श्री कृष्ण स्मृति भाग 78

 "द्रौपदी वाले पहले प्रश्न में, कृष्ण द्रौपदी के प्रति बहुत अनुराग है, इसकी चर्चा नहीं हुई। इस पर कुछ सुनना चाहेंगे।'


द्रौपदी ऐसी है कि कृष्ण का अनुराग उस पर हो। ऐसे तो कृष्ण का अनुराग सब पर है। लेकिन द्रौपदी के पास पात्र बड़ा है। सागर के तट पर हम जाएं, तो अपने-अपने पात्र के बराबर भर ले आते हैं। सागर तो बहुत बड़ा है। और कभी सागर कहता नहीं कि कितना बड़ा पात्र लेकर मेरे पास तुम आओ। जितना बड़ा पात्र हो, उतना लेकर हम जाते हैं।

द्रौपदी के पास बड़े-से-बड़ा पात्र है और कृष्ण का बहुत अनुराग उसे उपलब्ध हुआ है। और वह अनुराग और वह प्रेम बड़ा गहरा, बड़ा वायवी, जिसको कहें "प्लेटॅनिक'--इतना गहरा है कि कृष्ण और द्रौपदी के बीच किसी तरह की शारीरिक निकटता का कोई आग्रह नहीं है। लेकिन जितने कृष्ण द्रौपदी के काम पड़ते हैं, उतने किसी के काम नहीं पड़ते हैं। और जब भी वक्त आता है, तब वे तत्काल मौजूद हो जाते हैं। जैसे कि पीछे हम बात कर रहे थे कि उसे नग्न किया जा रहा है, उघाड़ा जा रहा है, तब वे मौजूद हो गए हैं।

एक तो प्रेम है जो मुखर होता है, जो बोलता है और एक प्रेम है जो मौन होता है, बोलता नहीं है। और ध्यान रहे, बोले जाने वाला प्रेम बहुत गहरा नहीं हो पाता, छिछला हो जाता है। वाणी में कोई बहुत गहराई नहीं है। मौन रहे जाने वाला प्रेम बहुत गहरा हो जाता है। मौन की बड़ी गहराई है। द्रौपदी का प्रेम बड़ा मौन है। बहुत मौके पर दिखाई पड़ता है, लेकिन प्रगट और आक्रामक नहीं है। और मौन जितने दूर तक प्रभावित करता है प्रेमी को, उतना कोई और प्रेम प्रभावित नहीं करता है। कृष्ण काम तो पड़ जाते हैं द्रौपदी के जगह-जगह, लेकिन कृष्ण का यह प्रेम और द्रौपदी का यह कृष्ण के प्रति लगाव कहीं बहुत स्थूल घटनाओं में रूपांतरित नहीं होता। असल में स्थूल में रूपांतरित होने का आग्रह ही तब होता है जब हम सूक्ष्म में नहीं मिल पाते हैं। अन्यथा प्रेम दूर भी रह सकता है, कोसों दूर रह सकता है। अन्यथा प्रेम समय में भी फासले पर हो सकता है। अन्यथा ऐसा भी हो सकता है कि प्रेम कभी निवेदन भी न करे कि प्रेम है। इतना चुप भी हो सकता है।

लेकिन कृष्ण जैसे व्यक्ति को इतनी चुप्पी भी समझ में आ सकती है। सभी को समझ में नहीं आएगी। इसलिए प्रेम न भी हो हमारे भीतर, तो भी वाणी से प्रगट करने से काम चलता है। क्योंकि वाणी समझ में आती है, प्रेम तो समझ में आता नहीं। अभी प्रेम पर किताबें लिखी जाती हैं। मनोवैज्ञानिक प्रेम पर किताबें लिखते हैं। तो वे उसमें इस बात पर बहुत जोर देते हैं कि चाहे प्रेम हो या न हो, चाहे प्रेम का क्षण हो या न हो, लेकिन प्रगट जरूर करते रहो। पति जब सांझ को घर लौटे, तो चाहे वह थका-मांदा हो, चाहे वह कितना ही परेशान हो, मनोवैज्ञानिक कहते हैं उसे आकर एकदम पत्नी को देखकर खिल जाना चाहिए। चाहे यह अभिनय करना पड़े। एकदम उसे कुछ ऐसी बातें कहनी चाहिए जो प्रेमपूर्ण हैं। जब वह सुबह जाने लगे तो उसे बड़ी पीड़ा दर्शानी चाहिए कि पत्नी से कुछ घंटों के लिए छूट रहा है। चाहे उसे बड़ा सुख मिल रहा हो। यह मनोवैज्ञानिक ठीक कहते हैं। वह इसलिए ठीक कहते हैं कि हम शब्दों पर जी रहे हैं। यहां असली प्रेम का मतलब किसे है, प्रयोजन किसे है! हम शब्दों पर जीते हैं। एक आदमी ने आपका कुछ थोड़ा-सा काम किया और आप उसे सिर झुका कर कर धन्यवाद दे देते हैं। आपने धन्यवाद अनुभव किया या नहीं किया, यह सवाल नहीं है बड़ा। लेकिन आप सिर झुका कर धन्यवाद दे देते हैं। उस आदमी को तो धन्यवाद मिल जाता है, आपने दिया या नहीं, यह सवाल नहीं। क्योंकि शब्दों में हम जीते हैं। लेकिन अगर आपने धन्यवाद न दिया, चाहे भीतर अनुभव भी किया, तो भी वह आदमी दुखी होकर चला जाता है कि कैसे पागल आदमी हैं, मैंने इतना काम किया, धन्यवाद तक न दिया।

हम मौन को नहीं समझ पाते, इसलिए वाणी में ही हमारा सब चलता है। लेकिन ध्यान रहे, यह कभी खयाल में आया हो, न आया हो,, जब हम किसी के प्रति बहुत प्रेम में भरे होते हैं तो वाणी एकदम निरस्त हो जाती है। जब हम किसी के प्रति बहुत प्रेम से भरे होते हैं तो अचानक पाते हैं अब बोलने को कुछ भी नहीं बचा, कहने को कुछ भी नहीं बचा। प्रेमी बहुत तय करते हैं कि जब अपने प्रेमपात्रों को मिलेंगे तो यह कहेंगे, यह कहेंगे, यह कहेंगे और जब मिलते हैं तब अचानक पाते हैं कि कुछ याद नहीं पड़ता क्या कहना था! सब चुप हो गया है, सब मौन हो गया है। बीच में मौन खड़ा हो जाता है।

द्रौपदी और कृष्ण का प्रेम बड़ा मौन है। वह और मुखर प्रेमों की तरह नहीं है। लेकिन कृष्ण पर उसकी...उसकी गहरी....उसकी गहरी संवेदना कृष्ण पर हुई है। इसलिए जितने काम वह द्रौपदी के पड़े उतने वह किसी के काम पड़े नहीं हैं। और पूरी महाभारत की कथा में कृष्ण छाया की तरह द्रौपदी की रक्षा करते रहे हैं। वह बड़ा दूर का नाता है। उसमें बहुत साफ-साफ बीच में घटनाएं नहीं दिखाई पड़ती हैं। लेकिन बहुत छाया-संबंध है। वह बहुत चुपचाप "इंटिमेटली' चलता रहता है।

ओशो रजनीश



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