध हमें दिखाई पड़ते हैं। इसके बाद बुद्ध एक और छलांग लेते हैं, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ती। वह छलांग जो बुद्ध इस शून्यता के बाद लेते हैं, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ती। वह छलांग जो बुद्ध इस शून्यता के बाद लेते हैं, वह हमें कभी दिखाई नहीं पड़ती। बुद्ध मर रहे हैं और आखिरी क्षण में भी उनके शिष्य उनसे पूछते हैं कि जब आप मर जाएंगे तो आप कहां जाएंगे? कहीं तो होंगे आप! मोक्ष में होंगे? निर्वाण में होंगे? कैसे होंगे? बुद्ध कहते हैं, मैं कहीं नहीं होऊंगा, मैं होऊंगा ही नहीं। यह उनके पकड़ में नहीं आता। क्योंकि वह मानते हैं, जिसने लोभ छोड़ा, क्रोध छोड़ा, मोह छोड़ा, उसे कहीं होना चाहिए? हां, जमीन पर नहीं, मोक्ष में होना चाहिए, लेकिन कहीं होना चाहिए! बुद्ध कहते हैं, मैं कहीं भी नहीं होऊंगा। मैं ऐसे ही मिट जाऊंगा जैसे पानी पर खींची गई रेखा मिट जाती है। जब हम पानी पर रेखा खींचते हैं तब वह होती है, और जब मिट जाती है तब बुद्ध पूछते हैं--वह कहां जाती है? कहीं चली जाती? कहीं रहती? बस मैं पानी पर खींची गई रेखा की तरह मिट जाऊंगा। मैं कहीं भी नहीं होऊंगा। बुद्ध की यह बात उनके शिष्यों की समझ में नहीं आती। कृष्ण इस पानी पर खींची गई रेखा की तरह जिंदगी भर जीते हैं, इसलिए कोई शिष्य भी नहीं खोज पाते, तो किसी को भी समझ में नहीं आते।
बुद्ध और महावीर आखिरी क्षण में उस छलांग को भी पूरा करते हैं, जो एक "डायमेंशनल नथिंगनेस' से, एक-आयामी शून्यता से परम शून्य में छलांग हो जाती है, लेकिन उस शून्य को पकड़ नहीं पाते हम, उसको हम देख नहीं पाते। और कृष्ण के साथ हमारी कठिनाई और ज्यादा हो जाती है क्योंकि वह शून्य में जीते ही हैं। वह रेखा किसी दिन मिटेगी, नहीं, ऐसा नहीं, वह प्रतिपल खींचते हैं और मिट जाती है। न केवल खींचते हैं और मिट जाती है, बल्कि उससे विपरीत रेखा भी खींच देते हैं। रेखाएं-रेखाएं हो जाती हैं, सब मिटता है, सब होता रहता है। बुद्ध शून्यता को किसी दिन उपलब्ध होते हैं, कृष्ण शून्य ही हैं। और इसलिए कृष्ण की शून्यता को पकड़ना मुश्किल होता है।
जिस दिन बुद्ध शून्य होते हैं, उस दिन जहां तक बुद्ध के भीतर जो कैद थी चेतना, जो अस्तित्व, वह मुक्त होकर विराट के साथ एक हो जाता है। लेकिन उस दिन वह बुद्ध नहीं रह जाते--उस दिन वह जो गौतम सिद्धार्थ पैदा हुआ था; उससे कोई संबंध नहीं है। वह जो भीतर एक शून्य था अस्तित्व का, वह विराट अस्तित्व के साथ एक हो गया। इसलिए उस विराट अस्तित्व के साथ एक हो गए उस शून्य की कोई कथा नहीं है हमारे पास। लेकिन कृष्ण पूरे जीवन ऐसे जीते हैं कि उस शून्य की हमारे पास एक कथा है, कि अगर बुद्ध भी उस शून्य के बाद जगत में जिएं, तो कैसे जिएंगे। वह तो हमें मौका नहीं मिलता, वह मौका हमें कृष्ण में मिलता है।
बुद्ध का शून्य होना और समाप्त हो जाना एक साथ घटित होते हैं, कृष्ण का शून्य होना और होना एक साथ चलते हैं। अगर बुद्ध पूर्ण निर्वाण को, महानिर्वाण को पाकर वापस लौट आएं, तो वह कृष्ण-जैसे होंगे। फिर वह चुनाव नहीं करेंगे--फिर वह यह नहीं कहेंगे, यह बुरा है और यह भला है। फिर वह छोड़ेंगे-पकड़ेंगे नहीं। फिर वे कुछ भी नहीं करेंगे, फिर वे जिएंगे। कृष्ण वैसे जीते ही हैं। जो बुद्ध की परम उपलब्धि है, कृष्ण का वह सहज जीवन है। और इसलिए बहुत कठिनाई है। परम उपलब्ध लोग तो समाप्त हो जाते हैं, उपलब्ध होते-होते खो जाते हैं, इसलिए हमें बहुत परेशानी में नहीं डालते। जब तक वे होते हैं, हमारी नैतिक धारणाओं की परिपुष्टि उनसे होती मालूम पड़ती है। लेकिन, यह आदमी होता ही शून्य है और इसलिए हमारी किसी नैतिक मान्यता को इससे पुष्टि नहीं मिलती। यह हमारा सारा-का-सारा अस्तव्यस्त कर जाता है। यह आदमी हमें बड़े भ्रम में छोड़ जाता है। हम समझ ही नहीं पाते कि अब क्या करें और क्या न करें? असल में बुद्ध और महावीर से करने के सूत्र निकलते हैं; कृष्ण से होने का सूत्र निकलता है। बुद्ध और महावीर से "डूइंग' के लिए रास्ता मिलता है, कृष्ण से सिर्फ "बीइंग' के लिए रास्ता मिलता है। कृष्ण सिर्फ "हैं'।
एक झेन फकीर से किसी आदमी ने जाकर पूछा है कि मुझे ध्यान सिखाएं। तो उस फकीर ने कहा कि तुम मुझे देखो और सीख लो। वह आदमी बहुत मुश्किल में पड़ गया, क्योंकि वह फकीर अपने बगीचे में गङ्ढे खोद रहा है। उसने थोड़ी देर तो देखा, उसने कहा कि गङ्ढा खोदना मैं बहुत देख चुका हूं, मैंने बहुत खोदे हैं, आप कृपा करके ध्यान सिखाएं। तो उस फकीर ने कहा कि अगर तुम मुझे देखकर नहीं सीख सकते, तो मैं और कैसे सिखा सकता हूं; मैं ध्यान हूं! मैं जो भी कर रहा हूं, वह ध्यान है। मेरे गङ्ढे खोदने को ठीक से देखो। उस आदमी ने कहा, मुझे तो लोगों ने भेजा था कि बड़े ज्ञानी के पास भेज रहे हैं, मैं भी कहां आ गया। गङ्ढा खोदना ही मुझे देखना होता तो मैं कहीं भी देख लेता। उस फकीर ने कहा, एक-दो दिन रुक जाओ।
कभी वह फकीर खाना खाने बैठता, कभी वह सो जाता, कभी वह स्नान करता, कभी वह गङ्ढा खोदता, कभी बीज बोता, दो दिन में वह आदमी घबड़ा गया, उसने कहा, मैं ध्यान सीखने आया हूं, इन सब बातों में मुझे कोई मतलब नहीं है। तो उस फकीर ने कहा, लेकिन मैं करना नहीं सिखाता, मैं होना सिखाता हूं। अगर तुम मुझे गङ्ढा खोदते देखो तो समझो कि ध्यान कैसे गङ्ढा खोदता है। अगर तुम मुझे खाना खाते देखते हो, तो देखो कि ध्यान कैसे खाना खाता है? मैं ध्यान करता नहीं, मैं ध्यान हूं। उस आदमी ने कहा, मैं भी किस पागल के पास आ गया! मैंने सदा यही सुना था कि ध्यान किया जाता है, अब तक मैंने सुना नहीं कि कोई ध्यान होता है। उस फकीर ने कहा, यह तो बहुत मुश्किल सवाल है कि पागल हम दोनों में से कौन है। और हम दोनों तो इसको तय कर ही न सकेंगे।
हम सबने प्रेम किया है, हम कभी प्रेम नहीं हुए हैं, इसलिए अगर कोई आदमी हमारे बीच आ जाए जो प्रेम है, तो मुश्किल में डाल देगा। क्योंकि हम तो प्रेम करते हैं। "लव एज़ एक ऐक्ट' हमारे लिए आता है। "लव एज़ बीइंग' हमारे लिए कभी नहीं है। इसको प्रेम करते, उसको प्रेम करते, कभी करते, कभी नहीं करते, वह हमारा कामधाम है। लेकिन एक आदमी जो प्रेम है, वह हमें मुश्किल में डाल देता। उसका होना प्रेम है। वह जो भी करता है वह प्रेम है। वह जो नहीं करता, वह भी प्रेम है। वह लड़ता है तो प्रेम है, वह गले लगता है तो प्रेम है--वह जो भी करता है। वह आदमी हमें मुश्किल में डाल देगा। हम उससे बहुत कहेंगे कि भाई, हमें प्रेम करो; वह कहेगा प्रेम मैं कैसे करूं, मैं प्रेम हूं; प्रेम तो वे कर सकते हैं जो प्रेम न हों।
कृष्ण की यही कठिनाई है। कृष्ण का अस्तित्व शून्य है, शून्य हुए नहीं है वह। उन्होंने कुछ खाली नहीं किया, उन्होंने कुछ हटाकर जगह रिक्त नहीं बनाई, उन्होंने तो जो है, उसको स्वीकार कर लिया, स्वीकार कर लिया इसलिए शून्य हो गए। इस शून्यता में और बुद्ध और महावीर की शून्यता में आखिरी क्षण के एक क्षण पहले तक फर्क रहेगा। बुद्ध और महावीर आखिरी क्षण तक होंगे कुछ। आखिरी छलांग में न-कुछ हो जाएंगे। लेकिन कृष्ण पूरे जीवन न-कुछ हैं। यह शून्यता, जिसको कहें "लिविंग नथिंगनेस', जीवंत शून्यता है। बुद्ध और महावीर की शून्यता जीवंत नहीं है। जीने के आखिरी क्षण तक तो वे उस शून्यता से भरे रहते हैं जो शून्यता हम पहचान लेते हैं कि यह-यह खाली किया है, आखिरी क्षण में छलांग लेते हैं। इसलिए महावीर और बुद्ध, दोनों कहेंगे, लौटना नहीं है। लौटना नहीं है। लेकिन कृष्ण राधा से कह सकता है कि हम बहुत बार पहले भी आए और नाचे, और बहुत बार फिर भी आएंगे और नाचेंगे।
बुद्ध और महावीर के लिए शून्यता महामृत्यु है। उसके बाद कोई लौटना नहीं है, खो जाना है। वह आवागमन का बंद हो जाना है। कृष्ण कह सकता है कि आवागमन से मुझे क्या डर है? मैं शून्य हूं ही। मुझे मोक्ष में और ज्यादा क्या मिलेगा। मैं जहां हूं वहां मोक्ष है ही। मैं आता रहूंगा। इसलिए वह बड़ी अदभुत बात कहते हैं। वह अर्जुन से कहते हैं कि जब भी मुसीबत हो, मैं आ सकता हूं। जब भी धर्म की ग्लानि हो, मैं आ जाऊंगा। ऐसा बुद्ध और महावीर नहीं कह सकते। ऐसा उनका कोई वक्तव्य नहीं है कि दुनिया में मुसीबत हो, अंधेरा हो, बीमारी हो, तकलीफ हो, अधर्म हो, तो मैं आ जाऊंगा। क्योंकि वह कहेंगे, मैं आऊंगा कैसे, मैं तो मुक्त हो चुका होऊंगा। लेकिन कृष्ण कहते हैं, तुम फिक्र मत करना, कोई मुसीबत हो तो मैं आ सकता हूं। आ सकने का यह मतलब नहीं है कि आ जाएंगे। आ सकने का कुछ मतलब यह है कि इस आदमी को आने-जाने में कोई फर्क नहीं है, इससे कोई बाधा नहीं पड़ती। यह शून्य है ही, इसलिए आने से क्या बिगड़ेगा; कुछ भी नहीं बिगड़ेगा।
शून्यता का यह फर्क है।
और महावीर और बुद्ध शून्यता को मुक्ति के अर्थों में ही ले पाएंगे, क्योंकि उनके जीवन भर मुक्ति की आकांक्षा ही उनकी साधना है। इसलिए जब शून्यता आएगी तो वे कहेंगे, हम मुक्त हुए, विश्राम में गए। अब लौटते नहीं हैं। "प्वाइंट आफ नो रिटर्न', अब इससे लौटना नहीं है। अब लौटने का कोई सवाल नहीं है। क्योंकि लौटने का उनके लिए एक ही मतलब साफ होगा कि वही क्रोध, वही लोभ, वही मोह, वही जंजाल, वही संसार, वही उपद्रव, वही मुसीबत। अब लौटना नहीं है। अब हम सबके बाहर हुए। इसलिए शून्य की घटना जब उनके चित्त में घटेगी तो वह डूब जाएंगे उसमें, खो जाएंगे विराट में। वह नहीं लौटने की बात कर सकते। लेकिन कृष्ण के लिए कोई फर्क नहीं पड़ता। वह क्रोध में भी वही हैं, प्रेम में भी वही हैं, राग में भी वही हैं, सब में भी वही हैं। इसलिए वह कहेंगे, अगर लौटना है तो मजे से लौट आएंगे। उसमें कोई तकलीफ नहीं है। इधर कोई बेचैनी, कोई कठिनाई नहीं होती। आना-जाना हो सकता है। इसमें बाधा नहीं है। इसलिए वह कह सकते हैं। उनका शून्य जीवंत है।
लेकिन अनुभूति में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। चाहे महावीर और बुद्ध का शून्य आपको मिल जाए तो भी आप आनंद को उपलब्ध हो जाएंगे। चाहे कृष्ण का शून्य आपको मिल जाए तो भी आप आनंद को उपलब्ध हो जाएंगे। लेकिन महावीर और बुद्ध का आनंद जो है, वह विश्राम में ले जाएगा। कृष्ण का जो आनंद है, वह हो सकता है विराट सक्रियता में ले जाए। तो अगर हम ऐसा शब्द बना सकें, "एक्टिव वॉयड', सक्रिय शून्य, तो कृष्ण पर लागू होगा। अगर हम ऐसा कोई बना सकें, निष्क्रिय शून्य, "नॉनएक्टिव वॉयड', तो वह महावीर और बुद्ध पर लागू होगा। अनुभूति तो आनंद की ही होगी, लेकिन एक आनंद सृजनात्मक हो जाएगा और एक आनंद लीन हो जाएगा। वह फर्क है।
ओशो रजनीश
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें