श्री कृष्ण स्मृति भाग 91

 "भगवान श्री, चैतन्य महाप्रभु का जीव-जगत जो जगदीश से भिन्न भी है और अभिन्न भी है, वह अचिंत्य भेदाभेदवाद है। वह आपके कील और पहिये के नजदीक आता है?'


बिलकुल आ जाएगा, बिलकुल आ जाएगा। चैतन्य कृष्ण को प्रेम करने वाले यात्रियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। अचिंत्य भेदाभेद, इसमें कीमती शब्द अचिंत्य है, "अनथिंकेबल'। जो सोचते हैं, वे या तो कहेंगे कि जगत में जीवन और जगत का भेद है, तो भेदवाद होगा। या वे कहेंगे कि जीवन और जगत एक है, तो अभेदवाद होगा। चैतन्य कहते हैं, दोनों हैं--भेद-अभेद दोनों हैं। एक भी हैं, भिन्न भी हैं। जैसे लहर भिन्न भी है सागर से और एक भी है। निश्चित ही। लहर भिन्न है तब तो हमने उसे नाम दिया लहर का। और एक तो है ही। अगर सागर से एक न हो तो होगी कहां! तो लहर एक भी है और भिन्न है, भेद भी है और अभेद भी है। इतना भी चिंतन में आ जाता है कि एक भी हो सकती है, भिन्न भी हो सकती हैं। उस पर एक शब्द और जड़ देते हैं वह, कहते हैं, अचिंत्य, "अनथिंकेबल'। वही शब्द बड़ा अदभुत है। वह यह कहते हैं कि अगर यह भी तुमने चिंतन से पाया, तो तुमने कुछ पाया नहीं। अगर यह भी तुमने सोच-सोच कर पाया है, तो यह सिर्फ सिद्धांत है, कुछ पाया नहीं। अगर सोचने के बाहर पाया है, तो फिर अनुभव में पाया है।

इसे समझना अच्छा होगा।

जब तक हम सोचकर पाते हैं तब तक शब्दों में ही पाते हैं। और जब हम जीकर पाते हैं तब हम शब्दों के बाहर पाते हैं, वह अचिंत्य हो जाता है। जीवन पूरा ही अचिंत्य है। उसका कोई चिंतन नहीं होता। एक आदमी प्रेम को समझे और शास्त्रों से समझ ले, तो बहुत लिखा है शास्त्रों में। शायद प्रेम के संबंध में जितना लिखा है, किसी और चीज के संबंध में नहीं लिखा है। विराट साहित्य है प्रेम का--काव्य हैं, महाकाव्य हैं, व्याख्यायें हैं, चर्चायें हैं, कोई आदमी प्रेम को समझ ले। तो समझ लेगा, प्रेम की व्याख्या कर देगा। लेकिन फिर भी प्रेम को उसने जाना नहीं। तो और एक आदमी है, जिसने कि प्रेम के संबंध में कुछ भी नहीं सुना, कुछ भी नहीं समझा, कुछ भी नहीं जाना, लेकिन प्रेम जिआ है। इन दोनों में फर्क क्या होगा? इनकी जानकारी का क्या भेद होगा? एक की जानकारी चिंत्य है, एक की जानकारी चिंतन से उपलब्ध हुई है। एक की जानकारी चिंत्य नहीं है, अनुभव है। अनुभव सदा अचिंत्य है। वह चिंतन से नहीं आता, चिंतन के पहले आ जाता है। और अनुभव के पीछे चिंतन चलता है। अनुभव पहले आ जाता है, चिंतन सिर्फ अभिव्यक्त करता है।

इसलिए चैतन्य कहते हैं, अचिंत्य है। और चैतन्य के कहने का अर्थ जरा ज्यादा है। ऐसे तो मीरा भी कहेगी कि सोच-समझ के परे है, लेकिन मीरा कभी बहुत सोच-समझ की स्त्री थी ही नहीं। लेकिन चैतन्य तो महातार्किक थे। चैतन्य की जो खूबी है वह यह है कि यह आदमी तो महातार्किक था। इसके तर्क का तो कोई अंत न था। इसने तो चिंतन की ऊंची-से-ऊंची शिखर को छुआ है। इसके साथ विवाद करने की सामर्थ्य न थी किसी की। विवाद में जहां खड़ा होता विजेता ही होता। तो जब यह चैतन्य इतना सब विवाद करके, इतना सब पांडित्य रचकर, इतना सब तर्क और ऊहापोह करके एक दिन कहने लगे कि अब मैं नाचूंगा और अचिंत्य को खोजूंगा, तब इसका अर्थ और हो जाता है। मीरा तो कभी कोई तार्किक थी नहीं। प्रेम उसका जीवन था। उसमें प्रेम के फूल लगे, तो सहज थे। यह आदमी उलटे थे चैतन्य। यह आदमी प्रेम के आदमी न थे और अगर प्रेम की तरफ आए तो  चिंतन की पराजय से आए। किसी और से पराजित होकर नहीं, अपने ही भीतर चिंतन को पराजित पाकर कि वह जगह आ गई जहां चिंतन हार जाता है और बाहर जीवन आगे शेष रह जाता है।

इसलिए मैंने कहा कि कृष्ण के मार्ग पर चले हुए लोगों में चैतन्य का मुकाबला नहीं है। ध्यान में है मेरे कि मीरा भी उस मार्ग पर है, लेकिन चैतन्य से मुकाबला नहीं है। क्योंकि चैतन्य जैसा आदमी नाच नहीं सकता। चैतन्य जैसा आदमी मंजीरा ठोंककर सड़कों पर भाग नहीं सकता। और जब चैतन्य जैसा आदमी मंजीरा ठोंकने लगे और हरे कृष्ण, हरे राम कहकर सड़कों पर नाचने लगे, तो सोचने जैसा है। तो जरा विचारने जैसा है। ऐसे जैसे बर्ट्रेंड रसल नाचने लगें। बस, वैसे ही आदमी हैं वह। इसके वक्तव्य का मूल्य बहुत ज्यादा हो जाता है। इसके वक्तव्य का मूल्य ही यही है कि इस आदमी का नृत्य में उतर जाना और झांझ-मंजीरा पीटने लगना और यह कह देना कि अचिंत्य है वह और अब हम चिंतन छोड़ते हैं और अचिंतन से उसे पाएंगे, इस बात की खबर देता है कि चिंतन के पार भी केवल वे ही जा सकते हैं ठीक से, जो गहन चिंतन में उतरते हैं। गहन चिंतन में उतरते हैं वे एक दिन जरूर उस सीमारेखा पर पहुंच जाते हैं जहां वह "लिमिट' आ जाती है, सीमांत आ जाता है, जहां पत्थर लगा है और लिखा है कि बुद्धि अब यहीं तक चलती है, आगे नहीं चलती। जगह है ऐसी जहां बुद्धि का सीमांत आ जाता है। इसलिए चैतन्य के वक्तव्य का बड़ा मूल्य है। वह उस पत्थर के आगे गया मूल्य है। मीरा उस पत्थर तक कभी पहुंची नहीं, उसने उस पत्थर तक कभी भी कोई यात्रा नहीं की।

ओशो रजनीश



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