श्री कृष्ण स्मृति भाग 85

 "भगवान श्री, आपने यह तो स्वीकारा कि पूर्ण मैं और न-मैं में कोई फर्क नहीं है, लेकिन इसके पहले आप अपनी चर्चा में कह चुके हैं कि साधना पूर्ण मैं की दिशा में ले जाती है। और आपने साधना और उपासना में बहुत फर्क किया; लेकिन बाद में आप दोनों को एक मान रहे हैं।'



नहीं, मैंने यह नहीं कहा कि साधना पूर्ण मैं की दिशा में ले जाती है। मैंने कहा, साधना मैं की दिशा में ले जाती है। अगर साधना पूर्ण मैं की दिशा में ले जाए, तो फिर उपासना में कोई फर्क नहीं है। लेकिन साधना नहीं ले जा पाती, और इसलिए साधक को एक दिन मैं को भी खोना पड़ता है। वह मैं की ही दिशा में ले जाती है। क्योंकि पूर्ण मैं तभी हो सकता है जब मैं खो जाए। इसलिए साधक को एक छलांग और लगानी पड़ेगी अंत में। एक साधना करके वह मैं को पाएगा, आत्मा को पाएगा; उसे अंत में आत्मा को भी खोने की छलांग लगानी पड़ेगी। और अगर वह नहीं लगाता, तो वह एक कदम पहले रुक जाएगा। उपासक जो छलांग पहले ही दिन लगा लेता है, वह साधक को अंतिम दिन लगानी पड़ेगी--वह मैंने पीछे बात की है। साधक, साधना, प्रयास एक जगह ले जाएंगे जहां मैं बच जाऊंगा और सब खो जाएगा। अब इस मैं को भी खोना पड़ेगा। उपासक पहले ही क्षण से मैं को खोने की बात करता है। इसलिए अंत में उसके पास खोने को कुछ नहीं बचता। खोने को ही नहीं बचता।

तो जो काम साधक को अंत में करना पड़ता है वह उपासक को प्रथम करना पड़ता है। और मेरी अपनी समझ यह है कि जो काम अंत में करना ही हो, उसे प्रथम ही कर लेना उचित है। इतनी देर तक इस झंझट को ढोना उचित नहीं है। जिस बोझ को फेंक ही देना हो, और पहाड़ के अंतिम शिखर पर जहां जाकर सब बोझ छोड़ देना हो, इसको इतनी पहाड़ी तक कंधे पर ढोने का भी कोई प्रयोजन नहीं है। उपासक यह कहता है कि तुम पहाड़ के नीचे ही कंधे का बोझ रख दो, क्योंकि आखिरी शिखर पर पहुंचने के पहले यह बोझ छोड़ना पड़ेगा। उस ऊंचाई पर यह बोझ नहीं ले जाया जा सकता है। लेकिन हम कहते हैं कि नहीं, जब तक ले जाया जा सकता है तब तक हम ले चलें, जब आएगा मौका तब देख लेंगे। तो हम पूरा पहाड़ बोझ ढोते हैं। आखिरी शिखर के पहले तो छोड़ना पड़ता है। उपासक नीचे ही छोड़ आता है, वह इतने ढोने से बच जाता है। इतना फर्क है। आखिरी शिखर पर फर्क नहीं रह जाएगा। लेकिन, जब आखिरी शिखर पर इतनी दूर तक खींचा गया बोझ छोड़ने का क्षण आएगा, तब उपासक मजे से बढ़ता रहेगा और साधक अड़चन में पड़ेगा। क्योंकि जिसे इतनी दूर तक खींचा, उसके साथ राग और मोह तो बन ही जाता है। और मन करेगा कि पहाड़ चढ़ कर आए, इतनी दूर तक खींचा, अब अंत में छोड़े! हां, रोएगा कि इसको अगर ले जा सकें तो अच्छा है। या सोचेगा कि यहीं टिक जाएं, थोड़ी दूर न भी गए तो क्या हर्ज है, अपने बोझ के साथ ही रुक जाएं। यह समस्या उसके सामने खड़ी होगी। यह उपासक के सामने पहले दिन ही खड़ी होगी, नीचे ही पहाड़ के। उसकी भी कठिनाई तो है। कठिनाई यह है कि साधक बोझ को ले जाता दिखाई पड़ेगा, और उसको लगेगा कि कुछ लोग तो लिए जा रहे हैं और मुझे यहीं छोड़ना पड़ रहा है। कहीं ऐसा न हो कि ये शिखर पर साथ लिए पहुंच जाएं और मैं गरीब यहीं छोड़ जाऊं! और आखिर में पता चले कि यह तो पहुंच गए बोझ के साथ और मैं खाली हाथ पहुंच गया।

इसलिए साधक की कठिनाई अंत में है, उपासक की कठिनाई प्रथम है। अब नहीं कहा जा सकता, "टाइप' हैं दुनिया में। किसी को अच्छा लग सकता है एक, किसी को अच्छा लग सकता है दूसरा। लेकिन कृष्ण को समझते वक्त मैं आपसे कहना चाहता हूं कि कृष्ण का जगत उपासक का है।

ओशो रजनीश



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