श्री कृष्ण स्मृति भाग 86
"भगवान श्री, आप जो सात-आठ साल से धर्मचक्र-प्रवर्तन कर रहे हैं, उसका केंद्रीय तत्व ध्यान मालूम पड़ता है। तो कृपया बताएं कि ध्यान और उपासना में क्या फर्क है और आपके धर्मचक्र-प्रवर्तन का केंद्रीय सूत्र ध्यान और साधना है, कि उपासना है?'
मेरे लिए कोई फर्क नहीं है। मेरे लिए कोई भी फर्क नहीं है। मेरे लिए शब्दों से कोई भी फर्क नहीं पड़ता। सत्य का सवाल है। मैं ध्यान में भी उसी सत्य को कहता हूं, उसी सत्य को प्रार्थना में भी कह देता हूं; उसी सत्य को साधना में भी कहता हूं, उसी सत्य को उपासना में भी कह देता हूं। मेरे लिए फर्क नहीं पड़ता। लेकिन कृष्ण के संदर्भ में आप पूछते हैं, तब फर्क है। महावीर के संदर्भ में पूछेंगे, तब फर्क है। महावीर के लिए योग शब्द उपासना नहीं है। महावीर उपासना शब्द के लिए राजी नहीं होंगे। महावीर साधना के लिए राजी होंगे, बुद्ध साधना के लिए राजी होंगे। "एम्फेटिकली' उनका जोर साधना पर होगा। क्राइस्ट उपासना के लिए राजी होंगे, कृष्ण उपासना के लिए राजी होंगे, मुहम्मद उपासना के लिए राजी होंगे। उनका "एम्फेटिक' शब्द उपासना होगा।
मेरे लिए कोई झंझट नहीं है। मेरे लिए कोई कठिनाई नहीं है। इसलिए बहुत बार ऐसा लगेगा कि कल मैंने जो कहा, आज उससे उलटा कह रहा हूं। मैं बिलकुल मजे से कह सकता हूं। मुझे कोई अंतर नहीं पड़ता। अभी कृष्ण पर बोल रहा हूं, इसलिए उपासना की बात कर रहा हूं; पिछले वर्ष महावीर पर बोल रहा था, इसलिए साधना की बात कर रहा था। अगले वर्ष क्राइस्ट पर बोलूंगा तो कुछ और बात करूंगा। मेरे लिए चूंकि जैसा सत्य दिखाई पड़ता है, उस सत्य के दिखाई पड़ने में अब मेरे लिए कोई फर्क नहीं रह गया है कि कौन के लिए क्या फर्क है। लेकिन जब आप कृष्ण को समझने जाते हैं, तब मैं कृष्ण पर साधना शब्द रखूं, तो कृष्ण के साथ अन्याय होगा। वह कृष्ण का शब्द नहीं है। जैसे महावीर के ऊपर मैं नाचने को थोप दूं...मेरे लिए कोई फर्क नहीं है; महावीर शांत खड़े हैं एक पहाड़ की कंदरा में, वे जिस आनंद में हैं उस आनंद में, और कृष्ण एक वृक्ष के नीचे बांसुरी बजा रहे हैं, उस आनंद में, मेरे लिए कोई फर्क नहीं है...लेकिन अगर कोई कहे कि महावीर और कृष्ण के लिए फर्क नहीं है, तो मैं राजी नहीं होऊंगा। महावीर नाचने को राजी न होंगे। कृष्ण महावीर की तरह आंख बंद करके वृक्ष के नीचे नग्न खड़े होने को राजी न होंगे। मेरे लिए दिक्कत नहीं है, मेरे लिए कठिनाई नहीं है। इसलिए जब आप महावीर को समझने की मुझसे बात करेंगे, तो मैं न कह सकूंगा कि महावीर नाचते हैं। इसलिए जब आप महावीर को समझने की मुझसे बात करेंगे, तो मैं न कह सकूंगा कि महावीर नाचते हैं। मैं कैसे कह सकूंगा? यह महावीर के साथ अन्याय हो जाएगा। आप कृष्ण को समझ रहे हैं तो मैं न कह सकूंगा कि कृष्ण आंख बंद करके और वृक्ष के नीचे ध्यान करते हैं। यह मैं न कह सकूंगा। वृक्ष के नीचे कृष्ण ने सदा नाच किया है, ध्यान कभी नहीं किया।
कृष्ण ने कभी ध्यान ही किया है, इसकी भी कोई खबर नहीं है। महावीर कभी नाचें, साधना के पहले भी, वह भी नहीं है संभव। तो जब मैं कृष्ण की बात कर रहा हूं, इसलिए उपासना शब्द पर जोर दे रहा हूं। मेरे लिए अंतर नहीं है। मेरे लिए कोई अंतर नहीं है, मेरे लिए तो साधना भी एक "टाइप' के लोगों के लिए जरूरी है, उपासना भी एक "टाइप' के लोगों के लिए जरूरी है। और मैं दोनों में सत्य को देखता हूं और दोनों का सत्य मैंने आपसे कहा कि दोनों की अड़चन है, दोनों की सुविधा है। लेकिन फिर भी दोनों को ठीक से साफ-साफ समझ लेना आपके लिए उपयोगी है। मेरे लिए जरा भी उपयोगी नहीं है दोनों में फासला करना। आपके लिए तो निर्णय करना पड़ेगा कि आप साधक की यात्रा पर जाते हैं कि उपासक की यात्रा पर जाते हैं। मेरे लिए कोई यात्रा नहीं है, मुझे किसी यात्रा पर जाना नहीं है। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि मुझे कोई उपासक समझे कि साधक समझे, कि दोनों न समझे, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है। आपके लिए मैं दोनों चीजों को साफ-साफ अलग-अलग कर देना चाहता हूं, क्योंकि आपके लिए तो निर्णय लेना होगा। आपको तो तय करना होगा कि आप किस ढंग के आदमी हैं। आपके लिए क्या निकट होगा। आप उपासना के निकट से पहुंच पाएंगे कि साधना के निकट से पहुंच पाएंगे। जिन्हें पहुंचना है उन्हें तय करना पड़ेगा, जिन्हें जाना है उन्हें तय करना पड़ेगा। जो जहां खड़े हैं वहीं पहुंचे हुए समझ रहे हैं, उनके लिए कोई सवाल नहीं है। अगर किसी दिन आपको यह समझ में आ जाए कि न कहीं जाना है, न कहीं पहुंचना है, तब न उपासना शब्द सार्थक है, न साधना शब्द सार्थक है। तब आप दोनों पर हंस सकते हैं और कहते हैं कि दोनों तरह की बातें पागलपन की होंगी, क्योंकि हम तो वहीं खड़े हैं जहां हैं। जहां पहुंचना है वहां तो हम हैं ही।
एक झेन फकीर एक गुफा के बाहर सोता रहता है। और जिस गुफा के बाहर वह सोया है वह तीर्थयात्रियों का मार्ग है, जहां से पहाड़ पर तीर्थयात्री जाते हैं। जो भी वहां से गुजरता है, उस फकीर को सोया देखकर कहता है कि अरे, तुम यहां क्यों पड़े हो? तीर्थयात्रा पर नहीं चलना है? तो वह फकीर कहता है, तुम जहां जा रहे हो, हम वहां पहुंच गए हैं। फिर लौटता हुआ कोई उससे पूछता है कि अरे, तुम यहीं पड़े हुए हो! ऊपर तक नहीं गए? तो वह कहता है, तुम जहां से आ रहे हो, हम वहीं रहते हैं। और वह वहीं पड़ा रहता है। तो वह न कभी तीर्थ करने गया, न कभी जाएगा, और यात्री अपना सिर ठोंककर आगे बढ़ जाते हैं कि पागल है! लेकिन वह कहता है कि तुम जहां जा रहे हो, हम वहां हैं ही। तुम जहां से आ रहे हो, हम वहां सदा से हैं।
ऐसे आदमी को न साधना का अर्थ है, न उपासना का अर्थ है। तो मैं कभी साधना की बात करता हूं, कभी उपासना की, कभी दोनों के पागलपन की भी बात करूंगा। लेकिन अगर आप ठीक-ठीक समझेंगे, तो विरोधाभास दिखाई नहीं पड़ेगा, विरोधाभास है नहीं।
ओशो रजनीश
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