श्री कृष्ण स्मृति भाग 81
"भगवान श्री, कृष्ण का व्यक्तित्व, कृष्ण की बांसुरी, कृष्ण की राधा, कृष्ण के रास से लेकर सुदर्शन चक्र तक हमें बहुत कुछ जानने का मौका मिला। आज एक नया स्वरूप कृष्ण का आपकी वाणी से, आपके मुख से सुनने के लिए हम सब उत्सुक हैं। हम चाहेंगे कि आप कृष्ण से संबंधित उनकी साधना, उनका दर्शन, उनसे संबंधित उपासना पर अपने विचार प्रस्तुत करें, ताकि हम कृष्ण के दूसरे स्वरूप को भी जान सकें। कृष्ण ने तो केवल एक अर्जुन का मोह भंग किया था, यहां पर हम सब अर्जुन बैठे हुए हैं और सब मोह से ग्रसित हैं, उन सबका मोह भंग करने के एकमात्र अधिकारी आप हैं।
भगवान श्री, गत पांच दिनों में आपने मक्खनचोर और रासलीला करते हुए कृष्ण को विराट जीवन की पूर्णता का या योग की पूर्णता का केंद्र बताया। यदि सूक्ष्मता से आपकी दृष्टि को समझें और यह कहें कि रासलीला आदि जीवन के सत्य हैं और गीता के कृष्ण अथवा कृष्ण की गीता जीवन का निचोड़ है, जीवन का सार है--क्योंकि आपने भी कहा कि गीता प्रमाण है कृष्ण का, ऐसा नहीं कहा कि रासलीला प्रमाण है कृष्ण का। आपने कहा कि महावीर और बुद्ध एक आयामी, "वन डायमेंसनल' हैं और इसीलिए शायद पूर्ण नहीं हैं। और, यह भी आपने ही कहा है कि महावीर छठवें और सातवें को पाकर योग की पूर्णता को पाए हैं। तो क्या जीवन में रासलीला हुई, या कुछ उलटा-सीधा करना पड़ा, इसलिए कृष्ण पूर्ण ठहरे या कि गीता जैसे ग्रंथ को देने के कारण पूर्ण हुए?
एक बात और कि महावीर के जीवन में जीवन की पूर्णता न निखरी, तो क्या उनके पहले के तेईस तीर्थंकरों को भी उन बहु-आयामों का खयाल नहीं आया था?
यदि हम दमन को न लें, तो फिर संयम का क्या अर्थ है? दमन को छोड़ दें तो साधना में संयम की क्या स्थिति है?'
सबसे पहले पूर्णता का अर्थ समझ लेना चाहिए। पूर्णता भी एक-आयामी और बहु-आयामी हो सकती है। एक चित्रकार पूर्ण हो सकता है चित्रकला में, लेकिन इससे वह वैज्ञानिक की तरह पूर्ण नहीं हो जाता। एक वैज्ञानिक पूर्ण हो सकता है विज्ञान में, लेकिन इससे वह संगीतज्ञ की तरह पूर्ण नहीं हो जाता। तो पूर्णता का एक अर्थ तो "वन-डायमेंसनल' है। इसलिए मैं महावीर, बुद्ध या जीसस को पूर्ण कहता हूं एक-आयामी अर्थों में। कृष्ण को बहुत दूसरे अर्थों में पूर्ण कहता हूं, बहु-आयामी, "मल्टी-डायमेंसनल' अर्थों में। जीवन के जितने आयाम हैं, जीवन की जितनी दिशाएं हैं, उनमें से हम सारी दिशाओं का त्याग करके एक दिशा में पूर्ण हों, यह संभव है। इस तरह की पूर्णता भी परम सत्य तक ले जाती है। वह नदी भी सागर पहुंच जाती है, जो एक ही धारा बनाकर बहती है। वह नदी भी सागर पहुंच जाती है जो हजार धाराओं में टूटकर सागर की तरफ बहती है। सागर तक पहुंचने के लिए इस संबंध में कोई भेद नहीं है। महावीर भी सागर में पहुंच जाते हैं, बुद्ध भी और कृष्ण भी। लेकिन महावीर एक धारा की भांति पहुंचते हैं, कृष्ण अनंत धाराओं की भांति पहुंचते हैं।
इसलिए कृष्ण की पूर्णता बहु-आयामी है। वह एक-आयामी नहीं है, "मल्टी-डायमेंसनल' है। इससे कोई यह न समझ ले कि महावीर वहां नहीं पहुंच पाते, सातवें शरीर के पार, बिलकुल पहुंच जाते हैं। लेकिन कृष्ण बहुत-बहुत मार्गों से वहां पहुंचते हैं, और बिना किसी जीवन के तत्व का निषेध किए पहुंचते हैं। महावीर या बुद्ध निषेध किए बिना नहीं पहुंचते हैं। इसलिए महावीर और बुद्ध के जीवन में निषेध का, "निगेशन' का अनिवार्य तत्व है। कृष्ण के जीवन में निषेध का कोई तत्व नहीं है। कृष्ण का जीवन पूरी तरह "पाजिटिव', पूरी तरह विधायक है। महावीर कुछ छोड़कर पहुंचते हैं, कृष्ण सबको आत्मसात करके पहुंचते हैं।
इसलिए मैंने कृष्ण की पूर्णता को भिन्न कहा है। इससे कोई ऐसा न समझे कि महावीर अपूर्ण हैं। इतना ही समझे कि उनकी पूर्णता एक-आयामी है, कृष्ण की पूर्णता बहु-आयामी है। और भविष्य के मनुष्य के लिए एक-आयामी पूर्णता का बहुत अर्थ नहीं होगा। भविष्य के मनुष्य के लिए बहु-आयामी पूर्णता का ही अर्थ होगा। इसका एक और खयाल ले लेना जरूरी है कि जो व्यक्तित्व भी एक दिशा से पूर्ण होता है वह अपने जीवन में ही दूसरी दिशाओं का निषेध नहीं कर रहा है, उसके एक दिशा से पूर्ण होने के कारण दूसरी दिशाएं दूसरे लोगों के जीवन में भी निषिद्ध होती हैं। जो व्यक्ति अपने जीवन में सब दिशाओं से यात्रा करता है, उसके कारण विभिन्न दिशाओं से यात्रा करने वाले एक-आयामी सब तरह के लोगों को सहारा मिलता है। जैसे हम यह सोच ही नहीं सकते कि कोई चित्रकार या कोई मूर्तिकार या कोई कवि महावीर की चिंतना के आधार पर कभी ब्रह्म को उपलब्ध हो सकता है। यह हम सोच ही नहीं सकते। महावीर की साधना एक-आयामी उनके जीवन में ही नहीं बनेगी, जो उस साधना को समझेंगे उनके जीवन में भी शेष सारी दिशाओं का निषेध हो जाएगा। यह हम सोच ही नहीं सकते कि कोई नर्तक भी और ब्रह्म को उपलब्ध हो सकता है। महावीर के साथ नहीं सोच सकते हैं। कृष्ण के साथ सोच सकते हैं। एक नर्तक भी और सारी दिशाओं को छोड़ दे और सिर्फ नाचता ही चला जाए और नृत्य में डूबता चला जाए, तो उस क्षण को उपलब्ध हो सकता है जिस क्षण को महावीर ध्यान से उपलब्ध होते हैं। यह कृष्ण के साथ संभव है।
तो कृष्ण अपने जीवन से समस्त दिशाओं को भागवत-स्वरूप प्रदान कर देते हैं--समस्त दिशाओं को। समस्त दिशाएं कृष्ण के साथ पवित्र हो जाती हैं। महावीर के साथ सभी दिशाएं पवित्र नहीं होतीं। जिस दिशा से वे यात्रा करते हैं, वही दिशा पवित्र होती है। और उसके पवित्र होने के कारण अनिवार्य रूप से शेष अपवित्र हो जाती हैं। और उसके पवित्र होने के कारण अनिवार्य रूप से शेष अपवित्र हो जाती हैं। शेष का गहरा "कंडमनेशन' और निंदा अपने-आप हो जाता है। ऐसा महावीर के साथ ही नहीं होता है, बुद्ध के साथ भी होता है, क्राइस्ट के साथ भी होता है। मुहम्मद के साथ भी होता है। राम के साथ भी होता है। शंकर के साथ भी होता है।
कृष्ण एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जिसको हम कह सकें कि जिसने समस्त जीवन को, समस्त दिशाओं को पवित्रता प्रदान कर दी है। और किसी भी दिशा से गया हुआ व्यक्ति ब्रह्म तक पहुंच सकता है। इस अर्थों में वह "मल्टी-डायमेंसनल हैं। खुद के जीवन में ही नहीं, दूसरों के जीवन के लिए भी "मल्टी-डायमेंसनल' हैं। बांसुरी बजाकर भी कोई ब्रह्म को उपलब्ध हो सकता है, क्योंकि बांसुरी की भी अंतिम क्षण अवस्था समाधि की हो जाएगी। लेकिन महावीर या बुद्ध के साथ बांसुरी बजाकर कोई ब्रह्म को उपलब्ध नहीं हो सकता। ऐसी कोई संभावना उनके व्यक्तित्व में नहीं है जो बांसुरी को भी इतनी गरिमा दे दे, जितनी ध्यान और समाधि को है। इसका कोई उपाय नहीं है। मीरा उपलब्धि के मार्ग पर नहीं हो सकती, महावीर के हिसाब से। राग के ही मार्ग पर है। और राग कभी भी परमात्मा तक नहीं पहुंचा सकता, महावीर की दृष्टि में, वैराग्य ही पहुंचाएगा। कृष्ण के साथ विरागी भी पहुंच जाता है, रागी भी पहुंच जाता है। इस अर्थों में मैंने कहा कि कृष्ण की पूर्णता का कोई मुकाबला नहीं है, कोई उपमा नहीं है।
दूसरी बात पूछी गई है कि क्या तेईस तीर्थंकर, महावीर को भी छोड़ दें तो उनके पहले के तेईस तीर्थंकर, वे कोई भी पूर्णता को उपलब्ध नहीं हुए? वे सब पूर्णता को उपलब्ध हुए। लेकिन एक-आयामी पूर्णता को ही उपलब्ध हुए। और एक-आयामी पूर्णता के कारण ही जैन-विचार बहुत व्यापक नहीं हो सका। हो नहीं सकता। महावीर को मरे ढाई हजार वर्ष हो गए हैं, आज भी जैनियों की संख्या तीस-पैंतीस लाख से ज्यादा नहीं है। थोड़ा सोचने जैसा है कि महावीर जैसी प्रतिभा का आदमी जिस विचार को मिला हो--अकेला नहीं, और पीछे तेईस तीर्थंकरों का विराट दर्शन मिला हो--वह विचार तीस-पैंतीस लाख लोगों तक पहुंचा? अगर महावीर के जमाने में तीस-पैंतीस आदमी भी उनसे प्रभावित हो जाएं, तो इतने बच्चे पैदा हो जाएंगे। कारण क्या है कारण है। "वन-डायमेंसनल' है, बहु-आयामी नहीं है। बहुत दिशाओं को स्पर्श नहीं करता, एक ही दिशा को स्पर्श करता है। इसलिए बहुत विभिन्न तरह के लोगों को प्रभावित नहीं कर सकता। बहुत विभिन्न तरह के लोग उस आयाम में अपने को मौजूं नहीं पा सकते।
फिर बड़े मजे की बात यह है कि यह जो पच्चीस लाख जैन हैं, अगर इनकी तरफ भी हम ध्यान दें तो हम बहुत हैरानी में पड़ जाएंगे। यह भी महावीर के साथ इनमें से अनेक लोग वैसा व्यवहार कर रहे हैं जैसा व्यवहार कृष्ण के साथ तो उचित है, महावीर के साथ अनुचित है। महावीर के सामने आरती लेकर घुमा रहे हैं। कृष्ण के साथ चल सकता है। महावीर के साथ नहीं चल सकता। महावीर की भी भक्ति चल रही है! उसका मतलब यह है कि जैन घरों में जो पैदा हुए हैं, उनका चित्त भी उस आयाम में नहीं बैठता है। वह बहुत थोड़े-से लोगों का आयाम है। तो जैन घर में पैदा होने की वजह से आदमी जैन तो रहा चला जाएगा, लेकिन वह उस सबको सम्मिलित कर लेगा जो कि महावीर के आयाम का नहीं है। भक्ति आ गई है जैन में; उपासना आ गई है, प्रार्थना आ गई है, पूजा आ गई है, इनका कोई संबंध महावीर से नहीं है। यह सब महावीर के साथ अनाचार है। महावीर के व्यक्तित्व में इनके लिए कोई गुंजाइश नहीं है लेकिन वह जो जैन है, उसके व्यक्तित्व की तकलीफ है। उसके व्यक्तित्व में इसके बिना तृप्ति नहीं है। तो महावीर के साथ यह सब जोड़े चला जा रहा है।
इसलिए और दूसरी बात आपसे कहूं कि "वन-डायमेंसनल' जितने भी व्यक्तित्व हैं, इनके साथ निरंतर अनाचार होगा। सिर्फ "मल्टी-डायमेंसनल' व्यक्ति के साथ अनाचार आप नहीं कर सकते। क्योंकि आप कुछ भी करें, उसके लिए वह राजी हो सकता है। कृष्ण के साथ हजार तरह के लोग राजी हो सकते हैं, महावीर के साथ सिर्फ एक "पर्टिकुलर टाइप' राजी हो सकता है।
इस वजह से मैंने कहा कि वह जो चौबीस तीर्थंकर हैं वे सब एक रूप हैं, एक ही यात्रा पर हैं। उन सबकी एक ही दिशा है, एक ही उनकी साधना है। ऐसा नहीं है कि वे नहीं पहुंच जाते हैं, यह मैं नहीं कह रहा हूं, वे बिलकुल पहुंच जाते हैं। अंतिम क्षणों में ऐसा नहीं है कि जो कृष्ण को मिलता है वह उन्हें नहीं मिलता। वह उन्हें मिल जाता है। हजार धाराओं में नदी बहकर सागर पहुंचे कि एक धारा में पहुंचे, इससे क्या फर्क पड़ता है? सागर में पहुंचकर तो सब बात समाप्त हो जाती है। लेकिन एक धारा और एक मार्ग पर बहने वाली नदी सारी पृथ्वी को नहीं घेर सकती, यह समझना चाहिए। हजार धाराओं में बहने वाली नदी सारी पृथ्वी को भी घेर सकती, यह समझना चाहिए। हजार धाराओं में बहने वाली नदी सारी पृथ्वी को भी घेर सकती है। एक धारा में बहने वाली नदी के तट पर जो वृक्ष हैं उनको पानी मिल सकता है, हजार धाराओं में बहने वाली नदी हजार मार्गों पर जो वृक्ष हैं उनकी जड़ों को पानी दे पाती है। वह फर्क है। उस फर्क को इनकार नहीं किया जा सकता। उतने फर्क को ध्यान में रखना जरूरी है। बहु-आयामी से मैंने इतना ही कहना चाहा है।
तीसरी बात पूछी गई है कि दमन को छोड़ दें तो संयम का क्या अर्थ है?
साधारणतः वैराग्य की भाषा में संयम का अर्थ दमन ही है। वैराग्य की भाषा में संयम का अर्थ दमन ही है। इसलिए जैन शरीर-दमन शब्द का भी उपयोग करते हैं। शरीर को दबाना है, दमन करना है। लेकिन, कृष्ण की भाषा में संयम का अर्थ दमन नहीं हो सकता। क्योंकि कृष्ण किस हिसाब से संयम का अर्थ दमन कर सकते हैं? कृष्ण की भाषा में संयम का अर्थ बिलकुल और है। शब्द भी बड़ी दिक्कत देते हैं। क्योंकि शब्द तो एक ही होते हैं--चाहे कृष्ण के मुंह पर हों और चाहे महावीर के मुंह पर हों। संयम, शब्द एक ही है। लेकिन अर्थ बिलकुल भिन्न है। क्योंकि ओंठ भिन्न हैं और उनका प्रयोग करने वाला आदमी भिन्न है। और उसमें जो अर्थ है, उस व्यक्तित्व से आता है। शब्द में जो अर्थ है, वह "डिक्शनरी' से नहीं आता। "डिक्शनरी' से सिर्फ उनके लिए आता है जिनके पास कोई व्यक्तित्व नहीं है। जिनके पास व्यक्तित्व है, उनके लिए शब्द का अर्थ भीतर से आता है। कृष्ण के ओंठ पर संयम का क्या अर्थ है, यह महावीर को समझे बिना नहीं कहा जा सकता। महावीर के ओंठ पर संयम का क्या अर्थ है, यह महावीर को समझे बिना नहीं कहा जा सकता। संयम का अर्थ महावीर से निकलेगा, या कृष्ण से निकलेगा। अब कृष्ण को देखते हुए कहा जा सकता है कि अर्थ दमन नहीं हो सकता। क्योंकि अगर दुनिया में कोई भी आदमी, "अनसप्रेस्ड' आदमी हुआ है, तो वह कृष्ण।
तो संयम का क्या अर्थ होगा?
ऐसे मेरी समझ में, संयम का बहुत गहरा अर्थ दमन नहीं है। संयम शब्द बहुत अदभुत है। संयम का मेरे लिए अर्थ है, संतुलन, "बैलेंस'। संयम का मेरे लिए अर्थ है, न इस तरफ, न उस तरफ--बीच में, मध्य में। त्यागी असंयमी है--त्याग की तरफ, भोगी असंयमी है--भोग की तरफ। भोगी एक छोर छू रहा है, त्यागी दूसरा छोर छू रहा है। ये दो "एक्सट्रीम' हैं। संयम का अर्थ है, अन-अति, "एक्सट्रीम' नहीं, बीच में। कृष्ण के ओंठों पर संयम का अर्थ है, मध्य में। न त्याग, न भोग। या, त्यागपूर्ण भोग, या भोगपूर्ण त्याग। यही अर्थ हो सकता है संयम का कृष्ण के ओंठों पर। त्यागपूर्ण भोग, या भोगपूर्ण त्याग; या न त्याग न भोग--संयम का ऐसा अर्थ होगा। जो कहीं भी झुकता नहीं अति पर, वह व्यक्तित्व संयमित है।
एक आदमी है, धन के पीछे पागल है। बस इकट्ठा किए जाता है, तिजोड़ी भरे चला जाता है, यह असंयमी है। धन इसका साध्य हो गया, अति हो गई इसके जीवन की। एक दूसरा आदमी धन से पीठ करके भागता है। लौटकर नहीं देखता, भागता ही चला जाता है। और सदा डरा हुआ है कि कहीं धन न मिल जाए। यह भी असंयमी है। इसके लिए धन का त्याग वैसे ही साध्य बन गया जैसे किसी के लिए धन का इकट्ठा करना साध्य था। संयमी कौन है? कृष्ण के अर्थों में जनक जैसा आदमी संयमी है। अन-अति संयम है, "नॉन-एक्स्ट्रीमिटी' संयम है। मध्य में होना संयम है। भूखा मरना संयम नहीं है, ज्यादा खा लेना संयम नहीं है, सम्यक आहार संयम है। उपवास संयम नहीं है--भूख की तरफ असंयम है। ज्यादा खा लेना संयम नहीं है--भोग की तरफ असंयम है। सम्यक आहार--जितना जरूरी है बस उतना ही; न ज्यादा, न कम--संयम है। कृष्ण के ओंठों पर संयम का अर्थ "बैलेंस' है, संतुलन है, संगीत है। जरा ही यहां-वहां हटे कि कुआं और खाई हैं। और दो तरफ आदमी हट सकता है--राग की तरफ हट सकता है, विराग की तरफ हट सकता है। घड़ी का "पेंडुलम' हमने देखा है। वह बायें से हटता है तो सीधा दायें जाता है, बीच में रुकता नहीं। दायें से हटता है तो सीधा बायें जाता है, बीच में रुकता नहीं। और एक और बहुत मजे की बात है जो घड़ी के "पेंडुलम' से समझ लेनी चाहिए कि जब घड़ी का पेंडुलम बायें तरफ जाता है तो हमें दिखता है बायें तरफ जा रहा है, लेकिन बायें तरफ जाते समय पूरे समय दायें तरफ जाने का "मोमेंटम' इकट्ठा कर रहा है। जब घड़ी का "पेंडुलम' बायीं तरफ जा रहा है तब वह दायीं तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी कर रहा है। बायें तरफ जाते हुए दायें तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी होती है। दायें तरफ जाते हुए बायें तरफ जाने की शक्ति इकट्ठी होती है। जो अनशन कर रहा है, वह ज्यादा खाने की तैयारी कर रहा है। जो ज्यादा खा रहा है, वह अनशन की तैयारी कर रहा है। जो राग में डूब रहा है, वह विराग की तैयारी कर रहा है। जो विराग की तरफ दौड़ रहा है, वह राग की तरफ दौड़ेगा। दोनों अतियां सदा जुड़ी होती हैं। सिर्फ वह "पेंडुलम' न जो बायें जा रहा है, न दायें जा रहा है, बीच में खड़ा हो गया है, वह कहीं भी जाने की तैयारी नहीं कर रहा है--न वह बायें जाने की तैयारी कर रहा है, न वह दायें जाने की तैयारी कर रहा है। और यह जो मध्य में खड़ा हो गया "पेंडुलम' है, यह संयम का प्रतीक है।
असंयम "लेफ्टिस्ट' या "राइटिस्ट' दो तरह का होता है। संयम का अर्थ है, मध्य। कृष्ण के ओंठों पर यह अर्थ है। कृष्ण के ओंठों पर दूसरा अर्थ नहीं हो सकता। इस अर्थ को हम अगर वास्तविक जीवन में समझने जाएंगे तो क्या होगा? इसे वास्तविक जीवन में समझने जाएंगे, वस्तुतः जीवन की गहराई में, तो इसके दो अर्थ होंगे। ऐसा व्यक्ति न तो त्यागी कहा जा सकता है, न तो भोगी कहा जा सकता है, या दोनों कहा जा सकता है। पर ऐसा व्यक्ति दोनों में एकसाथ होगा। उसके भोग में त्याग होगा, उसके त्याग में भोग होगा। इस संयम के अर्थ से त्यागवादी कोई परंपरा राजी न होगी। त्यागवादी परंपरा के लिए संयम का अर्थ विराग होगा, असंयम का अर्थ राग होगा। जो राग को छोड़ता है और विराग की तरफ जाता है, वह संयमी है। कृष्ण त्यागवादी नहीं हैं और कृष्ण भोगवादी भी नहीं हैं। अगर उन्हें हम कहीं भी रखें तो वह ठीक चार्वाक और महावीर के बीच में खड़े हो जाएंगे। वे भोग में चार्वाक से पीछे न होंगे और त्याग में महावीर से पीछे न होंगे।
इसलिए अगर चार्वाक और महावीर का कोई "मिक्सचर' बन सकता हो, अगर इन दोनों का कोई सम्मिलन बन सकता हो, तो वह कृष्ण है। इसलिए कृष्ण के ओंठों पर सारे शब्दों के अर्थ भिन्न होंगे। शब्द वे ही हैं, अर्थ भिन्न हो जाएंगे। उनके व्यक्तित्व से अर्थ निकलेगा।
दूसरा सवाल पूछा है, कृष्ण की उपासना, साधना क्या है?
कृष्ण के व्यक्तित्व में साधना जैसा कुछ भी नहीं है। हो नहीं सकता। साधना में जो मौलिक तत्व है, वह प्रयास है, "इफर्ट' है। बिना प्रयास के साधना नहीं हो सकती। दूसरा जो अनिवार्य तत्व है, वह अस्मिता है, अहंकार है। बिना "मैं' के साधना नहीं हो सकती, करेगा कौन! कर्ता के बिना साधना कैसे होगी? कोई करेगा, तभी होगी।
साधना शब्द ठीक से अगर बहुत गहरे में समझें तो अनीश्वरवादियों का है। साधना शब्द, जिनके लिए कोई परमात्मा नहीं है, आत्मा ही है, साधना शब्द उनका है। आत्मा साधेगी और पाएगी। उपासना शब्द बिलकुल उलटे लोगों का है। आमतौर से हम दोनों को एकसाथ चलाए जाते हैं। उपासना शब्द उनका है, जो कहते हैं आत्मा नहीं, परमात्मा है। सिर्फ उसके पास जाना है, साधना कुछ भी नहीं। उपासना का मतलब है, पास जाना। पास बैठना--उप-आसन, निकट होते जाना, निकट होते जाना। और निकट होने का अर्थ है, खुद मिटते जाना, और कोई अर्थ नहीं है। हम उससे उतने ही दूर हैं, जितने हम हैं। जीवन के परम सत्य से हमारी दूरी, हमारा "डिस्टेंस' उतना ही है, जितने हम हैं। जितना हमारा होना है, जितना हमारा "मैं' है, जितना हमारा "इगो' है, जितनी हमारी आत्मा है, उतने ही हम दूर हैं। जितने हम खोते हैं और विगलित होते हैं, पिघलते हैं और बहते हैं, उतने ही हम पास होते हैं। जिस दिन हम बिलकुल नहीं रह जाते, उस दिन उपासना पूरी हो जाती है और हम परमात्मा हो जाते हैं। जैसे बर्फ पानी बन रहा हो, बस उपासना ऐसी है कि बर्फ पिघल रहा है, पिघल रहा है। साधना क्या कर रहा है बर्फ? साधना करेगा तो और सख्त होता चला जाएगा। क्योंकि साधना का मतलब होगा कि बर्फ अपने को बचाए। साधना का मतलब होगा कि बर्फ अपने को सख्त करे। साधना का मतलब होगा कि बर्फ और "क्रिस्टलाइज्ड' हो जाए। साधना का मतलब होगा कि बर्फ और आत्मवान बने। साधना का मतलब होगा कि बर्फ अपने को बचाए और खोए न।
साधना का अर्थ अंततः आत्मा हो सकता है। उपासना का अर्थ अंततः परमात्मा है। इसलिए जो लोग साधना से जाएंगे, उनकी आखिरी मंजिल आत्मा पर रुक जाएगी। उसके आगे की बात वह न कर सकेंगे। वह कहेंगे अंततः हमने अपने को पा लिया। उपासक कहेगा, अंततः हमने अपने को खो दिया। ये दोनों बातें बड़ी उलटी हैं। बर्फ की तरह पिघलेगा उपासक और पानी की तरह खो जाएगा। साधक तो मजबूत होता चला जाएगा। इसलिए कृष्ण के जीवन में साधना का कोई तत्व नहीं है। साधना का कोई अर्थ ही नहीं है। अर्थ है तो उपासना का है।
उपासना की यात्रा ही उलटी है। उपासना का मतलब ही यह है कि हमने अपने को पा लिया, यही भूल है। हम हैं, यही गलती है। "टु बी इज द ओनली बांडेज"। होना ही एकमात्र बंधन है। न होना ही एकमात्र मुक्ति है। साधक जब कहेगा तब वह कहेगा, मैं मुक्त होना चाहता हूं; उपासक जब कहेगा तो वह कहेगा, मैं "मैं' से मुक्त होना चाहता हूं। साधक कहेगा, मैं मुक्त होना चाहता हूं। मैं मोक्ष पाना चाहता हूं। लेकिन "मैं' मौजूद रहेगा। उपासक कहेगा, "मैं' से मुक्त होना है। "मैं' से मुक्ति पानी है। उपासक के मोक्ष का अर्थ है, "न-मैं' की स्थिति। साधक के मोक्ष का मतलब है, "मैं' की परम स्थिति। इसलिए कृष्ण की भाषा में साधना के लिए कोई जगह नहीं है; उपासना के लिए जगह है।
अब यह उपासना क्या है, इसे हम थोड़ा समझें।
पहली तो बात समझ लें कि उपासना साधना नहीं है, इससे समझने में आसानी बनेगी। अन्यथा भ्रांति निरंतर होती रहती है। और उपासक हममें से बहुत कम लोग होना चाहेंगे, यह भी खयाल में ले लें। साधक हममें से सब होना चाहेंगे। क्योंकि साधक में कुछ खोना नहीं है, पाना है। और उपासक में सिवाय खोने के कुछ भी नहीं है, पाना कुछ भी नहीं है। खोना ही पाना है, बस। उपासक कौन होना चाहेगा? इसलिए कृष्ण को मानने वाले भी साधक हो जाते हैं। कृष्ण के मानने वाले भी साधना की भाषा बोलने लगते हैं। क्योंकि वह भीतर जो अहंकार है, वह साधना की भाषा बुलवाता है। वह कहता है, साधो, पाओ, पहुंचो।
उपासना बड़ी कठिन बात है, "आरडुअस'। इससे ज्यादा "आरडुअस', इससे ज्यादा कठिन कोई बात ही नहीं है--पिघलो, मिटो, खो जाओ। निश्चित ही हम पूछना चाहेंगे कि क्यों मिटें? मिटकर क्या फायदा है? साधक कितनी ही ऊंची बात बोले, फायदे की बात में ही सोचेगा। उसका मोक्ष भी उसका ही सुख है। उसकी मुक्ति भी उसकी ही मुक्ति है। इसलिए साधक बहुत गहरे अर्थों में स्वार्थी हो तो आश्चर्य नहीं। स्व अर्थ से वह ऊपर कभी उठ भी नहीं पाएगा। उपासक स्व अर्थ के ऊपर उठेगा, इसलिए उपासक परमार्थ की बात बोलेगा। वह परम अर्थ की बात बोलेगा, जहां स्व खो जाता है। इस उपासना का क्या अर्थ होगा, और यह उपासना की क्या गति होगी और क्या यात्रा होगी? बड़ी कठिन होगी समझना यह बात। इसलिए पहले ही आपको कह देता हूं कि साधना शब्द को बिलकुल ही हटा दें। उसकी जगह ही नहीं है, फिर हम उपासना को समझने चलें।
जैसा मैंने कहा, उपासना का अर्थ है, निकट आना, "टु बी नियरर'। तो दूरी क्या है, "डिस्टेंस' क्या है? एक तो दूरी है जो हमें दिखाई पड़ती है, "फिजिकल स्पेस' है। आप वहां बैठे हैं, मैं यहां हूं, हम दोनों के बीच एक फासला है, एक "डिस्टेंस' है। मैं आपके पास आ जाऊं, आप मेरे पास आ जाएं, भौतिक दूरी समाप्त हो जाएगी। हम बिलकुल पास-पास, हाथ में हाथ लेकर, गले में गले डालकर बैठ जाएं, दूरी खत्म हुई। लेकिन दो आदमी गले में हाथ डाले हुए भी कोसों दूरी पर हो सकते हैं। एक "इनर स्पेस' है। एक भीतरी दूरी है, जिसका "फिजिकल' दूरी से कुछ भी संबंध नहीं है। और दो आदमी कोसों दूर होकर भी बड़े निकट हो सकते हैं। और दो आदमी गले में हाथ डालकर दूर हो सकते हैं। तो एक तो दूरी है जो हमसे बाहर है। और एक दूरी है जो मन की है और हमारे भीतर है। उपासना भीतर की दूरी को मिटाने की विधि है। लेकिन भक्त भी बाहर की दूरी मिटाने को आतुर रहता है। वह भी कहता है, सेज बिछा दी है, आ जाओ! वह भी कहता है, कब तक तड़पाओगे, जाओ! वह भी बाहर की दूरी मिटाने को आतुर रहता है। लेकिन एक बड़े मजे की बात है कि बाहर की दूरी कितनी ही मिट जाए, दूरी बनी ही रहती है हम कितने ही पास आ जाएं, बाहर से हम पास आते ही नहीं। पास आना बिलकुल ही आंतरिक घटना है। इसलिए उपासक उस परमात्मा के पास भी हो सकता है जो दिखाई ही नहीं पड़ता। जिससे "फिजिकल' दूरी मिटाने का कोई उपाय ही नहीं है, उसके पास भी पास हो सकता है।
यह जो "इनर स्पेस' है हमारी, यह कैसे पैदा होती है? यह जो भीतर की दूरी है, यह कैसे पैदा होती है? बाहर की दूरी हम समझते हैं कि कैसे पैदा होती है। अगर मैं आपसे दूर चलने लगूं, आपसे हटने लगूं, आपकी तरफ पीठ कर लूं और भागने लगूं, तो बाहर की दूरी पैदा हो जाती है। आपकी तरह मुंह करने लगूं और आपकी तरफ चलने लगूं, आपकी दिशा में, तो बाहर की दूरी कम हो जाती है। भीतर की दूरी कैसे पैदा होती? भीतर की दूरी चलने से पैदा नहीं होती, क्योंकि भीतर तो चलने की कोई जगह नहीं है। भीतर की दूरी होने से पैदा होती है; कितना सख्त मैं हूं, उतनी ही भीतर की दूरी होती है। और कितना तरल मैं हूं, उतनी ही भीतर की दूरी टूट जाती है। और अगर मैं बिलकुल तरल हो जाऊं कि मैं भीतर कह सकूं कि मैं हूं ही नहीं, शून्य हो गया, तो भीतर की दूरी समाप्त हो जाती है।
उपासना का अर्थ शून्य होना है। उपासना का अर्थ न-कुछ होना है--"नथिंगनेस', "नॉन-बीइंग'। मैं नहीं हूं, इस सत्य को जान लेना उपासक हो जाना है। मैं हूं, इस तथ्य को जोर से पकड़े रहना परमात्मा से दूर होते जाना है। मैं हूं, यह घोषणा ही हमारी दूरी है।
रूमी ने गीत लिखा है।
एक प्रेमी अपनी प्रेयसी के द्वार को खटखटाता है। सूफियों का गीत है, जो कि उपासना को जानते हैं। शायद पृथ्वी पर उपासना को जानने वाले थोड़े ही लोग हैं, वे सूफी हैं। कृष्ण को अगर कोई ठीक से समझ सकता है तो वह सूफी ही समझ सकते हैं। ऐसे वे मुसलमान फकीर हैं, लेकिन इससे क्या बनता-बिगड़ता है। सूफी गीत है जलालुद्दीन रूमी का कि प्रेमी ने द्वार खटखटाया है प्रेयसी का। भीतर से आवाज आई, कौन हो? तो प्रेमी ने कहा, मैं हूं, पहचानी नहीं? फिर भीतर से कोई आवाज नहीं आती। फिर प्रेमी द्वार खटखटाये चला जाता है और कहता है मेरी आवाज नहीं पहचानती, मैं हूं! तब भीतर से बड़ी मुश्किल से इतनी भर आवाज आती है कि जब तक तुम हो, तब तक प्रेम के द्वार नहीं खुल सकते। कब खुले हैं मैं के लिए प्रेम के द्वार! तो जाओ, उस दिन आना जिस दिन मैं न रह जाओ। वह प्रेमी वापस लौट जाता है।
वर्ष आते हैं, जाते हैं। वर्षा और धूप और चांद और सूरज, वर्षों के बाद वह वापिस लौटता है। वह द्वार पर दस्तक देता है। भीतर से फिर वही सवाल कि कौन है? लेकिन अब वह प्रेमी कहता है, अब तो तू ही है। तो रूमी की कविता यहां पूरी हो जाती है। वह कहता है द्वार खुल जाते हैं। लेकिन मैं मानता हूं कि रूमी उपासना को पूरा नहीं समझ पाया। कृष्ण तक नहीं पहुंच पाई रूमी की समझ। गया थोड़ी दूर, रुक गया। अगर मैं इस कविता को लिखूं तो मैं कहूंगा कि फिर वह प्रेयसी भीतर से कहती है कि जब तक तू भी है, तब तक मैं होगा ही। छिपा होगा। क्योंकि तू का बोध मैं के बिना नहीं होता। चाहे कोई मैं कहता हो या न कहता हो, जब तक तू है, तब तक मैं मौजूद होगा ही। छिपा होगा, अप्रगट होगा, अंधेरे में दब गया होगा, मन के किसी कोने-कांतर में बैठ गया होगा, लेकिन होगा ही। क्योंकि कौन कहेगा तू? तू को कहने के लिए मैं होना ही चाहिए। यह सिर्फ तराजू बदल लिया, पहलू बदल लिया। बात कुछ हुई नहीं, बात कुछ बनी नहीं। तो मैं अगर इस कविता को लिखूं तो कहूंगा कि फिर वह कह देती है कि जब तक तू है, तब तक मैं कैसे मिट सकता है? अभी तू मैं को खोकर आया, अब तू को भी खोकर आ। लेकिन जब मैं भी खो जाएगा और तू भी खो जाएगा, तो क्या प्रेमी आएगा? तब मेरी कविता बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी, क्योंकि फिर वह आएगा कैसे? आएगा किसके पास? आएगा कहां? नहीं, फिर वह आएगा नहीं। फिर आने की कोई बात न रही, फिर जाने की कोई बात न रही, क्योंकि फासला, वह "इनर डिस्टेंस' भी टूट गया जिसमें आया-जाया जा सकता है। वह जो भीतर का फासला था वह टूट गया, वह तो मैं और तू का फासला था। इसलिए मेरी कविता आखिर में आकर बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगी। हो सकता है रूमी ने इसीलिए कविता वहीं खत्म की। क्योंकि आगे फिर कविता को खत्म कैसे करेंगे? वहां जाकर कविता एकदम टकरा जाएगी जिंदगी की चट्टान से और टूट जाएगी। क्योंकि फिर आएगा कौन? आएगा किसके पास? आएगा क्यों? जब तक आता है, तब तक फासला है। और जब मैं और तू न रहे तो कोई फासला नहीं, जो जहां है उसे वहीं मिल जाता है।
उपासना के लिए कहीं पहुंचना नहीं होता। जहां हम हैं, वहीं घटित हो जाती है। किसी के पास नहीं पहुंचना होता, बस अपने से मिटना होता है और पास पहुंचना हो जाता है।
ओशो रजनीश
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