श्री कृष्ण स्मृति भाग 64
"भगवान श्री, एक बार कृष्ण इंद्रप्रस्थ से द्वारका जाते थे तब कुंता मिली, कुंता ने कहा, "विपद संतु नश्वस तत्र जगत्गुरु'। यानी यह गूंजने वाली कुंता कृष्ण के पास कष्ट की याचना करती थी, ताकि कृष्ण कष्ट-दर्शन करा सकें। मगर आनंदवादी कृष्ण हंसते हैं, समझाते भी नहीं कि कष्ट-याचना ठीक नहीं। उसका क्या तात्पर्य है?'
भक्त का भगवान से कष्ट के लिए प्रार्थना करना बड़ा अर्थपूर्ण है। दोत्तीन कारणों से। एक तो भगवान से सुख की प्रार्थना करना कुछ स्वार्थपूर्ण मालूम पड़ता है। और जो भगवान से सुख की प्रार्थना करता है, वह भगवान से प्रार्थना नहीं करता, सुख के लिए ही प्रार्थना करता है। अगर भगवान के बिना उसे सुख मिल जाए तो भगवान को छोड़कर सुख की तरफ जाएगा। चूंकि भगवान से मिल सकता है, इसलिए भगवान के पास भी जाता है। लेकिन भगवान का उपयोग वह साधन की तरह करता है, साध्य तो सुख है। इसलिए भक्त का मन सुख की प्रार्थना नहीं करेगा। नहीं करेगा इसी कारण कि वह भगवान से ऊपर किसी चीज को रखना न चाहेगा।
और जब वह दुख की प्रार्थना करता है तो वह दोत्तीन बातों की घोषणाएं करता है। वह कहता है कि तुम्हारे द्वारा दिया गया दुख भी और कहीं से मिले सुख से बड़ा है। तुम्हारा दुख भी चुन लेंगे, और कोई सुख न चुनेंगे। अब इस आदमी का भगवान से जाने का कोई उपाय न रहा। क्योंकि आदमी वहीं से हटता है जहां सुख होता है। और वहां के लिए हटता है जहां सुख होता है। जिस भक्त ने सुख मांगा है वह भगवान से हट सकता है। लेकिन जिस भक्त ने दुख मांगा है, अब उसके हटने का उपाय क्या रहा? अब वह भगवान से हट नहीं सकता।
इसलिए बड़ी गहरी मांग है यह कि हमें दुख ही दे दो। हमें वही दे दो जिससे लोग हट जाते हैं। हम वही मांगने तुम्हारे पास आते हैं।
और दूसरी भी मजे की बात है कि भगवान से दुख मांगा जा सकता है, क्योंकि भगवान से दुख मिलता नहीं। उससे तो जो भी मिलता है, वह सुख ही है। जब उससे सुख ही मिलता है तो हम नाहक सुख के भिखारी क्यों बनें? जिससे सुख मिलने की संभावना न हो, उससे सुख मांगा जाना चाहिए। जिससे सुख ही मिलता हो, जिससे जो मिलता हो वह सुख ही होता हो, उससे हम दुख ही क्यों न मांग लें। इसमें भक्त बड़ी चालाकी कर रहा है। इसमें वह भगवान को भी एक धोखा दे रहा है। वह यह कह रहा है कि सुख हम न मांगेंगे, क्योंकि तुम जो देते हो वह सुख ही है। हम तुमसे दुख ही मांग लेते हैं। ऐसे वह भगवान को थोड़ी दिक्कत में भी डाल रहा है। और जहां प्रेम है, वहां थोड़ी दिक्कत में डालने का मन स्वाभाविक है। यानी वह कह रहा है, दो तो दुख दो, देखें कैसे समर्थ हो, देखें कैसे सर्वशक्तिमान हो! उसने एक जगह पकड़ ली है जहां वह तुमको सिद्ध कर देगा कि सर्वशक्तिमान तुम नहीं हो, क्योंकि दुख तुम नहीं दे सकते हो।
और भी कुछ कारण हैं, जो बहुत मनोवैज्ञानिक हैं। सुख क्षण भर का होता है। आता है, चला जाता है। दुख में लंबाई है। सुख में लंबाई नहीं होती। दुख में लंबाई होगी। आता है तो जाने का नाम लेता मालूम नहीं पड़ता। सुख आता है तो आ भी नहीं पाता और चला जाता है। सुख में गहराई भी नहीं होती। सुख बहुत उथला होता है। इसलिए जो लोग, जिन्हें हम साधारणतः सुखी कहते हैं, हमेशा "शैलो' हो जाते हैं, उथले हो जाते हैं। उनकी जिंदगी में कुछ गहरा नहीं रह जाता, ऊपर-ऊपर हो जाता है। दुख बहुत गहराई रखता है, उसकी बड़ी "डेप्थ' है। इसलिए दुख गहराई दे जाता है। इसलिए जो लोग दुख से गुजरते हैं, उनकी आंखों में, उनके चेहरों में, उनकी जिंदगी में एक गहराई होती है, जो साधारणतः सुखी आदमी की जिंदगी में नहीं होती। दुख दुख ही नहीं देता, मांजता भी है। दुख दुख ही नहीं देता, निखारता भी है। दुख दुख ही नहीं देता, गहरा भी कर जाता है। दुख में बड़ी गहराई है। सुख में बिलकुल गहराई नहीं है--न कोई लंबाई है, न कोई गहराई है। अगर भगवान से कुछ मांगना ही है, तो सुख नहीं मांगा जा सकता। ऐसी चीज जिसमें न कोई गहराई है और न कोई लंबाई है, जो यूकलिड के बिंदु की भांति है, सुख। यूकलिड कहता है, बिंदु की परिभाषा में, "प्वाइंट' की परिभाषा में कि न कोई "लेंग्थ', न कोई "ब्रेथ', जिसमें न कोई लंबाई, न कोई चौड़ाई, ऐसी चीज बिंदु है। सुख यूकलिड का बिंदु है। यूकलिड का बिंदु भी कहीं होता नहीं। जब हम खींचते हैं कागज पर, तो उसमें लंबाई-चौड़ाई हो जाती है। सुख भी नहीं होता कहीं, जब हम खींचते हैं तब पता चलता है कि नहीं है। जब तक नहीं खिंचा, तब तक है। सुख यूकलिड का बिंदु है।
भक्त मांगता है, दुख दे दो; जिसमें गहराई हो, जिसमें लंबाई हो, वे दे दो। जो रहे, जो टिके, जो हो, जो मेरे भीतर चला जाए और फैल जाए, जो मेरे साथ रहे, वह दे दो। जो आए तो जाने का नाम न ले, वे दे दो। दुख मांगकर वह यह सब कह रहा है कि जो आए वह जाए न, वे दे दो। जो आए तो मेरे प्राणों की गहराई तक डूब जाए, वे दे दो। जो आए तो मैं उथला न रह जाऊं, लंबा और गहरा हो जाऊं, वह दे दो। इस दुख शब्द में वह यह सब कह रहा है।
और फिर, आखिरी बात, जिन्हें हम प्रेम करते हैं, उनके दुख का भी आनंद है। और जिन्हें हम प्रेम नहीं करते हैं, उनसे मिले सुख में भी कोई आनंद नहीं है। दुख का अपना आनंद है, यह कभी खयाल में आया आपको? पीड़ा का अपना सुख है, पीड़ा का अपना रस है, "मैसोचिस्ट' नहीं। एक आदमी हुआ मैसोच, वह अपने को कोड़े मार कर सताता। तो ऐसे आदमी जो अपने को सताते हैं, "सेल्फ टार्चर' में लगते हैं, ये "मैसोचिस्ट' हैं। ये कहते हैं कि हमें अपने को सताने में सुख मिलता है। गांधी को "मैसोचिस्ट' में गिना जा सकता है। यह जो भक्त कह रहा है कि दुख दे दो, यह किसी और दुख की बात कर रहा है, यह उस दुख की नहीं जो "सेल्फ टार्चर' है, जो अपने को सताना है, उस दुख की नहीं। उस दुख की मांग कर रहा है जो प्रेम की पीड़ा जिसे हम कहें। प्रेम की बड़ी गहरी पीड़ा है। और इतना दुख भी नहीं सताता, जितना प्रेम की पीड़ा रोयें-रोयें और पोर-पोर में भर जाती है। सब तरफ से टूट जाता है। दुख तोड़ नहीं पाता, प्रेम तोड़ देता है। दुख मिटा नहीं पाता, प्रेम मिटा देता है। दुख में तो आप पीछे बच जाते हैं, प्रेम में आप बचते ही नहीं, खो जाते हैं और विदा हो जाते हैं। ऐसा दुख दे दो जिसमें भक्त मिट ही जाए, जिसमें वह बचे ही न। ऐसी मृत्यु दे दो जिसमें वह खो ही जाए, बचे ही न। इस अर्थ में। और इसीलिए कृष्ण समझाते नहीं, हंस कर रह जाते हैं। कुछ चीजें हैं जो हंसने से ही समझाई जा सकती हैं। जिनको समझाने से नासमझी पैदा हो जाती है। इसलिए हंसकर चुप रह जाते हैं, वे कुछ समझाने नहीं जाते। वे समझ जाते हैं राज को कि मांगने वाला बहुत तरकीब की बात कर रहा है। मांगने वाला बहुत चालाकी की बात कर रहा है। मांगने वाला उनको बहुत झंझट में डाल रहा है। इसलिए हंसकर चुप रह जाते हैं, उसमें समझाने को कुछ है नहीं।
ओशो रजनीश
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