श्री कृष्ण स्मृति भाग 69

 "वह यह भी तो कह सकते थे कि दोनों मेरे मित्र हो, इसलिए मैं किसी की भी तरफ से नहीं लडूंगा?'


ऐसा वह इसलिए नहीं कह सकते थे कि वह जो महाभारत की घटना घटने वाली थी, वह इतनी विराट थी कि उसमें कृष्ण का होना एकदम जरूरी था--उनके बिना शायद वह घट भी नहीं सकती थी। और मित्र से अगर वे कहते कि मैं दोनों के बाहर रहा जाता हूं, अगर वह भारतीय विदेश नीति अख्तियार करते "न्यूट्रिलिटी' की, तटस्थता की और वे कहते मैं दोनों तरफ नहीं हूं, तो वह बेईमानी होती, क्योंकि जिंदगी में तटस्थता होती ही नहीं। उसमें किसी तरफ हम होते ही हैं। जिंदगी में तटस्थता होती ही नहीं। तटस्थता सिर्फ आंतरिक भाव हो सकती है, जिंदगी में होती नहीं है, जिंदगी में हम किसी तरफ होते ही हैं। इस तरफ या उस तरफ। दिखावा हो सकता है तटस्थता का। दिखावा वे कर सकते थे। लेकिन दिखावे का कोई मतलब न था। और दोनों ही मित्र सहायता मांगने आए थे, तटस्थता मांगने नहीं आए थे। यह कहने आए थे कि हमें साथ दो। उत्तर साथ के लिए देना था। दोनों का साथ न देने का मतलब यह न होता कि दोनों के मित्र हैं, दोनों का साथ न देने का मतलब होता कि दोनों से कोई मतलब नहीं है, दोनों के मित्र नहीं हैं। तटस्थता का तभी मतलब होता है। तटस्थता का मतलब है, हम उदास हैं। उदासीन, हमें मतलब नहीं है कौन जीतता है, कौन हारता है। कोई प्रयोजन नहीं तुमसे।

कृष्ण निष्प्रयोजन नहीं हैं। कृष्ण मित्र दोनों के हैं, लेकिन चाहते यही हैं कि पांडव जीतें। जीतें इसलिए कि उन्हें लगता है कि पांडव धर्म के पक्ष में हैं और कौरव अधर्म के पक्ष में हैं। लेकिन मित्र दोनों के हैं--वे जो अधर्मी हैं, वे भी उनके प्रति मित्रतापूर्ण हैं। कृष्ण से उनकी कोई शत्रुता नहीं है। कृष्ण के प्रति उनका सद्भाव है। कृष्ण को वे भी चाहते हैं। और उस जमाने में बहुत सीधे, साफ-सुथरे हिसाब होते थे। सभी बंट जाते थे। छोटी लड़ाई होती तो सभी बंट जाते थे। साफ निर्णय हो जाता था। ज्यादा देर खींचनेत्तानने की जरूरत नहीं होती थी। "पोलेरिटीज' साफ हो जाती थीं तो जल्दी निर्णय हो जाता था और निर्णायक हो जाता था।

तो कृष्ण उपेक्षा से नहीं भरे हैं, अपेक्षा उनकी है। उदासीन वे नहीं हैं, इसलिए तटस्थ नहीं हो सकते। दोनों बराबर नहीं हैं उन्हें, फिर भी दोनों की तरफ से मित्रता है। इसलिए बंटने को वे तैयार हैं। और इतना भी वे जानते हैं कि बंटवारा बहुत कुछ निर्णय करेगा, इसलिए बंटवारे का जो नियम उन्होंने चुना वह अदभुत है, बहुत गणित का है। उन्होंने कहा यह कि एक तो मुझे चुन लो, मुझ अकेले को, और एक मेरी सारी फौजों को चुन लो। इस बंटवारे से कृष्ण को बहुत साफ हो गया कि धर्म का पक्ष किसका है। इससे बहुत साफ हो गया मामला। क्योंकि कृष्ण को अकेले को कौन चुनेगा? जो हारने की तैयारी रखते हैं, वही न! कृष्ण को अकेले को कौन चुनेगा? जिनका शक्ति पर भरोसा नहीं है, वही न! कृष्ण को अकेला कौन चुनेगा? जिसको पौद्गलिक शक्ति पर नहीं, आत्मिक शक्ति का भरोसा है, वह कृष्ण को चुन लेगा। कौरव तो बड़े प्रसन्न हुए। डर गए थे बहुत, क्योंकि पहला चुनाव पांडवों को दिया गया था। क्योंकि पांडव बैठ गए हैं नीचे, पांडवों का प्रतिनिधि बैठ गया है पैरों में, कौरवों का प्रतिनिधि बैठ गया है कृष्ण के सिर के पास--वह सोए हैं। दोनों गए हैं, तो जाग आएं तब तक प्रतीक्षा करनी है। पांडवों का प्रतिनिधि बैठा है पैरों के पास। वह भी सूचक था। कौरवों का प्रतिनिधि बैठा है सिर के पास। पैर के पास कौरव कैसे बैठ सकते हैं! पैर के पास तो वही बैठ सकता है जो विनम्र हो।

ये सब बहुत छोटी-छोटी बातें बड़ी सूचक बन जाती हैं। हम जिंदगी में वही करते हैं, जो हम हैं। यह आकस्मिक नहीं है। यह इतनी-सी घटना भी कि कौरवों का बैठना सिर के पास, पांडवों का बैठना पैर के पास "एक्सिडेंटल' नहीं है। इसलिए आंख स्वभावतः जो पैर के पास बैठे हैं, उन पर पहले पड़ी। इसलिए चुनाव का पहला मौका उन्हें दिया गया। निश्चित ही जो विनम्र हैं, वे पहले जीतेंगे। पहला मौका उनका होगा। "ब्लेसेड आर द मीक, दे शैल इनहेरिट द अर्थ', वह जो जीसस कहते हैं, धन्य हैं वे जो विनम्र हैं, क्योंकि पृथ्वी का राज्य उन्हीं का होगा। तो वे जो विनम्र थे उनके जिए पहला मौका था कि तुम चुनाव कर लो। कौरव तो बहुत डरे और घबड़ाए कि यह तो बड़ी मुश्किल हो गई, क्योंकि उन्होंने पक्का समझा कि कौन चुनेगा कृष्ण को! फौजें हैं विराट की, वे ही निर्णायक होंगी युद्ध में, वे बहुत घबड़ाए कि यह धोखा हो गया! यह गलती हो गई, यह हमसे भूल हो गई, हम पैर के पास ही क्यों न बैठ गए! यह पहला मौका पांडवों का दिया गया चुनाव का, इसमें पक्षपात हुआ जा रहा है! क्योंकि निश्चित ही पांडव फौजों को चुन लेंगे और कृष्ण को अकेले को कौन चुनेगा! और हम अकेले कृष्ण का क्या करेंगे? लेकिन वे बड़े प्रसन्न हुए जब उन्होंने देखा कि नासमझ पांडवों ने कृष्ण को चुन लिया और सारी फौजें कौरवों को छोड़ दीं। तब वे बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने माना कि इन नासमझों की हार निश्चित ही है। ये हर बार नासमझी का दांव लगाए चले जाते हैं, हर बार हारे चले जाते हैं। फिर मौका था जीतने का, वह भी चूक गए। अब जीत निश्चित है अपनी। लेकिन वहीं उनकी हार निश्चित हो गई थी। पांडवों के चुनाव ने कह दिया था कि चुनाव आत्मिक हो गया है, चुनाव गहरा हो गया है, धर्म का हो गया है और कृष्ण उनके साथ खड़े होकर निर्णायक हो गए हैं।

यह जो मैंने कहा कि पैर के पास बैठ जाना बड़ा महत्वपूर्ण हो गया, छोटी घटना मुझे याद आती है, उससे समझ में आ जाएगी।

विवेकानंद हिंदुस्तान से अमरीका जाते थे। तो उन्होंने शारदा मां को जाकर आशीर्वाद मांगा और कहा कि मैं अमरीका जाता हूं। तो रामकृष्ण की पत्नी शारदा मां ने कहा कि--रामकृष्ण नहीं रहे थे, शारदा ही रह गई थी, उससे ही पूछा जा सकता था--शारदा ने कहा कि क्या करोगे अमरीका जाकर? तो उन्होंने कहा कि मैं धर्म का संदेश ले जाऊंगा। तो शारदा चौके में अपना काम करती थी, उसने कहा, वह छुरी पड़ी है सब्जी काटने की, वह उठाकर मुझे दे दो। विवेकानंद ने वह छुरी उठाई और शारदा को दी। शारदा ने कहा, जाओ, मेरा आशीर्वाद है। लेकिन विवेकानंद ने कहा कि छुरी उठाने से इसका क्या संबंध? शारदा ने कहा, मैं देखती थी कि छुरी उठाकर तुम कैसे मुझे देते हो। हममें से किसी ने भी उठाकर दी होती तो डंडी खुद पकड़ी होती, फलक शारदा की तरफ किया होता। विवेकानंद ने फलक खुद पकड़ा और डंडी शारदा की तरफ की। तो शारदा ने कहा, मैं सोचती हूं कि तुमसे धर्म का संदेश जा सकता है। साधारणतः कोई भी शायद ही संभावना है इस बात की कि आप फलक पकड़ते। फलक कहीं पकड़ा जाता है छुरी का? पकड़ी तो डंडी ही जाती है, मूठ ही पकड़ी जाती है।

अब यह बिलकुल "एक्सिडेंटल' नहीं है। यह विवेकानंद कोई सोच-समझकर "रेडीमेड' उत्तर भी नहीं ला सकते। यह किसी किताब में लिखा नहीं कि जब तुम अमरीका जाओगे, तो शारदा तुमसे पूछेगी तो छुरी ऐसी पकड़ लेना। यह किसी शास्त्र में नहीं लिखा हुआ है। और यह शारदा जैसे व्यक्तित्व भरोसे के नहीं हैं। ये क्या, अब यह कोई बात थी! यह कोई पता लगाने का ढंग था! यह कोई धर्म की परीक्षा हो सकती थी! लेकिन शारदा ने कहा, रहा आशीर्वाद, जाओ। तुम्हारे मन में धर्म है।

ऐसा उस दिन कृष्ण के पैरों के नीचे बैठे पांडवों ने सूचना दे दी कि धर्म उनकी तरफ है, पैरों के पास बैठने की उनकी हिम्मत है। फिर कृष्ण को चुनकर उन्होंने घोषणा कर दी कि हम हारने को तैयार हैं, लेकिन धर्म छोड़ने को तैयार नहीं हैं। हम धर्म के साथ रह कर हार जाएंगे, लेकिन अधर्म के साथ रह कर जीतेंगे नहीं। और धर्म के साथ सिर्फ वही हो सकता है, जो हारने को तैयार है। जैसा मैंने कहा, परमात्मा के साथ सिर्फ वही हो सकता है, जो दुख की मांग करता है, जो दुख को चुन लेता है। धर्म के साथ वही हो सकता है, जो हारने को तैयार है। जो जीतने को आतुर है, हर हालत में वह अधर्म के साथ हो ही जाएगा। क्योंकि अधर्म सुझाव देता है, सरल, "इजी शार्टकट' देता है कि यहां से जीत लोगे। धर्म का रास्ता लंबा पड़ जाता है। अधर्म "शार्टकट' से खोजता है, हमेशा। धर्म का रास्ता लंबा है, श्रमसाध्य है, "आरडुअस' है। धर्म के साथ हार भी हो सकती है। धर्म के साथ विनाश भी हो सकता है। लेकिन जो धर्म के साथ विनष्ट होने को तैयार है और हारने को तैयार है, उसकी हार कभी होती नहीं। लेकिन तैयारी वह रखनी होती है।

अधर्म कहता है, यह रही जीत। हाथ बढ़ाओ और मिल जाएगी। अधर्म का रस और आकर्षण उसके आश्वासन में है, उसकी "प्रॉमिस' में है। वह कहता है यह कि हाथ बढ़ाया नहीं कि मिला, कहां धर्म का रास्ता पकड़ते हो! लंबा है रास्ता! पहाड़ है दुर्गम! पहुंचने का पक्का पता नहीं है, और कौन कब पहुंचा है! यह रहा अधर्म, यह रही पास की व्यवस्था। जरा करो और पहुंच जाते हो! अधर्म का आश्वासन सदा जीत का है। उस जीत के आकर्षण में आदमी अधर्म को पकड़ता है। अधर्म को पकड़कर कोई कभी जीतता नहीं। धर्म की चुनौती सदा हार की है। हार के डर को जानते हुए जो धर्म के साथ होता है, वह कभी हारता नहीं। लेकिन ये बड़ी उलटी बातें हैं, बड़ी "कांट्रडिक्ट्री' बातें हैं। लेकिन ऐसा ही है।

ओशो रजनीश



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