श्री कृष्ण स्मृति भाग 93

 "भगवान श्री, पश्चिम में "कृष्ण कांशसनेस' के आंदोलन का नेतृत्व "इर्रेशलन' कवि एलन गिन्सबर्ग ने लिया है। चिंतक वर्ग पर अभी तक कोई प्रभाव पड़ा नहीं लगता। दूसरा आप "एफ्लुयेंट सोसाइटी' की कल ही बात करते थे। वे चतुर्वर्ण थे। गीता में भी, भागवत में भी सुदामा का जो वर्णन आता है उसमें वह दारिद्रय का प्रतीक है। कृष्ण के जमाने में भी सुदामा "पावर्टी का प्रतीक था। गीता में "कलौ केशव कीर्तनात्' और "यज्ञानाम् जपयज्ञस्मि' का क्या अर्थ है?'


नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूं कि उस दिन कोई गरीब न था और न मैं यह कह रहा हूं कि आज पश्चिम में कोई गरीब नहीं है। यह मैं नहीं कह रहा हूं। खोजने से पश्चिम में गरीब मिलेंगे ही। गरीब तो हैं ही। समाज गरीब नहीं है। गरीब उस दिन भी थे, सुदामा उस दिन भी था। लेकिन समाज गरीब नहीं था। समाज की गरीबी और बात है, गरीब व्यक्ति खोज लेना और बात है। आज हम भारत के समाज को गरीब कह सकते हैं, हालांकि बिड़ला भी मिलेंगे। लेकिन बिड़ला के कारण भारत का समाज अमीर नहीं हो सकता। सुदामा के कारण उस दिन समाज गरीब नहीं हो सकता।

हिंदुस्तान के इतने गरीब समाज में अमीर तो मिलेगा ही। पश्चिम के, अमरीका के संपन्न समाज में भी गरीब तो मिलेगा ही। यह सवाल नहीं है। सवाल यह है कि बहुजन, समाज का पूरा-का-पूरा ढांचा संपन्न था। जो उस दिन जीवन की सुविधा थी, वह अधिकतम लोगों को उपलब्ध थी। आज अमरीका में जो जीवन की सुविधा है, वह अधिकतम लोगों को उपलब्ध है। संपन्न समाज में उत्सव प्रवेश कर सकता है, गरीब समाज में उत्सव प्रवेश नहीं कर सकता। गरीब समाज में उत्सव धीरे-धीरे विदा होता जाता है। या कि उत्सव भी फिर एक काम बन जाता है। गरीब समाज उत्सव भी मनाता है, दिवाली भी मनाता है, तो कर्ज लेकर मनाता है। होली भी खेलता है तो पिछले वर्ष के पुराने कपड़े बचाकर रखता है। होली के दिन फटे-पुराने कपड़ों को सिलाकर निकल आता है। अब जब होली ही खेलनी है तो फटे-पुराने कपड़ों से खेली जा सकती है। तो मत ही खेलो। होली का मतलब ही यह है कि कपड़े इतने ज्यादा हैं कि रंग में भिगाए जा सकते हैं। गरीब आदमी भी होली तो खेलेगा, लेकिन वह पुराने ढांचे को ढो रहा है सिर्फ। नहीं तो होली के दिन जो सबसे अच्छे कपड़े थे वही पहनकर निकलते थे लोग। उसका मतलब ही यह था कि इतने कपड़े हैं, तुम रंग डालो! लेकिन जिससे हम रंग डलवाने जा रहे हैं, उसको भी धोखा दे रहे हैं, कपड़ा पुराना, सी-सीकर आ गए हैं, धुलवाकर आ गए हैं। वह रंग डालने वाले को भी धोखा दे रहे हैं। तो रंग डालने का मतलब ही क्या था? जिन लोगों ने कपड़ों पर रंग डालने का खेल खेला होगा, उसके पास कपड़े जरूरत से ज्यादा रहे होंगे, अन्यथा नहीं खेल सकते हैं यह खेल। हम भी खेल रहे हैं, लेकिन हमारा खेल सिर्फ एक ढोना है एक रूढ़ि को। इसलिए दिल दुखता है। होली के दिन कोई कपड़े पर रंग डाल जाता है तो दिल दुखता है। दिल खुश होना चाहिए कि किसी ने रंग डालने योग्य माना, लेकिन दिल दुखता है। दुखेगा, क्योंकि कपड़े भारी महंगे पड़ गए हैं, अब कपड़े इतने आसान नहीं रह गए हैं। हां, पश्चिम में होली खेली जा सकती है। अभी कृष्ण का नृत्य चल रहा है, आज नहीं कल होली पश्चिम में प्रवेश करेगी, इसकी घोषणा की जा सकती है। पश्चिम होली खेलेगा। अब उनके पास कपड़े हैं, रंग भी है, समय भी है, फुर्सत भी है, अब वे खेल सकेंगे। और उनकी होली में एक आनंद होगा, उत्सव होगा, जो हमारी होली में नहीं हो सकता है।

संपन्नता से मेरा मतलब है, "ऑन द होल' पश्चिम का समाज संपन्न हुआ है। और जब पूरा समाज संपन्न होता है, तो जो उस समाज में दरिद्र होता है वह भी उस समाज के संपन्न से बेहतर होता है, जो समाज दरिद्र होता है। यानी आज अमरीका का दरिद्रतम आदमी भी पैसे पर उतना पकड़ वाला नहीं है, जितना हिंदुस्तान का संपन्नतम आदमी है। हिंदुस्तान के अमीर-से-अमीर आदमी की पैसे पर पकड़ इतनी ज्यादा है--होगी ही--क्योंकि चारों तरफ दीन-दरिद्र समाज है। अगर वह जोर से न पकड़े तो कल वह भी दीन-दरिद्र हो जाएगा।

मैंने सुनी है एक घटना कि एक भिखारी बहुत मस्त, स्वस्थ, तगड़ा भिखारी एक घर के सामने भीख मांग रहा है। गृहणी ने उसे दिया है कुछ, दिल खोलकर दिया है। फिर उसकी तरफ गौर से देखा है कि वह स्वस्थ है, सुंदर है। उसने उससे पूछा कि तुम्हें देखकर तो ऐसा नहीं लगता कि गरीब के घर में पैदा हुए हो, लेकिन गरीब कैसे हो गए? तो उसने कहा, इसी भांति जिस भांति तुम हो जाओगी। जितने मजे से तुमने दिया है, इतने मजे से मैं देता रहा। ज्यादा देर न लगेगी कि तुम सड़क पर आ जाओगी।

जब चारों तरफ गरीब समाज हो तो धन की पकड़ पैदा होती है। अमीर-से-अमीर आदमी धन को पकड़ लेता है। जब समाज संपन्न हो तो गरीब-से-गरीब आदमी धन को छोड़ पाता है। क्योंकि कोई डर नहीं है, कल फिर मिल सकता है। कोई असुरक्षा नहीं है। कोई भय नहीं है।

इस अर्थ में मैंने कहा। और इस अर्थ में भी कहा। दूसरी बात जो पूछी है, वह भी सोच लेनी चाहिए। वह यह पूछी है कि पश्चिम में एलन गिन्सबर्ग और इस तरह के लोगों से वह जो "ब्रेक थ्रू' है, वह जो छलांग है, आ रही है। ये सारे-के-सारे लोग, चाहे "एक्जिस्टेंशियलिस्ट' हों और चाहे बीटल हों और चाहे बीटनिक हों और चाहे हिप्पी हों और चाहे इप्पी हों, किसी भी तरह के लोग हों, ये सारे-के-सारे लोग "इर्रेशनलिस्ट' हैं, ये सारे-के-सारे लोग अबुद्धिवादी हैं।

पश्चिम का कोई बुद्धिवादी अभी इन बातों से प्रभावित नहीं है। इसके कारण हैं।

यह जो अबुद्धिवादी पीढ़ी पश्चिम में पैदा हुई है, जो "इर्रेशनलिस्ट जेनरेशन' पैदा हुई है, यह पिछली पीढ़ी के अति बुद्धिवाद से पैदा हुई है। यह उसकी प्रतिक्रिया है। असल में किसी समाज में अबुद्धिवादी तभी पैदा होते हैं जब बुद्धिवाद चरम पर पहुंच जाता है। नहीं तो पैदा नहीं होते। रहस्य की बात तभी शुरू होती है जब तर्क बिलकुल प्राण लेने लगता है। परमात्मा की बात तभी शुरू होती है जब पदार्थ छाती पर पत्थर होकर बैठ जाता है। और ध्यान रहे, गिन्सबर्ग, या सार्त्र, या कामू, या कोई और ये सारे लोग घूम-फिर कर जहां "एब्सर्ड' में खो जाते हैं, अतक्र्य में खो जाते हैं, उससे आप यह मत समझ लेना कि ये हमारे ग्रामीण अबुद्धिवादी जैसे लोग हैं। ये अपने अबुद्धिवाद में बड़े बुद्धिवादी हैं। इनका वह जो अतक्र्य होना है, अचिंत्य होना है, वह ऐसा नहीं है जो श्रद्धालु का है। वह किसी श्रद्धालु का अचिंत्य होना नहीं है। वह चैतन्य जैसा ही है। वह उसका ही अचिंत्य होना है जिसने चिंतन कर-करके, थक-थककर पाया है कि बेकार है। तो गिन्सबर्ग के वक्तव्य, या उसकी कविता अगर "एब्सर्ड' है, अगर अतक्र्य है, या बुद्धि के परे है, या अबुद्धिवादी है, या बुद्धिविरोधी है, तो ध्यान रखना, उसके इस अबुद्धिवादी होने में भी एक "सिस्टम' है, एक व्यवस्था है।

नीत्से ने कहीं कहा है कि मैं पागल हूं, "बट माइ मैडनेस हैज इट्स ओन लाजिक'। लेकिन मेरे पागल होने का अपना तर्क है। मैं कोई ऐसे ही पागल नहीं हूं। मैं कोई ऐसा पागल नहीं हूं जैसे पागल होते हैं। मेरे पागल होने का भी कारण है। मेरे पागल होने की भी "सिस्टम' है।

यह अबुद्धिवादी जो है, जानकार है। होशपूर्वक है। चेष्टापूर्वक है। इस अबुद्धिवाद का अपना आग्रह है। इस अबुद्धिवाद में बुद्धिवाद का स्पष्ट विरोध है, खंडन है। निश्चित ही जब अबुद्धिवाद खंडन करता है, विरोध करता है, तो तर्कों से नहीं करता है। क्योंकि अगर वह तर्कों से करे, तो वह खुद ही बुद्धिवादी हो जाता है। नहीं, वह अतक्र्य जीवन-व्यवस्था से करता है। गिन्सबर्ग एक छोटी-सी "पोएट गेदरिंग' में कविता पढ़ रहा था। और कविता उसकी बेमानी है, "मीनिंगलेस' है। एक कड़ी की दूसरी कड़ी से कोई संगति नहीं है। पहली कड़ी और दूसरी कड़ी में कोई तालमेल नहीं है। प्रतीक सब बेहूदे हैं। प्रतीकों का परंपरा से कोई संबंध नहीं है। बड़ा दुस्साहस है। असंगत दीखने से बड़ा दुस्साहस जगत में दूसरा नहीं है। इसलिए असंगत होने का दुस्साहस केवल वही कर सकता है, जिसे प्राणों के बहुत गहरे में संगति का भाव हो। जो जानता है कि मैं संगत हूं ही। कितना ही असंगत वक्तव्य दूं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरी संगति सुरक्षित है।

जिनकी संगति बहुत आत्मिक नहीं है, वे एक-एक वक्तव्यों को तौलत्तौलकर चलेंगे, एक-एक वाक्य को तौलत्तौलकर चलेंगे, क्योंकि डर है कि अगर दो वक्तव्य असंगत हो गए, तो भीतर की असंगति प्रगट न हो जाए। जो भीतर बिलकुल ही "कंसिस्टेंट' है, "ही कैन एफॅर्ड टू बी इनकंसिस्टेंट', वह "इनकंसिस्टेंट' हो सकता है। तो वह गिन्सबर्ग बड़ी असंगत कविता कह रहा है। बड़ा दुस्साहस है। एक आदमी खड़े होकर कहता है कि बड़े दुस्साहसी आदमी मालूम पड़ते हो। लेकिन, कविता करने से क्या होगा? कोई "एक्ट', कोई "डीड', कोई कृत्य करके दिखाओ साहस का। तो गिन्सबर्ग सारे कपड़े छोड़कर नंगा खड़ा हो जाता है। सारे कपड़े छोड़ देता है, नंगा खड़ा हो जाता है। वह कहता है, यह मेरी कविता की आखिरी कड़ी है। वह उस आदमी से कहता है, कृपा करो और तुम भी नंगे खड़े हो जाओ। वह आदमी कहता है यह मैं कैसे हो सकता हूं! यह मैं कैसे हो सकता हूं! और वह हाल सकते में आ जाता है। क्योंकि किसी को खयाल न था कि कविता का अंत ऐसा हो सकता है, या कविता की ऐसी कड़ी आखिरी हो सकती है। उससे लोग पूछते हैं, गिन्सबर्ग, तुमने ऐसा क्यों किया? गिन्सबर्ग कहता है कि हम सोचकर नहीं करते हैं। ऐसा हो गया। ऐसा हो गया! मुझे ऐसा लगा कि अब क्या करूं? वह आदमी पूछता है, कुछ करके दिखाओ। अब मैं क्या करूं! यहां कौन-सा साहस करूं! यह कैसे करूं! अब मैं क्या करूं, यह आदमी कहता है कि साहस कुछ करके दिखाओ, तो अब कविता को कहां अंत करूं?

मगर यह "स्पांटेनियस' है, यह कोई सोचा-विचारा नहीं है, लेकिन अतक्र्य है। कविता से इसका कोई संबंध नहीं है। कोई कालिदास, कोई भवभूति, कोई रवींद्रनाथ यह नहीं कर सकते। वे कवि हैं, परंपरा से बंधे हुए कवि हैं। यह हम सोच ही नहीं सकते कि कालिदास ऐसा करेंगे। यह सोच ही नहीं सकते कि भवभूति ऐसा करेंगे। यह हम सोच ही नहीं सकते कि रवींद्रनाथ ऐसा करेंगे। यह नहीं हो सकता। यह खयाल में ही नहीं हो सकता। यह आदमी कर पा रहा है। यह यही कह रहा है कि तर्क से सोच-सोचकर कब तक जियोगे? कब तक तुम "सिलोजिज्म', तुम्हारी जिंदगी होगी? कब तक तुम दो और दो जोड़कर जिंदा रहोगे? कब तक तुम हिसाब, खाते-बही करोगे और जिंदा रहोगे? छोड़ो खाते-बही, छोड़ो हिसाब और जिंदा रहो। अब यह जिंदा रहना कैसा होगा?

इसलिए गिन्सबर्ग जैसे व्यक्ति मेरे लिए गांव के गंवार, ग्रामीण श्रद्धालु नहीं हैं। यह एक बहुत पक्की गहरी बुद्धिवादी परंपरा की आखिरी कड़ी है। और जब बुद्धिवादी परंपरा मरती है, जब वह सीमा पर पहुंच जाती है, जब उसे इनकार करने वाले लोग पैदा होते हैं...मैं मानता हूं, कृष्ण भी बहुत बड़ी बुद्धिवादी परंपरा की आखिरी कड़ी हैं। हिंदुस्तान बुद्धि के चरम शिखर छुआ है। हमने शब्दों की खाल उधेड़ डाली है। हमने बाल को काटने की, बीच से चीरने की कोशिश की है। हमारे पास बहुत ऐसा साहित्य है, जो दुनिया की किसी भाषा में अनुवादित नहीं हो सकता, क्योंकि इतने बारीक शब्द दुनिया की किसी भाषा के पास नहीं हैं। हमारे पास ऐसे शब्द हैं, जो पूरे पृष्ठ पर एक ही शब्द होता है। क्योंकि हम इतने विशेषण लगाते हैं उसमें और इतनी शर्तें लगाते हैं और इतनी बारीकियां करते हैं कि पूरे पृष्ठ पर एक ही शब्द फैल जाता है। कृष्ण भी एक अत्यंत बुद्धिवादी परंपरा का आखिरी छोर हैं, जहां हम सोच चुके हैं, जहां हम वेद सोच चुके हैं और जहां हम उपनिषद सोच चुके हैं और जहां हम पतंजलि सोच चुके हैं और जहां हम कपिल और कणादि सोच चुके हैं और जहां हमने समस्त, वृहस्पति से लेकर, सब सोच डाला है और सोच-सोचकर हम बुरी तरह से थक गए हैं, उसकी आखिरी कड़ी में यह आदमी कृष्ण आता है। यह कहता है, अब बहुत सोचना हो गया, अब हम जीना शुरू करें। "लेट अस नाव लिव, इनफ आफ थिंकिंग'; बहुत हो चुका सोचना, अब जियेंगे कब?

और दूसरी बात भी इस संदर्भ में आपसे कहूं कि चैतन्य भी बंगाल में ऐसे ही समय में आते हैं। बंगाल में "नव्व न्याय' ने, मनुष्यजाति ने चिंतन की जो आखिरी कड़ियां छुई हैं, वह छुई। जिस गांव में चैतन्य पैदा हुए, वह हिंदुस्तान के तार्किकों का अन्यतम गांव है। वह नवदीप, जहां वे जन्मे, हिंदुस्तान के श्रेष्ठतम तार्किक नवदीप में इकट्ठे थे। वह काशी थी तार्किकों की। हिंदुस्तान भर का तर्क नवदीप में जन्म रहा था और "नव्व न्याय' वहां पैदा हुआ। वहां हमने तर्क की नई ऊंचाइयां छुईं, जो अभी पश्चिम छूने को है। अभी पश्चिम के पास जो भी तर्क है सब "ओल्ड' है, नव्व नहीं है। अभी अरस्तू पश्चिम के लिए तर्कशास्त्री है। नवदीप में हमने अरस्तू के आगे कदम बढ़ाया, नवदीप में हमने तर्क को उसकी आखिरी सीमा पर पहुंचा दिया। इतना ही कह देना काफी था कि कोई पंडित नवदीप से आता है, फिर उससे कोई विवाद नहीं करता था। उससे विवाद करना बेकार था। उससे झगड़े में पड़ना बेकार था। वह नवदीप से आता है, इतनी गवाही काफी थी कि वह जीत का "सर्टिफिकेट' लेकर आता है। उससे तर्क में जीतने का कोई कारण नहीं, लड़ने की झंझट में पड़ना उचित नहीं। उस नवदीप में चैतन्य पैदा हुए हैं। चैतन्य खुद भी वैसे ही तार्किक हैं। उन्होंने बड़े तार्किकों को उस नवदीप में हराया। उस नवदीप में जीतने के लिए हिंदुस्तान से तार्किक जाते थे और जो आदमी नवदीप में जाकर जीत जाता था, उसकी डुगडुगी सारे देश में बज जाती कि इससे बड़ा बुद्धिशाली कोई आदमी नहीं है! नवदीप जीत लिया, तो समस्त संसार जीत लिया। नवदीप जीतकर लौटना मुश्किल था।

अक्सर ऐसा ही होता था कि लोग जीतने आते थे और हारकर नवदीप के शिष्य हो जाते थे। वहां कोई एकाध तार्किक न था, वहां घर-घर तार्किक थे। वह पूरा गांव तार्किकों का था। वहां एक से जीतिये तो दूसरा खड़ा था, वहां दूसरे से जीतिये तो तीसरा खड़ा था। वहां सीढ़ियां-दर-सीढ़ियां थीं। वहां पूरे नवदीप को जीतकर लौटना असंभव था। उस नवदीप में चैतन्य सबसे जीत गया। उस नवदीप में चैतन्य ने झंडा गाड़ दिया और उससे तर्क में कोई जीतने को न रहा और एक दिन यही चैतन्य जब झांझ-मंजीरा लेकर सड़क पर नाचने लगा और इसने कहा, अचिंत्य है सब, तब इसकी बात का बड़ा अर्थ है। यह उसी तर्क की आखिरी परंपरा का हिस्सा है। यह चैतन्य उस तर्क की गहनतम चिंतना, खोज, अन्वेषण, बारीक-से-बारीक समझ के बाद यह कहता है कि हम नासमझ होने को राजी हैं। अब हम समझदार नहीं होना चाहते। अब समझदारी हम छोड़ते हैं और नासमझ हम होते हैं। अब हम नाचेंगे नासमझी से। अब हम तर्क न करेंगे। अब हम तर्क से सत्य को खोजेंगे न, अब हम जियेंगे। तर्क की आखिरी कड़ी पर जीवन शुरू होता है।

ओशो रजनीश



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