श्री कृष्ण स्मृति भाग 67

 "हमारी कृष्ण-प्रेम की चरम सीमा की कसौटी क्या होगी?'


जैसा मैंने कहा, भक्ति का कोई ढंग नहीं होता, प्रेम की कोई कसौटी नहीं होती। प्रेम हो तो काफी है, कसौटी की क्यों फिकिर करते हैं। प्रेम नहीं होता तो आदमी कसौटी की फिकिर करता है। आप प्रेम की फिकिर करें। कसौटी की क्या जरूरत है? प्रेम नहीं है, इसलिए सोचते हैं कि कसौटी मिल जाए तो जांच कर लें। लेकिन नहीं है तो जांच करने की जरूरत क्या है? पता है कि नहीं है। प्रेम है, इसकी फिकिर करें। और जब प्रेम होता है तो सच्चा ही होता है, झूठा कोई प्रेम होता नहीं। झूठा प्रेम गलत शब्द है। या तो होता है, या नहीं होता है। इसलिए कसौटी की कोई जरूरत नहीं है। हां, सोने को जांचने के लिए कसौटी की जरूरत पड़ती है, क्योंकि गलत सोना होता है। प्रेम तो झूठा होता ही नहीं। होता है, या नहीं होता। और जब होता है तब आप उसी भांति जानते हैं जैसा पैर में कांटा गड़ा है तब जानते हैं। क्या कसौटी होगी? पैर में कांटा गड़ता है, पैर में दर्द हो रहा है, क्या कसौटी है कि दर्द हो रहा है कि नहीं हो रहा है? आपको तो पता ही होगा कि दर्द हो रहा है या नहीं हो रहा है। हां, अगर दूसरा कोई कहता हो कि क्या कसौटी है, तो उसके पैर में भी कांटा गड़ाने के सिवाय और क्या उपाय है? उसके पैर में भी एक कांटा गड़ा दें और कहें कि देखो हो रहा है कि नहीं हो रहा है? प्रेम जब घटित होता है तो हम जानते हैं उसी तरह, जैसे हम और सब जानते हैं। जब प्रेम घटित नहीं होता है तब भी हम जानते हैं कि पैर में कांटा नहीं है। अपने भीतर देखें, पहचानने में कठिनाई न आएगी। जान सकेंगे कि मेरी जिंदगी में प्रेम है या नहीं है। नहीं है, तो कसौटी का क्या करियेगा? है, तो कसौटी बेकार है। कसौटी का कोई संबंध नहीं है। प्रेम की फिक्र करें, है या नहीं।

लेकिन हम डरते हैं फिक्र करने से। भीतर झांकने से डरते हैं, क्योंकि हमें भलीभांति पता है कि प्रेम नहीं है। इसलिए हम भीतर देखते ही नहीं। इसलिए अक्सर दूसरे कि फिक्र करते हैं कि दूसरे का प्रेम मेरी तरफ है या नहीं? शायद ही कोई कभी पूछता हो कि मेरा प्रेम दूसरे की तरफ है या नहीं। इसलिए लड़ते हैं दिन-रात कि दूसरा कम प्रेम करता है, पति कम प्रेम करता है, पत्नी कम प्रेम करती है, बेटा कम प्रेम करता है, बाप कम प्रेम करता है, सब लड़ रहे दूसरे से कि दूसरा कम प्रेम करता है। और कोई भी यह नहीं पूछता कि मैंने प्रेम किया है? और जब हम जीवित चारों तरफ फैले हुए व्यक्तियों को भी प्रेम नहीं कर पाते हैं, जब हम दिखाई पड़ने वाले फूलों को नहीं प्रेम नहीं कर पाते, जब चारों ओर खड़े हुए पर्वतों को प्रेम नहीं कर पाते हैं, आकाश के चांदत्तारों को प्रेम नहीं कर पाते हैं, तो हम अदृश्य को कैसे प्रेम कर पाएंगे? इस दृश्य से शुरू करें।

और बड़े मजे की बात है कि जो आदमी दृश्य को प्रेम करता है, वह दृश्य के भीतर तत्काल अदृश्य को अनुभव करने लगता है। पत्थर को प्रेम करें और पत्थर परमात्मा हो जाता है। फूल को प्रेम करें और अदृश्य फूल की प्राण-ऊर्जा दिखाई पड़नी शुरू हो जाती है। व्यक्ति को प्रेम करें और तत्काल शरीर मिट जाता है और आत्मा शुरू हो जाती है। प्रेम कीमिया है अदृश्य को खोजने का। प्रेम रासायनिक विधि है, रासायनिक दृश्य है, रासायनिक झरोखा है अदृश्य को खोज लेने का। प्रेम की फिक्र करें, फिर कभी फिक्र नहीं करनी पड़ेगी किस कसौटी पर तौलें। और यह बात कभी मत पूछें कि प्रेम की चरम अवस्था क्या है? प्रेम जब भी होता है, चरम ही होता है। प्रेम की दूसरी कोई अवस्था होती ही नहीं। प्रेम की "डिग्रीज' नहीं होतीं।

यह थोड़ा समझ लेना उचित होगा।

ऐसा नहीं होता कि मैं कहूं कि मुझे आपसे थोड़ा-थोड़ा प्रेम है। यह होता ही नहीं। थोड़ा-थोड़ा प्रेम का कोई मतलब होता है? मैं कहूं कि जरा अभी आपसे थोड़ा कम प्रेम है। ऐसा नहीं होता। जैसे कोई आदमी दो पैसे की चोरी करे और कोई आदमी दो लाख की चोरी करे, तो दो लाख की चोरी बड़ी चोरी है और दो पैसे की चोरी छोटी चोरी है, ऐसा कहिएगा? हां, जो लोग पैसे का हिसाब रखते हैं वे कहेंगे कि दो लाख की चोरी बड़ी चोरी होगी और दो पैसे की चोरी छोटी हुई। लेकिन चोरी छोटी और बड़ी हो सकती है! चोरी तो सिर्फ चोरी है। चोरी में कोई "डिग्रीज' नहीं होतीं, कम और ज्यादा नहीं होतीं। दो पैसे चुराते वक्त आदमी उतना ही चोर होता है जितना दो लाख चुराते वक्त होता है।

प्रेम न दो पैसे का होता है, न दो लाख का होता है, बस होता है। चरम कोई अवस्था नहीं होती, प्रेम चरम ही होता है। प्रेम जो है वह "क्लाइमेक्स' ही है। वह हमेशा सौ डिग्री पर ही होता है। जैसे कि पानी गरम होता है तो ऐसा नहीं होता है कि नब्बे डिग्री पर थोड़ा-सा भाप हो, फिर, और पंचान्नबे डिग्री पर थोड़ा ज्यादा भाप हो जाए। नहीं, सौ डिग्री पर ही भाप होता है। सौ डिग्री पर बस एकदम भाप होने लगता है। तो अगर कोई पूछे कि भाप बनने का चरम बिंदु क्या है? तो हम कहेंगे, जो प्रथम बिंदु है, वही चरम भी है। जो पहला बिंदु है, वही आखिरी भी। सौ डिग्री पहला है और सौ डिग्री आखिरी है। प्रेम भी प्रथम और अंतिम एक ही है, "द फर्स्ट एंड द लास्ट'। प्रेम में कोई अंतर नहीं है। प्रेम चरम ही है। उसका पहला कदम ही आखिरी कदम है। उसकी मंजिल की पहली सीढ़ी ही मंदिर की आखिरी सीढ़ी है। मगर हमें पता ही नहीं है, इसलिए हम अजीब सवाल पूछते हैं। अभी तक मैंने प्रेम के संबंध में ठीक सवाल किसी आदमी को पूछते नहीं देखा। मुझे खयाल आती है एक घटना।

एक बहुत बड़ा करोड़पति मार्गन अपने एक विरोधी करोड़पति के साथ बातचीत कर रहा था। तो उसने अपने विरोधी करोड़पति से, जो उसका प्रतियोगी था, उससे उसने कहा कि दुनिया में हजार ढंग हैं धन कमाने के, लेकिन ईमानदारी का ढंग एक ही है। उसके विरोधी ने कहा, वह कौन-सा ढंग है? मार्गन ने कहा, मैं जानता था कि तुम पूछोगे, क्योंकि तुमको उसका पता नहीं है। मैं जानता था कि तुम पूछोगे क्योंकि तुम्हें उसका पता नहीं है!

ऐसा ही मामला प्रेम का है। प्रेम के बाबत हम ऐसे सवाल पूछते हैं जो कि बनता ही नहीं, जो कि होते ही नहीं, "इर्रेलिवेंट'। क्योंकि मुझे पता है कि हम पूछेंगे, क्योंकि प्रेम भर एक चीज है जिसका हमें कोई पता नहीं है। उसके संबंध में हम गलत ही पूछ सकते हैं। और ध्यान रहे, जिसे उसका पता है वह ठीक नहीं पूछ सकता, क्योंकि पूछने का कोई सवाल नहीं है, वह जानता है।

ओशो रजनीश



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