श्री कृष्ण स्मृति भाग 79
"पश्चिम के सागरत्तट की सुरक्षा तथा बाहरी आक्रमण से बचने के लिए कृष्ण ने मथुरा का त्याग और द्वारका का वास किया था। सुना है कि मथुरा के लोग भगवान कृष्ण को आपत्ति समझते थे, क्योंकि उनके कारण ही जरासंध आदि राजा मथुरा पर आक्रमण करने पर तुले थे। कृष्ण को भी जरासंध हरा सका, यह उनके चरित्र के मानवीय अंश का छोर नहीं है क्या?'
जीवन में हार और जीत कपड़े के आड़े और तिरछे तानों-बानों की तरह होती है। अकेली जीत से कोई जीवन नहीं बनता। खड़े ताने रह जाते हैं, आड़े ताने नहीं होते। अकेली हार से कोई जीवन नहीं बनता, आड़े ताने रह जाते हैं, खड़े ताने नहीं होते। जीवन के कपड़े की जो बुनावट है वह हार और जीत के इकट्ठे साथ, सफलता और असफलता के इकट्ठे साथ, गलत और सही के इकट्ठे साथ से बुना जाता है। जीवन है, तो वह दोनों हैं।
इसलिए असली सवाल यह नहीं है कि कब कृष्ण हार जाते हैं किससे और कब जीत जाते हैं। असली सवाल जो है वह यह है कि टोटल जिंदगी का परिणाम जीत है कि हार है। सभी की जिंदगी के लिए। यह सवाल नहीं है कि आप कब हार गए थे और कब जीत गए थे; क्योंकि हो सकता है, आपकी हार जीत के लिए सीढ़ी बनी हो। और यह भी हो सकता है कि आपकी जीत सिर्फ एक बड़ी हार में कूदने के लिए खाई बन गई हो। जिंदगी के ताने-बाने विराट, जटिल हैं। यहां सब हारें हारें नहीं हैं, यहां सब जीतें जीतें नहीं हैं। इसलिए आखिरी जो निर्णय है वह यह नहीं होता है कि आदमी कब असफल हुआ और कब सफल हुआ; कब हारा, कब जीता? असली सवाल यह है कि उसकी पूरी जिंदगी की कथा का सार निचोड़ जीत है कि हार?
इसलिए बहुत स्वाभाविक है कि कृष्ण की जिंदगी में भी कुछ हार के क्षण हों। जिंदगी है तो होंगे। अगर भगवान को भी जीना हो, तो भी उसे आदमी की तरह ही जीना होगा। जिंदगी में तो उसे आदमी की तरह ही खड़ा होना होगा। और जिंदगी के सुख-दुख उसे एक-साथ स्वीकार करने पड़ेंगे। अगर जो आदमी हारने को तैयार नहीं है, उसे पक्का कर लेना चाहिए कि उसे जीतने का खयाल छोड़ देना चाहिए।
कृष्ण की जिंदगी में दोनों हैं। इसलिए जिंदगी मेरे लिए मानवीय किसी हीनता के अर्थ में नहीं हो जाती, बल्कि गरिमा के अर्थ में हो जाती है। यानी कृष्ण हार भी सकते हैं, इतने अदभुत आदमी हैं। जीत की जिद्द नहीं है। जीतेंगे ही, जीतकर ही रहेंगे, जीतते ही रहेंगे, ऐसा अभिमान भी नहीं है। हार भी आ सकती है। भागना भी आ सकता है। कहीं पलायन भी हो सकता है, कहीं से जगह भी छोड़नी पड़ सकती है। यह सब स्वीकार है। जिंदगी के सब ताने-बाने, जैसे हैं वे स्वीकृत हैं। इसमें चुनाव नहीं है कि हम यही करके रहेंगे। बस इतना ही हम राजी हैं, आगे हम राजी नहीं हैं। तो कृष्ण की बहुत जगह जो "हयूमनिटी' है, वह कई जगह बुद्ध और महावीर की "डिविनिटी' के सामने छोटी मालूम पड़ेगी। बुद्ध और महावीर एकदम "डिवाइन' मालूम पड़ते हैं, एकदम दिव्य मालूम पड़ते हैं, उनमें मानवीयता बिलकुल नहीं मालूम पड़ती। लेकिन ध्यान रहे, बहुत दिव्यता अमानवीयता भी हो जाती है। बहुत दिव्यता में, वह जो मानवीय नाजुकता है, वह जो "डेलिकेसी' है, वह खो जाती है और चीजें सख्त हो जाती हैं।
कृष्ण सख्त होने को राजी नहीं हैं। इसलिए जिनको हम मानवीय कमजोरियां कहते हैं, वे कृष्ण में सब-की-सब स्वीकृत हैं। कहावत है अंग्रेजी में, "टु एर इज हयूमन', भूल करना मानवीय है। लेकिन इससे उलटी कहावत नहीं है, "नेवर टु एर इज इनहयूमन'। पर वह भी सच है। कभी भी भूल न करना बड़ा अमानवीय हो जाना है। पर भूल को भूल की तरह लेने की जरूरत कृष्ण को नहीं मालूम पड़ती है। वह जिंदगी में आया हुआ हिस्सा है, वह उसे लिए चले जाते हैं।
और यह भी सच है कि उन्हें मथुरा छोड़ देनी पड़ी। कृष्ण जैसे व्यक्ति को बहुत जगहें छोड़नी पड़ सकती हैं। वे कई जगह उपद्रव के सिद्ध हो सकते हैं। कई जगह उन्हें सहने के लिए धीरे-धीरे असमर्थ हो सकती हैं। कई जगह आखिर में उनसे कह सकती हैं कि आपसे हम क्षमा चाहते हैं, आप हट जाएं--क्योंकि कृष्ण के साथ चलना और कृष्ण के साथ जीना और कृष्ण को समझना आसान नहीं है। तो वे हट जाते हैं। इस हटने में कोई उन्हें कठिनाई नहीं होती। वे ऐसे ही हट जाते हैं, क्योंकि वे पैर जमाकर कहीं भी खड़े नहीं हो गए हैं कि वहां होने का उन्होंने निश्चय कर रखा है। वे हट जाते हैं। हटने में वे बड़ी सरलता का उपयोग करते हैं, चुपचाप हट जाते हैं। फिर पीछे लौटकर भी नहीं देखते। इधर पीछे जो उन्हें प्रेम करते हैं, परेशान हैं, खबरों पर खबरें भेजते हैं, चिट्ठियों पर चिट्ठियां लिखते हैं, पता लगाते हैं कि वे याद भी करते हैं कि नहीं करते हैं, लेकिन वे दूसरी जगह पहुंच गए हैं। अब वे दूसरी जगह को याद करेंगे कि इस जगह को याद करेंगे! वे भूल गए हैं। वे जहां हैं, वहां पूरे हैं। इसलिए कठोर भी मालूम पड़ते हैं।
कृष्ण की जिंदगी एक बहाव है। हवाएं पूरब जाती हैं तो वे पूरब चले जाते हैं, हवाएं पश्चिम जाती हैं तो वे पश्चिम चले जाते हैं। कृष्ण का अपना आग्रह नहीं है कि मैं यहीं रहूंगा, ऐसा ही रहूंगा, ऐसा ही होने की मैंने कसम खा रखी है, ऐसा कुछ भी नहीं है। जिंदगी जहां ले जाती है, वे राजी हैं। और लाओत्से का एक वचन है, वह मैं कहूं आपको, लाओत्से कहता है, हवाओं की तरह हो जाओ। जब हवाएं पूरब जाएं तो पूरब, जब हवाएं पश्चिम जाएं तो पश्चिम, तुम आग्रह मत करो कि मैं यहां ही जाऊंगा।
एक छोटी-सी झेन कहानी है। एक नदी पर तीव्र पूर है। जोर का बहाव है--बाढ़ है आई हुई। पागल दौड़ती है नदी। और दो घास के छोटे-से तिनके उसमें बह रहे हैं। एक तिनके ने नदी की बाढ़ में अपने को आड़ा डाल रखा है और नदी से लड़ रहा है। कुछ फर्क नहीं पड़ रहा है नदी को। उसे पता भी नहीं है कि यह तिनका नदी से लड़ रहा है। लेकिन तिनका है कि मरा जा रहा है, तिनका है कि लड़े जा रहा है। लड़ रहा है, फिर भी बह तो रहा ही है। क्योंकि नदी बही जा रही है। कोई तिनके के लड़ने से नदी रुकती नहीं। दूसरे तिनके ने नदी में अपने को सीधा छोड़ दिया है, लंबाई में। और वह बड़ा आनंदित है और बड़ा नाच रहा है, क्योंकि वह यह सोच रहा है कि नदी को बहने का मैं रास्ता दे रहा हूं। नदी मेरे सहारे बही जा रही है। नदी को कोई फर्क नहीं पड़ता। नदी को उन दोनों तिनकों का भी पता नहीं है, लेकिन उन तिनकों को बहुत फर्क पड़ता है।
जिंदगी में दो ही तरह के लोग हैं। आग्रहशील--ऐसे ही होंगे, यही होंगे, यही करेंगे, ऐसे लोग उस तिनके की तरह हैं जो नदी में अपने को आड़ा डाल देते हैं। इससे नदी को कोई फर्क नहीं पड़ता, जीवन की धारा चली जाती है। वे आड़े ही बहते रहते हैं, लेकिन कष्ट बड़ा भोगते हैं। ऐसे भी लोग हैं जो जिंदगी में नदी की धार में अपने को सीधा लंबा छोड़ देते हैं। वे कहते हैं कि हम साथ-साथ हैं। हम तुम्हें साथ ही दे रहे हैं! नदी, बहो! हमारे साथ ही बहो! वे बड़े आनंदित होते हैं और नाच पाते हैं। कृष्ण के ओंठों पर बांसुरी संभव हो सकी, क्योंकि वह लंबी धारा में अपने को छोड़े हुए आदमी हैं। जिंदगी की धार के साथ वह एक हैं। आड़े नहीं हैं, नहीं तो बांसुरी मुश्किल थी। महावीर के ओंठ पर बांसुरी नहीं रख सकते आप। एकदम फेंक देंगे कि क्या पागलपन कर रहे हो! कृष्ण के ओंठ पर बांसुरी रखी जा सकती है। यह आदमी बांसुरी बजा सकता है। उसका कुल कारण इतना ही है कि नदी की, जीवन की धारा से कोई ऐसा संघर्ष नहीं है; नदी जहां ले जाती है, जाने को राजी है। अगर मथुरा से नदी बह गई, तो द्वारका में बहेगी, हर्ज क्या है! अगर मथुरा के घाट से छूट गया सब तो द्वारका में घाट बन जाएगा, हर्ज क्या है? अनाग्रहशील व्यक्तित्व का वह लक्षण है।
ओशो रजनीश
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