श्री कृष्ण स्मृति भाग 84

 "भगवान श्री, आप बहुधा कहते हैं कि मैं जब पूर्ण होता है तब वह सर्व अर्थात "न-मैं' हो जाता है। उपर्युक्त कथन का अभी आप खंडन कर रहे हैं। इसमें लगता है कि केवल शब्दों की "इम्फेसिस' भर बदल रहे हैं आप। पूर्ण मैं और न-मैं क्या एक नहीं है?'


कोई अंतर नहीं है। क्योंकि पूर्ण मैं का मतलब ही इतना होता है कि तू नहीं बचा अब बाहर, सब तू मैं में समा गए और जब सब तू मैं में समा जाएंगे तो इसको मैं कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इससे उलटा भी कह सकते हैं कि हमारा मैं तू में समा गया, लेकिन जब मेरा मैं तू में समा गया, तो तू को तू कहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इसलिए चाहे मैं पूर्ण कहें हम, चाहे मैं शून्य कहें हम, ये दोनों एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। मैं पूर्ण हो जाए तो शून्य हो जाता है, मैं शून्य हो जाए तो पूर्ण हो जाता है। कहां से हम कहते हैं, इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता। परम सत्य को अगर हम हां कहें, तो भी ठीक है, न कहें तो भी ठीक है। क्योंकि परम सत्य के संबंध में हां के भीतर न सम्मिलित होगी और न के भीतर हां सम्मिलित होगा। इसलिए परम सत्य के संबंध में हम कुछ न भी कहें तो भी ठीक है, और बहुत कुछ कहें, कहते रहें अनंत काल तक, तो भी पूरा नहीं होता। और चुप रह जाएं और कुछ भी न कहें, तो भी पूरा हो जाता है।

सत्य को, जो है, उसे जब भी हम किसी दृष्टि से देखते हैं तब कठिनाई में पड़ते हैं। और हम सब दृष्टि से देखते हैं। हम कहीं खड़े होकर देखते हैं। कोई जगह से देखते हैं। कोई धारणा से देखते हैं। कोई भाव से देखते हैं। कोई विचार से देखते हैं। कहीं-न-कहीं कोई "कन्सेप्शन' है हमारा, उससे खड़े होकर हम देखते हैं। जब तक हमारी कोई धारण है, कोई दृष्टि है, तब तक जिस सत्य को हम देखेंगे वह अपूर्ण होगा, अधूरा होगा, खंड होगा, अंश होगा। इतना भी हम जानें कि वह अंश है, खंड है, तो भी ठीक है। लेकिन हर दृष्टि घोषणा करती है कि मैं पूर्ण हूं। और जब दृष्टि घोषणा करती है कि मैं पूर्ण हूं, और जब दृष्टि कहती है कि मैं दर्शन हूं, तब बड़ी भ्रांति खड़ी हो जाती है। दृष्टि इतना ही कहे कि मैं दृष्टि हूं तब कोई खतरा नहीं है।

दर्शन तो उसी दिन उपलब्ध होगा जिस दिन कोई दृष्टि न होगी। आप किसी दृष्टि से न देख रहे होंगे, आप किसी जग से न देख रहे होंगे, आप सब जगह से देख रहे होंगे, एक साथ सब जगह हो गए होंगे, उस दिन दर्शन उपलब्ध होगा। उस दर्शन को कहने के दो ढंग हो सकते हैं। दो ही ढंग हमारे पास हैं--निषेध के या विधेय के। या तो हम निषेध का उपयोग करें, जैसा बुद्ध ने उपयोग किया और कहा कि निर्वाण है, शून्य है; या, जैसा शंकर ने उपयोग किया और कहा कि ब्रह्म है, पूर्ण है। और मजा यह है कि शंकर और बुद्ध दोनों विपरीत मालूम पड़ते हैं और दोनों बिलकुल एक बात कहे चले जाते हैं। दोनों एक ही बात कहते हैं, सिर्फ उनकी भाषा का मोह भिन्न है। शंकर विधायक शब्द को पसंद करते हैं, वह कहते हैं, ब्रह्म है। बुद्ध नकारात्मक शब्द को पसंद करते हैं, वह कहते हैं, शून्य है।

अगर मुझसे पूछें कि मैं क्या कहूं, तो मैं कहूंगा कि शून्य का एक नाम ब्रह्म है और ब्रह्म का एक नाम शून्य है। और जहां बुद्ध और शंकर दोनों मिल जाते हैं, वहां भाषा खत्म हो जाती है। वहां से असली बात शुरू होती है।

ओशो रजनीश



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्री कृष्ण स्मृति भाग 134

श्री कृष्ण स्मृति भाग 114

श्री कृष्ण स्मृति भाग 122