श्री कृष्ण स्मृति भाग 88
"एक अंतिम बात पूछूं, कृष्ण अपने पिछले जन्मों में कभी-न-कभी तो अपूर्ण और अज्ञानी रहे ही होंगे!'
अपूर्ण और अज्ञानी तो महावीर भी किसी जन्म में नहीं रहे हैं। सिर्फ पता उनको इस जन्म में चला है। और कृष्ण को सदा से पता है। अपूर्ण और अज्ञानी तो आप भी नहीं हो। अपूर्ण और अज्ञानी तो कोई भी नहीं है; बस पता चलने की देर है। जो फर्क है, वह अपूर्ण होने का नहीं है, वह बोध का है।
यहां सब आदमी सोए हुए हैं, सूरज निकला हुआ है, एक आदमी जागा हुआ है। यह जो आदमी जागा हुआ है और ये जो आदमी सोए हुए हैं, इन दोनों के लिए सूरज निकला हुआ है। सूरज के निकलने में कोई फर्क नहीं है। एक आदमी जागा हुआ है, उसे पता है कि सूरज निकला है, बाकी सोए हैं, उन्हें पता नहीं है कि सूरज निकला है। जब वे जागेंगे, वे कहेंगे, अरे, अब सूरज निकला! नहीं, उचित यही होगा कि वे कहें कि सूरज तो निकला था, हम अब जागे हैं। अपूर्ण, अज्ञानी न महावीर हैं, न कृष्ण हैं, न आप हो।
लेकिन कृष्ण अपने को किसी भी तल पर कभी भी ऐसा नहीं जानते, इसलिए कोई चेष्टा नहीं करते। किसी तल पर महावीर चेष्टा करके जानते हैं कि अपूर्ण और अज्ञानी नहीं हैं, पूर्ण हैं और ज्ञानी हैं। जिस दिन वे जानते हैं, उस दिन यह भी जान लिया जाता है कि यह होना उसका सदा से था। सिर्फ पता अब चला। और क्या फर्क पड़ता है कि किसी को दो जन्म पहले चला और किसी को दो जन्म बाद चला! हमको बहुत दिक्कत मालूम होती है। किसी को दस जन्म पहले चला और किसी को दस जन्म बाद चला, क्योंकि हम "टाइम' में जीते हैं। हमारा सारा सवाल यह है कि कौन पहले, कौन पीछे? लेकिन जगत में समय का न हो प्रारंभ है, न कोई अंत है। इसमें आगे और पीछे का क्या मतलब है? आगे और पीछे का तभी तक मतलब है जब तक अंत और आदि को हम मानते हों। अगर समय का कोई प्रारंभ ही नहीं है, तो मुझसे दो दिन पहले जिसे ज्ञान मिला, उसे मुझसे पहले मिला? और अगर समय का कोई अंत ही नहीं है, तो मुझे दो दिन बाद मिला, मुझे उससे बाद में मिला?
नहीं, ये बाद और पहले तभी सार्थक हो सकते हैं जब आगे-पीछे खंभे लगे हों कि वहां समय खत्म हो जाता है, वहां समय शुरू होता है। अगर कभी समय शुरू होता हो, तो उसको मुझसे दो दिन पहले मिल गया। उस खंभे से नाप की जा सकती है कि यह आदमी दो दिन पहले मुझसे पहुंचा। आगे के खंभे से नाप की जा सकती है कि मैं दो दिन बाद पहुंचा हूं। लेकिन अगर पीछे कोई प्रारंभ न हो और आगे कोई अंत न हो, तो कौन पहले पहुंचा और कौन पीछे पहुंचा? पहले और पीछे पहुंचने की धारणाएं हमारी समय की धारणाएं हैं। और जो भी पहुंचते हैं, वे समयातीत, कालातीत, "बियांड टाइम' पहुंच जाते हैं।
इसलिए एक मैं अजीब-सी बात आपसे कहूं कि जिस क्षण महावीर पहुंचते हैं, उसी क्षण कृष्ण पहुंचते हैं। मगर यह बड़ा मुश्किल होगा। इसे थोड़ा समय को समझकर फिर समझना पड़ेगा।
जिस क्षण कोई भी पहुंचा है इस जगत में, उसी क्षण सब पहुंचते हैं। इसे ऐसा समझें थोड़ा-सा। एक बड़ा वर्तुल हम बनाएं, एक "सर्किल' बनाएं। "सर्किल' के बीच में एक "सेंटर' हो। और "सर्किल' से, परिधि से हम कई रेखाएं "सेंटर' की तरफ खींचे। परिधि पर रेखाओं में फासला होगा, दो रेखाओं में दूरी होगी। फिर दोनों रेखाएं केंद्र की तरफ चलती हैं, तो दूरी कम होती जाती है। फिर वे जब केंद्र पर पहुंचती हैं तो दूरी समाप्त हो जाती है। परिधि पर दूरी होती है, केंद्र पर दूरी समाप्त हो जाती है। "टाइम' की जो "सरकमफरेंड' है, समय की जो परिधि है, उस पर महावीर एक दिन छलांग लगाकर केंद्र पर पहुंचते हैं। समय की परिधि पर कृष्ण और महावीर के बीच फासला है। मेरे और कृष्ण के बीच फासला है। आपके और मेरे बीच फासला है। लेकिन जिस दिन केंद्र पर पहुंचते हैं उस दिन कोई फासला नहीं रह जाता। समय के केंद्र पर फासले समाप्त हो जाते हैं। लेकिन यह सब कठिन है। यह खयाल में लेना कठिन है, क्योंकि हम परिधि पर जीते हैं और हमें "सेंटर' का कोई पता नहीं है।
इसे ऐसा भी समझ लें। एक बैलगाड़ी का चाक चलता है। तो चाक चलता है, लेकिन कील खड़ी रहती है। और बड़े मजे की बात तो यह है कि खड़ी हुई कील पर ही चाक चलता है। चलता उसके आधार पर है, जो नहीं चलती है। चाक कई मील चल जाएगा और चाक कहेगा कि दस मील की यात्रा की, और अगर कील से पूछें कि कील तूने कितनी यात्रा की, कील कहेगी, मैं वही हूं। लेकिन बड़े मजे की बात है जिस कील पर चाक दस मील चल गया, वह कील जरा-सा भी नहीं चली। तो चाक कैसे चला होगा, जब कील नहीं चली जरा भी? और कील तो यही कहेगी कि मैं वही हूं, मैं बिलकुल चली ही नहीं। और चाक कहेगा, मैं दस मील चल गया। और कील और चाक एक ही साथ जुड़े हैं। तो चाक जो कील से जुड़ा है, दस मील चल गया, और कील जो चाक से जुड़ी है बिलकुल नहीं चली--ये दोनों बातें एकसाथ कैसे हो सकती हैं? ये एकसाथ हो जाती हैं। हम रोज गाड़ी में देखते हैं। ये इसलिए हो जाती हैं कि कील "सेंटर' पर है और चाक परिधि पर है। कील "सेंटर' पर है और चाक परिधि पर है। परिधि पर इतिहास, समय है। और कील पर सत्य है, ब्रह्म है।
महावीर और कृष्ण एक ही क्षण वहां पहुंचते हैं। और जब वे वहां पहुंचते हैं तो ऐसा पता नहीं चलता है कि कौन पहले पहुंचा और कौन पीछे पहुंचा। लेकिन जहां परिधि पर जीने वाले लोग हैं, चाक पर जीने वाले लोग हैं, वहां कोई कभी पहुंचता है, कोई कभी पहुंचता है, कोई कभी पहुंचता है, ये सब समय के फासले हैं। समय के फासले वहां नहीं हैं, क्योंकि समय के बाहर समय का कोई फासला नहीं है।
ओशो रजनीश
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