श्री कृष्ण स्मृति भाग 83
"भगवान श्री, सार्त्र कहता है, "एक्ज़िस्टेंस प्रिसीड्स इसेंस'। आप "इसेंस' को "एक्ज़िस्टेंस' के पहले मानते हैं? या कि दोनों का कैसा संबंध आप करते हैं? और इधर साधना शिविर में आए हुए लोग भी गड़बड़ में पड़ गए हैं कि वे उपासना शिविर में आए हैं, या साधना शिविर में?'
गड़बड़ में डालना मेरा काम है। साधना और उपासना के बीच का फासला गिर जाए, तो शिविर का मतलब समझ में आ गया।
सार्त्र या अस्तित्ववादी ऐसा मानते हैं, "एक्ज़िस्टेंस प्रिसीड्स इसेंस'। बड़ी अजीब बात है। क्योंकि दुनिया में ऐसा मुश्किल से कभी माना गया है। इससे उलटी बात सदा मानी जाती रही है। दुनिया के जितने तत्व-चिंतन हैं, उन सबका मानना है, "इसेंस प्रिसीड्स एक्ज़िस्टेंस'।
इसे समझ लें।
सार्त्र के पहले या अस्तित्ववादियों के पहले जितने जितने भी तत्व-चिंतन हैं, वे यह मानते हैं कि बीज वृक्ष के पहले है। स्वभावतः। सार्त्र कहता है, वृक्ष बीज के पहले है। सारा चिंतन साधारणतः कहेगा कि अस्तित्व के पहले आत्मा है, तभी तो अस्तित्व हो सकेगा। सार्त्र कहता है, अस्तित्व पहले है, फिर आत्मा है। क्योंकि अस्तित्व ही न होगा तो आत्मा कैसे गठित होगी।
कृष्ण के संदर्भ में क्या मतलब होगा? असल में तत्व-चिंतन की सारी लड़ाइयां बड़ी बचकानी हैं, बहुत "चाइल्डिश' हैं। वे सारी लड़ाइयां तत्व-चिंतन की जो मनुष्य जाति ने अब तक बड़े-से-बड़े दार्शनिकों के द्वारा की हैं, वे बच्चों के छोटे-से सवाल में समाहित हो जाती है कि मुर्गी पहले होती है कि अंडा। बड़े-से-बड़ा तत्व-चिंतन, बड़े-से-बड़ी "फिलासफी' इस छोटे-से मुद्दे पर लड़ती रही है। जो जानते हैं, वे कहेंगे कि मुर्गी और अंडा दो नहीं हैं; इसलिए कौन पहले है यह सिर्फ नासमझ पूछ सकता है और बड़ा नासमझ उत्तर दे सकता है।
अगर हम ठीक से समझें तो अंडे का मतलब क्या होता है? अंडे का मतलब क्या होता है? अंडे का कुल मतलब छिपी हुई मुर्गी होता है। मुर्गी का क्या मतलब होता है? छिपा अंडा होता है। अंडा और मुर्गी दो चीजें अगर होतीं, तो कौन "प्रिसीड' करता है यह सवाल सार्थक था। कौन पहले है, यह सार्थक था सवाल, अगर अंडा और मुर्गी दो चीजें होतीं।अंडा और मुर्गी एक ही चीज है। या एक ही चीज को हमारे देखने के दो ढंग हैं। या एक ही चीज की दो क्षणों में दिखाई पड़ने की स्थितियां हैं! लेकिन दो चीजें नहीं हैं। अंडा और मुर्गी एक ही चीज की दो "फेज' हैं, एक ही चीज के प्रगट होने के दो ढंग हैं। बीज और वृक्ष दो चीजें नहीं हैं। जन्म और मृत्यु दो चीजें नहीं हैं। एक ही चीज के होने के दो ढंग हैं, या, या हो सकता है कि हम पूरी तरह देख नहीं पाते इसलिए हम दो में तोड़कर देखते हैं। दृष्टि हमारे पास छोटी है। जैसे समझ लें कि एक बड़ा कमरा हो, एक बड़ा भवन हो, एक छोटा-सा छेद हो, और उस छेद में मैं आंख गड़ाए देखता हूं। पूरा कमरा दिखाई नहीं पड़ता। छेद के पहले मुझे एक कुर्सी दिखाई पड़ती है। फिर मैं आंख को और घुमाता हूं, मुझे तीसरी कुर्सी दिखाई पड़ती है। मैं पूछ सकता हूं कि इन तीन कुर्सियों में पहले कौन है? लेकिन कमरे में, कमरे के भीतर जाकर मैं क्या कहूंगा? कौन पहले है, सब "साइमलटेनियस' हैं। वह तीनों कुर्सियां एकसाथ हैं। लेकिन जिस छेद से मैंने देखा था वहां पहले एक कुर्सी दिखाई पड़ी, फिर दूसरी कुर्सी दिखाई पड़ी, फिर तीसरी कुर्सी दिखाई पड़ी। पहले कौन था? कमरे के भीतर जाकर मैं पूछूंगा कि पहले कौन है? मैं कहूंगा, तीनों कुर्सियां साथ हैं।
एक लेबोरेट्री आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में, जिसने अभी इस सदी की श्रेष्ठतम खोजें की हैं। मैं मानता हूं कि भविष्य के लिए सबसे बड़ा काम उस प्रयोगशाला में हो रहा है। उस प्रयोगशाला का नाम है, "डिलाबार लेबोरेट्री'। एक बड़ी चमत्कारपूर्ण घटना जो घटी है, वह यह है कि एक कली का फोटोग्राफ लेते वक्त कली का फोटो नहीं आया, फूल का फोटो आ गया। बहुत "सेंसिटिव फिल्म' से। अब तक जो सबसे ज्यादा संवेदनशील फिल्म बन सकी है, उस फिल्म के सामने कली रखने से गुलाब की--थी तो कली, फोटो आ गया गुलाब के फूल का। बड़ी कठिनाई हो गई। क्योंकि अभी कली फूल हुई नहीं है, होगी। तब बड़ी मुश्किल की बात हो गई। जो कली अभी फूल हुई नहीं है, उसका फोटो कैसे आ गया! या तो किसी बहुत रहस्यपूर्ण जगत में वह फूल अभी भी हो, चूंकि यह सिर्फ हमें दिखाई नहीं पड़ रही है और कैमरा उसे देख पाया जो हम नहीं देख पा रहे। शायद कैमरा कमरे के भीतर जाकर देख पाया, जहां कली और फूल "साइमल्टेनियस' हैं। हमारी आंख कमरे के बाहर से देखती थी जहां पहले कली है, फिर फूल है। लेकिन, शायद कोई भूल हो गई हो। शायद इस कैमरे की फिल्म पहले ही "एक्सपोज' हो गई हो। हजार बातें हैं, किसी फूल का फोटो पहले आ गया है, भूल-चूक हो गई हो। कुछ "केमिकल' गड़बड़ हो गई हो। तो प्रतीक्षा करनी पड़ी कि जब तक कली फूल न बन जाए। फिर वह कली फूल बन गई। और तब बहुत मुश्किल हो गई! क्योंकि जो वह फूल बनी, उसका फोटो ही पहले पकड़ा गया था। वह फोटो कोई "केमिकल' भूल न थी, वह इसी फूल का फोटो है। "डिलाबर लेबोरेट्री' के छोटे-से कमरे में घटी यह घटना बड़ी मुश्किल में डाल देती है।
इसका मतलब यह हुआ कि हमारे देखने के ढंग की वजह से एक दफा हमें अंडा दिखाई पड़ता है, फिर एक दफे मुर्गी दिखाई पड़ती है। लेकिन, अगर कृष्ण जैसी आंख हो देखने की हमारे पास, तो मुर्गी अंडा क्या एकसाथ नहीं दिखाई पड़ सकते? हमें बड़ी मुश्किल पड़ेगी। क्योंकि यह तर्क के बाहर का मामला हो गया। लेकिन, विज्ञान बहुत से तर्क के बाहर के मामलों को पिछले पच्चीस सालों में स्वीकार कर रहा है।
एक और आपको उदाहरण दूं, उससे खयाल आ सके। ताकि ऐसा न लगे कि मैं कोई अवैज्ञानिक बात कह रहा हूं। आज से पचास साल तक कभी कोई सोच भी नहीं सकता था, लेकिन इधर पचास वर्षों में बड़ी मुश्किल पड़ी। जैसे ही हम अणु का विस्फोट किए और "इलेक्ट्रांस' की खोज किए, वैसे एक बड़ी कठिनाई आई जो मनुष्य जाति के सामने पहली दफे आई। और वह यह थी कि इलेक्ट्रान को हम क्या कहें? क्योंकि कभी "इलेक्ट्रान' का फोटो ऐसा आता है जैसे इलेक्ट्रान "वेव' है, लहर है; और कभी ऐसा आता है जैसे "पार्टिकल' है, कण है। और कभी एक ही साथ दो कैमरे फोटो लेते हैं, तो एक कैमरे में फोटो आता है, "वेव' का और दूसरे कैमरे में फोटो आता है कण का। अब कण और लहर में बड़ा फर्क है। इसको क्या कहें? इसको लहर कहें? अगर लहर कहते हैं तो यह कण नहीं हो सकता। अगर कण कहते हैं तो यह लहर नहीं हो सकता। इसलिए अंग्रेजी में एक नया शब्द ईजाद हुआ जो अभी दुनिया की दूसरी भाषा में नहीं हुआ, क्योंकि दुनिया की दूसरी भाषाएं उस गहराई पर नहीं पहुंचीं, वह है--"क्वांटा'। एक नया शब्द बनाना पड़ा। "क्वांटा' का मतलब है, "बोथ साइमल्टेनियसली, वेव एंड पार्टिकल'। मगर "क्वांटा' बड़ा "मिस्टीरियस' मामला है। "क्वांटा' का मतलब होता है, दोनों एकसाथ--लहर भी और कण भी। हां, मुर्गी भी और अंडा भी--"क्वांटा'।
तो सार्त्र से मैं राजी नहीं हूं, न सार्त्र के विरोधियों से राजी हूं। जो कहते हैं कि अस्तित्व पहले, फिर आत्मा; जो कहते हैं आत्मा पहले, फिर अस्तित्व, उनमें से किसी से मैं राजी नहीं हूं। मेरा मानना है, अस्तित्व और आत्मा एक ही सत्य को देखने के दो ढंग। हमारी कमजोर नजर की वजह से हम दो में तोड़कर देखते हैं। अस्तित्व ही आत्मा है। "इसेंस इज एक्ज़िस्टेंस, एक्ज़िस्टेंस इज इसेंस'। अस्तित्व आत्मा है, आत्मा अस्तित्व है। ये दो चीजें नहीं हैं। इसलिए जब हम कहते हैं कि आत्मा का अस्तित्व है, तो हम गलत भाषा का उपयोग करते हैं। जब हम कहते हैं, परमात्मा का अस्तित्व है, तब भी हम गलत भाषा का उपयोग करते हैं। क्योंकि परमात्मा का अस्तित्व है, इसका मतलब यह हुआ कि परमात्मा कुछ है और उसका अस्तित्व है।
नहीं, अगर हम ठीक से समझें तो हम कहेंगे, परमात्मा अस्तित्व है। परमात्मा का अस्तित्व है, गलत है। फूल का अस्तित्व है, क्योंकि कल फूल का अस्तित्व नहीं भी हो जाएगा। लेकिन परमात्मा का अस्तित्व कब नहीं होगा? जो कभी अनस्तित्व में नहीं जा सकता, उसका अस्तित्व नहीं कहा जा सकता। हम कह सकते हैं कि मेरा अस्तित्व है। क्योंकि कल मेरा अस्तित्व नहीं होगा। लेकिन परमात्मा का अस्तित्व है, ऐसा नहीं कह सकते। क्योंकि ऐसा कभी भी नहीं होगा जब उसका अस्तित्व न हो। इसलिए परमात्मा का अस्तित्व है, यह भाषा की भूल है। "गॉड एक्जिस्ट्स', यह गलत बात है। परमात्मा अस्तित्व है, "गॉड इज एक्ज?िस्टेंस', यह ठीक है।
लेकिन भाषा हमेशा दिक्कत में डालती है। क्योंकि जब हम कहते हैं, "गॉड इज एक्जिस्टेंस', परमात्मा का अस्तित्व "है', तो वह है शब्द भी बहुत झंझट का है। क्योंकि परमात्मा इस तरफ, अस्तित्व उस तरफ, और इससे, "है' से "रिलेटेड'। इधर परमात्मा, उधर अस्तित्व, और "है' से जुड़ा हुआ। इसलिए फिर इसमें एक शब्द और गिराना पड़ेगा। "गॉड इज एक्जिस्टेंस', ऐसा न कहकर कहना पड़ेगा, "गॉड मीन्स इजनेस'। जुड़ा नहीं, अर्थ करना पड़ेगा। परमात्मा का अर्थ है, होना। परमात्मा का अर्थ है, अस्तित्व। है शब्द भी पुनरुक्ति है। इतना भी हम कहें कि ईश्वर है, तो पुनरुक्ति है। क्योंकि "है' का मतलब भी ईश्वर होता है, और ईश्वर का अर्थ भी "है' होता है। जो "है', उसका नाम ईश्वर है। इसलिए कठिनाई है बड़ी भाषा की। और जैसे उसमें भीतर प्रवेश करते हैं, इसलिए जो जानता है वह कहता है, छोड़ो झंझट, चुप रह जाओ, कौन कहे कि ईश्वर है? जो कहे वह अलग हो जाए! किसको कहो कि ईश्वर है? जिसको कहो, वह "आब्जेक्ट' बन जाए! तो चुप ही रह जाओ।
एक झेन फकीर के पास कोई गया और उससे पूछता है, ईश्वर के संबंध में कुछ कहो। तो वह हंसता है, डोलता है। फिर वह पूछता है, कुछ कहो भी, हंसने-डोलने से क्या होगा? तो वह और जोर से नाचता है। वह कहता है, क्या पागल तो नहीं हो? हम कहते हैं, कुछ कहो! तो वह फकीर कहता है, मैं कहता हूं लेकिन तुम सुनते नहीं। तो उस आदमी ने कहा कि गजब की बातें कह रहे हैं, खुद पागल हो, मुझको भी पागल बनाते हो! एक शब्द तुम बोले नहीं। तो उस फकीर ने कहा, अगर मैं बोलूंगा तो गलती हो जाएगी। अगर नहीं बोलने से नहीं समझ सकते हो तो जाओ, वहां समझो जहां बोलकर समझाया जा रहा है। लेकिन बोलकर समझाने से परम तत्व में गलती हो ही जाएगी। इसलिए हम बोल सकते हैं आखिरी क्षण तक, लेकिन बिलकुल आखिरी क्षण पर बोलना रुक जाएगा। उसके बाद चुप रह जाना पड़ेगा।
विट्गिंस्टीन ने अपने सारे जीवन के बाद एक छोटा-सा वाक्य लिखा है। और वह वाक्य बहुत अदभुत है। उसने लिखा है, "दैट ह्विच कैन नाट बी सेड, मस्ट नाट बी सेड'। जो नहीं कहा जा सकता, उसे कहना ही नहीं चाहिए। लेकिन, इतना तो कहना ही पड़ता है। अब विट्गिंस्टीन मर गया, नहीं तो उससे मैं कहता, इतना तो कहना ही पड़ता है कि जो नहीं कहा जा सकता उसे नहीं नहीं कहना चाहिए। और इससे क्या फर्क पड़ता है कि कितना कहते हैं! कुछ तो कहना ही पड़ता है। हां, उसने पहली किताब में कहा है, पहली किताब में "टैक्टेसस' में उसने यह बात कही है कि जो कहा जाएगा वह भाषा में ही कहा जाएगा। यह थोड़ी दूर तक ठीक है। क्योंकि अगर "गेस्चर' को भी कहना समझें, तो वह भी एक भाषा है। एक गूंगा हाथ उठाकर कह देता है--पानी पीना है। वह भी भाषा है, गूंगे की भाषा है। इसलिए हम तो कहते ही रहे हैं कि परमात्मा जो है वह गूंगे का गुड़ है। लेकिन उसका मतलब यही है कि गूंगे की भाषा में कहना पड़ेगा। लेकिन कहेंगे जो भी हम किसी भी ढंग से, नाच कर कहें--मौन रहकर कहें तो भी हम कह रहे हैं--और इसलिए जो है, वह हमारे सब कहने के पार छूट जाएगा। इसलिए लाओत्से ने विट्गिंस्टीन से बहुत गहरी बात कही है। लाओत्से ने कहा, सत्य कहा कि असत्य हो जाता है, इस इतना ही कहा जा सकता है। इसलिए जो जानते हैं वे चुप रह जाते हैं।
ओशो रजनीश
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