श्री कृष्ण स्मृति भाग 61
"हिंदू अवतार के क्रम में मत्स्यावतार से शुरू होकर राम आदि अंशावतार आते हैं। फिर पूर्णावतार कृष्ण के बाद भी बुद्धावतार होता है। कल्कि की आगाही भी समाविष्ट है। तो बुद्ध कालक्रम दृष्टि से पूर्णावतार क्यों नहीं माने गए? उत्क्रांति की दृष्टि से कृष्ण का बुद्ध के पूर्व का जाने का कोई राज हो तो बताएं। काल की गति को यहां वर्तुलाकार कहने में किस हद तक औचित्य है?'
अवतार आंशिक भी उतना ही अवतार है, जितना पूर्ण। अवतार होने में कोई फर्क नहीं है। अवतार से तो मतलब इतना ही है कि परमात्म-चेतना प्रगट हुई। वह कितने आयामों में प्रगट हुई, यह बात दूसरी है। तो कृष्ण का अवतार पूर्णावतार इस अर्थों में है कि जीवन के समस्त आयामों में, जीवन के सब "डायमेंसंस' में उनका स्पर्श है। बुद्ध का अवतार फिर पूर्ण अवतार नहीं है। कल्कि अवतार भी पूर्ण अवतार होने वाला नहीं है। अवतरण तो पूरा होगा। अवतरण की जो प्रक्रिया है। कल्कि अवतार भी पूर्ण अवतार होने वाला नहीं है। अवतरण तो पूरा होगा। अवतरण की जो प्रक्रिया है, चेतना का जो उतरना है, वह तो पूरा होगा, लेकिन वह सब आयामों का स्पर्श नहीं करेगा।
इसके कारण हैं, बहुत कारण हैं। ऐसा नहीं कि जो धारा है, विकास का जो क्रम है--साधारणतः ऐसा ही होना चाहिए कि पूर्ण अवतार अंत में आए; विकास के क्रम में पूर्णता अंत में आनी चाहिए--लेकिन विकास का जो क्रम है, अवतार उस क्रम के बाहर से आता है। अवतार का अर्थ है--"पेनीट्रेशन फ्रॉम दॅ बियांड'। वह पार से उतरता है। वह हमारी विकास-प्रक्रिया का अंग नहीं है। वह हमारे विकास में विकसित हुआ नहीं है। वह हमारी विकास-धारा के पार से उतरता है। और जब भी कोई चेतना...जैसे एक ऐसा उदाहरण से समझें। हम सारे लोग यहां बैठे हैं, सूरज निकला है, हम सब आंखें बंद किए बैठे हैं, किसी ने थोड़ी-सी आंख खोली और थोड़ी-सी रोशनी दिखाई पड़ी। फिर किसी ने पूरी आंख खोली और पूरी रोशनी दिखाई पड़ी। फिर किसी ने थोड़ी-सी आंख खोली और थोड़ी रोशनी दिखाई पड़ी। इसमें कोई विकास-क्रम नहीं है। असल में आंख पूरी कभी भी खोली जा सकती है। और पूरी आंख खोलने के बाद भी पीछे वाला पूरी आंख खोले, इसकी कोई अनिवार्यता नहीं है।
कृष्ण का जो व्यक्तित्व है वह पूरा खुला है, इसलिए पूरे परमात्मा को समा सका है। बुद्ध का व्यक्तित्व आंशिक खुला है, इसलिए अंश-परमात्मा को समा सका है। अगर आज भी कोई पूरे व्यक्तित्व को खोलेगा, तो पूरा परमात्मा समा जाएगा। और अगर कल भी कोई व्यक्तित्व को बिलकुल बंद रखेगा, तो परमात्मा बिलकुल नहीं समाएगा। इसमें कोई "एवॅलूशनरी' क्रम नहीं है। हो भी नहीं सकता।
विकास का जो क्रम है, उस क्रम को अगर हम ठीक से समझें तो सिर्फ "जनरल', सामान्य अर्थों में पकड़ सकते हैं, व्यक्तिवादी अर्थों में नहीं पकड़ सकते। बुद्ध को हुए बहुत दिन हो गए। हम तो बुद्ध के ढाई हजार साल बाद हुए हैं, लेकिन इससे हम यह नहीं कह सकते कि बुद्ध से हम ज्यादा "इवाल्व्ड' हैं। यह नहीं कह सकते हम। हां, इतना हम कह सकते हैं कि बुद्ध के समाज से हमारा समाज ज्यादा "इवाल्व्ड' है। बुद्ध के समाज से हमारा समाज ज्यादा विकसित कहा जा सकता है। असल में विकास दोहरा चल रहा है--समूह का, व्यक्ति का। समूह के पहले भी व्यक्ति विकसित हो सकता है। हां, जो अपने को विकसित करने की कोई कोशिश नहीं करेंगे, वे समूह के साथ घसिटते हुए विकसित होते हैं। और सभी, समूह के सभी व्यक्ति एक-जैसे विकसित नहीं हो रहे हैं, प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग धारा में विकसित हो रहा है। हम यहां इतने लोग बैठे हैं, लेकिन सभी विकास की एक ही पायरी पर नहीं हैं। कोई विकास की पहली सीढ़ी पर खड़ा है, कोई विकास की दसवीं सीढ़ी पर खड़ा है, कोई विकास का अंतिम छोर भी छू सकता है। समूह के बाबत सामान्य नियम सत्य होते हैं। विकास का नियम समूह के बाबत है, इसे एक उदाहरण से समझें--
यह हम कह सकते हैं कि दिल्ली में पिछले दस वर्षों में प्रतिवर्ष कितने लोग सड़क पर "एक्सीडेंट' से मरे। हर वर्ष अगर पचास आदमी मरते हैं, और उसके पहले वर्ष पैंतालीस मरे थे और उसके पहले चालीस मरे थे, तो हम कह सकते हैं कि अगले वर्ष पचपन आदमी सड़क पर कार "एक्सीडेंट' से मरेंगे। और बहुत दूर तक यह सही हो जाएगा। लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि वे पचपन आदमी कौन से होंगे? हम खोजकर नहीं बता सकते कि ये पचपन आदमी मरेंगे। अगर दिल्ली की आबादी बीस लाख है, तो पचपन में हो सकता है, चौवन मरें, या हो सकता है छप्पन मर जाएं। लेकिन अगर आबादी बीस करोड़ है, तो पचपन का आंकड़ा और भी करीब आ जाएगा। और अगर आबादी अनंत है, तो पचपन का आंकड़ा बिलकुल "फिक्स्ड' हो जाएगा। यानी हम बिलकुल कह सकते हैं कि पचपन मरेंगे, न साढ़े चौवन मरेंगे, न साढ़े पचपन मरेंगे। पचपन मरेंगे। जितनी बड़ी संख्या होती जाएगी, सामान्य "स्टेटिक्स' उतने ही सत्य हो जाते हैं। जितना व्यक्ति को हम पकड़ते हैं, उतने ही "स्टेटिक्स' गलत हो जाते हैं। विकास की जो धारा है, वह समूह की धारा है। इसमें व्यक्ति पहले भी हो जाते हैं। जैसे जब वसंत आता है तो किसी एक पक्षी की चहचहाहट से घोषणा हो जाती है वसंत के आने की, लेकिन सभी पक्षियों की चहचहाहट में वक्त लग जाता है। वसंत आता है तो एक फूल भी खिलकर खबर कर देता है कि वसंत आ रहा है, लेकिन सभी फूल के खिलने में वक्त लग जाता है। आता तो वसंत पूरा तभी है जब सब फूल खिलते हैं, लेकिन कुछ फूल पहले भी खिल जाते हैं। एक फूल के खिलने से हम यह नहीं कह सकते कि वसंत आ गया, लेकिन इतना कह सकते हैं, वसंत की पहली पगध्वनि आ गई है। व्यक्तिगत फूल तो पहले भी खिल सकते हैं, पीछे भी खिल सकते हैं, लेकिन सब फूल वसंत में खिल जाते हैं।
कृष्ण का बीच में पूर्ण हो जाना सिर्फ इस बात की सूचना है कि कृष्ण अपने व्यक्तित्व को पूरा खोल सके। बुद्ध अपने व्यक्तित्व को पूरा नहीं खोलते हैं। यह भी बुद्ध का अपना निर्णय है। अगर उन्हें कोई पूर्ण करने को कहे भी, अगर कोई उनसे कहे भी कि तुम्हारे कृष्ण होने की भी संभावना है, तो बुद्ध इनकार कर देंगे। वह बुद्ध का चुनाव नहीं है। इसमें बुद्ध कुछ पीछे पड़ जाते हैं कृष्ण से, ऐसा नहीं है। यह बुद्ध का अपना चुनाव है, कृष्ण का चुनाव है। और चुनाव के मामले में दोनों मालिक हैं। और उनका अपना "डिसीजन' है। बुद्ध चाहते हैं जैसा, वैसे वे खिलते हैं। कृष्ण जैसा चाहते हैं वैसे वे खिलते हैं। कृष्ण का पूरा खिलने का स्वभाव है। बुद्ध को जैसा खिलना है, उसमें ही पूरा खिलने का स्वभाव है। इसमें कोई विकास की धारा नहीं है। व्यक्तियों पर विकास लागू नहीं होता, विकास सिर्फ समूहों पर लागू होता है।
ओशो रजनीश
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