श्री कृष्ण स्मृति भाग 68

 "भगवान श्री, महाभारत संग्राम में कृष्ण अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त करते हैं! मगर एक दफा, ऐसा सुना जाता है, कि कृष्ण अर्जुन से संग्राम करने गए थे। वह क्या बात थी?'


असल में कृष्ण जैसे व्यक्ति न तो किसी के मित्र हैं और न किसी के शत्रु हैं। कृष्ण की कोई निश्चित धारणा किसी के बाबत नहीं है। इसलिए शत्रु मित्र हो सकता है, मित्र शत्रु हो सकता है। स्थितियां तय करेंगी। "सिचुएशंस' तय करेंगी। हम और तरह से जीते हैं। हम किसी के मित्र होते हैं, किसी के शत्रु होते हैं। फिर परिस्थितियां बदल जाती हैं तो बड़ी मुश्किल होती है। फिर भी हम मित्र और शत्रु को खींचने की कोशिश करते हैं। कृष्ण कुछ भी खींचते नहीं। जैसी स्थिति हो। अगर अर्जुन भी लड़ने को सामने पड़ जाए, तो कृष्ण-अर्जुन युद्ध हो जाएगा। इसमें कोई अड़चन नहीं आएगी। उसी मौज से अर्जुन से भी लड़ लेंगे। जिस मौज से अर्जुन के लिए लड़ते हैं, उसी मौज से अर्जुन से भी लड़ा जा सकता है।

असल में कृष्ण मित्रता और शत्रुता को "फिक्स्ड प्वाइंट' नहीं बनाते। वे कोई सुनिश्चित चीजें नहीं हैं, वे तरलताएं हैं। और जिंदगी की तरलता में कहां तय किया जा सकता है, कौन मित्र है और कौन शत्रु है? जो आज मित्र है, वह कल शत्रु हो सकता है; जो आज शत्रु है, वह कल मित्र हो सकता है। इसलिए मित्र के साथ भी कल की शत्रुता को ध्यान में रखकर चलना उचित है और शत्रु के साथ भी कल की मित्रता को ध्यान में रखकर व्यवहार करना उचित है। क्योंकि कल का कोई भरोसा नहीं। क्षण का कोई भरोसा नहीं। क्षण बदला और सब बदल जाएगा। जिंदगी पूरे वक्त बदलता हुआ "पैटर्न' है। जैसे धूप पड़ रही है अभी, छायायें पड़ रही हैं जमीन पर। कहीं छाया है, कहीं धूप है। घड़ी भर बाद धूप कहीं और होगी, छाया कहीं और होगी। सब बदलता रहेगा। सांझ तक बैठे देखते रहें इस बगिया को, सब बदलता रहेगा--धूप बदलेगी, छाया बदलेगी, बदलियां आएंगी-जाएंगी, दिन निकलेगा, सांझ होगी, रात होगी, प्रकाश होगा, अंधेरा हो जाएगा, यह सब होता रहेगा। पूरी जिंदगी भी इसी तरह बदलता हुआ "पैटर्न' है। वहां कोई चीज शतरंज के खांचों की तरह तय नहीं है। वहां धूप-छाया की तरह सब बदलता हुआ है।

इसलिए हम कभी सोच भी नहीं सकते, हम कभी यह सोच नहीं सकते कि अर्जुन और कृष्ण कैसे आमने-सामने हो सकते हैं। कृष्ण मित्र के सामने भी हो सकते हैं, और ऐसे तो पूरा महाभारत ही बड़े मजे का है! उसमें सब मित्र आमने-सामने खड़े हैं! उसने, जिन द्रोण से सीखा है अर्जुन ने सब, उन्हीं पर तीर खींचे खड़ा है। जिन भीष्म से पाया है बहुत कुछ, उन्हीं को मारने के लिए तत्पर है। महाभारत ऐसे बड़ा अदभुत है। वह बता रहा है कि जिंदगी में कुछ तय नहीं है, सब बदलता हुआ है। जो कल भाई थे, आज शत्रु हैं। जो कल मित्र थे, आज सामने खड़े हैं। जो कल गुरु थे, आज उनसे लड़ना पड़ रहा है। लेकिन इससे भी, इससे दोनों बातें साफ हैं। दिन भर लड़ते भी हैं, सांझ उनकी कुशल-क्षेम भी पूछ आते हैं। दिन भर लड़ते भी हैं। सांझ जाकर पूछ भी आते हैं कि किसी को चोट तो नहीं लग गई? जिनको दिनभर चोट मारी, जिनसे दिनभर दिल खोलकर लड़े हैं--उस लड़ाई में कोई "डिसऑनेस्टी' नहीं है, लड़ाई बिलकुल "ऑनेस्ट' है, लड़ाई बिलकुल ईमानदारी से भरी हुई है, उस लड़ाई में जरा धोखा नहीं है, अगर भीष्म सामने पड़ेंगे तो गर्दन उतारने में देर न की जाएगी--लेकिन सांझ को दुख मनाने में भी कोई बाधा नहीं है कि भीष्म जैसा आदमी खो गया। यह बहुत अजीब है! इससे यह सूचना मिलती है कि एक युग था, जब हम मित्रतापूर्ण ढंग से लड़ भी सकते थे। आज युग बिलकुल उलटा है, आज तो हम शत्रुतापूर्ण ढंग से मित्र ही हो पाते हैं। मित्रतापूर्ण ढंग से युद्ध भी हो सकता था, आज तो मित्रता भी शत्रुतापूर्ण ढंग से ही चलती है। आज तो मित्र भी प्रतियोगी है। तब शत्रु भी साथी था।

और जिंदगी के बड़े अर्थों में सोचने जैसा है। यह सोचने जैसा है कि अगर मेरा कोई शत्रु है, तो शत्रु के मरने के साथ मेरे भीतर भी कुछ मर जाता है। शत्रु ही नहीं मरता, मैं भी कुछ मरता हूं। शत्रु के होने के साथ मेरा होना भी है। मित्र के मरने के साथ ही मेरे भीतर से कुछ खोता हो, ऐसा नहीं है, शत्रु के खोने के साथ भी मेरे भीतर से कुछ खो जाता है। तो शत्रु भी मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा है। इसलिए शत्रु के प्रति भी बहुत शत्रुतापूर्ण होने का अर्थ नहीं है। शत्रु भी किसी गहरे अर्थों में मित्र है। और मित्र भी किसी गहरे अर्थों में शत्रु है। क्यों? क्योंकि असल में जैसा कि मैं निरंतर इन पिछले दिनों में आपसे कहा हूं, जिंदगी में जिनको हम "पोलेरिटीज' में बांटते हैं, ध्रुव बना देते हैं, वे हमारे शब्दों और सिद्धांतों में ही सत्य हैं। जिंदगी के सीधे गहराई में कोई "पोलेरिटी' सत्य नहीं है, सब "पोलेरिटीज' जुड़ी हुई हैं। उत्तर और दक्षिण जुड़े हुए हैं। ऊपर और नीचे जुड़ा हुआ है।

ऐसा अगर हम देख पाएं, तो फिर कृष्ण का अर्जुन से युद्ध समझ में आ सकता है। ऐसे कृष्ण को समझाने वालों को नहीं समझ में आया है, बहुत मुश्किल पड़ी है, बहुत मुश्किल पड़ती रही है, क्योंकि जब भी हम समझाने जाते हैं तब हमारी धारणाएं बीच में खड़ी हो जाती हैं, और वे कहती हैं, यह भी क्या बात है, यह कैसी बात है, यह नहीं होनी चाहिए! हम मानते हैं कि मित्र को मित्र ही होना चाहिए, शत्रु को शत्रु ही होना चाहिए। हम जिंदगी को फांकों में बांटते हैं और उनको थिर कर देते हैं। जिंदगी नदी की भांति तरल है। जो लहर यहां थी, वह लहर अब बहुत दूर है। जो लहर कल सांझ थी, आज बहुत दूर हट गई है। और इस पूरे जिंदगी के रास्ते पर कौन हमारे साथ है, यह क्षणभर की बात है! क्षणभर बाद साथ होगा कि नहीं होगा, नहीं कहा जा सकता। कौन आज विरोध में खड़ा है, क्षणभर बाद विरोध में खड़ा होगा, नहीं खड़ा होगा, नहीं कहा जा सकता। जो इस जिंदगी को नदी की धार की तरह जीते हैं, वे न शत्रु बनाते, न मित्र बनाते। जो शत्रु बन जाता है, उसे शत्रु मान लेते हैं, जो मित्र बन जाता है, उसे मित्र मान लेते हैं, वे कुछ बनाते नहीं, जिंदगी में से गुजरते हैं; जो भी जैसा बन जाता है, उसे वैसा ही मान लेते हैं।

कृष्ण के लिए न कोई शत्रु है, न कोई मित्र है। समय, परिस्थिति, अवसर जिसको मित्रता के खेमे में ढकेल देता है, उसके मित्र हो जाते हैं; जिसको शत्रुता के खेमे में ढकेल देते हैं उसके शत्रु हो जाते हैं। फौजें कृष्ण की लड़ रही हैं कौरवों की तरफ से, कृष्ण लड़ रहे हैं पांडवों की तरफ से। विभाजन कर लिया है दोनों का, क्योंकि दोनों ही ऐसे कृष्ण को मित्र मानते थे। और दोनों ही साथ पहुंच गए थे। दोनों ही साथ पहुंच गए थे, और दोनों को खुली छूट दे दी थी--अब यह बड़े मजे की बात है--दोनों को छूट दे दी थी कि जो तुम्हें मांगना हो, क्योंकि दोनों ही साथ आ गए हो, दोनों ही अपने हो, तो एक तरफ से मैं लड़ लूंगा, एक तरफ से मेरी फौजें लड़ लेंगी।

ओशो रजनीश



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्री कृष्ण स्मृति भाग 134

श्री कृष्ण स्मृति भाग 114

श्री कृष्ण स्मृति भाग 122