श्री कृष्ण स्मृति भाग 105
"भगवान श्री, श्री अरविंद के कृष्ण-दर्शन के बारे में कुछ कहने को बाकी रह गया था। आपने अहमदाबाद में बताया था कि वह बहुत हद तक मानसिक प्रक्षेपण हो सकता है। तो अरविंद का कृष्ण-दर्शन क्या मानसिक प्रक्षेपण है या "मिस्टिक' अनुभूति है?
एक दूसरा प्रश्न भी है--अर्जुन यदि सिर्फ निमित्त मात्र हैं, तो वे यंत्रमात्र रह जाते हैं। उनकी "इंडिविजुअलिटी' का क्या होगा?'
कृष्ण-दर्शन, या क्राइस्ट का दर्शन, या बुद्ध या महावीर का दो प्रकार से संभव है। एक, जिसको "मेंटल प्रोजेक्शन' कहें, मानसिक प्रक्षेपण कहें; जबकि वस्तुतः कोई सामने नहीं होता लेकिन हमारे मन की वृत्ति ही आकार लेती है। जबकि वस्तुतः हमारा विचार ही आकर लेता है। जबकि वस्तुतः हम ही बाहर भी रूप के निर्माता होते हैं। मानसिक प्रक्षेपण, "मेंटल प्रोजेक्शन' से मतलब यह है कि वस्तुतः उस प्रक्षेपण, उस रूप, उस आकृति के पीछे कोई भी नहीं होता। मन की यह भी क्षमता है। मन की यह भी शक्ति है। जैसे रात हम स्वप्न देखते हैं, ऐसे ही हम खुली आंख से भी सपने देख सकते हैं। तो एक तो यह संभावना है।
दूसरी संभावना, कृष्ण-दर्शन की, कृष्ण-रूप के दर्शन की संभावना नहीं है, कृष्ण-आकृति के दर्शन की संभावना नहीं है, दूसरी संभावना कृष्ण-चेतना में डूबे होने की, कृष्ण-चेतना के विस्तार के अनुभव की, कृष्ण-चेतना के साक्षात्कार की संभावना है। जैसा मैंने कल कहा था कि एक तो सागर-रूप कृष्ण और एक लहर-रूप कृष्ण। लहर-रूप कृष्ण का उपयोग उनके सागर-रूप अनुभव के लिए किया जा सकता है। उनके चित्र, उनके प्रतीक, उनकी मूर्ति का उपयोग उनके सागर-रूप दर्शन के लिए किया जा सकता है। लेकिन जब उनका सागर-रूप दर्शन हुआ तब कृष्ण की प्रतिमा विदा हो जाएगी, विलीन हो जाएगी। और कृष्ण की आकृति खो जाएगी, शून्य हो जाएगी। कृष्ण की प्रतिमा का उपयोग हो सकता है उनके विराट दर्शन के प्राथमिक बिंदु की तरह। लेकिन अगर किसी को विराट का तो दर्शन नहीं होता, कृष्ण की प्रतिमा का ही दर्शन होता है, कृष्ण की आकृति का ही दर्शन होता है, तो वह सिर्फ मानसिक प्रक्षेपण है।
तो जिसको कृष्ण-चेतना का दर्शन होगा, उस चेतना का अनुभव आकृति का अनुभव नहीं है। उस चेतना का अनुभव रूप का अनुभव नहीं है। यह सिर्फ नाम की बात होगी कि वैसा आदमी चूंकि कृष्ण को प्रेम करता है, या कृष्ण की आकृति से उसने यात्रा की है, इसलिए इस अनुभव को कृष्ण-चेतना का अनुभव कहेगा। अगर किसी दूसरे आदमी को यही अनुभव हुआ हो--यही होगा अनुभव; बुद्ध की आकृति से भी हो जाएगी, जीसस की आकृति से भी हो जाएगा--तो जीसस से चलने वाला इसको क्राइस्ट का अनुभव कहेगा, कृष्ण से चलने वाला कृष्ण का अनुभव कहेगा, लेकिन यह अनुभव सागर-रूप का है। अरविंद जिस अनुभव की बात कर रहे हैं वह कृष्ण की आकृति और कृष्ण के व्यक्तित्व के अनुभव की बात कर रहे हैं। वे कहते हैं, कृष्ण ही उनके सामने साकार खड़े हैं। ऐसा अनुभव प्रक्षेपण है। "मेंटल प्रोजेक्शन' है। इसका बड़ा सुख है। इसका बड़ा रस है, लेकिन है यह हमारे मन का विस्तार। यह हमारे मन ने ही चाहा है, यह हमारे मन का ही खेल है, यह हमारे मन ने ही फैलाया और जाना है।
मन से हम शुरू कर सकते हैं, अंत नहीं होना चाहिए। मन से हम शुरू करेंगे ही, लेकिन अंत तो अ-मन पर, "नो माइंड' पर होना चाहिए। यह बड़े मजे की बात है कि जहां तक रूप है, वहां तक मन होता है। जहां तक आकृति है, वहां तक मन होता है। जहां तक रूप है, वहां तक मन होता है। जहां रूप और आकृति नहीं होती, वहां मन खो जाता है, वहां मन के होने का उपाय नहीं है। मन का भोजन है आकृति, रूप, सगुणता। अगर सगुण खो जाए तो मन भी खो जाता है। और जिस कृष्ण के दर्शन की मैं बात कर रहा हूं, वह मन के रहते नहीं होगा, वह मन के खोने पर होता है।
तो जिसने भी कभी कहा हो कि हां, मैंने कृष्ण को व्यक्तिरूप में जाना और पहचाना और देखा और मिले, यह वे विराट चेतना के पर्दे पर अपने मन की आकृति को "प्रोजेक्ट' कर रहे हैं। जैसे रात फिल्म के पर्दे पर पीछे "प्रोजेक्टर' होता है, और फिल्म के पर्दे पर चीजें दिखाई पड़नी शुरू हो जाती हैं जो वहां नहीं हैं, वहां सिर्फ कोरा पर्दा है। ऐसे ही हमारे मन का उपयोग हम "प्रोजेक्टर' की भांति कर सकते हैं, करते हैं। लेकिन यह अनुभव आध्यात्मिक अनुभव नहीं है, यह अनुभव "सॉइकिक एक्सपीरियेंस' है, मानसिक अनुभव है। सुख इससे मिलेगा, क्योंकि कृष्ण को जानना, कृष्ण को देख लेना बड़ा तृप्तिदायी होगा। लेकिन यह सुख ही है, यह आनंद नहीं है। और न सत्य की अनुभूति है।
अरविंद पंडित थे, इसलिए अगर मैं कह रहा होऊं कि उनका जो अनुभव है वह "प्रोजेक्शन' है, ऐसी बात नहीं है, अनुभव का जो ढंग है वह "प्रोजेक्शन' का है। अनुभव का जो वे चित्रण कर रहे हैं, जो वर्णन कर रहे हैं, वह "प्रोजेक्शन' का है। और अगर सागर-रूप कृष्ण का अनुभव हो--या सागर-रूप क्राइस्ट का, उसमें बहुत फर्क नहीं पड़ता--तो वह अनुभव कभी खोयेगा नहीं। वह एक बार हुआ कि हुआ। इसके बाद उसके अतिरिक्त कोई अनुभव ही नहीं बचेगा। इसके बाद वृक्षों में, पौधों में, पत्थर में, लोगों में, सब तरफ कृष्ण ही दिखाई पड़ने लगेंगे। लेकिन "प्रोजेक्शन' तो आएगा और चला जाएगा। वह एक क्षण ऊगेगा और खो जाएगा।
यह भी ध्यान लेने जैसी बात है कि "प्रोजेक्शन' का जो अनुभव है, मानसिक चित्रों का जो देख लेना है, उसे अरविंद पंडित होने की वजह से नहीं देख पा रहे हैं। क्योंकि पंडित चित्रों को देखने में असमर्थ होता है। अरविंद की एक और दिशा भी है, वह काव्य की दिशा है। अरविंद पंडित ही नहीं, महाकवि भी हैं। और रवींद्रनाथ से कम हैसियत के कवि नहीं हैं अरविंद। और अगर "नोबल प्राइज' उन्हें नहीं मिल सका तो इसका कारण यह नहीं है कि उन्होंने रवींद्रनाथ से कम हैसियत की कविता लिखी, उसका कुल कारण यह है कि उनकी कविता दुरूह है और समझ में नहीं आ सकी। "सावित्री' दुनिया के श्रेष्ठतम महाकाव्यों में एक है। दस-पांच महाकाव्य उसकी कोटि के महाकाव्य हैं। पंडित तो नहीं देख सकता "प्रोजेक्शन', लेकिन अरविंद का कवि देख सकता है। और अरविंद के भीतर जो कवि की क्षमता है, वही आसान कर देगी उन्हें कि वे कृष्ण को देख लें। उनका कवि-हृदय ही "प्रोजेक्शन' कर पाता है। प्रक्षेपण जो है, वह कवि-हृदय के लिए आसान है। शुष्क तर्क अकेला अगर उनके जीवन में हो तो यह प्रक्षेपण भी नहीं हो सकता। उन्होंने जो अभिव्यक्ति की है अति बुद्धिवादी शब्दों में, इस कारण नहीं कह रहा हूं कि वे सिर्फ जानकार हैं--क्योंकि अभिव्यक्ति तो तर्क के और बुद्धि के शब्दों में करनी ही होती है--लेकिन ये शब्द किसी पार की कोई खबर नहीं लाते, किसी "ट्रांसेंडेंस' की कोई खबर नहीं लाते।
हम शब्दों का प्रयोग दो तरह से कर सकते हैं। एक तो शब्दों का प्रयोग हम ऐसा कर सकते हैं जब कि शब्दों का अर्थ शब्द की सीमा के भीतर होता है। जितना बड़ा शब्द होता है उतना ही बड़ा अर्थ होता है। एक शब्द का प्रयोग हम ऐसा कर सकते हैं, जो कभी-कभी करते हैं, जबकि अर्थ तो बड़ा होता है और शब्द छोटा होता है। अरविंद के साथ उलटा मामला है। उनके शब्द बहुत बड़े हैं, अर्थ बहुत छोटा है। अरविंद बहुत बड़े शब्दों का उपयोग करते हैं। लंबे-लंबे शब्दों का उपयोग करते हैं। शब्द से अर्थ अगर ज्यादा हो, तो "ट्रांसेंड' करता है और "मिस्ट्री' में प्रवेश कर जाता है। और अगर शब्द अर्थ से बहुत बड़ा हो, तो ज्यादा-से-ज्यादा "फिलासफी' में, बल्कि "फिलासफी' भी न कहकर "फिलालाजी' में--दर्शन में भी नहीं, भाषा-शास्त्र में प्रवेश कर जाता है। शब्द से बड़ा अर्थ जब शब्द लेकर चलता है तो गर्भित हो जाता है, "प्रेग्नेंट' हो जाता है। अरविंद का कोई शब्द "प्रेग्नेंट' नहीं है, उसमें कुछ गर्भ नहीं है। उसके पार जाने वाला उसमें कोई सूचक "ऐरो' नहीं है। ऐसा नहीं है कि शब्द हर क्षण शब्द के पार की सूचना दे रहा हो। अरविंद के शब्दों का सारा उपयोग ऐसा है कि शब्द पूरी सूचना दे रहा है जितना उसमें अर्थ है, बल्कि अर्थ से भी ज्यादा। और कारण हैं उसके।
जैसा मैंने सुबह आपसे कहा कि अरविंद का सारा शिक्षण जहां हुआ वहां उन दिनों जैसा विज्ञान पर डार्विन हावी था, ठीक वैसे "फिलासफी' पर हीगल हावी था। हीगल ने बड़े-बड़े शब्दों का प्रयोग किया है, जिनमें अर्थ उतना नहीं है। लेकिन इतने जटिल और बड़े शब्दों का उपयोग किया है कि हीगल को पढ़ते वक्त पहला जो असर पड़ता है वह बहुत "प्रोफाउंडिटी' का है। वह ऐसा लगता है कि बड़ी गहरी बात कही जा रही है। क्योंकि अक्सर हमें जो बात समझ में नहीं आती उसे हम गहरा समझ लेते हैं। वह जरूरी रूप से सच नहीं होती। जो बात समझ में नहीं आती वह जरूरी रूप से गहरी नहीं होती। हालांकि यह जरूर सच है कि जो गहरी होती है, वह आसानी से समझ में नहीं आती। लेकिन इसमें उलटा खेल चल जाता है। तो हीगल ने बड़े कठिन और बड़े दुरूह और लंबे शब्दों का प्रयोग किया है, और जिसको कहना चाहिए बहुत "ब्रेकेटेड लैंग्वेज' का उपयोग किया है। बड़े कोष्ठक पर कोष्ठक लगाए हैं भाषा में। उसकी वजह से बहुत जाल हो गया है और समझना मुश्किल हो गया है। लेकिन जैसे-जैसे "स्कालरशिप' आगे बढ़ी वैसे-वैसे हीगल की प्रतिमा छोटी होने लगी, क्योंकि जितना ही समझ में आया उतना ही पाया कि इस आदमी को कहना बहुत कम है, लेकिन कहता बहुत लंबे रास्तों से है। अरविंद का भी कहने का ढंग हीगलियन है। वे हीगल जैसे ही "सिस्टम मेकर' हैं। तो वह कहते तो बहुत कम हैं, शब्द बड़े उपयोग करते हैं, लंबे उपयोग करते हैं, बहुत लंबा चक्कर लेते हैं।
अभिव्यक्ति तो बुद्धिगत रूप से करनी पड़ेगी, लेकिन अभिव्यक्ति निरंतर ही अपने से पार का इशारा बनती हो तो इस बात की खबर लाती है कि उस आदमी ने शब्दों के पार भी कुछ जाना है। लेकिन सब शब्दों में समा जाता हो, तो इस बात की खबर नहीं मिलती। और फिर, सारा अरविंद को पढ़ जाने के बाद मुंह में जो स्वाद छूट जाता है, वह सिर्फ शब्दों का है। मुंह में जो स्वाद छूट जाता है, वह अनुभव का जरा भी नहीं है। कई बार कोई आदमी बिलकुल न बोले, तो उसकी मौजूदगी भी मुंह में अनुभूति का स्वाद छोड़ सकती है। कई बार कोई बहुत बोले, तो भी मुंह में सिर्फ शब्दों का स्वाद छूट जाता है, अनुभव का कोई स्वाद नहीं छूट पाता है। अभिव्यक्ति तो बुद्धिगत होगी ही, लेकिन जब अनुभूति की अभिव्यक्ति होगी तो वह साथ-साथ बुद्धि को अतीत और अतिक्रमण करने वाली भी होती है। वह हर बार सूचना कर जाती है कि कुछ कहने योग्य था जो नहीं कहा जा सकता है। अरविंद को देखकर ऐसा लगेगा कि जो भी कहने योग्य था जो नहीं कहा जा सकता है। अरविंद को देखकर ऐसा लगेगा कि जो भी कहने योग्य था उससे भी ज्यादा अरविंद कह सके हैं। इससे तो रवींद्रनाथ का मुझे एक स्मरण आता है, उससे आपकी समझ में आए।
रवींद्रनाथ के मरने के कुछ घड़ियों पहले एक मित्र ने रवींद्रनाथ को कहा कि तुमने तो गा लिया जो तुम्हें गाना था, अब तुम शांति से, सुख से, परमात्मा को धन्यवाद देते हुए विदा हो सकते हो। तुम्हें जो करना था वह तुम कर चुके पृथ्वी पर। रवींद्रनाथ ने आंख खोली और कहा कि कैसी गलत बात कह रहे हो! मैं तो यह प्रार्थना कर रहा हूं परमात्मा से कि अभी तो मैं साज जमा पाया था, बिठा पाया था, ठोंक-पीटकर मृदंग को, सितार को तैयार कर पाया था, और यह विदा होने का वक्त आ गया। अभी मैंने गया कहां? अभी जिसको लोगों ने मेरे गीत समझे हैं, वह केवल साज का ठोंकना-पीटना था। अब साज तैयार हो गया और मेरे जाने का क्षण आ गया। अभी मैं वह कह कहां पाया जो मुझे कहना था!
लेकिन अगर कोई अरविंद से कहे, तो अरविंद यह न कह सकेंगे। अरविंद बिलकुल कह चुके हैं जो उन्हें कहना था। बड़े ढंग से और व्यवस्था से कह चुके हैं। अरविंद और रवीन्द्र में मैं कहूंगा कि रवीन्द्र कहीं ज्यादा "मिस्टिक' हैं बजाय अरविंद के। ज्यादा रहस्य की तरफ उनके इशारे हैं। अरविंद के इशारे बहुत साफ हैं, "नान-मिस्टिक' हैं, रहस्य की तरफ नहीं हैं।
एक बात और पूछी है। वह यह पूछी है कि अगर अर्जुन सिर्फ निमित्त मात्र है, और जो होना था वह होना है, जो हो चुका है वही होना है, तो फिर अर्जुन के व्यक्तित्व का क्या होगा? वह तो फिर एक "इन्स्ट्रूमेंट', एक साधन रह जाएगा?
इसे समझने की कोशिश करेंगे तो बड़ी सरलता से कुछ सत्य दिखाई पड़ेंगे। अगर किसी को "इन्स्ट्रूमेंट' बनाया जाए, तो उसका व्यक्तित्व नष्ट होता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति "इन्स्ट्रूमेंट' बन जाए तो उसका व्यक्तित्व खिलता है, नष्ट नहीं होता। अगर कोई दबाव डालकर किसी आदमी को साधन बना दे, तो उस आदमी की आत्मा मर जाती है। लेकिन अगर कोई अपने ही हाथ से समर्पण कर दे और सब छोड़ दे और साधन बन जाए, तो उसकी आत्मा पूरी तरह खिल जाती है। उसका व्यक्तित्व नष्ट नहीं होगा, "फुलफिल्ड' हो जाता है। जो फर्क है असल में वह यह नहीं है। फर्क इतना ही है कि अगर मेरे ऊपर जबर्दस्ती आप हथकड़ियां डाल दें तो मैं गुलाम हो जाता हूं। और अगर मैं हथकड़ियां उठाकर आपको दे दूं और कहूं कि मेरे हाथ में डाल दें, तो मैं गुलामी का भी नियंता हो जाता हूं। मैं अपनी गुलामी का भी निर्धारक हो जाता हूं। मैं निरंतर डायोजनीज की कहानी कहता हूं, वह आपको कहना अच्छा होगा।
डायोजनीज गुजरता है एक जंगल से। नंगा फकीर, अलमस्त आदमी है। कुछ लोग जा रहे हैं गुलामों को बेचने बाजार। उन्होंने देखा इस डायोजनीज को। सोचा कि यह आदमी पकड़ में आ जाए तो दाम अच्छे मिल सकते हैं। और ऐसा गुलाम कभी बाजार में बिका भी नहीं है। बड़ा शानदार है! ठीक महावीर जैसा शरीर अगर किसी आदमी के पास था दूसरे फकीरों में, तो वह डायोजनीज के पास था। मैं तो यह निरंतर कहता ही हूं कि महावीर नग्न इसलिए खड़े हो सके कि वे इतने सुंदर थे कि ढांकने योग्य कुछ था नहीं। बहुत सुंदर व्यक्तित्व था। वैसा डायोजनीज का भी व्यक्तित्व था। गुलामों ने लेकिन सोचा कि हम हैं तो आठ, लेकिन इसको पकड़ेंगे कैसे! यह हम आठ की भी मिट्टी कर दे सकता है। यह अकेला काफी है। मगर फिर भी उन्होंने सोचा कि हिम्मत बांधो। और ध्यान रहे, जो दूसरे को दबाने जाता है वह हमेशा भीतर अपने को कमजोर समझता ही है। वह सदा भयभीत होता है। ध्यान रखें, जो दूसरे को भयभीत करता है, वह भीतर भयभीत होता ही है। सिर्फ वे ही दूसरे को भयभीत करने से बच सकते हैं, जो अभय हैं। अन्यथा कोई उपाय नहीं। असल में वह दूसरे को भयभीत ही इसलिए करता है कि कहीं यह हमें भयभीत न कर दे। मेक्याबेली ने लिखा है, इसके पहले कि कोई तुम पर आक्रमण करे, तुम आक्रमण कर देना; यही सुरक्षा का श्रेष्ठतम उपाय है। तो डरा हुआ आदमी।
वे आठों डर गए। बड़ी गोष्ठी करके, बड़ा पक्का निर्णय करके, चर्चा करके वे आठों एकदम से हमला करते हैं डायोजनीज पर। लेकिन बड़ी मुश्किल में पड़ जाते हैं। अगर डायोजनीज उनके हमले का जवाब देता तो वह मुश्किल में न पड़ते। क्योंकि उनकी योजना में इसकी चर्चा हो गई थी। डायोजनीज उनके बीच में आंख बंद करके हाथ जोड़कर खड़ा हो जाता है और कहता है, क्या इरादे हैं? क्या खेल खेलने का इरादा है? वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं कि अब इससे क्या कहें! उन्होंने कहा कि माफ करें, हम आपको गुलाम बनाना चाहते हैं। डायोजनीज ने कहा, इतने जोर से कूदने-फांदने की क्या जरूरत है! नासमझो, निवेदन कर देते, हम राजी हो जाते। इसमें इतना उछल-कूद, इतना छिपना-छिपाना यह सब क्या कर रहे हो? बंद करो यह सब। कहां हैं तुम्हारी जंजीरें? वे तो बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं। क्योंकि ऐसा आदमी कभी नहीं देखा था जो कहे--कहां हैं तुम्हारी जंजीरें? और इतने डांटकर वह पूछता है जैसे मालिक वह है और गुलाम ये हैं। जंजीरें उन्होंने निकालीं। डरते हुए दे दीं। उसने हाथ बढ़ा दिए और कहा कि बंद करो। और वे कहने लगे, आप यह क्या कर रहे हैं, हम आपको गुलाम बनाने आए थे, आप बने जा रहे हैं। डायोजनीज ने कहा कि हम यह राज समझ गए हैं कि इस जगत में स्वतंत्र होने का एक ही उपाय है और वह यह कि गुलामी के लिए भी दिल से राजी हो जाए। अब हमें कोई गुलाम बना नहीं सकता है। अब उपाय ही न रहा तुम्हारे पास। अब तुम कुछ न कर सकोगे।
फिर वे डरे हुए उसको बांधकर चलने लगे, तो डायोजनीज ने कहा कि नाहक तुम्हें यह जंजीरों का बोझ ढोना पड़ रहा है। क्योंकि उन जंजीरों को उन्हें पकड़कर उन्हें रखना पड़ रहा है। डायोजनीज ने कहा उतारकर फेंक दो। मैं तो तुम्हारे साथ चल ही रहा हूं। एक ही बात का खयाल रखें कि तुम समय के पहले मत भाग जाना, मैं भागने वाला नहीं हूं। तो उन्होंने जंजीरें उतारकर रख दीं, क्योंकि आदमी तो ऐसा ही मालूम हो रहा था। जिसने अपने हाथ में जंजीरें पहनवा दीं, उसको अब और जंजीर बांधकर ले जाने का क्या मतलब था? फिर जहां से भी वे निकलते हैं तो डायोजनीज शान से चल रहा है और जिन्होंने गुलाम बनाया है, वे बड़े डरे हुए चल रहे हैं कि पता नहीं, कोई उपद्रव न कर दे यह किसी जगह पर, कोई सड़क पर, किसी गांव में। और जगह-जगह जो भी देखता है वह डायोजनीज को देखता है और डायोजनीज कहता है, क्या देख रहे हो? ये मेरे गुलाम हैं। ये मुझे छोड़कर नहीं भाग सकते। वह जगह-जगह यह कहता फिरता है कि ये मुझे छोड़कर नहीं भाग सकते, ये मुझसे बंधे हैं। और वे बेचारे बड़े हतप्रभ हुए जा रहे हैं। किसी तरह वह बाजार आ जाए!
वह बाजार आ गया। उन्होंने जाकर किसी से गुफ्तगू की, जो बेचने वाला था, उससे बातचीत की। कहा कि जल्दी नीलाम पर इस आदमी को चढ़ा दो, क्योंकि इसकी वजह से हम बड़ी मुसीबत में पड़े हुए हैं। और भीड़ लग जाती है और लोगों से यह कहता है कि ये मेरे गुलाम हैं, अच्छा, ये मुझे छोड़कर नहीं भाग सकते। अगर हों मालिक, भाग जाएं। तो इसको छोड़कर कहां भागें हम, कीमती आदमी है और पैसा अच्छा मिल जाएगा। तो उसे टिकटी पर खड़ा किया जाता है और नीलाम करने वाला जोर से चिल्लाता है कि एक बहुत शानदार गुलाम बिकने आया है, कोई खरीदार है? तो डायोजनीज जोर से चिल्लाकर कहता है कि चुप, नासमझ! अगर तुझे आवाज लगाना नहीं आता है तो आवाज हम लगा देंगे। वह घबड़ा जाता है, क्योंकि किसी गुलाम ने कभी उस नीलाम करने वाले को इस तरह नहीं डांटा था। और डायोजनीज चिल्लाकर कहता है कि आज एक मालिक इस बाजार में बिकने आया है, किसी को खरीदना हो तो खरीद ले।
जिस "इन्स्ट्रूमेंटालिटी' में, जिस यांत्रिकता में हम यंत्र बनाए जाते हैं, जहां हमारी मजबूरी है, जहां हम गुलाम की तरह हैं, वहां तो व्यक्तित्व मरता है। लेकिन कृष्ण अर्जुन से यह नहीं कह रहे हैं कि तू यंत्रवत बन जा। कृष्ण अर्जुन से यह कह रहे हैं कि तू समझ। इस जगत की धारा में तू व्यर्थ ही लड़ मत। इस धारा को समझ, इसमें आड़े मत पड़, इसमें बह। और तब तू पूरा खिल जाएगा। अगर कोई आदमी अपने ही हाथ से समर्पित हो गया है इस जगत के प्रति, सत्य के प्रति, इस विश्वयात्रा के प्रति, तो वह यंत्रवत नहीं है, वही आत्मवान है। क्योंकि समर्पण से बड़ी और कोई घोषणा अपी मालकियत की इस जगत में नहीं है।
इस बात को थोड़ा ठीक से समझ लेना।
समर्पण से बड़ी घोषणा इस जगत में अपनी मालकियत की और दूसरी नहीं है। क्योंकि अगर मैं समर्पित करता हूं तो इसका मतलब ही यह है कि मैं अपना मालिक हूं और समर्पित कर सकता हूं। तो इससे अर्जुन यंत्रवत नहीं हो जाता, इससे अर्जुन आत्मवान हो जाता है। और उसका व्यक्तित्व पहली दफे पूरी निश्चेष्टा में, "एफर्टलेसली' खिलता है।
ओशो रजनीश
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