श्री कृष्ण स्मृति भाग 75

 "मेरा प्रश्न ऐसा है भगवान श्री, कि सुदामा की दरिद्रता को कृष्ण ने दूर किया, पर उसे देखकर क्या कृष्ण को समाज में जिस कारण से दरिद्रता है, उसका खयाल न आया और उन्होंने समाज की अर्थ-व्यवस्था को बदलने के बारे में न सोचा? महावीर और बुद्ध न सोचते तो एक बात थी, पर कृष्ण जैसा व्यापक व्यक्ति, जो लौकिक विषयों को भी पूरा महत्व देता है, क्यों नहीं सोचता है?

धार्मिक पुरुषों ने शायद सोचा ही नहीं। और जिसने सोचा, कार्ल माक्र्स ने, वह धार्मिक न रहा। आप अपने बारे में भी बतलाएं कि आप चूंकि धर्म और आत्मा से संबद्ध हैं, आप अर्थ-व्यवस्था के बारे में कुछ सोचेंगे? और किस रूप में उसे क्रियान्वित किया जा सकेगा?'


यह सवाल बहुत बार उठता रहा है। और यह इल्जाम बुद्ध पर, कृष्ण पर, महावीर पर, जीसस पर, मुहम्मद पर, सब पर लगाया जा सकता है कि उन्होंने अर्थ-व्यवस्था के संबंध में क्यों न सोचा? बहुत से कारण हैं। वे सोच ही नहीं सकते थे। सोचने का उपाय ही नहीं था। सोचने की परिस्थिति ही नहीं थी। हम सोच पाते हैं, क्योंकि परिस्थिति पैदा हो गई। माक्र्स सोच पाया, क्योंकि माक्र्स के पहले एक "इंडस्ट्रियल रेवल्यूशन', एक औद्योगिक क्रांति हो गई। औद्योगिक क्रांति के पूर्व जगत में कोई भी अर्थ-व्यवस्था को रूपांतरण करने की नहीं सोच सकता। उपाय नहीं है। इसके कारण समझ लेने जरूरी हैं।

औद्योगिक क्रांति के पूर्व जो जगत था, उस जगत के पास आदमी का श्रम ही एकमात्र उत्पादक स्रोत था। और आदमी के श्रम से जितना पैदा हो सकता था, उसको किसी भी तरह बांटा जाए, उससे दरिद्रता नहीं मिट सकती थी। उससे दरिद्रता मिटने का उपाय ही नहीं था। दरिद्रता लाजिमी थी। विषमता भी नहीं मिट सकती थी। उसके भी कारण हैं। उसकी मैं बात करता हूं।

पहली बात, दरिद्रता नहीं मिट सकती थी। दरिद्रता मिटने के लिए जितनी संपत्ति चाहिए, उतनी समाज के पास संपत्ति न थी। हां, इतना ही हो सकता था कि कुछ लोग जो समृद्ध दिखाई पड़ते थे, वे मिटाए जो सकते थे। उनको भी दरिद्र बनाया जा सकता था। इतना हो सकता था। अगर हजार आदमी में एक आदमी के पास थोड़ी संपत्ति दिखाई पड़ती थी, तो उसको मिटाया जा सकता था। और नौ सौ निन्यानबे की जगह एक हजार आदमी दरिद्र हो सकते थे। मनुष्य अपने श्रम से जो संपत्ति पैदा करता है, उससे कभी दरिद्रता के "लेवल' के ऊपर नहीं जा सकता। उस दिन के बाद ही दरिद्रता मिटाने का विचार उठ सकता है जिस दिन से आदमी के श्रम की जगह यंत्र का श्रम संपत्ति पैदा करने लगे। उस दिन हम एक-एक आदमी की जगह लाख-लाख गुनी मशीनों का उपयोग कर पाते हैं। संपत्ति वृहत पैमाने पर पैदा होनी शुरू होती है और पहली दफे यह खयाल आना शुरू होता है कि अब दरिद्र रखने की कोई जरूरत न रही। उसकी ऐतिहासिक आवश्यकता समाप्त हो गई। इसलिए औद्योगिक क्रांति के बाद ही माक्र्स सोच पाया। अगर औद्योगिक क्रांति के बाद कृष्ण पैदा होते तो माक्र्स से बहुत ज्यादा साफ सोच पाते, जितना साफ माक्र्स नहीं सोच पाया। लेकिन कृष्ण औद्योगिक क्रांति के पहले हैं। कोई माक्र्स से भी पूछे कि आप भी औद्योगिक क्रांति के पहले क्यों न पैदा हो गए!

ऐसा नहीं है कि मनुष्य के पास चिंतन नहीं था और ऐसा भी नहीं है कि मनुष्य को दरिद्रता के मिटाने का खयाल पैदा नहीं हुआ। हुआ। बुद्ध को भी हुआ, महावीर को भी हुआ। लेकिन बुद्ध और महावीर ने दरिद्रता को मिटाने का उपाय किया? मालूम है, खुद दरिद्र हो गए। और कोई उपाय नहीं था। अगर दरिद्रता पीड़ा देती है, तो इसके सिवाय कोई उपाय नहीं कि तुम भी दरिद्र होकर खड़े हो जाओ दरिद्रों के साथ, और क्या करोगे! तो बुद्ध और महावीर ने अपनी संपत्ति छोड़ दी। महावीर ने तो अपनी संपत्ति बांट भी दी। सारी संपत्ति महावीर ने बांट दी। जो उनके हिस्से में पड़ी थी, वह सब बांटकर वह चले गए। लेकिन उससे दरिद्रता नहीं मिटी। दरिद्रता के मिटने से उसका कोई संबंध नहीं है। यह एक नैतिक उपाय तो हुआ। महावीर ने अपने मन की पीड़ा तो मिटा ली, लेकिन दरिद्रता न मिटी।

इसलिए पुराने जगत के समस्त विचारकों ने अपरिग्रह पर जोर दिया है, परिग्रह मत करो। इस पर वह जोर नहीं दे सकते कि कोई दरिद्र न रहे, वह इस पर ही जोर दे सकते हैं कि कोई संपत्तिशाली न रहे। इसके सिवा कोई उपाय नहीं है। यानी उनके पास जो मौजूदा स्थिति थी, उस मौजूदा स्थिति में एक ही उपाय था कि कोई अमीर न रहे। इसलिए सारे पुराने धर्म अपरिग्रह पर, नॉन पजेसन' पर, चीजों के त्याग पर, धन के संग्रह के विरोध में खड़े हैं। वे कहते हैं, बांट दो सब जो है। लेकिन यह भी वे जानते हैं कि बंटने से यह धनी आदमी तो अपरिग्रही हो जाता है, लेकिन जिसके पास नहीं है उनके पास कुछ भी नहीं पहुंचता। यह उपाय ऐसा है, जैसे कोई चम्मच रंग लेकर और समुद्र को रंगने चला जाए। एक बुद्ध बंट जाते हैं, खतम! एक महावीर बंट जाते हैं, खतम! वह जो विराट दरिद्रता का सागर है, वह उनके चम्मच को घोलकर पी जाता है। उससे कुछ पता नहीं चलता, उससे कहीं कोई परिणाम नहीं होता।

नहीं सोचा जा सकता था, इसलिए नहीं सोचा गया।

लेकिन, दूसरा सवाल है कि विषमता तो मिटाई जा सकती थी। दरिद्रता नहीं मिटाई जा सकती थी, विषमता मिटाई जा सकती थी, लेकिन विषमता मिटाने का खयाल क्यों पैदा न हुआ?

उसका भी कारण है। इसे थोड़ा ऐसे समझना पड़ेगा। विषमता मिटाने का खयाल तभी पैदा होता है, जब बहुत दूर तक हमारे बीच समानता आनी शुरू हो जाती है। उसके पहले पैदा नहीं होता। असल में विषमता है, यह हमें तभी पता चलता है जब समाज "क्लासेज' में बंटा हुआ नहीं रह जाता, बल्कि सीढ़ियों में बंट जाता है। जैसे एक मेहतरानी है एक गांव की। अगर गांव की महारानी हीरों के हार पहनकर निकले तो मेहतरानी को कोई भी तकलीफ नहीं होती। होती ही नहीं। कोई ईर्ष्या नहीं पकड़ती। क्योंकि फासला इतना बड़ा है कि ईर्ष्या पकड़ने का उपाय भी नहीं। "डिस्टेंस' बहुत बड़ा है। कहां मेहतरानी और कहां महारानी! इन दोनों के बीच इतना अंतराल है कि मेहतरानी यह सोच भी तो नहीं सकती कि वह महारानी से इर्ष्या करे। लेकिन उसकी पड़ोस की मेहतरानी अगर एक कंकड़-पत्थर का हार भी डालकर निकल जाए, तो उसे ईर्ष्या शुरू हो जाती है। क्यों?  पड़ोस की मेहतरानी जहां है, वहां वह भी हो सकती है। इसमें कोई असंभावना नहीं है। इसलिए इर्ष्या पकड़ती है। जब तक समाज में ऐसी स्थिति थी कि नीचे फैला हुआ दरिद्रों का विशाल जगत था, और ठेठ आसमान में एकाध आदमी समृद्ध था, तब तक फासले इतने ज्यादा थे कि समानता की धारणा पैदा नहीं हो सकती थी। हम समानता का दावा नहीं कर सकते थे। इसलिए इसका ही उपाय सूझता था कि जो जैसा है, वैसा है।

लेकिन औद्योगिक क्रांति के बाद फासले टूटने शुरू हुए और बीच में सीढ़ियां बन गईं। आज शिखर पर कोई रॉकफेलर होता है, नीचे कोई मजदूर होता है, लेकिन यह विभाजन दो वर्गों का विभाजन नहीं है, इसमें सीढ़ियों का विभाजन है, पायरी हैं। हर एक के ऊपर कोई है, उसके ऊपर कोई है, उसके ऊपर कोई है, और पूरा समाज लंबी सीढ़ी बन गया है। इसमें बीच की सीढ़ियां सब जुड़ गई हैं। इन बीच की सीढ़ियों की वजह से प्रत्येक को यह खयाल आता है कि मुझसे जो आगे है, मैं उसके समान क्यों नहीं हो सकता! प्रत्येक को यह खयाल आता है कि मुझसे जो आगे है, मैं उसके समान क्यों नहीं हो सकता!

समानता का खयाल वर्ग-विभक्त समाज में नहीं पैदा होता, सीढ़ी-विभक्त समाज में पैदा होता है। समानता की धारणा ही पैदा नहीं होती। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि बुद्ध, महावीर या कृष्ण ने समानता की बात नहीं की। जिस समानता की बात उस समय संभव थी, उन्होंने की है। वह आत्मिक समानता की बात है। उस दिन वही संभव था। एक आध्यात्मिक "इक्वेलिटी' की बात संभव थी कि सबके भीतर जो प्राण हैं, जो आत्मा है, वह समान है। लेकिन सबके बाहर जो सुविधा-असुविधा है--धन है, कपड़े हैं, मकान है, उनके समान होने का  कोई खयाल पैदा नहीं हो सकता था। इसका कोई रास्ता नहीं था। आज हम सोच सकते हैं। लेकिन एक उदाहरण से आपको मैं खयाल दिलाऊं। बहुत-सी बातें हैं जो आज हम नहीं सोच सकते, जो कल आने वाली पीढ़ियां हम पर इल्जाम लगाएंगी। आज हम नहीं सोच सकते। उदाहरण के लिए एकाध बात आपसे कहूं जो आने वाली पीढ़ियां आप पर इल्जाम लगाएंगी--

आज आप यह सोच ही नहीं सकते, आज आप हर आदमी को मजदूरी देते हैं, जब वह काम करता है। आने वाली पीढ़ियां आपसे कहेंगी क्या उस वक्त कोई भी एक विचारक पैदा न हुआ, जो कहता कि खाने-पीने के लिए काम की जबर्दस्त शर्त लगानी अनैतिक है? जल्दी वक्त आ जाएगा। जल्दी वक्त आ जाएगा जब सारी "आटोमेटिक' मशीनें उत्पादन करने लगेंगी, तो बहुत सवाल आ जाएगा कि अब काम जरूरी नहीं रहा। प्रत्येक आदमी को बिना काम के मिल जाना चाहिए। और जो लोग काम की भी मांग करेंगे, उनको थोड़ा कम मिलेगा, बजाय उनके जो काम की मांग नहीं करेंगे। क्योंकि वे दो-दो चीजें इकट्ठी मांगते हैं--काम भी मांगते हैं, तनख्वाह भी मांगते हैं।

आज अमरीका का अर्थशास्त्री निरंतर चिंतित है कि वह क्या, भविष्य के लिए क्या करे? हमारी पुरानी आदत यह है कि जो काम करे, उसे मिलना चाहिए। भविष्य की संभावना यह है--सिर्फ पच्चीसत्तीस साल के बाद--कि जो काम करे, काम तो दे नहीं सकते हम सबका तो जो न काम करे उसे ज्यादा दिया जाए--देना तो पड़ेगा ही उसको, क्योंकि अगर फैक्ट्री में आप कारें भी बना लेंगे और खरीदने के लिए लोगों के पास पैसा नहीं होगा, तो आप कारों को बनाकर क्या करेंगे? फैक्ट्री पूरी-की-पूरी आटोमेटिक हो जाएगी, जहां लाख आदमी काम करते थे, वहां एक आदमी बटन दबा कर काम कर देगा, तो वह जो लाख आदमी बाहर चले गए, अगर उनको कुछ भी न दें आप, तो यह फैक्ट्री की कारें कौन खरीदेगा? इन कारों को खरीदने के लिए देना तो पड़ेगा ही। सारी चीजों को खरीदने के लिए उनको देना पड़ेगा। वे बिना काम से रहने को राजी हैं--जो कि बड़ा कठिन पड़ेगा--अभी हमको पता नहीं है कि बिना काम से राजी रहना इतना कठिन पड़ेगा जितना सख्त मजदूरी कठिन नहीं पड़ी। तो भविष्य में कोई जरूर कहेगा कि कैसे लोग थे, न कृष्ण, न महावीर, न माक्र्स, कोई भी यह नहीं सोच सका कि आदमी से काम लेना बड़ी अनैतिक अमानवीयता है। क्योंकि उसको भूख लगी है, इसलिए आप काम लेकर रोटी देते हैं। भूख लगी है तो रोटी मिलनी चाहिए। काम का क्या सवाल है! लेकिन यह अभी हम नहीं सोच सकते। अभी हमें सोचना बहुत कठिन पड़ेगा कि यह क्या बात है! अभी तो काम भी मिल जाए तो भी रोटी नहीं मिलती, तो बिना काम के रोटी तो बहुत मुश्किल है। हर युग की अपनी व्यवस्था, अपनी संभावना के बीच चिंतन के फूल खिलते हैं।

कृष्ण के वक्त में विषमता का कोई दंश नहीं है। "अनइक्वेलिटी' की कोई पीड़ा नहीं है। इसलिए "इक्वालिटी' का, समानता का कोई नारा नहीं है। और गरीब पीड़ित नहीं है इस बात से कि वह गरीब है। अब देखें, मजे की बात है कि प्लेटो जैसा विचारक, जो कि समानता का बड़ा पुरस्कर्ता है, वह भी गुलामों को मिटाया जाए इसका खयाल ही उसे नहीं आता। बल्कि वह कहता है, गुलाम तो रहेंगे ही। क्योंकि यूनान में गुलाम सहज बात थी। बल्कि प्लेटो यह कहता है कि अगर गुलाम न रहेंगे तो समानता कैसे रहेगी?

ओशो रजनीश



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