श्री कृष्ण स्मृति भाग 72
"उपरोक्त बातें तो लगता है कि स्थितप्रज्ञ-पुरुष में ही संभव हैं। और हमें आपके व्यक्तित्व में वह सब दिखता है। आप अति विनम्र हैं। मगर कभी-कभी अति कठोर आलोचक भी हो जाते हैं, तब हमारी दुविधा का पार नहीं रह जाता।'
हां, मैं दुविधा को मिटाऊंगा भी नहीं। क्योंकि जो विनम्रता ओढ़ी गई होती है, जो विनम्रता साधी गई होती है, जो विनम्रता लाई गई होती है, वह सदा विनम्र होती है। लेकिन जो विनम्रता सहज होगी, वह इतनी विनम्र होती है कि अविनम्र होने की भी हिम्मत कर सकती है। सिर्फ विनम्र आदमी ही निर्मम रूप से अविनम्र होने का साहस कर सकता है। सिर्फ प्रेमी ही कठोर हो सकता है।
तो ऐसा निरंतर लगेगा--वही जो मैं कृष्ण के लिए कह रहा हूं--निरंतर ऐसा लगेगा, मुझमें निरंतर उलटी बातें, बहुत तरह की उलटी बातें हैं। लेकिन मैं पूरी जिंदगी को ही स्वीकार करता हूं, वही मेरी विनम्रता है। अगर मेरे भीतर कभी मुझे कठोर होने जैसा होता है, तो मैं रोकता नहीं, क्योंकि रोके कौन? मैं कठोर हो जाता हूं। कभी मुझे विनम्र होने जैसा होता है, तो मैं क्या करूं, विनम्र हो जाता हूं। जो होता है, वह मैं होने देता हूं। अपनी तरफ से मेरी होने की कोई भी चेष्टा नहीं है। मेरा कोई प्रयास नहीं है। इसलिए मेरे साथ दुविधा जारी रहेगी। मेरे साथ दुविधा कभी मिटने वाली नहीं है। और जिनको हम स्थितप्रज्ञ कहते रहे हैं--कृष्ण को स्थितप्रज्ञ कहियेगा कि नहीं कहियेगा! लेकिन दुविधापूर्ण है मामला। कृष्ण बहुत बार प्रज्ञा को बिलकुल खोते हुए मालूम पड़ते हैं। सुदर्शन हाथ में उठाया होगा, तब हमें लगेगा कि प्रज्ञा खो दी, स्थिरता न रही।
यह जो स्थितप्रज्ञ की हमारी धारणा है कि जिसकी प्रज्ञा स्थिर हो गई है, इसका मतलब क्या होता है? इसका क्या यह मतलब होता है कि जो हम ठीक समझते हैं, वही वह करता है? यानी हमारे पक्ष में स्थिर हो गई है? स्थिर हो जाने का कुल मतलब इतना है--स्थिर हो जाने का मतलब जड़ हो जाना नहीं है--स्थिर हो जाने का मतलब कुल इतना है कि प्रज्ञा उपलब्ध हो गई है, और जब जो प्रज्ञा करवाती है वह करता है, अब अपनी तरफ से कुछ भी नहीं करता है। अब न दोष उसके हैं, न गुण उसके हैं। अब न आदर उसका है, न अनादर उसका है। अब न तो वह यह कहता है कि जो मैं कर रहा हूं ठीक कर रहा हूं, न वह यह कहता है कि जो मैं कर रहा हूं वह गैर-ठीक कर रहा हूं। अब न तो वह पछताता, अब न वह प्रायश्चित्त करता--अब वह पीछे लौट कर ही नहीं देखता, अब जो होता है, होता है; और वह उसको होने देता है। अब उसके पास कोई भी इस होने देने के ऊपर खड़ा हुआ नहीं है जो रोके और निर्णय करे कि यह करो और यह मत करो। वह निर्विकल्प हुआ, वह "च्वॉइसलेस' हुआ।
इसलिए अगर कभी आप पाएं कि मैं बहुत गर्म मालूम पड़ता हूं, तो पा सकते हैं। कोई उपाय नहीं है। गर्मी आती है तो मैं गर्म होता हूं, ठंडी आती है तो मैं ठंडा हो जाता हूं। और मैंने अपनी तरफ से होना छोड़ दिया--मैंने जिद्द छोड़ दी कि मैं यह होऊं और यह न होऊं। इसको ही मैं कहता हूं कि प्रज्ञा की स्थिरता है।
ओशो रजनीश
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