श्री कृष्ण स्मृति भाग 82

 "भगवान श्री, कृपया मार्टिन बूबर के संदर्भ में कुछ कहें?'


पूछा है कि मार्टिन बूबर के संदर्भ में भी कुछ कहें।

मार्टिन बूबर की सारी-की-सारी चिंतना मैं और तू के "इंटीमेसी', मैं और तू के "रिलेशनशिप', मैं और तू के संबंधों पर है। मार्टिन बूबर गहरे-से-गहरे लोगों में से एक है। लेकिन गहराई कितनी ही हो, वह उथलेपन का ही दूसरा छोर है। सच्ची गहराई तो उस दिन शुरू होती है जिस दिन आदमी न उथला रह जाता है और न गहरा रह जाता है। जिस दिन उथला और गहरापन दोनों मिट जाते हैं। मार्टिन बूबर ने बड़ी गहरी बातें कही हैं। गहरी-से-गहरी जो बात है वह यह है, यह सारे जीवन का सत्य मैं और तू के अंतर्संबंधों में समाया हुआ है।

एक नास्तिक है, एक अनीश्वरवादी है, एक है जो मानता है कि सिर्फ पदार्थ है। उसका जगत मैं और तू का जगत नहीं है। उसका जगत मैं और वह का जगत है। "आई एंड इट'। तू है ही नहीं। क्योंकि तू होने के लिए दूसरे में आत्मा को स्वीकार करना जरूरी है। नास्तिक का जगत, "आई एंड इट', मैं और वह का जगत है। इसलिए नास्तिक का जगत बड़ा जटिल है, क्योंकि खुद को तो वह मैं कहता है और आत्मवान होने की घोषणा करता है, और शेष सबको मैं से हीन कर देता है और वह बना देता है। पदार्थ बना देता है, वस्तुएं बना देता है। अगर मैं जानता हूं कि आत्मा नहीं है, तो आप मेरे लिए पदार्थ से ज्यादा नहीं हैं, फिर मैं तू किसको कहूं? तू तो जीवंत व्यक्ति को कहा जा सकता है।

इसलिए मार्टिन बूबर कहता है कि आस्तिक का जगत मैं और वह का जगत नहीं है, "आई एंड दाउ', मैं और तू का जगत है। जब मेरा मैं तू कह पाता है जगत को, तो आस्तिक का जगत है। मैं नहीं कहूंगा। मैं कहूंगा, यह आस्तिक भी बहुत गहरे में अभी नास्तिक है। क्योंकि अभी तो मैं और तू में जगत को बांट पाता है। या ऐसा कहें कि यह द्वैतवादी आस्तिक का जगत है। लेकिन द्वैतवादी चूंकि झूठा है, इसलिए द्वैतवादी आस्तिकता का भी कोई अर्थ नहीं होता। एक अर्थ में नास्तिक अद्वैतवादी होता है। क्योंकि वह कहता है, एक ही है, पदार्थ। एक अर्थ में नास्तिक अद्वैतवादी होता है, क्योंकि वह कहता है, एक ही है, पदार्थ; और एक अर्थ में आत्मवादी अद्वैतवादी होता है, क्योंकि वह कहता है, एक ही है, पदार्थ; और एक अर्थ में आत्मवादी अद्वैतवादी होता है, क्योंकि वह भी कहता है, एक ही है, आत्मा है। अब मेरा मानना है कि एक ही से एक पर जाना बहुत आसान है, दो से एक पर जाना बहुत कठिन है। इसलिए द्वैतवादी नास्तिक से भी ज्यादा उलझन में होता है। क्योंकि किसी दिन अगर नास्तिक अद्वैतवादी को यह दिखाई पड़ जाए कि पदार्थ नहीं है, आत्मा है, तो यात्रा तत्काल बदल जाती है। एक तो वह मानता ही था। वह एक क्या है, इसकी व्याख्या पर झगड़ा था। वह पदार्थ है कि परमात्मा है? लेकिन द्वैतवादी की झंझट और गहरी है। द्वैतवादी मानता है, दो हैं। पदार्थ भी है, परमात्मा भी है। इसे एक पर पहुंचना बहुत मुश्किल है।

बूबर द्वैतवादी है। वह कहता है, मैं और तू। लेकिन उसका द्वैतवाद बहुत मानवीय है। क्योंकि वह मैं को मिटा देता है। तू का दर्जा देता है दूसरे को भी, आत्मा का दर्जा देता है। लेकिन मैं और तू के बीच संबंध ही हो सकते हैं, एकता नहीं हो सकती, ऐक्य नहीं हो सकता। संबंध कितने ही गहरे हों, तब भी फासला बना ही रहता है। अगर मैं आपसे संबंधित हूं, कितना ही गहरा संबंधित हूं, तब भी मेरा और आपका संबंध, मुझे और आपको दो में तोड़ता है। संबंध जोड़ता भी है, तोड़ता भी है। वह दोहरे काम करता है। जिससे हम जुड़ते हैं, उससे हम टूटे हुए भी होते हैं। जिस जगह हमारा जोड़ होता है, वही हमारी टूट भी होती है। जो हमारा सेतु है, वही हमें दो तटों में भी तोड़ देता है। जो सेतु जोड़ता है, वह तोड़ता भी है। असल में जोड़ने वाली कोई भी चीज तोड़ने वाली भी होती है। होगी ही। अनिवार्य है। इसलिए दो कभी एक नहीं हो पाते, कितने ही गहरे संबंध हों, संबंध कभी भी एक नहीं हो पाते। इसलिए गहरे से गहरा संबंध भी दो बनाए रखता है। प्रेम का संबंध कभी भी एक नहीं हो पाते। इसलिए गहरे से गहरा संबंध भी दो बनाए रखता है। प्रेम का कितना ही गहरा संबंध हो, उसमें दो नहीं मिटते। और जब तक दो नहीं मिटते, तब तक प्रेम तृप्त नहीं हो सकता। इसलिए सब प्रेम अतृप्त होते हैं।

दो तरह की अतृप्तियां हैं प्रेम की--प्रेमी न मिले तो, और मिल जाए तो। प्रेमी न मिले तो यह अतृप्ति होती है कि जिससे मिलना चाहा था वह नहीं मिला, और प्रेमी मिल जाए तो यह अतृप्ति होती है कि जिससे मिलना चाहा था वह मिल तो गया, लेकिन मिलना कहां हो पा रहा है! फासला खड़ा ही है। दूरी बनी ही है। पास आ गए हैं बहुत, लेकिन कहां दूरी मिटती है! इसलिए कई बार, जिसको अपना प्रेमी नहीं मिलता वह भी उतना दुखी नहीं होता, जितना दुखी वह हो जाता है जिसे उसका प्रेमी मिल जाता है। क्योंकि जिसको नहीं मिलता उसे एक आशा तो रहती है कि कभी मिल सकता है। इसकी वह आशा भी टूट जाती है, कि अब क्या होगा? मिल तो गया है, लेकिन मिलना नहीं हो पा रहा है।

असल में कोई मिलन मिलन नहीं बन सकता, क्योंकि मिलन में संबंध ही है और संबंध दो बनाए रखता है। इसलिए मार्टिन बूबर मैं और तू के गहरे संबंधों की बात करता है, जो बड़ी मानवीय है। और इस जगत में, जो कि निरंतर पदार्थवादी होता चला गया है, मार्टिन बूबर की बात भी बड़ी धार्मिक मालूम होती है, लेकिन मुझे मालूम नहीं होती। मैं तो कहूंगा, यह बात धार्मिक नहीं है, सिर्फ समझौता है, यह मैं और तू के बीच अगर एकता न हो सके, तो कम-से-कम संबंध ही हो।

प्रेम और उपासना में यही फर्क है। प्रेम संबंध है, उपासना असंबंध है। असंबंध का मतलब यह नहीं कि दो असंबंधित हो गए। असंबंध का मतलब यह कि दो के बीच से संबंध गिर गया। "रिलेशनशिप' भी गिर गई। वह जो संबंध था, वह भी गिर गया; अब दो दो ही न रहे, वह एक ही हो गए। यह जो एक हो जाना है, यह उपासना है।

इसलिए प्रेम का अगला कदम उपासना है। और जिसे हम प्रेम करते हैं उससे हम तब तक पूरी तरह नहीं मिल सकते जब तक वह दिव्य न हो जाए, भागवत न हो जाए, भगवान न हो जाए। दो मनुष्यों का मिलन असंभव है। उनका मनुष्य होना ही बाधा देता रहेगा। दो मनुष्य ज्यादा-से-ज्यादा संबंधित हो सकते हैं। दो परमात्मत्तत्व ही मिल सकते हैं, क्योंकि फिर तोड़ने वाला कोई भी नहीं रह जाता। जोड़ने वाला भी कोई नहीं रह जाता। इसलिए मार्टिन बूबर ज्यादा-से-ज्यादा प्रेम पर पहुंच सकता है। कृष्ण उपासना पर पहुंचते हैं। उपासना बहुत और बात है, उपासना बहुत ही और बात है। वहां दूसरा भी मिट गया है, मैं भी मिट गया हूं। और हम दोनों के मिटने पर जो शेष जाता है, "दैट ह्विच रिमेन्स', वह विस्तार जो बाकी रह गया, उसे हम क्या नाम दें? उसे हम पदार्थ कहें? उसे हम आत्मा कहें? उसे मैं मैं कहूं? उसे मैं तू कहूं? उसे हम कोई भी नाम दें वे गलत होंगे। इसलिए जो परम उपासक हैं वे चुप रह गए हैं, उन्होंने उसके लिए कोई नाम नहीं दिया। उन्होंने कहा वह अनाम है, "नेमलेस' है। उन्होंने कहा, उसका कोई छोर नहीं है, उसका कोई प्रारंभ नहीं है, उसका कोई अंत नहीं है। उन्होंने कहा, उसका कोई नाम नहीं, उसका कोई रूप नहीं। उन्होंने कहा, उसका कोई आकार नहीं। उन्होंने कहा, उसे कोई शब्द नहीं दिया जा सकता। वे चुप रह गए हैं। वे मौन रह गए हैं।

परम उपासक मौन रह गया है, उस सत्य के संबंध में उसने कोई घोषणा नहीं की, क्योंकि सभी घोषणाएं द्वैत में गिर जाती हैं। मनुष्य के पास ऐसा कोई शब्द नहीं है, जो द्वैत में न ले जाता हो। हम शब्द का उपयोग किए नहीं कि हमने जगत को दो में तोड़ा नहीं। इधर हमने शब्द का उपयोग किया, वहां चीजें दो में टूटीं। ऐसे ही हम किसी प्रिज्म में से सूर्य की किरण को निकालें तो वह सात हिस्सों में टूट जाती है। ऐसे ही हमने भाषा से किसी सत्य को निकाला कि वह तत्काल दो में टूट जाती है। भाषा का प्रिज्म हर सत्य को दो में तोड़ देता है और दो में टूटते ही सत्य असत्य हो जाता है। इसलिए परम उपासक चुप रह गया, मौन रह गया। नाचा है, बांसुरी बजाई है, गीत गाया है, इशारे किए हैं, लेकिन घोषणा नहीं की। घोषणा शब्दों में होती है। "गेस्चर' से जाहिर किया है। नाचकर कहा है कि क्या है वह। हंस कर कहा है कि क्या है वह। चुप रहकर कहा है कि क्या है वह। हाथ के इशारे उठा दिए हैं आकाश की तरफ और कहा है कि क्या है वह! लेकिन, चुप रह गया है। पूरे व्यक्तित्व से कहा है कि क्या है वह।

गदर के वक्त में, एक संन्यासी को एक अंग्रेज सैनिक ने छाती में संगीत मार दी। निकलता था संन्यासी। मौन था वर्षों से, तीस वर्ष से बोला नहीं था। और जिस दिन मौन लिया था उस दिन किसी ने पूछा था कि क्यों मौन लेते हो? तो उसने कहा था, जो बोला जा सकता है वह बोलने योग्य नहीं है और जो बोलने योग्य है, वह बोला नहीं जा सकता। तो सिवाय मौन के और मैं क्या करूं? तो तीस वर्ष से वह मौन था। गदर चल रही थी, बगावत चल रही थी, अंग्रेज शंकित थे, नग्न वह संन्यासी रात के अंधेरे में उनके कैंप के पास से गुजरता था। उन्होंने उसे पकड़ लिया। समझा कि कोई जासूस होगा। कोई "डिटेक्टिव' होगा। पूछा उससे, कौन हो? अगर वह कुछ उत्तर भी दे देता, तो भी शायद वे समझ जाते, लेकिन वह चुप रहा, हंसता रहा। जब वे पूछते, कौन हो, तो वह हंसता। तब तो पक्का हो गया कि वह जासूस है और बोलने की भी तैयारी नहीं दिखाता। तब उन्होंने उसकी छाती में संगीन भोंक दी। तीस वर्ष से जो मौन था, वह मरते वक्त हंसा और उसने एक शब्द कहा, मरते वक्त उसने उपनिषद का एक महावाक्य कहा, कहा: "तत्त्वमसि, श्वेतकेतु'। उस संगीन भोंकने वाले सैनिक से उसने कहा कि तू भी वही है, जो मैं हूं। और तू पूछता है कि तू कौन है!

इशारे हैं। या फिर असंगत भाषा...कबीर की भाषा को लोगों ने संध्या-भाषा कहा है। संध्या-भाषा का मतलब यह है कि न पक्का पता चले कि दिन है कि रात है। बात ऐसी हो कि पक्का पता न चले कि हां है कि ना। पक्का पता न चले कि तुम स्वीकार करते हो कि अस्वीकार; तुम आस्तिक हो कि नास्तिक, तुम मानते हो कि नहीं मानते हो; जिस भाषा में कुछ पक्का पता न चले, उस भाषा को संध्या-भाषा कहा है। इसलिए कबीर की भाषा का अभी भी अर्थ तय नहीं हो पाता। कृष्ण की भाषा का भी नहीं हो सकता। जिन्होंने भी सत्य को कहा है, उनकी संध्या-भाषा हो गई। क्योंकि वे दोनों को साथ-साथ कहेंगे, हां और ना को, या दोनों को साथ-साथ इनकार कर देंगे और हमारी भाषा में कोई तर्क-व्यवस्था में वे नहीं बैठ पाएंगे। इसलिए मौन रह गए वे लोग, जिन्होंने जाना उसे जहां मैं और तू दोनों खो जाते हैं।

ओशो रजनीश



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्री कृष्ण स्मृति भाग 134

श्री कृष्ण स्मृति भाग 114

श्री कृष्ण स्मृति भाग 122