श्री कृष्ण स्मृति भाग 106

 "भगवान श्री, हम फिर लौटकर अरविंद के कृष्ण-दर्शन पर आ रहे हैं। आपने बताया कि वह उनका आत्मप्रक्षेपण लगता है। लेकिन, आपने एक बार बताया था कि आज भी लामा-पद्धति के अनुसार एक ऐसा दिन आता है जबकि कुछ अधिकारी लामा बुद्ध के साथ आज भी संपर्क स्थापित करते हैं। एक बार और भी जब आप गांधी पर बोल रहे थे, तब किसी ने आपसे प्रश्न किया था कि ऐसी बात गांधी के संबंध में कैसे कहते हैं? क्या गांधी ने ऐसा कहा? तो आपने कहा था कि मैं यह बात गांधी से पूछकर कह रहा हूं। तीसरी बात और। लामा-पद्धति के बारे में ऐसा भी पढ़ने में आया है कि अब भी तिब्बत में कुछ वर्ष पूर्व तक ऐसे लामा थे जो कि जीवित अवस्था में भी सूक्ष्म-शरीर से दूसरे स्थान पर पहुंचकर स्थूल-रूप से अपने दर्शन देते थे और वापस अपने स्थान पर आ जाया करते थे। इन बातों के बारे में मैं आपसे कुछ जानना चाहता हूं।'


इस संबंध में दोत्तीन बातें समझ लें।

एक तो, ऐसा मैंने कहा है कि बुद्धपूर्णिमा के दिन, जिस हिमालय की शृंखलाओं में हम बैठे हैं, इसी हिमालय के किसी शिखर पर बुद्धपूर्णिमा के दिन एक विशेष घड़ी में बुद्ध के व्यक्तित्व का दर्शन होता है। पांच सौ लामाओं से ज्यादा उस पर्वत शिखर पर कभी नहीं हुए हैं। उन पांच सौ लामाओं में से जब एक कम होता है, तभी एक नए लामा को जगह मिलती है। लेकिन इसमें और कृष्ण के दर्शन में, जो अरविंद को हुए, तभी एक नए लामा को जगह मिलती है। लेकिन इसमें और कृष्ण के दर्शन में, जो अरविंद को हुए, बुनियादी फर्क है। कृष्ण के दर्शन में अरविंद चेष्टारत हैं। इस दर्शन में बुद्ध चेष्टारत हैं, लामा नहीं। लामा सिर्फ मौजूद होते हैं।

इस फर्क को बहुत ठीक से समझ लेना चाहिए।

यह बुद्ध का आश्वासन है कि बुद्धपूर्णिमा के दिन फलां-फलां पर्वत पर रात्रि के इतने क्षणों में वे प्रगट होंगे। यह बुद्ध का सागर-रूप जो है, इस रात की इस घड़ी में फिर लहर बनेगा। लेकिन इसमें लामा कुछ भी नहीं कर रहे हैं। उनका कोई "पार्ट' नहीं है इसमें। एक फर्क।

दूसरा फर्क, अरविंद का दर्शन अकेले में हुआ दर्शन है। "प्रोजेक्शन' में और इसमें बुनियादी फर्क है। ये पांच सौ लोग इकट्ठा दर्शन करते हैं। "प्रोजेक्शन' हमेशा "पर्सनल' होता है। उसमें दूसरे आदमी को "पार्टिसिपेट' नहीं करवाया जा सकता। अगर अरविंद को जिस कृष्ण के दर्शन हो रहे हैं, आप कहें कि हम भी इस कमरे में आ जाएं और हमको भी करवा दें, तो वह कहेंगे, यह नहीं हो सकता। यह मुझको ही होता है, इसको दूसरे आदमी के साथ भागीदारी में नहीं देखा जा सकता। लेकिन पांच सौ व्यक्तियों के सामने जब कोई चीज प्रगट होती है, तो इसको व्यक्ति-मन का "प्रोजेक्शन' नहीं कह सकते। और दूसरी बात यह कि पांच सौ लोग "टैली' करते हैं कि हां ठीक, ठीक घड़ी पर, ठीक समय पर जो दिखाई पड़ा है वह, जो सुनाई पड़ा है वह, इसके पांच सौ गवाह होते हैं। अरविंद के अकेले वह खुद ही गवाह हैं। उससे भी पहले जो मैंने बात कही, उस कृष्ण-दर्शन में अरविंद की सतत चेष्टा है। उसमें पूरा प्रयास है कि कृष्ण का दर्शन कैसे हो! इसमें कोई चेष्टा नहीं है। इसमें एक घड़ी पर एक आश्वासन है, जो पूरा होता है। एक लहर जो पीछे सागर में उठी थी, वायदा कर गई है कि फलां-फलां घड़ी तुम इस तट पर इकट्ठे हो जाना, मैं फिर उठूंगी।

ओशो रजनीश



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