श्री कृष्ण स्मृति भाग 65
"भगवान श्री, एक विरोध पैदा हो जाता है। जैसा आपने कृष्ण के संबंध में बंबई में भी कहा और यहां भी विषय-प्रवेश के मौके पर कहा कि कृष्ण का जीवन अलौकिक, चमत्कारिक, हंसता हुआ, खेलता हुआ, फूलों की तरह खिलता हुआ जीवन रहा है। बाकी जितने भी दूसरे लोग हुए उनका जीवन दुखवादी जीवन रहा। जैसे, ईसा को कभी किसी ने जीवन में हंसते हुए नहीं देखा। तो भक्त अगर दुख मांगता है, उदास रहता है, कभी हंसता नहीं है, तो फिर कृष्ण के उस अलौकिक दर्शन की पूर्ति कैसे होती है, यह बात मैं आपसे जानना चाहूंगा।'
जो भक्त दुख मांगता है, वह दुखवादी नहीं है। क्योंकि दुखवादी तो इतने दुख पैदा कर लेता है कि किसी से मांगने की कोई जरूरत नहीं है। दुखवादी किसी से दुख मांगने जाता है? दुखवादी तो इतने दुख में रहता है कि अब आप उसको और ज्यादा दे नहीं सकते।
भक्त इसलिए दुख मांग लेता है कि सुख तो वह खूब पा रहा है, दुख को भी चखना चाहता है, जिसका परिवार अपरिचय है। भक्त कभी भी दुखी नहीं है और भक्त अगर रोता भी है तो उसके आंसू आनंद के ही आंसू हैं। भक्त रोता है बहुत, लेकिन उसके आंसू दुख के आंसू नहीं हैं। लेकिन हमें बहुत भूल हो जाती है, क्योंकि हम सिर्फ दुख में ही रोए हैं, हम कभी आनंद में नहीं रोए हैं। इसलिए आंसुओं के साथ हमने दुख की अनिवार्यता बांध ली है। लेकिन आंसुओं का कोई संबंध दुख से नहीं है। आंसुओं का संबंध "ओवरफ्लोइंग' से है। मन का कोई भी भाव मन की सीमा के पार हो जाए तो आंसुओं में बहना शुरू हो जाता है, कोई भी भाव। दुख ज्यादा हो जाए तो आंसुओं में बहता है, सुख ज्यादा हो जाए तो आंसुओं में बहता है, प्रेम ज्यादा हो जाए तो आंसुओं में बहता है, क्रोध ज्यादा हो जाए तो आंसुओं में बहता है। लेकिन चूंकि हमने दुख के ही आंसू देखे हैं--वही ज्यादा हुआ है, आनंद कभी इतना ज्यादा हुआ नहीं कि आंसुओं में बह जाए, इसलिए हमने आंसुओं का "एसोसिएशन' दुख से बना रखा है। दुख का आंसुओं से कोई संबंध नहीं है, आंसुओं का संबंध "ओवरफ्लोइंग' से है। जो हमारे भीतर ज्यादा हो जाता है, वह आंसुओं से बह जाता है।
भक्त भी रोता है, प्रेमी भी रोता है, आनंद में ही रोता है। और यह जो आनंद की पीड़ा है, यह जो आनंद का दंश है, यह जो आनंद के कांटे की चुभन है, यह जो आनंद के आंसू हैं, इनका दुखवाद से कोई भी संबंध नहीं है।
ओशो रजनीश
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