श्री कृष्ण स्मृति भाग 80

 "भगवान श्री, कालयवन मानता है कि कृष्ण भागते हैं, मगर कृष्ण भगाते हैं उसे और ले जाते हैं उस गुफा में जहां मुचकुंद सोया हुआ है। मुचकुंद जागता है और उसकी दृष्टि से, पुराणकार कहते हैं, कालयवन जल जाता है। वह क्या तात्पर्य रखता है?'


इन सारे शब्दों के प्रतीक अर्थ हैं। यह कृष्ण की कथा में बहुत कुछ जुड़ा है। बहुत कुछ सिर्फ प्रतीक है, "मेटाफर' है। बहुत कुछ किन्हीं घटनाओं से संबंधित है। बहुत कुछ किसी "फिलासॅफी', किसी "मेटाफिजिक्स' से संबंधित है, यह सब जुड़ा है। कृष्ण किसी को भगाते हैं, ऐसा हमें दिखाई पड़ सकता है। जो भाग रहा है, उसको भी दिखाई पड़ सकता है कि मुझे भगा रहे हैं। लेकिन जहां तक मेरी समझ है, कृष्ण जैसा व्यक्ति किसी को भगाता नहीं, भागने की घटना घट सकती है। स्थिति ऐसी हो सकती है कि भागना किसी के लिए अनिवार्य हो जाए और कृष्ण को पीछा करना अनिवार्य हो जाए। अब इसमें बड़ा तय करना मुश्किल है।

मैंने सुना है कि एक आदमी सुबह एक गाय के गले में रस्सी बांधकर ले जा रहा है। और रास्ते के लोगों में से कोई एक फकीर ने, एक सूफी फकीर ने उससे पूछा है कि तुम गाय से बंधे हो कि गाय तुमसे बंधी है? उस आदमी ने कहा, पागल हो गए हो! मैं गाय को बांधे हुए हूं। मैं क्यों गाय से बंधा होने लगा? तो उस फकीर ने पूछा, फिर मैं तुमसे एक काम कहता हूं, अगर गाय छोड़ दी जाए और भागे, तो तुम गाय के पीछे भागोगे कि गाय तुम्हारे पीछे भागेगी? उस आदमी ने कहा, मुझे गाय के पीछे भागना पड़ेगा। तो उस फकीर ने कहा, फिर बंधा कौन है किससे?

असल में बांधना हमेशा दोतरफ होता है। जो भगा रहा है, वह कृष्ण को भगा रहा है अपने पीछे कि कृष्ण भागकर उसको आगे भगा रहे हैं, इसको एक हिस्से में तोड़कर तय करना मुश्किल हो जाएगा। इतना ही हम कह सकते हैं कि भागना घटित हो रहा है। उसमें एक आगे है और एक पीछे है। हां, इसमें कौन कहां है और कौन भगा रहा है, कौन भाग रहा है, ऐसा तय करना मुश्किल है। लेकिन कृष्ण के व्यक्तित्व को देखकर हम सोच सकते हैं कि वह चूंकि इतने सहज जीते हैं, इसलिए किसी चीज से उनका अगर संघर्ष भी है, तो वह संघर्ष भी किसी सहयोगता से ही फलित हुआ है। वह किसी सीधे बहाव से ही फलित हुआ है।

और जब कथा कहती है कि कालयवन जल जाता है, तो मेरा अपना मानना है कि यह काल के जल जाने का प्रतीक है। यह समय के जल जाने का प्रतीक है, यह "टाइम' के जल जाने का प्रतीक है। समय ही शायद हमारी जिंदगी की सबसे बड़ी दुविधा, तनाव और तकलीफ है। समय ही शायद हमारा संताप और "एंग्विश' है। समय ही शायद हमारा खिंचा हुआ होना है। समय जल जाए; इसे हम ऐसा कह सकते हैं कि काल ही शायद सिर्फ एकमात्र राक्षस है, काल ही है जिससे हमारा संघर्ष चल रहा है प्रतिफल और काल ही है जो हमें लील जाएगा और समाप्त कर देगा। लेकिन कभी-कभी कोई काल को लील जाता है और समाप्त कर देता है। कभी-कभी कोई समय को मिटा देता है और समय के अतीत हो जाता है। कभी-कभी समय जल जाता है।

किनसे जल जाता है? कौन समय को जला देते हैं?

आप कह रहे हैं न, कृष्ण आगे भाग रहे हैं। जो समय के पीछे भागेगा, वह समय को नहीं जला सकेगा। जो समय के आगे भागेगा, वह समय को ही जला सकता है। हां, समय के पीछे जो भागेगा, वह तो कभी समय को नहीं जला सकेगा। वह तो समय का अनुगामी होकर जियेगा। लेकिन जो समय के आगे भागने लगता है, वह समय को जला सकता है, क्योंकि समय सिर्फ छाया रह जाती है और वह समय के आगे हो जाता है। वह समय को जला सकता है। और सोये हुए मुचकुंद की आंख खुलने से जल जाता है।

मैंने कहा कि यह मेरे लिए प्रतीक-कथा है। असल में सोई हुई आंख के लिए ही समय है। खुली हुई आंखों के लिए समय नहीं है। हम जितने "अनअवेयर' हैं, हम जितने सोये हुए हैं और जितने "अनकांशस' हैं, उतना ही समय है। जिस दिन हम पूरे "कांशस' हैं और पूरे जागे हुए हैं और आंख खुली है, उसी दिन समय जल जाता है। किसी की भी आंख खुल जाए--और हम सभी गुफाओं में सोये हुए हैं, कृष्ण की मौजूदगी किसी गुफा में सोये हुए आदमी की आंख खोलने का कारण बन सकती है और कृष्ण के पीछे आता हुआ समय उसकी खुली आंख में भी जल सकता है। उसके लिए भी जल सकता है। कृष्ण के लिए तो मैं मानता हूं, समय नहीं है, मुचकुंद के लिए रहा होगा। वह जल सकता है।

इन प्रतीकों को अगर हम कभी जीवन-सत्यों की तरफ शोध में लगाएं, तो बड़ी आश्चर्यजनक अनुभूतियां उपलब्ध होती हैं और बड़ी आश्चर्यजनक अंतर्दृष्टियां उपलब्ध होती हैं, लेकिन हम इन सबको कथाएं मानकर बैठ गए हैं। और इन सबको कथाएं मानकर हम कहे चले जाते हैं। हम सब इनको ऐतिहासिक घटनाएं मानकर दोहराए चले जाते हैं। लेकिन ऐतिहासिक घटनाओं से ज्यादा कहीं मनुष्य के चित्त पर घटी हुई संभावनाओं, मनुष्य के चित्त में छिपी हुई "पोटेंशियलिटीज', मनुष्य के चित्त में होने वाली विराट लीला के ये हिस्से हैं। लेकिन इस भांति हमने कभी उन पर बहुत गौर से देखने की कोशिश नहीं की है। इससे बहुत अड़चन हुई है। और इसलिए कृष्ण जैसे व्यक्तित्व हमें धीरे-धीरे झूठे मालूम पड़ने लगते हैं। क्योंकि इतना सब कुछ उनमें मिल जाता है कि उसे तय करना मुश्किल हो जाता है कि यह कैसे संभव हो सकता है! कृष्ण जैसे व्यक्तियों की बड़ी "साइकोलॉजिकल कमेंट्री' की जरूरत है कि उनका पूरा-का-पूरा व्यक्तित्व मनस-शास्त्र के हिसाब से खोला जा सके।

और एक आखिरी बात आपसे कहूं, और वह यह कहना चाहूंगा कि पुराने आदमी के पास दूसरा उपाय न था। उसने जो मनस-सत्य भी जाने थे, उनको भी वह कथा के प्रतीकों में ही रख सकता था। उनमें ही उनको ढांक सकता था। उनमें ही उनको छिपा सकता था। उसके सिवा कोई मार्ग ही नहीं था उसके पास। लेकिन आज हमारे पास मार्ग है कि उनको खोज लें। जीसस ने एक जगह कहा है कि मैं तुममें ऐसी भाषा में कहता हूं कि जो समझ सकते हैं वे समझ लेंगे, और जो नहीं सकते, उन्हें कोई हानि न होगी। मैं तुमसे ऐसी भाषा में कहता हूं कि जो समझ सकते हैं, वे समझ लेंगे, और जो नहीं समझते, उन्हें कोई हानि न होगी, वे एक कहानी सुनने का मजा ले लेंगे।

हम सब कहानी सुनने का मजा लेते रहे हजारों साल तक। और धीरे-धीरे कुंजियां भी खो गईं जिनसे उन कहानियों को खोला जा सकता था और "डिकोड' किया जा सकता था। इधर जो बातें मैं कर रहा हूं, शायद उससे कुछ कुंजियां आपके खयाल में आएं और कुछ "डिकोड' आप कर सकें, कुछ कथा-प्रतीक खुल जाएं और जीवन के सत्य बन जाएं। तो सच में ही ऐसा उनका अर्थ है, इससे मुझे प्रयोजन नहीं है। आपके चित्त के लिए अगर वैसा अर्थ खुल जाए, तो वह आपके लिए हितकर हो सकता है, कल्याणकारी हो सकता है, मंगलदायी हो सकता है।

ओशो रजनीश



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